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नाटकों का प्रारंभ

natkon ka prarambh

जयशंकर प्रसाद

अन्य

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जयशंकर प्रसाद

नाटकों का प्रारंभ

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    कहा जाता है कि 'साहित्यिक इतिहास के अनुक्रम में पहले गद्य तब गीति-काव्य और इस के पीछे महाकाव्य आते हैं'; किंतु प्राचीनतम संचित साहित्य ऋग्वेद छंदात्मक है। यह ठीक है कि नित्य के व्यवहार में गद्य की ही प्रधानता है; किंतु आरंभिक साहित्य सृष्टि सहज में कंठस्थ करने के योग्य होनी चाहिए; और पद्य इसमें अधिक सहायक होते हैं। भारतीय वाङ्मय में सूत्रों की कल्पना भी इसीलिए हुई कि वे गद्य खंड सहज ही स्मृति गम्य रहें। वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य में भी रामायण तथा महाभारत आदि काव्य माने जाते हैं। इन ग्रंथों को काव्य मानने पर, लौकिक साहित्य भी पहले-पहल पद्य ही आए; क्योंकि वैदिक साहित्य में भी ऋचाएँ आरंभ में थीं। फिर तो इस उदाहरण से यह नहीं माना जा सकता कि पहले गद्य, तब गीति काव्य, फिर महाकाव्य होते हैं।

    संस्कृत के आदि काव्य रामायण (वाल्मीकीय) में भी नाटकों का उल्लेख है—बधूनाटकसंधैश्चसंयुक्ताम् सर्वतः पुरीम् (बालकांड सर्ग 5,12)। ये नाटक केवल पद्यात्मक ही रहे हों, ऐसा अनुमान नहीं किया जा सकता। संभवतः रामायण काल के नाटकसंघ बहुत प्राचीन काल से प्रचलित भारतीय वस्तु थे। महाभारत में भी रंभाभिसार के अभिनय का विशद वर्णन मिलता है। तब इन पाठ्य काव्यों से नाट्य काव्य प्राचीन थे, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। भरत के नाट्य-शास्त्र में अमृतमंथन और त्रिपुरदाह नाम के नाटकों का उल्लेख मिलता है। भाष्यकार पतंजलि ने कंस-वध और बलि-बंध नामक नाटकों का उल्लेख किया है। इन प्राचीन नाटकों की कोई प्रतिलिपि नहीं मिलती। संभव है कि अन्य प्राचीन साहित्य की तरह ये सब नाटक नटों को कंठस्थ रहे होंगे। कालिदास ने भी जिन भास, सौमिल्ल और कविपुत्र आदि नाटककारों का उल्लेख किया है, उनमें से अभी केवल भास के हो नाटक मिले हैं, जिन्हें कुछ लोग ईसा से कई शताब्दी पहले का मानते हैं। नाटकों के संबंध में लोगों का यह कहना है कि उनके बीज वैदिक संवादों में मिलते हैं। वैदिक काल में भी अभिनय संभवतः बड़े-बड़े यज्ञों के अवसर पर होते रहे। एक छोटे से अभिनय का प्रसंग सोमयाग के अवसर पर आता है। इसमें तीन पात्र होते थे—यजमान, सोम विक्रेता और अध्वर्यु। यह ठीक है कि यह याज्ञिक क्रिया है, किंतु है अभिनय सी ही। क्योंकि सोम रसिक आत्मवादी इंद्र के अनुयायी इस याग की योजना करते रहे। सोम राजा का क्रय समारोह के साथ होता। सोम राजा के लिए पाँच बार मोल-भाव किया जाता। सोम बेचने वाले प्रायः बनवासी होते। उनसे मोल-भाव करने में पहले पूछा जाता—

    'सोम विक्रयी! सोम राजा बेचोगे?'

    'बिकेगा।'

    'तो लिया जाएगा।'

    'ले लो।'

    'गौ की एक कला से उसे लूँगा।'

    'सोम राजा इस से अधिक मूल्य के योग्य हैं।'

    'गौ भी कम महिमा वाली नहीं। इसमें मट्ठा, दूध, घी सब है।

    ‘अच्छा आठवाँ भाग ले लो।'

    'नहीं सोम राजा अधिक मूल्यवान है।'

    'तो चौथाई लो।'

    'नहीं और मूल्य चाहिए।'

    'अच्छा आधी ले लो।'

    'अधिक मूल्य चाहिए।'

    'अच्छा पूरी गौ ले लो भाई।'

    'तब सोम राजा बिक गए; परंतु और क्या दोगे? सोम का मूल्य समझ कर और कुछ दो।'

    'स्वर्ण लो, कपड़े लो, छाग लो, गाय के जोड़े, बछड़े वाली गौ, जो चाहो सब दिया जाएगा।' (यह मानो मूल्य से अधिक चाहने वाले को भुलावा देने के लिए अध्वर्यु कहता था)

    फिर जब बेचने के लिए वह प्रस्तुत हो जाता, तब सोम विक्रेता को सोना दिखलाकर ललचाते हुए निराश किया जाता। यह अभिनय कुछ काल तक चलता। ‘सम्मेत इति सोम विक्रयिणं हिरण्येनाभि कंपयति’ सूत्र की टीका में कहा गया है ‘हिरण्यं दत्त्वा दत्त्वा स्वीकुर्वस्तं निराशं कुर्यात्’। उस जंगली को छकाकर फिर वह सोना अध्वर्यु यजमान के पास रख देता; और उसे एक बकरी दी जाती। संभवतः सोना भी उसे दे दिया जाता। तब सोम विक्रेता यजमान के कपड़े पर सोम डाल देता। सोम मिल जाने पर यजमान तो कुछ जप करने बैठ जाता। जैसे अब उससे सोम के झगड़े से कोई संबंध नहीं। सहसा परिवर्तन होता—हिरण्यं सहसाऽच्छिय ‘पृषता वरत्राकांडेनाहंतिवा (7-8-25 कात्यायन श्रौत सूत्र)। सोम-विक्रेता से सहसा सोना छीन कर उस की पीठ पर कोड़े लगाकर उसे भगा दिया जाता। इसके बाद सोम राजा गाड़ी पर घुमाए जाते; फिर सोम रस के रसिक आनंद और उल्लास के प्रतीक इंद्र का आवाहन किया जाता। भरत ने भी लिखा है कि—

    महानयं प्रयोगस्य समयः समुपस्थितः

    अयं ध्वजमहः श्रीमान्महेंद्रस्य प्रवर्तते।

    देवासुर संग्राम के बाद इंद्रध्वज के महोत्सव पर देवताओं के द्वारा नाटक का आरंभ हुआ। भरत ने नाट्य के साथ नृत्त का समावेश कैसे हुआ इसका भी उल्लेख किया है। कदाचित् पहले अभिनयों में—जैसा कि सोमयाग प्रसंग पर होता था—नृत्त की उपयोगिता नहीं थी; किंतु वैदिक काल के बाद जब आगमवादियों ने रस सिद्धांत वाले नाटकों को अपने व्यवहार में प्रयुक्त किया तो परमेश्वर के तांडव के अनुकरण में, उसकी संवर्धना के लिए, नृत्त में उल्लास और प्रमोद की पराकाष्ठा देखकर नाटकों में इस की योजना की। भरत ने भी कहा है—

    प्रायेण सर्व लोकस्य नृत्तमिष्टं स्वभावतः(4-272)।

    परमेश्वर के विश्वनृत्त की अनुभूति के द्वारा नृत्त को उसी के अनुकरण में आनंद का साधन बनाया गया। भरत ने लिखा है कि त्रिपुरदाह के अवसर पर शंकर की आज्ञा से तांडव की योजना इसमें की गई। इन बातों से निष्कर्ष यह निकलता है कि नृत्त पहले बिना गीत का होता था, उसमें गीत और अभिनय की योजना पीछे से हुई। और इसे तब नृत्य कहने लगे। इनका और भी एक भेद है। शुद्ध नृत्त में रेचक और अंगहार का ही प्रयोग होता था। गान वाद्य तालानुसार भौंह, हाथ, पैर और कमर का कंपन नृत्य में होता था। तांडव और लास्य नाम के इस के दो भेद और हैं। कुछ लोग समझते हैं कि तांडव पुरुषोचित और उद्धत नृत्य को ही कहते हैं; किंतु यह बात नहीं, इसमें विषय की विचित्रता है। तांडव नृत्य प्रायः देव संबंध में होता था। ‘प्रायेण तांडवविधिर्देवस्तुत्याश्चयो भवेद्।’ (4-275) और लास्य अपने विषय के अनुसार लौकिक तथा सुकुमार होता था। नाट्य शास्त्रों में लास्य के जिन दश अंगों का वर्णन किया गया है वे प्रयोग में ही भिन्न नहीं होते थे, किंतु उनके विषयों की भी भिन्नता होती थी। इस तरह नृत्त, नृत्य, तांडव और लास्य, प्रयोग और विषय के अनुसार, चार तरह के होते थे। नाटकों में इन सब भेदों का समावेश था। ऐसा जान पड़ता है कि आरंभ में नृत्य की योजना पूर्व-रंग में देव स्तुति के साथ होती थी। अभिनय के बीच-बीच में नृत्य करने की प्रथा भी चली। अत्यधिक गीत नृत्य के लिए अभिनय में भरत ने मना भी किया है। ‘गीत वाद्ये नृत्तेच प्रवृत्तेऽति प्रसंगतः। खेदो भवेत् प्रयोक्तृणां प्रेक्षकाणाम् तथैव च।’

    नाट्य के साथ नृत्य की योजना ने अति प्राचीन काल में ही अभिनय को संपूर्ण बना दिया था। बौद्ध काल में भी वह अच्छी तरह भारत भर में प्रचलित था। विनयपिटक में इसका उल्लेख है कि कीटागिरि की रंग-शाला में संघाटी फैला कर नाचने वाली नर्तकी के साथ, मधुर आलाप करने वाले और नाटक देखने वाले अश्वजित् पुनर्वसु नाम के दो भिक्षुओं को प्रव्राजनीय दंड मिला और वे बिहार से निर्वासित कर दिए गए। (चुल्ल बग्ग)

    रंगशाला के आनंद को दुःखवादी भिक्षु निंदनीय मानते थे। यद्यपि गायन और नृत्य प्राचीन वैदिक काल से ही भारत में थे (यस्यां गायंति नृत्यंति भूम्यां, पृथ्वी सूक्त) किंतु अभिनय के साथ इन की योजना भी भारत में प्राचीन काल से ही हुई थी। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि भारत में अभिनय कठपुतलियों से आरंभ हुआ; और तो महावीरचरित ही छाया नाटक के लिए बना। उसमें तो भवभूति ने स्पष्ट ही लिखा है—‘ससंदर्भों अभिनेतव्यः’। कठपुतलियों का भी प्रचार संभवतः पाठ्य काव्य के लिए प्रचलित किया गया। एक व्यक्ति काव्य का पाठ करता था और पुतलियों के छाया चित्र उसीके साथ दिखलाए जाते थे। मलाबार में अब भी कंबर के रामायण का छाया नाटक होता है। कठपुतलियों से नाटक आरंभ होने की कल्पना का आधार सूत्रधार शब्द है। किंतु सूत्र के लाक्षणिक अर्थ का ही प्रयोग सूत्रधार और सूत्रात्मा जैसे शब्दों में मानना चाहिए। जिसमें अनेक वस्तु प्रथित हों और जो सूक्ष्मता से सब में व्याप्त हो उसे सूत्र कहते हैं। कथावस्तु और नाटकीय प्रयोजन के सब उपादानों का जो ठीक-ठीक संचालन करता हो वह सूत्रधार आज कल के डाइरेक्टर की ही तरह का होता था।

    संभव है कि पटाक्षेप और जवनिका आदि के सूत्र भी उसी के हाथ में रहते हों। सूत्रधार का अवतरण रंगमंच पर सब से पहले रंग पूजा और मंगल पाठ के लिए होता है। कथा या वस्तु की सूचना देने का काम स्थापक करता था। रंगमंच की व्यवस्था आदि में यह सूत्रधार का सहकारी रहता था। किंतु नाटकों में ‘नांद्यंते सूत्रधारः’ से जान पड़ता है कि पीछे लाघव के लिए सूत्रधार ही स्थापक का भी काम करने लगा।

    हाँ, अभिनवगुप्त ने गद्य-पद्य मिश्रित नाटकों से अतिरिक्त राग काव्य का भी उल्लेख किया है। (अभिनव भारती अध्याय 4) राघव विजय और मारीच वध नाम के राग काव्य ठक्क और ककुभ राग में कदाचित् अभिनय के साथ वाद्यताल के अनुसार गाए जाते थे। ये प्राचीन राग-काव्य ही आजकल की भाषा में गीतिनाट्य कहे जाते हैं। इस तरह अति प्राचीन काल में ही नृत्य अभिनय से संपूर्ण नाटक और गीति-नाट्य भारत में प्रचलित थे। वैदिक, बौद्ध तथा रामायण और महाभारत काल में नाटकों का प्रयोग भारत में प्रचलित था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 502)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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