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परोक्तं नैव मन्यते

paroktan naiv manyte

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

परोक्तं नैव मन्यते

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    आत्माराम ने बार-बार द्विवेदी जी से यह कहा कि आप छापे की भूलों को ग्रंथकार की भूल मत समझा कीजिए। इस सीधी-सी बात के मानने में भी आपको बड़ा कष्ट हुआ। बाबू हरिश्चंद्र की 'नाटक' नाम की एक पुस्तक पर 'रुग्नावस्था' शब्द छप गया है। द्विवेदी जी उस पर टिप्पणी करते हैं। 'पर बाबू साहब का रुग्नावस्था शब्द या तो हिंदी है, या अगर संस्कृत है तो महाभाष्य की रूह से सही है। या अगर नहीं सही है, तो बाबू साहब उसके ज़िम्मेदार नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने लेखों की कापी दुबारा नहीं पढ़ी और प्रूफ़ पढ़ने का तो कुछ ज़िकर ही नहीं। बड़े ग्रंथकारों की चाल ही यही है हमारी इच्छा तो थी कि हम ऐसे कठोर वचन द्विवेदी जी को कहें, पर लाचार होकर कहना पड़ता है कि जिस आदमी की यह समझ है, उसकी दवा ही केवल आत्माराम की लेखनी है। इस प्रकार की समझ रखने वालों को आत्मारामी ढंग से ही उत्तर मिला करता है। क्या बाबू साहब 'रुग्न' और 'रुग्ण' को नहीं जानते थे? उनकी इतनी भारी भूल आप ही की समझ में आई? आप 'भारतमित्र' से एक वाक्य नक़ल करते हैं। 'इन सब दोषों के दूर होने को कोई—उपाय नहीं है।'

    इस वाक्य में श्रीमान द्विवेदी जी 'को' भूल दिखाते हैं। भारतमित्र के संपादक को 'को' और 'का' भेद आपकी समझ में मालूम नहीं। देहात से जो लड़का किसी स्कूल में पढ़ने आता है वह 'को' और 'का' की भूल बता सकता है, पर भारतमित्र का संपादक इतनी भारी भूल को दूसरे के बताए बिना नहीं समझ सकता। द्विवेदी जी की सी लज्जा द्विवेदी जी के ही पास है। आप धन्य हैं। आपकी समझ धन्य है। आप उस वाक्य के 'को' को कंपोज़िटर की भूल मानने पर राज़ी नहीं।

    आपकी ख़ुशनसीबी है कि इंडियन प्रेस बहुत उत्तम छापता है, बहुत शुद्ध छापता है। नहीं तो प्रूफ़ की भूलों के कितने ही हार, फूलों के हारों की भाँति आपको अपने गले में पहनने पड़ते इतने पर भी भूल आपकी 'सरस्वती' में हो जाती है। फ़रवरी की संख्या के 61वें पृष्ठ में 'समालोचक' छपा है। अवश्य ही यह प्रूफ़ की भूल है। 62वें पृष्ठ में 'करत समय' छपा है, ज़रूर वह करते समय है। आपने एक जगह 'मरज' को 'मर्ज' लिखा है। यह बेशक आपकी भूल है, प्रूफ़ की नहीं। 'ज़िक्र को 'जिकर' लिखा है, यह भी आप ही की भूल है। इसमें पहली भूल पक्की भूल और दूसरी कच्ची, क्योंकि हिंदी वाले ज़िक्र को 'जिकर' लिख सकते हैं।

    भाषा के इस प्रकार के नमूने द्विवेदी जी के फ़रवरी वाले लेख में जहाँ-तहाँ मौज़ूद हैं। सबके उद्धृत करने की गुंजाइश नहीं। जो अंश लिख दिए हैं, वही द्विवेदी जी के लिए और सबके लिए क़ाफ़ी है। इन 'चिह्नो' के लिए द्विवेदी जी ने संस्कृत का एक श्लोक उद्धृत किया था। हम उसको द्विवेदी जैसे योग्य पुरुष पर घटाना नहीं चाहते। वरन् कहना चाहते हैं कि गुणी के पास आकर अवगुण भी गुण बन जाते हैं। इससे यही कहना होगा कि गर्व, दुर्वचन, हट, अप्रियवाद आदि दोषों के शुभ दिन आए कि उनको एक गुणी पुरुष ने ग्रहण किया। अब उनकी गिनती अवगुणों में नहीं, गुणों में होगी।—भारतमित्र, 1906 ई.

    जिये सो खेले फाग।

    पाठकों को होली की बधाई॥

    फाग को हिंदू अपने जीवन का सुख मूल समझते आए हैं। जीते जी आनंद पूर्वक होली खेलना हिंदू हृदय की सबसे प्यारी कामना है। इसी से फागन लगते ही हिंदू लोगों का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता और वह गा उठते हैं 'जिये सो खेले फाग।'

    वसंत का मौसम और होली का त्योहार पृथ्वी पर और कहीं है या नहीं, विचारवान विचार सकते हैं। हिंदुओं की इस समय जैसी दास दशा है, उसमें पड़कर अब यह संसार की भली-बुरी बातों पर राय देने के योग्य नहीं रहे। किंतु जो ग़ुलाम नहीं हो गए हैं और जिनके हृदय में स्वाधीन भाव है, वह इस पर राय दें।

    मुसलमानों ने इस देश को कमज़ोर पाकर जीत लिया था और यहाँ के बादशाह बन गए थे। जब कुछ दिन बाद वह इस देश के रीति-रिवाज़ों को जान गए तो होली उन्हें इतनी पसंद आई कि उस पर लट्टू हो गए। मुसलमानी दरबारों में होली की महफ़िलें होती थीं। हिंदू—मुसलमान, अमीर उमराव मिलकर होलियाँ खेलते थे। गुलाल से मुसलमानों की दाढ़ियाँ लाल होती थीं।

    शाहे अवध वाज़िद अली शाह कलकत्ते में मटिया बुर्ज़ में आकर घटती के दिन पूरे कर गए। आप होली पर मोहित थे। लखनऊ की सारी रियासत उनके कारण होलीमय हो जाती। हिंदुओं से बढ़कर मुसलमान ही होलियाँ मनाते, गाते और आनंद मनाते थे। वाज़िद अली शाह की बनाई कितनी होलियाँ अब भी गाई जाती हैं। लखनऊ में आजकल जाइए और इस गिरे समय में भी होली का ठाठ देखिए।

    हमारे हिंदू सहयोगियों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनको होली गोली-सी लगेगी। वह इस पर कुछ निराली तान उड़ावेंगे, पर हमारा लखनवी सहयोग 'अवधपंच' होली के रंग में डूबा हुआ निकलेगा। जब से वह जारी है तब से ही उसका यह है। 'अवधपंच' के इस आचरण से हमारे होली से घबराने वाले भाइयों को शिक्षा लेनी चाहिए। होली मुसलमानों का उत्सव नहीं है, किंतु जिस देश में 'अवधपंच' का जन्म हुआ है, उसका उत्सव है। इसी से अवधपंच उसका आदर करता है।

    विदेशी शिक्षा ने इस देश में लोगों के चित्त पर एक विचित्र भाव उत्पन्न किया है। वह यह है कि अपनी जो कुछ चीज़ें हैं वह सब बुरी हैं और दूसरों की अच्छी। इससे पराई नक़ल करना ही सभ्यता है। किंतु ज़रा आँख खोलकर देखना चाहिए कि जिसकी नक़ल तुम करते हो वह भी तुम्हारी नक़ल करते हैं या नहीं? क्या वह भी अपने त्योहारों पर कुछ आनंद नहीं मनाते? नहीं देखते कि क्रिसमस के समय कृस्तानों को कैसा अपार आनंद होता है? आदमी तो क्या गाड़ी घोड़े और रेल के इंजनों पर क्रिसमस की ख़ुशी छा जाती है।

    सात-आठ सौ वर्ष से मुसलमान इस देश में आए हैं। पहले वह राजा थे। अब हमारी तरह प्रजा हैं। कहिए वह भी कभी हमारे हिंदू सज्जनों की भाँति अपने उत्सव-त्योहारों की निंदा करते हैं? अथवा उनको देखकर कुंठित होते हैं? शबरात, ईद आदि को जाने दीजिए, मुहर्रम ही को यहाँ के मुसलमान कैसा करते हैं। कहाँ के वह लोग जिनका वह त्योहार है और कहाँ भारतवर्ष?

    भोजन में जिस प्रकार नमक दरकार है, शरीर में जीवन धारण के लिए वैसे रक्त दरकार है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य जीवन के लिए हँसी-ख़ुशी भी दरकार है। वहीं शांति से, बड़े साधुभाव से रहने के लिए आनंद और चित्त की प्रसन्नता दरकार है। जो योगीजन समाधि लगाकर बैठते हैं, हृदय के आनंद की चाह उनको भी रहती है। प्रकृति ने जब इस देश में छह ऋतु दी है तो यहाँ के मनुष्यों के शरीर में भी उन सबका प्रभाव होना चाहिए। प्रचंड ग्रीष्म के बाद वर्षा ऋतु आती है। वर्षा के पीछे शरद और हेमंत शिशिर आकर वसंत आती है। क्या इन सब ऋतुओं में कोई एक चाल पर रह सकता है?

    वसंत भारतवर्ष का आनंद है और होली भारतवासियों के हृदय की उमंग। फाल्गुन से आधे चैत तक इस देश के लोग इस उत्सव में समान आनंद मनाते आधे आए हैं। चारों वर्ण के लोग इस उत्सव में समान भाव से आनंद मनाकर अपनी एकता का परिचय देते हैं। इतने भारी मेल-मिलाप का त्योहार दूसरा और नहीं है। जब इस देश के लोगों में स्वाधीनता थी, स्वजातीय प्रेम का भाव था, तभी इस होली की शोभा थी। आज इसमें क्या बाक़ी रहा है? अब भारतवासियों के चित्त की वह स्वाधीनता कहाँ? वह आनंद की इच्छा कहाँ? जो कुछ है, पुराने आनंद की एक नक़ल है। इसे भी मिटाने से क्या रह जाएगा? भारतवासी अब सदा रोग-शोक, क्षुधा तृष्णा ही भोगते हैं। नाना प्रकार से मृत्यु उनको अपना खिलौना बना रही है, ऐसी अवस्था में जो कुछ आनंद है उसे भी दूर मत करो। एक बार सब दुःखों को भूलकर आनंदमय हो जाओ। ऋतुराज तुम्हें आनंद मनाने के लिए उत्साहित करता है। —भारतमित्र, 2 मार्च, 1901 ई.

    विधवा विवाह के हम विरोधी नहीं हैं। पृथ्वी पर कृस्तान, मुसलमान आदि कितनी जातियों के लोग हैं, सब में विधवा विवाह प्रचलित है और सब विधवा विवाह के तरफ़दार हैं। केवल उच्च जाति के हिंदू विधवा विवाह नहीं करते, इसका कारण यही है कि हिंदू धर्म विधवा संस्कार को और दृष्टि से देखता है और दूसरी जाति के लोग दूसरी दृष्टि से। हिंदू धर्म ने भी यथा संभव विधवाओं को दूसरा पति ग्रहण करने की आज्ञा दी है। उसके अनुसार शूद्रवर्ण के हिंदू विधवा विवाह करते हैं। परंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्ण के लोगों के लिए वह आज्ञा नहीं है। अन्यान्य जाति के लोग विवाह को सांसारिक सुख और इंद्रिय तृप्ति की एक वस्तु समझते हैं। इसी से उनमें विधवा को फिर पति प्राप्त करके भी सुख भोग करने का अधिकार है, किंतु हिंदू के पुत्र और कन्या का विवाह सूत्र में बंधे पीछे कुछ और ही संबंध हो जाता है। इस बात को केवल हिंदू ही नहीं, मुसलमान भी समझ गए थे।

    हिंदुओं की इस उच्च भावना का इतना प्रभाव हुआ था कि भारतवर्ष में आकर उच्च कुल के मुसलमानों ने भी विधवा विवाह बंद कर दिया था। मुसलमान भी जान गए थे कि हिंदू की लड़की के विवाह का बाजा एक ही बार बजता है। अब मेरठ से दूसरी बार बाजा बजने की ख़बर आई है इससे मालूम हुआ कि विवाह के विषय में हिंदुओं का वैसा ख़्याल नहीं रहा। जिनके घर विधवा कन्या या बहू है, उसके माता-पिता, सास-ससुर अंगारों पर लोटते हैं, किंतु पुनर्विवाह का विचार उन्हें नरक की यंत्रणा की भाँति असह्य होता है। एक ओर कन्या का दुःख और दूसरी ओर धर्मसंकट! समय अब तू हिंदुओं को किधर ले जाना चाहता है? —भारतमित्र, 6 जुलाई, 1901 ई.

    यदि पढ़े-लिखे लोगों को विचारों की स्वाधीनता का ज़रा भी ध्यान है तो जो हक़ अपने विचार स्वाधीन रखने का पं. श्यामबिहारी मिश्र को है वही श्री वेंकटेश्वर समाचार के संपादक को भी है। क्या मिश्र जी चाहते हैं कि दूसरों के विचार उनके विचारों के साथ बाँध दिए जाए। क्या स्वाधीन विचार का यह अर्थ है कि जो मैं मानता हूँ वही सारी दुनिया ज़बरदस्ती माने। एक बात मिश्र जी ने ऐसी कही है कि जिसे कहकर उन्हें लज्जित होना चाहिए, क्योंकि वह पढ़े-लिखे हैं। आपकी समझ में 'वेंकटेश्वर समाचार का संपादक जो कुछ लिखता है, स्वाधीनता से नहीं लिखता, वरन् मूर्खों को प्रसन्न करने के लिए। कितनी बड़ी गाली है। अगर इसका उत्तर दें तो यों हो सकता है कि पं. श्यामबिहारी मिश्र जो लिखते हैं, वह चंद विधर्मियों को प्रसन्न करने के लिए पर नहीं, यदि हम ऐसा कहें तो उनके अंतःकरण की निंदा करने से अपनी ही निंदा होती है। यदि किसी की राय हमारी राय से नहीं मिलती तो हम कह सकते हैं कि वह नहीं मिलती। यह तो नहीं कहना चाहिए कि उसने बेईमानी से राय दी है। हम यहाँ तक समझते हैं यदि किसी से मत-विरोध हो तो उसका उचित रीतियों से खंडन करना चाहिए। मिश्र जी बीवी विसेंट की हिमायत करते हैं और सेंट्रल हिंदू कालेज के विरुद्ध लिखने से नाराज़ हुए हैं, पर हिंदू धर्म को मिश्र जी के कहने से नहीं छोड़ सकते। इस देश में सात सौ वर्ष मुसलमान लोग राज्य कर गए हैं, कितना ही धर्म विप्लव हो चुका है, धर्म पर दृढ़ रहने वालों के सिर पर तलवारें चल चुकी हैं। तब भी वह नहीं मिटा। इस अँग्रेज़ी (शासन) में भी अभी वह बना हुआ है और हम आशा करते हैं कि बहुत दिन तक वह बना रहेगा। कुछ ऐसा विशेषत्व हिंदू धर्म में है कि जिससे वह कितनी ही विपत्तियाँ झेलकर भी बना रहता है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हिंदुओं का राज्य नहीं है, पर हिंदू धर्म है? संसार में जिनका राज्य गया उनका धर्म साथ-साथ चला गया। हिंदू धर्म दो बार भिन्न धर्मियों से विजित होने तथा कोई एक हज़ार वर्ष पराधीन रहने पर भी जीवित है, उसे क्या मिश्र महाशय एक हिंदू के हृदय से उसका एक अढ़ाई रुपए साल का काग़ज़ ख़रीदकर मिटवा देना चाहते हैं—भारतमित्र, 1904 ई.।

    जिस जाति का सुधार करना है उसकी आँखों में आदर पाए बिना कोई सुधारक सफल मनोरथ नहीं हो सकता। 'हिंदुस्तानी' में भारत के धर्म और समाज की जिस ढंग से आलोचना होती है, उससे ठीक यही जान पड़ता है कि उसका संपादक हिंदुओं से कोई सहानुभूति नहीं रखता और हिंदुओं के धर्म और समाज के विषय में उसका उतना ही ज्ञान है, जितना भारत में बैठे किसी योरोपियन का। सब अपने-अपने धर्म की इज़्ज़त करते हैं। पर सैयद अहमद ख़ाँ ने मुसलमान धर्म के विषय में कितने ही ख़्याल ज़ाहिर किए, पर मस्जिद की इज़्ज़त उनके कलेजे में वैसी ही है। मुसलमान सब एक हैं और समय पर एक-दूसरे की हिमायत को तैयार हैं। अँग्रेज़ों में कितने ही लोग कितनी ही तरह का विचार रखते हैं, पर चर्च की इज़्ज़त के समय सब एक हो जाते हैं, जो लोग समाज में साथ खड़े हो सकते हैं, वही तलवार लेकर भी साथ खड़े हो सकते हैं और वही सब जगह साथ दे सकते हैं। जो धर्म और समाज में साथी नहीं वह राजनीति में साथी होकर क्या कर सकते हैं? जो लोग हिंदुओं के धर्म और समाज संबंधी भावों की अवज्ञा करके हिंदुओं का सुधार करना चाहते हैं, उनका श्रम कहाँ तक सफल हो सकता है, यह उनके विचारने की बात है।

    (लखनऊ से प्रकाशित 'हिंदुस्तानी' द्वारा हिंदुओं के धर्म पर प्रकट किए गए विरोधी विचारों पर उक्त टिप्पणी की गई थी।)

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 138)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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