'कविता'1 मेरी नन्हीं कन्या है। लोरियाँ सुनने का उसे बेहद शौक़ है। अब तो वह इन्हें समझने भी लगी है। लोरियों के एक-एक शब्द में वह मातृ-प्रेम की हिलोर पाती है। कितना आकर्षण होता है इन लोरियों में मातृ-प्रेम की इन भोली कविताओं में। साथ ही कितना रस और एक मीठा-सा नशा भी होता है इन लोरियों में, यह कोई कविता से ही पूछे। शायद अभी वह इन सब बातों का उत्तर न दे सके; पर उसका नन्हा-सा दिल लोरियाँ सुनकर अजब अंदाज़ से मुस्करा देता है। सोचता हूँ, कविता ज़रूर लोरियों की गहराई तक पहुँचती है। मुस्कान पर तो प्रत्येक माँ के शिशु का अधिकार होना चाहिए और लोरियों पर भी।
अभी उस दिन कविता ज़िद करने लगी, तो उसकी माँ बोल उठी—कोई कैसे मनाए इस ज़रा-ज़रा-सी बात पर रूठने वाली लड़की को?”
मैंने पास से झट कह दिया—कोई लोरी गा दो कविता को ख़ुश करना कौन-सी बड़ी बात है?
माँ का दिल भी अजब चीज़ है; पर यह दुनिया में कैसे आ गया? अवश्य ही इसकी रचना स्वर्ग में हुई होगी। फिर भगवान् ने सोचा होगा—चलो, इसे भूमि पर भेज दें, ताकि इसके स्पर्श से वहाँ भी एक स्वर्ग बस जाए।
मेरे ज़रा से इशारे से कविता की माँ का ग़ुस्सा दूर हो गया। वात्सल्य उमड़ आया। एक नहीं, चार लोरियाँ आ हाज़िर हुई—
कविता आवे मैं किक्कड़ जाणाँ
कविता दे पैरीं कड़ीयाँ
मैं बाज पछाणाँ
—'कविता आती है, पर मैंने यह कैसे जाना?
कविता ने अपने पैरों में 'कड़ियाँ' पहन रखी हैं।
मैं इन कड़ियों की झनकार पहचानती हूँ।'
कविता आई खेडके
पैंदी आई धुम्म
रोटी दियाँ चोपड़के
चुन्नी लैंदी चुम्म
—कविता खेलकर आई है,
ख़ूब धूमधाम से आई है वह,
मैं उसे घी से चुपड़ी हुई रोटी दूँगी,
उसकी चुनरी को मैं चूम लूँगी?'
सुन नी कविता लोरी
तैनूँ दियाँ गन्ने दी पोरी!
—'सुन री कविता, लोरी सुन
मैं तुझे गन्ने की पोरी दूँगी।'
कविता दी मासी आई ए
दुद्ध-मलाई लियाई ए
—'कविता की मौसी आई है,
वह दूध और मलाई लेती आई है।'
कविता मिठाई के लिए ज़िद कर रही थी। लोरियों में उलझकर वह मिठाई भूल बैठी। अब उसने लोरियों के लिए ज़िद शुरू कर दी, पर ज़िद करने में उसकी माँ भी तो कम नहीं है। वह बोली—कहाँ से सुनाए जाऊँ मैं इसे नित्य नई लोरियाँ? भला, मैं लोरियों की मशीन कैसे बन जाऊँ?
मैंने कहा—लोरियाँ गाने में कौन-सी ताक़त ख़र्च होती है?
जब भी लोरियों की बात चलती है, मैं हमेशा कविता की हिमायत किया करता हूँ। बात असल में यह है कि मुझे स्वयं लोरियों से प्रेम है। उनके सरस स्वर मुझे बचपन के बीते सपनों की याद दिला जाती हैं। कभी-कभी तो मैं यह भी सोचता हूँ कि शायद मेरा अपना बचपन ही पुत्री कविता के रूप में लोरियाँ सुनने के लिए आ हाज़िर हुआ है। लोरियाँ बचपन की चीज़ें हैं? बचपन की भोली देवी अपनी पूजा में लोरियाँ क़बूल करती है। उस समय मुझे बालज़क की एक सूक्ति याद आई—'दुनिया का सबसे मीठा गीत वह लोरी है, जिसे हम बचपन के प्रभात काल में अपनी माँ के मुख से सुनते हैं।'
उधर कविता अपनी ज़िद में सफल हो गई। उसकी माँ का मुस्कराता हुआ मुखड़ा कविता की जीत का साक्षी दे रहा था। मैंने कहा—यदि सुनानी ही है, तो कोई अच्छी-सी लोरी सुना दो।
लोरियाँ सभी अच्छी होती हैं, कभी बुरी नहीं होतीं। मेरी माँ अच्छी लोरियाँ जानती है!— कविता बोल उठी।
अब के उसकी माँ ने यह लोरी गाई—
उड्डु नी चिड़ीए उड्नु वे कावाँ
कविता खेडे नाल भरावाँ।
—'उड़ जा री चिड़िया, उड़ जा रे काग,
कविता खेले भाइयों के साथ।'
मेरे भाई कहाँ है, माँ?” कविता ने झट पूछ लिया।
माँ के होठों पर शर्मीली मुस्कराहट आ गई! पर कविता को भी कुछ उत्तर दिए ही बनता था—
गली मुहल्ले के नन्हें लड़के, जो तेरे साथ खेलने आते हैं, वे सब तेरे भाई हैं, कविता?
और सब लड़कियाँ मेरी बहनें हैं?
हाँ, वे सब तेरी बहनें हैं। कितनी-सयानी होती जा रही है तू! ले, एक लोरी और सुन—
कविता बीबी राणी
सौहरियाँ दे घर जाणी
—'कविता बीबी रानी है,
उसे सुसराल जाना होगा।'
मैंने कहा—यह लोरी मत गाया करो। अभी हमारी बेटी सुसराल नहीं जाएगी।
मैं ज़रा बाहर चला गया था। वापस लौटा, तो देखा कि कविता बदस्तूर गीत सुनने में मग्न है। अब वह यह लोरी सुन रही थी:—
कविता दे बाल गुड़ बंड रखाए
मक्खणाँ दे पाले झुल्ला मध्थे नूं आए।
—'कविता के केश बढ़ाना शुरू करते समय हमने गुड़ बाँटा था,
मक्खन से पाले हुए उसके केश झूलकर मस्तक पर आ गए।'
उस समय मुझे कविता के केश कितने सुंदर लगने लगे—मक्खन से पाले हुए केश! पर मुझे एक मज़ाक सूझा। मैंने कहा—देखो जी, अब गुड़ का ज़माना नहीं रहा। इस लोरी से गुड़ का शब्द निकाल दो अब। इसकी जगह खाँड़ शब्द का प्रयोग करो।
पर कविता बोल उठी—गुड़ कोई बुरा नहीं होता। मैंने बहुत बार खाया है। खाँड़ भी अच्छी होती है। गुड़ भी अच्छा होता है।
गुड़ का ज़िक्र लोरियों में आमतौर पर आता है। अब के कविता की माँ ने जान-बूझकर मुझे खिजाने के लिए ही शायद—यह लोरी गाई—
कविता आवे हट्टीयों
गुड़ कढ्ढीये कोरी मट्टीयों
—'कविता दुकान से आ रही है।
हम कोरी मटकी में से गुड़ निकाल रहे हैं।'
पंजाबी लारियों की विशेषता यही है कि इन्हें गाते समय माँ अपनी संतान के नाम जोड़ती जाती है। इनकी काव्य-धारा निरंतर अपने पथ पर अग्रसर रहती है। जब भी कविता इन्हें सुनती है, उसकी नन्हीं सी जीवन-सरिता में नई मस्ती ला देती है। जाने ये लोरियाँ कितनी पुरानी हैं। पर इनके साथ कविता का नाम जुड़ जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे इनकी रचना कविता के लिए ही हुई है और कविता सदैव इन्हें सुनती रहेगी। वह मचलकर कह उठती है—'माँ, लोरी सुना।' इस समय मेरे सम्मुख मानो शत-शत युगों के विकास-पथ पर अग्रसर होते शिशु के हाथ में वात्सल्य रस की जय-पताका नज़र आने लगती है।
- पुस्तक : बेला फूले आधी रात (पृष्ठ 192)
- रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
- प्रकाशन : राजहंस प्रकाशन
- संस्करण : 1948
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