नाटक
naatk
नोट
नाटक - नाट्यशास्त्रीय सिद्धांतों के विवेचन से युक्त यह पुस्तक सन् 1883 में मेडिकल हाल प्रेस बनारस से प्रकाशित हुई।
अथवा
दृश्यकाव्य
सिद्धांत विवेचन
उपक्रम
मुद्राराक्षस का जब मैंने अनुवाद किया, तब यह इच्छा थी कि नाटकों के वर्णन का विषय भी इसके साथ दिया जाए; किंतु एक तो ग्रंथ के बढ़ने के भय से, दूसरे कई मित्रों के अनुरोध से यह विषय स्वतंत्र, पुस्तकाकार मुद्रित हुआ। इसके लिखित विषय दशरूपक, भारतीय नाट्यशास्त्र, साहित्यदर्पण, काव्यप्रकाश, विल्सन्स हिंदू थिएटर्स, लाईफ आव दि एमिनेंट परसन्स, ड्रामेटिस्ट्स एंड नोवेलिस्ट, हिस्टी दि इटालिक थिएटर्स और आर्य दर्शन से लिए गए हैं। आशा है कि हिंदी भाषा में नाटक बनाने वालों का यह ग्रंथ बहुत ही उपयोगी होगा। एक तो मनुष्य बुद्धि ही भ्रामात्मिका है, दूसरे मेरी ठीक रुग्णावस्था में यह विषय लिखा गया है, इससे बहुत सी अशुद्धियाँ संभव हैं। आशा है कि सज्जनगण गुणमात्र ग्रहण करके मेरा काम सफल करेंगे। इसके निर्माण से मुझको जिससे सहायता मिली है, उसको धन्यवाद देने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि दक्षिण हस्त के परिवर्त में वाम हस्त जो कार्य करे, वह भी निजकृत ही है।
चैत्र शुक्ला 15, संवत् 1940
हरिश्चंद्र
समर्पण
हे मायाजवनिकाच्छन्न! जगन्नाटक-सूत्रधार! मदंगरंग नायक! नटनागर!
जिसने इसे इतने बड़े संसार-नाटक को रचकर खड़ा किया है, जगदन्तः पाती वस्तुमात्र उसी को समर्पणीय है, विशेषकर नाटक संबंधी और वह भी उसी के एक अभिमानी जन का।
नाथ! आज एक सप्ताह होता कि मेरे इस मनुष्य जीवन का चंद्र अंक हो चुकता, किंतु न जाने क्या सोचकर और किस पर अनुग्रह करके उसकी आज्ञा नहीं हुई। नहीं तो यह ग्रंथ प्रकाश भी न होने पाता। यह भी आप ही का खेल है कि आज इसके प्रकाश का दिन आया। जब प्रकाश होता है तो समर्पण भी होना अवश्य हुआ। अतएव—
त्वदीयं वस्तु गोविन्द! तुभ्यमेव समर्पये।
अपनाए हुए की वस्तु समझकर अंगीकार कीजिए।
यद्यपि संसार के कुरोग से मन प्राण तो नित्य ग्रस्त था ही, किंतु चार महीने से शरीर से भी रोगग्रस्त है।
तुम्हारा—
हरिश्चन्द्र।
बपु लख चौरासी सजे नट सम रिझवन तोहि।
निरखि रीझि गति देहु कै खीझि निवारहु मोहि॥
कृष्ण त्वदीयपदपंकजपंजराते, अद्यैव विशतु मानस राजहंसः।
प्राणप्रयाण समये कफवातपित्तैः, कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कृतस्ते।
चैत्र शुक्ला पूर्णिमा
महारास की समाप्ति
संवत् 1940
नाटक
अथवा
दृश्यकाव्य
'नाटक' शब्द का अर्थ है, नट लोगों की क्रिया। नट कहते हैं, विद्या के प्रभाव से अपने या किसी वस्तु के स्वरूप को बदल कर प्रस्तुत करने वाले को, या स्वयं दृष्टि रोचन के अर्थ फिरने को। नाटक में पात्रगण अपना स्वरूप परिवर्तन करके राजादिक का स्वरूप धारण करते हैं या वेषविन्यास के पश्चात् रंगभूमि में स्वकीय कार्यसाधन के हेतु फिरते हैं। काव्य दो प्रकार के हैं—दृश्य और श्रव्य। दृश्यकाव्य वह है, जो कवि की वाणी को उसके हृदयगत आशय और हाव-भाव सहित प्रत्यक्ष दिखला दे, जैसा कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भ्रमर के आने पर शकुंतला की सुधि चितवन से कटाक्षों का फेरना जो लिखा है, उसको प्रथम चित्रपटी द्वारा उस स्थान का शकुंतला वेषसज्जित स्त्री द्वारा उसके रूप-यौवन और वनोचित शृंगार का, उसके नेत्र, सिर हस्तचालनादि द्वारा उसके अंगभंगी और हाव-भाव का; तथा कवि-कथित वाणी के उसी के मुख से कथन द्वारा काव्य का, दर्शकों के चित्त पर खचित कर देना ही दृश्यकाव्यत्व है। यदि श्रव्यकाव्य द्वारा ऐसी चितवन का वर्णन किसी से सुनिए या ग्रंथ में पढ़िए, तो जो काव्य-जनित आनंद होगा, यदि कोई प्रत्यक्ष अनुभव करा दे तो उससे चतुर्गुणित आनंद होता है। दृश्य काव्य की संज्ञा रूपक है। रूपकों में नाटक ही सबसे मुख्य है। अतः रूपक मात्र को नाटक कहते हैं। इसी विद्या का नाम कुशीलवशास्त्र भी है। ब्रह्मा, शिव, भरत, नारद, हनुमान, व्यास, वाल्मीकि, लव-कुश, श्रीकृष्ण, अर्जुन, पार्वती, सरस्वती और तुम्बुरु आदि इसके आचार्य हैं। इनमें भरतमुनि इस शास्त्र के मुख्य प्रवर्तक हैं।
अर्थ भेद
नाटक शब्द की अर्थग्राहिता यदि रंगस्थ खेल ही में की जाए, तो हम इसके तीन भेद करेंगे। काव्यमिश्र, शुद्धकौतुक और भ्रष्ट। शुद्धकौतुक यथा, कठपुतली या खिलौने आदि से सभा इत्यादि का दिखलाना, गूँगे-बहरे का नाटक, बाजीगरी या घोड़े के तमाशे में संवाद, भूत-प्रेतादि की नक़ल और सभ्यता की अन्यान्य दिल्लगियों को कहेंगे। भ्रष्ट अर्थात् जिनमें अब नाटकत्व नहीं शेष रहा है यथा भाँड़, इंद्रसभा, रास, यात्रा, लीला और झाँकी आदि। पारसियों के नाटक, महाराष्ट्रों के खेल आदि यद्यपि काव्यमिश्र हैं, तथापि काव्यहीन होने के कारण वे भी भ्रष्ट ही समझे जाते हैं। काव्यमिश्र नाटकों को दो श्रेणी में विभक्त करना उचित है—प्राचीन और नवीन।
अर्थ प्राचीन
प्राचीन समय में 'अभिनय' नाट्य, नृत्य, नृत्त, तांडव और लास्य इन पाँच भेदों में बँटा हुआ था। इनमें नृत्य भावसहित नाचने को, नृत्त केवल नाचने को और तांडव तथा
लास्य भी एक प्रकार के नाचने ही को कहते हैं। इससे केवल नाट्य में नाटक आदि का समावेश होगा; शेष चारों नाचने वालों पर छोड़ दिए जाएँगे। 'नाट्य' रूपक और उपरूपक दो भेदों में बँटा है। रूपक के दस भेद हैं। यथा—
1. नाटक
काव्य के सर्वगुण संयुक्त खेल को नाटक कहते हैं। इसका नायक कोई महाराजा (जैसा दुष्यंत) या ईश्वरांश (जैसा श्रीराम) या प्रत्यक्ष परमेश्वर (जैसा श्रीकृष्ण) होना चाहिए। 'रस' शृंगार या वीर। अंक पाँच के ऊपर और दस के भीतर। आख्यान मनोहर और अत्यंत उज्ज्वल होना चाहिए। उदाहरण शाकुंतल, वेणीसंहार आदि।
2. प्रकरण
यह सामान्यतः नाटक के तुल्य होना चाहिए; किंतु इसका उपाख्यान लौकिक हो। नायक कोई मंत्री धनी या ब्राह्मण हो। इसकी नायिका मंत्रिकन्या, किसी के घर में आश्रित भाव से रहने वाली, या वेश्या हो। प्रथमावस्था में शुद्ध और द्वितीयावस्था में प्रकरण की संकर संज्ञा होती है। उदाहरणतया मल्लिकामारुत, मालतीमाधव और मृच्छकटिक।
3. भाण
भाण में एक ही अंक होता है। इसमें नट ऊपर देख-देखकर जैसे किसी से बात करे आप ही सारी कहानी कह जाता है। बीच में हँसना, गाना, क्रोध करना, गिरना इत्यादि स्वयं ही दिखलाता है। इसका उद्देश्य हँसी, भाषा उत्तम और बीच-बीच में संगीत भी होता है। उदाहरणतया 'विषस्य विषमौषधम्।'
4. व्यायोग
युद्ध का निदर्शन, स्त्री पात्र रहित और एक ही दिन की कथा का होता है। नायक कोई अवतार1 या वीर होना चाहिए। ग्रंथ नाटक की अपेक्षा छोटा होता है, जैसे—‘धनंजय विजय।’
5. समवकार
यह तीन अंक में हो। इसमें 12 नायक हो सकते हैं। कथा दैवी हो। छंद वैदिक हों। युद्ध, आश्चर्य, माया इत्यादि इसमें दिखलाई जाती हैं। उदाहरण 'समुद्रमन्थन' है।
6. डिम
यह भी वैसा ही, किंतु इसमें उपद्रव दर्शन विशेष होता है। अंक चार, नायक देवता या दैत्य का अवतार। जैसे—'त्रिपुरदाह'।
7. ईहामृग
चार अंक, नायक ईश्वर या अवतार। नायिका देवी। प्रेम इत्यादि वर्णित होता है। नायिका द्वारा युद्धादि कार्य संपादन होता है। जैसे-कुसुमशेखरविजयादि।
8. अंक
एक ही अंक में खेल दिखलाना। नायक गुणी और आख्यान प्रसिद्ध हो। जैसे—शर्मिष्ठाययाति।
9. वीथी
भाण की भाँति एक अंक में। इसमें दो पुरुष आकर बात कर सकते हैं। अपनी वार्ता में विविध भाव द्वारा किसी का प्रेम वर्णन करेंगे, किंतु हँसाते जाएँगे। जैसे—मालविका।
10. प्रहसन
हास्यरस का मुख्य खेल। 'नायक' राजा या धनी या ब्राह्मण या धूर्त कोई हो। इसमें अनेक पात्रों का समावेश होता है। यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही अंक होना चाहिए, किंतु अब अनेक दृश्य दिए बिना नहीं लिखे जाते। उदाहरण—हास्यार्णव, वैदिकी हिंसा, अँधेर नगरी तथा धूर्तचरितम् इत्यादि।
महानाटक
नाटक के लक्षणों से पूर्ण ग्रंथ यदि दस अंकों में पूर्ण हो तो उसको महानाटक कहते हैं।
अथ उपरूपक
उपरूपक के अठारह भेद हैं। यथा नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेखण, रासक, संलापक, श्रीगदित (श्रीरासिका) शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिका, हल्लीश और भाणिका।
नाटिका
नाटिका में चार अंक होते हैं और स्त्री पात्र अधिक होते हैं। नाटिका की नायिका कनिष्ठा होती है, अर्थात् नाटिका के नायक की पूर्व प्रणयनी के वश में रहती है।
जैसे—रत्नावली, चंद्रावली इत्यादि।
त्रोटक
इसमें सात-आठ नौ या पाँच अंक होते हैं और प्राय: प्रति अंक में विदूषक होता है। नायक दिव्य मनुष्य होता है। जैसे—विक्रमोर्वशी।
गोष्ठी
नौ या दस साधारण मनुष्य और पाँच छः स्त्री जिसमें हों तथा कैशिकी वृत्ति तथा एक ही अंक हो। उसे गोष्ठी कहते हैं।
सट्टक
जो सब प्राकृत में हो और प्रवेषक विष्कम्भक जिसमें न हों तथा शेष सब नाटिका की भाँति हो वह सट्टक है। उदाहरणतया कर्पूरमंजरी।
नाट्यरासक
इसमें एक अंक, नायक उदात्त, नायिका वासकसज्जा, पीठमर्द उपनायक और अनेक प्रकार के गान नृत्य होते हैं।
अथ शेष उपरूपक
इस प्रकार थोड़े-थोड़े भेद में और भी शेष उपरूपक होते हैं। न तो सबों के भाषा में उदाहरण हैं, न इन सबों का काम ही विशेष पड़ता है, इससे सविस्तार वर्णन नहीं किया गया।
भरत मुनि ने उपरूपकों के भेद नहीं लिखे हैं। दस प्रकार के रूपक लिखकर नाटक के दो भेद और माने हैं। यथा नाटिका और त्रोटक। 'मल्लिकामारुत' प्रकरणकार दंडी कवि रूपकमात्र को मिश्रकाव्य नाम से व्यवहृत करते हैं।
अथ नवीन भेद
आजकल यूरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन भी चुके हैं, वह सब नवीन भेद में परिगणित हैं। प्राचीन की अपेक्षा नवीन की परम मुख्यता बारंबार दृश्यों के बदलने में है और इसी हेतु एक अंक में अनेक गर्भाकों की कल्पना की जाती है; क्योंकि इस समय में नाटक के खेलों के साथ विविध दृश्यों का दिखलाना भी आवश्यक समझा गया है। इस अंक और गर्भाकों की कल्पना यों होनी चाहिए, यथा पाँच वर्ष के आख्यान का एक नाटक है, तो उसमें वर्ष-वर्ष के इतिहास के एक-एक अंक और उस अंक के अंत:पाती विशेष-विशेष समयों के वर्णन का एक-एक गर्भाक। अथवा पाँच मुख्य घटनाविशिष्ट कोई नाटक है, तो प्रत्येक घटना के संपूर्ण वर्णन का एक-एक अंक और भिन्न-भिन्न स्थानों में विशेष घटनांतः पाती छोटी-छोटी घटनाओं के वर्णन में एक एक गर्भाक। ये नवीन नाटक मुख्य दो भेदों में बँटे हैं—एक नाटक, दूसरा गीतिरूपक। जिनमें कथा भाग विशेष और गीति न्यून हों वह नाटक और जिनमें गीति विशेष हों वह गीतिरूपक। यह दोनों कथाओं के स्वभाव से अनेक प्रकार के हो जाते हैं किंतु, उनके मुख्य भेद इतने किए जा सकते हैं यथा—1. संयोगांत—अर्थात्
प्राचीन नाटकों की भाँति जिसकी कथा संयोग पर समाप्त हो। 2. वियोगांत जिसकी कथा अंत में नायिका या नायक के मरण या और किसी आपद घटना पर समाप्त हो। (उदाहरण 'रणधीर प्रेममोहिनी') 3. मिश्र—अर्थात् जिसके अंत में कुछ लोगों का तो प्राणवियोग हो और कुछ सुखे पावें।
इन नवीन नाटकों की रचना के मुख्य उद्देश्य ये होते हैं, यथा—1. शृंगार 2. हास्य 3. कौतुक 4. समाजसंस्कार 5. देशवत्सलता। शृंगार और हास्य के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, जगत में प्रसिद्ध हैं। कौतुकविशिष्ट वह है, जिसमें लोगों के चित्तविनोदार्थ किसी यंत्रविशेष द्वारा या अन्य किसी प्रकार अद्भुत घटना दिखाई जाए। समाजसंस्कार के नाटकों में देश की कुरीतियों का दिखलाना मुख्य कर्तव्य कर्म है। यथा शिक्षा की उन्नति, विवाह संबंधी कुरीतिनिवारण अथवा धर्म संबंधी अन्यान्य विषयों में संशोधन इत्यादि। किसी प्राचीन कथाभाग का इस बुद्धि से संगठन कि देश की उससे कुछ उन्नति हो, इसी प्रकार के अंतर्गत है। (इसके उदाहरण सावित्रीचरित्र, दुःखिनीबाला, बाल्यविवाहविदूषक, जैसा काम वैसा ही परिणाम, जय नारसिंह की, चक्षुदान इत्यादि।) देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढ़ने वालों या देखने वालों के हृदय में स्वदेशानुराग उत्पन्न करना है और ये प्रायः करुण और वीररस के होते हैं। (जैसे—भारतजननी, नीलदेवी, भारत दुर्दशा इत्यादि)। इन पाँच उद्देश्यों को छोड़कर वीर, सख्य इत्यादि अन्य रसों में भी नाटक बनते हैं।
अथ नाटक रचना
प्राचीन समय में संस्कृत भाषा में महाभारत आदि का कोई प्रख्यात वृत्तांत अथवा कवि-प्रौढ़ोक्ति सम्भूत, किम्वा लोकाचार संघटित, कोई कल्पित आख्यायिका का अवलम्बन करके, नाटक प्रभृति दशविध रूपक और नाटिका प्रभृति अष्टादश प्रकार के उपरूपक लिपिबद्ध होकर, सहृदय सभासद लोगों की तात्कालिक रुचि अनुसार, उक्त नाटक, नाटिका प्रभृति दृश्यकाव्य किसी राजा की अथवा राजकीय उच्चपदाभिषिक्त लोगों की नाट्यशाला में अभिनीत होते थे।
प्राचीनकाल के अभिनयादि के संबंध में तात्कालिक कवि लोगों की और दर्शक मंडली की जिस प्रकार रुचि थी, वे लोग तदनुसार ही नाटकादि दृश्यकाव्य रचना करके सामाजिक लोगों का चित्तविनोद कर गए हैं; किंतु वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रुचि उस काल की अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है। इससे संप्रति प्राचीन मत अवलम्बन करके नाटक आदि दृश्यकाव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता।
जिस समय में जैसे सहृदय जन्म ग्रहण करें और देशीय रीति, नीति का प्रवाह जिस रूप से चलता रहे, उस समय में उक्त सहृदय गण के अंतःकरण की वृत्ति और सामाजिक रीति इन दोनों विषयों की समीचीन समालोचना करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना योग्य है।
नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयत करना हो, तो प्राचीन समस्त रीति का ही परित्याग करे, यह आवश्यक नहीं है; क्योंकि जो सब प्राचीन रीति या पद्धति आधुनिक सामाजिक लोगों की मतपोषिका होंगी, वह सब अवश्य ग्रहण होंगी। नाट्यकला कौशल दिखलाने को देशकाल और पात्रगण के प्रति विशेष रूप से दृष्टि रखनी उचित है। पूर्वकाल में लोकातीत असंभव कार्य की अवतारणा सभ्यगण को जैसी हृदयहारिणी होती थी, वर्तमान काल में नहीं होती।
अब नाटकादि दृश्यकाव्य में अस्वाभाविक सामग्री परिपोषक काव्य, सहृदय मंडली को नितांत अरुचिकर है, इसलिए स्वाभाविक रचना ही इस काल के सभ्यगण की हृदय ग्राहिणी है, इससे अब अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणय करना उचित नहीं है। अब नाटक में कहीं आशी:2 प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं 'प्रकरी'3 कहीं 'विलोभन'4 कहीं 'सम्फेट’5 'पंचसंधि6' या ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता बाक़ी नहीं रही। संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में इनका अनुसंधान करना, या किसी नाटकांग में इनको यत्न पूर्वक रखकर हिंदी नाटक लिखना व्यर्थ है, क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है। संस्कृत नाटकादि रचना के निमित्त महामुनि भरत जो नियम लिख गए हैं, उनमें जो हिंदी नाटक रचना के नितांत उपयोगी हैं और इस काल के सहृदय सामाजिक लोगों की रुचि के अनुयायी हैं, वे ही नियम यहाँ प्रकाशित होते हैं।
अथ प्रतिकृति (Scenes)
किसी चित्रपट द्वारा नदी, पर्वत, वन या उपवन आदि की प्रतिच्छाया दिखलाने को प्रतिकृति कहते हैं। इसी का नामांतर अंतःपटी या चित्रपट या दृश्य या स्थान है।7 यद्यपि महामुनि भरत प्रणीत नाट्यशास्त्र में, चित्रपट द्वारा प्रासाद, वन उपवन किम्वा शैल प्रभृति की प्रतिच्छाया दिखाने का कोई नियम स्पष्ट नहीं लिखा है, किंतु अनुधावन करने से बोध होता है कि तत्काल में भी अंतःपटी परिवर्तन द्वारा वन, उपवन या पर्वतादि की प्रतिच्छाया अवश्य दिखलाई जाती थी। ऐसा न होता तो पौर जानपदवर्ग के अपवादभय से श्रीरामकृत सीतापरिहार के समय में उसी रंगस्थल में एक ही बार अयोध्या का राजप्रसाद और फिर उसी समय वाल्मीकि का तपोवन कैसे दिखलाई पड़ता, इससे निश्चय होता है कि प्रतिकृति के परिवर्तन द्वारा पूर्वकाल में यह सब अवश्य दिखलाया जाता था। ऐसे ही अभिज्ञानशाकुंतल नाटक के अभिनय करने के समय सूत्रधार एक ही स्थान में रहकर पर्दा बदले बिना कैसे कभी तपोवन और कभी दुष्यंत का राजप्रासाद दिखला सकता।8 यही सब बात प्रमाण है कि उस काल में भी चित्रपट अवश्य होते थे। ये चित्रपट नाटक में अत्यंत प्रयोजनीय वस्तु हैं और इनके बिना खेल अत्यंत नीरस होता है।
जवनिका या बाह्यपटी (Drop Scene)9
कार्य अनुरोध से समस्त रंगस्थल को आवरण करने के लिए नाट्यशाला के सम्मुख जो चित्र प्रक्षिप्त रहता है उसका नाम जवनिका या बाह्यपटी है। जब रंगशाला में चित्रपट परिवर्तन का प्रयोजन होता है, उस समय यह जवनिका गिरा दी जाती है। संस्कृत नाटकों में जवनिकापतन नियम देखने से और भी प्रतीत होता है कि अंतःपटी परिवर्तन द्वारा गिरि नदी आदि की प्रतिच्छाया उस काल में भी अवश्य दिखलाई जाती थी।
'ततः प्रविशन्त्यपटीक्षेपेणाप्सरसः'
अर्थात् जवनिका बिना गिराए ही (उर्वशी विरहातुर) अप्सरागण ने रंगस्थल में प्रवेश किया इत्यादि दृष्टांत ही इसके प्रमाण हैं।
अथ प्रस्तावना
नाटक की कथा आरंभ होने के पूर्व नटी, विदूषक किम्वा पारिपार्श्विक सूत्रधार से मिलकर प्रकृत प्रस्ताव विषयक जो कथोपकथन करें, नाटक के इतिवृत्त सूचक, उस प्रस्ताव को प्रस्तावना कहते हैं। नाटक की नियमावली में मुनिवर भरताचार्य ने पाँच प्रकार की प्रस्तावना लिखी हैं। वह पाँचों प्रणाली अति आश्चर्यभरित और सुंदर हैं। उनमें से चार हिंदी नाटक में भी व्यवहार की जा सकती हैं। सूत्रधार के पार्श्वचर बंधु को पारिपारिवक कहते हैं। पारिपार्श्विक की अपेक्षा नट कुछ न्यून होता है। अब पूर्व लिखित पाँच प्रकार की प्रस्तावना लिखते हैं—
1. उद्घात्यक, 2. कथोद्घात, 3. प्रयोगातिशय 4. प्रवर्तक और 5. अवगलित।
अथ उद्घात्यक
सूत्रधार प्रभृति की बात सुनकर अन्य प्रकार से अर्थ प्रतिपादनपूर्वक जहाँ पात्रप्रवेश होता है, उसे उद्घात्यक प्रस्तावना कहते हैं। जैसे—मुद्राराक्षसम्।
सूत्रधार - प्यारी, मैंने जोतिःशास्त्र के चौंसठों अंगों में बड़ा परिश्रम किया है। जो हो रसोई तो होने दो। पर आज ग्रहण है, यह तो किसी ने तुम्हें धोखा ही दिया है। क्योंकि- चंद्रविम्बपूरन भए, कूर, केतु हठ दाप।
बल सों करिहै ग्रास कह—
(नेपथ्य में)
हैं! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्रास कर सकता है?
सूत्रधार- जेहि बुध रच्छत आप।
यहाँ सूत्रधार ने तो ग्रहण का विषय कहा था, किंतु चाणक्य ने 'चंद्र' शब्द का अर्थ चंद्रगुप्त प्रगट करके प्रवेश करना चाहा, इसी से उद्घात्यक प्रस्तावना हुई।
अथ कथोद्घात
जहाँ सूत्रधार की बात सुनकर उसके साथ वाक्य के अर्थ का मर्म-ग्रहण करके पात्र प्रविष्ट होते हैं, उसे कथोद्घात कहते हैं।
यथा, रत्नावली में सूत्रधार के इस कहने पर कि ईश्वरेच्छा से द्वीपांतर किम्वा समुद्र के मध्य की वस्तु भी सहज में मिल जाती है, यौगन्धरायण का आना।
यहाँ सूत्रधार के वाक्य का मर्म यह था कि जिस नाटक में द्वीपांतर की नायिका आती है, खेला जाएगा, इसी को समझकर अन्य नट मंत्री बनकर आया।
अथ प्रयोगातिशय
एक प्रयोग करते-करते घुणाक्षरन्याय से दूसरे ही प्रकार का प्रयोग कौशल में प्रयुक्त और उसी प्रयोग का आश्रय करके पात्र प्रवेश करें, तो उसको प्रयोगातिशय प्रस्तावना कहते हैं।
जैसे, कुंदमाला नामक नाटक में सूत्रधार ने नृत्य प्रयोग के निमित्त अपनी भार्या को आह्वान करने के प्रयोग विशेष द्वारा सीता और लक्ष्मण का प्रवेश सूचित किया10। इस प्रकार से नाटक की प्रस्तावना शेष होने पर पात्र प्रवेश और नाटकीय इतिवृत्त की सूचना होंगी।
अथ चर्चरिका
जब-जब एक-एक विषय समाप्त होगा, जवनिका पात करके पात्रगण अन्य विषय दिखलाने को प्रस्तुत होंगे, तब-तब पटाक्षेप के साथ ही नेपथ्य में चर्चरिका आवश्यक है, क्योंकि बिना उसके अभिनय शुष्क हो जाता है। जहाँ बहुत स्वर मिलकर कोई बाजा बजे या गान हो उसको चर्चरिका कहते हैं। इसमें नाटक की कथा के अनुरूप गीतों का या रागों का बजना योग्य है। जैसे सत्यहरिश्चंद्र में प्रथम अंक की समाप्ति में जो चर्चरिका बजै वह भैरवी आदि सबेरे के राग की और तीसरे अंक की समाप्ति पर जो बजै वह रात के राग की होनी चाहिए।
अथ कैशिकीवृत्ति
जो वृत्ति अति मनोहर, स्त्री जनोचित भूषण से भूषित और रमणी बाहुल्य नृत्य11 गीतादि परिपूर्ण और भोगादि विविध विलासयुक्त होती है, उसका नाम कैशिकीवृत्ति है। यह वृत्ति शृंगाररसप्रधान नाटकों की उपयोगिनी है।
अथ सात्वतीवृत्ति
जिस वृत्ति द्वारा शौर्य, दान, दया और दाक्षिण्य प्रभृत्ति से विरोचिता विविध गुणान्विता, आनंद विशेषोद्भाविनी, सामान्य विलास युक्ता, विशोका और उत्साहवर्द्धिनी
वाग्भंगी नायक कर्तृक प्रयुक्त होती है, उसका नाम सात्वतीवृत्ति है। वीररस प्रधान नाटक में इसकी आवश्यकता होती है।
अथ आरभटी
माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध, आघात, प्रतिघात और बंधनादि-विविध रौद्रोचितकार्य-जनित वृत्ति का नाम आरभटी है। रौद्ररस वर्णन के स्थल में इस वृत्ति पर दृष्टि रखनी चाहिए।
अथ भारती
साधु भाषा बाहुल्य वृत्ति का नाम भारती वृत्ति है। वीभत्स रस वर्णन स्थल में यह व्यवहृत होती है। नाटककर्ता ग्रंथगुम्फन करने के समय यदि आद्यरस प्रधान नाटक लिखने की इच्छा करेंगे, तो उनको कैशिकी वृत्ति ही में समस्त वर्णन करना योग्य है। आद्यरस वर्णन करने के समय ताल ठोकना, मुद्गर घुमाना, या असिक्षेप प्रभृति विरोचित विषयक कोई भी वर्णन नहीं करना चाहिए। सात्वती प्रभृति वृत्तियों के पक्ष में भी ठीक यही बात है।
अथ उपक्षेप
अभिनयकार्य के प्रथम संक्षेप में समस्त नाटकीय विवरण कथन का नाम उपक्षेप है। पूर्वकाल में मुद्रायंत्र12 की सृष्टि नहीं हुई थी, इस हेतु रंगस्थल में नट, नटी, सूत्रधार अथवा पारिपार्श्विक कर्तृक उपक्षेप का उल्लेख होता था। आज-कल मुद्रायंत्र के प्रभाव से इसकी कुछ आवश्यकता नहीं रही प्रोग्राम बाँट देने ही से वह काम सिद्ध हो जाएगा।
पूर्वकाल में नाटक मात्र में उपक्षेप उपन्यस्त होता था, यह नियम नहीं था; क्योंकि सब नाटकों में उपक्षेप का उल्लेख दिखाई नहीं पड़ता। वेणीसंहार में इसका उल्लेख है, किंतु यह भीमकृत उपन्यस्त हुआ है।
यथा भीम—
“लाक्षागृहानलविषान्नसभाप्रवेशैः प्राणेषुवित्तनिचयेषु च नः प्रहृत्य आकृष्य पाण्डववधूपरिधानकेशान् सुस्था भवन्ति मयि जीवतिधार्त्तराष्ट्राः?
अथ प्ररोचना
जिसके अनुष्ठान द्वारा अभिनय दर्शन में सामाजिक लोगों की प्रवृत्ति पैदा होती है उसका नाम प्ररोचना है। यह सूत्रधार, नट, परिपार्श्विक या नटी के द्वारा विगीत होती है।
अथ नेपथ्य
रंगस्थल के पृष्ठ-भाग में जो एक गुप्तस्थान रहता है, उसका नाम नेपथ्य है। अलंकारयिता इसी स्थान में पात्रों के वेश भूषणादि से सजते हैं। जब रंगभूमि में आकाशवाणी देवीवाणी अथवा और कोई मानुषीवाणी का प्रयोजन होता है, तो वह नेपथ्य ही से गाई या ही जाती है।
अथ उद्देश्यबीज
गुम्फित आख्यायिका के समग्र मर्म का नाम उद्देश्यबीज है। कवि जो इसका साधन न कर सकेगा, तो उसका ग्रंथ नाटक में परिगणित न होगा।
अथ वस्तु
नाटकीय इतिहास अथवा कोई विवरण विशेष का नाम वस्तु है। वस्तु दो प्रकार की हैं, यथा- आधिकारिकवस्तु और प्रासंगिकवस्तु।
अथ प्रासंगिकवस्तु
जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है, उसको अधिकारी कहते हैं। अधिकारी का आश्रय करके जो वस्तु विरोचित होती है, उसका नाम आधिकारिकवस्तु है। जैसा उत्तरचरित।
अथ प्रासंगिकवस्तु
इस आधिकारिक इतिवृत्त का रस पुष्ट करने के लिए प्रसंगक्रम में जो वृत्त लिखा होता है, उसका नाम प्रासंगिकवस्तु है। जैसा बालरामायण में सुग्रीव, विभीषणादि का चरित्र।
अथ मुख्य उद्देश्य
प्रसंगक्रम से नाटक में कितनी भी शाखा, प्रशाखा विस्तृत हों, और गर्भांक के द्वारा आख्यायिका के अतिरिक्त और कोई विषय वर्णित हो, किंतु मूल प्रस्तावनिष्कम्प रहे तो उसकी रसपुष्टि करने को मुख्य उद्देश्य कहा जाता है।
अथ अभिनय
कालकृत अवस्था विशेष के अनुकरण का नाम अभिनय है। अवस्था यथा, रामाभिषेक, सीता-निर्वासन, द्रोपदी का केशभाराकर्षण आदि।
अथ पात्र
जो लोग राम युधिष्ठिरादि का रूप धारण करके, कथित अवस्था का अनुकरण करते हैं, उन लोगों को पात्र कहते हैं। नाटक के जो सब अंश स्त्रीगणकर्तृक प्रदर्शित होते हैं, उनमें भाव, हाव, हेला प्रभृति यौवन सम्भूत अष्टाविंशति प्रकार के अलंकार उन लोगों को अभ्यास नहीं करने पड़ते; किंतु पुरुष लोगों को स्त्रीवेशधारण के समय अभ्यास द्वारा वह भाव दिखलाना पड़ता है।
अथ अभिनय के प्रकार
अभिनय चार प्रकार का होता है।—यथा आंगिकाभिनय, वाचिकाभिनय, आहार्याभिनय और सात्विकाभिनय।
अथ आंगिकाभिनय
केवल अंगभंगी द्वारा जो अभिनयकार्य साधन करते हैं, उसका नाम आंगिकाभिनय है। जैसे सती नाटक में नंदी। सती ने शिव की निंदा श्रवण करके देह त्याग किया। यह सुनकर महावीर नंदी ने जब त्रिशूल हस्त में लेकर के रंगस्थल में प्रवेश किया, तब केवल आंगिकभाव द्वारा क्रोध दिखलाना चाहिए।
अथ वाचिकाभिनय
केवल वाक्यविन्यास द्वारा जो अभिनय कार्य समाहित होता है, उसका नाम वाचिकाभिनय है। यथा, तोतले आदि का वेश।
अथ आहार्याभिनय
वेष भूषणादि निष्पाद्य का नाम आहार्याभिनय है। जैसा सत्यहरिश्चंद्र में चोबदार या मुसाहिब ये लोग जब राजा के साथ रंगस्थल में प्रवेश करते हैं, तो इनको कुछ बात नहीं करनी पड़ती। केवल आहार्याभिनय के द्वारा आत्मकार्य निष्पन्न करना होता है।
अथ सात्विकाभिनय
स्तंभ, स्वेद, रोमांच, कम्प और अश्रु प्रभृति द्वारा अवस्थानुकरण का नाम सात्विकाभिनय है। जैसा सती को मृत देखकर नंदी का व्यवहार और अश्रुपात इत्यादि।
अथ बीभत्साभिनय
एक पात्र द्वारा जब कथित अभिनय में से दो या तीन अथवा सब प्रदर्शित होते हैं तो उसको बीभत्साभिनय कहते हैं।
अथ अंगांगी भेद
नाटक में जो प्रधान नायक होता है, उसको समस्त इतिवृत्त का अंगी कहते हैं। जैसे सत्यहरिश्चंद्र में हरिश्चंद्र।
अथ अंग
अंगी के कार्यसाधक पात्रगण अंग कहलाते हैं। जैसे वीरचरित में सुग्रीव, विभीषण अंगद इत्यादि।
अथ वैषम्यपातदोष
नाटक में अंगी को अवनत करके अंग का प्राधान्य करने में वैषम्यपात नामक दोष होता है।
अथ अंकलक्षण
नाटक के एक-एक विभाग को एक-एक अंक कहते हैं। अंक में वर्णित नायक नायिकादि पात्र का चरित्र और आचार, व्यवहारादि दिखलाया जाता है। अनावश्यक कार्य का उल्लेख नहीं रहता। अंक में अधिक पद्य का समावेश दूषणावह होता है।
अथ अंकावयव
नाटक का अवयव बृहत् होने से, एक रात्रि में अभिनय कार्य समाहित नहीं होगा। इस हेतु दस अंक से अधिक नाटक, निर्माणविधि और युक्ति के विरुद्ध है। प्रथम अंक का अवयव जितना होगा, द्वितीयांक का अवयव तदपेक्षा न्यून होना चाहिए। ऐसे ही क्रम-क्रम से अंक का अवयव छोटा करके ग्रंथ समाप्त करना चाहिए।
अथ विरोधक
नाटक में जिन विषयों का वर्णन निषिद्ध है, उनका नाम विरोधक है। जैसे—
दूराह्वान, अति विस्तृत युद्ध, राज्य देशादि का विप्लव, प्रबल वात्या, दन्तच्छेद, नखच्छेद, अश्वादि बृहत्काय जतु का अति वेग से गमन, नौका परिचालन और नदी में सन्तारण प्रभृत्ति अघटनीय विषय।
अथ नायक निर्वाचन
विनय शीलता, वदान्यता, दक्षता, क्षिप्रता, शौर्य, प्रियभाषिता, लोकरंजकता, वाग्मिता-प्रभृति गुणसमूह सम्पन्न सद्वंशसम्भूत युवा को नायक होने का अधिकार है।
नायक की भाँति नायिका में भी यथासंभव वही गुण रहना आवश्यक है। प्रहसन आदि रूपकविशेष के नायकादि अन्य प्रकार के होते हैं।
अथ परिच्छद विवेक
नाटकान्तर्गत कौन पात्र कैसा परिच्छद पहने, यह ग्रंथकार कर्तृक उल्लिखित नहीं होता, न किसी प्राचीन नाटककार ने इसका उल्लेख किया है। नाटक में किसी स्थान में उत्तम परिच्छद का परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। नाटक सत्यहरिश्चंद्र में ‘दरिद्र वेष से हरिश्चंद्र का प्रवेश।’
ऐसी अवस्था या परिच्छद का वर्णन किसी स्थान में उल्लिखित नहीं रहता, इससे अभिनय में वेशरचयित पात्रगण का स्वभाव और अवस्था का विचार करके वेशरचना करे। नेपथ्य कार्य सुंदर रूप से निर्वाह के हेतु एक रसज्ञ वेषविधायक की आवश्यकता रहती है।
अथ देशकाल प्रवाह
अति दीर्घकाल सम्पाद्य घटना सकल नाटक में अल्काल के मध्य में वर्णन करना यद्यपि दूषणावह नहीं है, तथापि नाटक में देशगत और कालगत वैलक्षण्य वर्णन करना अतिशय अनुचित है।
अथ विष्कम्भक
नाटक में विषकम्भक रखने का तात्पर्य यह है कि नाटकीय वस्तुरचना में जो सब अंश अत्यंत नीरस और आडम्बरात्मक हैं, उनके सन्निवेशित होने से सामाजिक लोगों को विरक्ति और अरुचि हो जाती है। नाटक प्रणेतृगण इन घटनाओं को पात्र विशेष के मुख से संक्षेप में विनिर्गत कराते हैं।
अथ नाटक रचना प्रणाली
नाटक लिखना आरंभ करके, जो लोग उद्देश्य वस्तु परंपरा से चमत्कारजनक और अति मधुर वस्तु निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रति दृष्टिपात नहीं करते, उनका नाटक, नाटकादि दृश्य काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है; क्योंकि नाटक आख्यायिका की भाँति श्रव्यकाव्य नहीं है।
ग्रंथकर्ता ऐसी चातुरी और नैपुण्य से पात्रगण की बातचीत रचना करे कि जिस पात्र का जो स्वभाव हो, वैसी ही उसकी बात भी विरचित हो। नाटक में वाचाल पात्र की मितभाषित, मितभाषी की वाचालता, मूर्ख की वाक्पटुता और पंडित का मौनीभाव बिडम्बनामात्र है। पात्र की बात सुनकर उसके स्वभाव का परिचय ही नाटक का प्रधान अंग है। नाटक में वाक्प्रपंच एक प्रधानदोष है। रसविशेष द्वारा दर्शक लोगों के अंतःकरण को उन्नत अथवा एक बारगी शोकावनत करने को समधिक वागाडंबर करने से भी उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। नाटक में वाचालता की अपेक्षा मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक् आदर होता है। नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशलविशेष द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम मुख्योपाय है। थोड़ी सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है। जैसा उत्तररामचरित में महात्मा जनकजी आकर पूछते हैं। 'क्वास्ते प्रजावत्सलो रामः' यहाँ प्रजावत्सल शब्द से महाराज जनक के हृदय के कितने विकार उबुद्ध होते हैं। केवल सहृदय ही इसका अनुभव करेंगे। चित्रकार्य के निमित्त जो उपकरण का प्रयोजन और स्थान विशेष की उच्च नीचता दिखलाने को जैसी आवश्यकता होती है, वैसे ही वही उपकरण और उच्च नीचता प्रदानपूर्वक अति सुंदर रूप से मनुष्य के बाह्य भाव और कार्यप्रणाली के चित्रकरण द्वारा सहज भाव से उसका मानसिक भाव और कार्य प्रणाली दिखलाना प्रशंसा का विषय है। जो इस भाँति दूसरे का अंतर्भाव व्यक्त करने को समर्थ हैं, उन्हीं को नाटककार संबोधन दिया जा सकता है और उन्हीं के प्रणीत ग्रंथ नाटक में परिगणित होते हैं।
नाटक में अंतर का भाव कैसे चित्रित किया जाता है इसका एक अति आश्चर्य दृष्टांत अभिज्ञानशाकुन्तलम्13 से उद्धृत किया गया।
शकुंतला श्वशुरालय में गमन करेगी, इस पर भगवान कण्व जिस भाँति खेद प्रकाश करते हैं वह यह है—यास्यत्यद्य शकुंतलेति हृदयम्...!!
आहा! आज शकुंतला पतिगृह में जाएगी, यह सोचकर हमारा हृदय कैसा उत्कण्ठित होता है, अंतर में जो वाष्प भर कर उच्छवास हुआ है, उससे वाग्जड़ता हो गई है, और दृष्टिशक्ति चिंता से जड़ीभूत हो रही है। हाय! हम वनवासी तपस्वी हैं, जो हमारे हृदय में ऐसा वैक्लव्य होता है, तो कन्या के वियोग के अभिनव दुःख में बिचारे गृहस्थों की क्या दशा होती होगी?
सहृदय पाठक! आप विवेचना करके देखिए कि इस स्थान में कविश्रेष्ठ कालिदास कुलपति कण्व ऋषि का रूप धारण करके ठीक उनका मानसिक भाव व्यक्त कर सके हैं कि नहीं?
इसके बदले कालिदास यदि कण्व ऋषि की छाती पीटकर रोना वर्णन करते, तो उनके ऋषि जनोचित धैर्य की क्या दुर्दशा होती, अथवा कण्व का शकुंतला के जाने पर शोक ही न वर्णन करते तो कण्व का स्वभाव मनुष्य स्वभाव से कितना दूर जा पड़ता। इसी हेतु कविकुलमुकुटमाणिक्य भगवान कालिदास ने ऋषि जनोचित भाव ही में कण्व का शोक वर्णन किया।
नाटक रचना में शैथिल्यदोष कभी न होना चाहिए। नायक-नायिका द्वारा किसी कार्य विशेष की अवतारणा करके अपरिसमाप्त रखना अथवा अन्य व्यापार की अवतारणा करके उसका मूलच्छेद करना, नाटक रचना का उद्देश्य नहीं है। जिस नाटक की उत्तरोत्तर कार्यप्रणाली सन्दर्शन करके दर्शक लोग पूर्वकार्य विस्मृत होते जाते हैं, वह नाटक कभी प्रशंसा भाजन नहीं हो सकता। जिन लोगों ने केवल उत्तम वस्तु चुन कर एकत्र किया है, उनकी गुम्फित वस्तु की अपेक्षा जो उत्कृष्ट मध्यम और अधम तीनों का यथास्थान निर्वाचन करके प्रकृति की भाव भंगी उत्तमरूप से चित्रित करने में समर्थ है, वही काव्यामोदी रसज्ञ मंडली अपूर्व आनंद वितरण कर सकते हैं।
कालिदास, भवभूति और शेक्सपियर प्रभृति नाटककार इसी हेतु पृथ्वी में अमर हो रहे हैं। कोई सामग्री-संग्रह नहीं है, अथवा नाटक लिखना होगा या अलीक संकल्प करके जो लोग नाटक लिखने को लेखनी धारण करते हैं, उनका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। यदि किसी को नाटक लिखने की वासना हो, तो नाटक किसको कहते हैं, इसका तात्पर्य हृदयंगम करके, नाटक रचयिता को सूक्ष्मरूप से ओतप्रोत भाव में मनुष्य प्रकृति की आलोचना करनी चाहिए। जो अनालोचित मानव प्रकृति हैं, उनके द्वारा मानव जाति के अंतर्भाव सब विशुद्ध रूप से चित्रित होंगे, यह कभी संभव नहीं है। इसी कारण से कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् और शेक्सपियर के मैकबेथ तथा हैमलेट इतने विख्यात हो करके पृथ्वी के सर्व स्थान में एकादर से परिभ्रमण करते हैं। मानवकृति की समालोचना करनी हो, तो नाना प्रकार के लोगों के साथ कुछ दिन वास करें। नाना प्रकार के समाज में गमन करके विविध लोगों का आलाप सुनें नाना प्रकार के ग्रंथों का अध्ययन करें, वरंच समय में अश्वरक्षक, गोरक्षक, दास, दासी, ग्रामीण, दस्यु प्रभृति नीच प्रकृति और सामान्य लोगों के साथ कथोपकथन करें। यह न करने से मानवप्रकृति समालोचित नहीं होती। मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है, उन लोगों के हृदयस्थभाव भी उसी रूप में अप्रत्यक्ष हैं। केवल बुद्धिवृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत के कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्मदृष्टि रखकर उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होना होता है और किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना झख मारना है।
राजनीति, धर्म्मनीति, अन्वीक्षिकी, दंडनीति संधि, विग्रह, राजगुण, मंत्रणा, चातुरी, करुणा, विभाव, अनुभाव व्यभिचारी भाव, तथा सात्विक भाव एवं व्यय, वृद्धि स्थान प्रभृति त्रिवर्ग की समालोचना में सभ्यक् रूप से समर्थ हो तब नाटक लिखने को लेखनी धारण करें।
स्वदेशीय तथा भिन्न देशीय सामाजिक रीति, व्यावहारिक रीति के परिणाम का विशिष्ट अनुसंधान, नाटक रचना का उत्कृष्ट उपाय है।
वेश और वाणी दोनों ही पात्र की योग्यतानुसार होनी चाहिए। यदि भृत्यपात्र प्रवेश करे, तो जैसे बहुमूल्य परिच्छद उसके हेतु अस्वाभाविक है, वैसे ही पंडितों के संभाषण की भाँति विशेष संस्कृत गर्भित भाषा भी उसके लिए अस्वाभाविकी है। महामुनि भरताचार्य पात्र स्वभावानुकूल भाषण रखने का वर्णन अत्यंत सविस्तार कर गए हैं, यद्यपि उनके नांदी रचनादि विषय के नियम हिंदी में प्रयोजनीय नहीं हैं, किंतु पात्र स्वभाव विषयक नियम तो सर्वथा शिरोधार्य हैं।
नाटक पठनं वा दर्शन में स्वभावरक्षा मात्र एक उपाय है जो पाठक और दर्शकों के मनःसमुद्र को भाव तरंगों से आस्फलित कर देता है।
अथ विदूषक
नाटकदर्शकगण विदूषक के नाम से अपरिचित नहीं है किंतु विदूषक का प्रवेश किस स्थान में योग्य है, इसका विचार लोग नहीं करते। बहुत से नाटक लेखकों का
सिद्धांत है कि अथ इति की भाँति विदूषक की नाटक में सहज आवश्यकता है। किंतु यह एक भ्रम मात्र है। वीर या करुणरस प्रधान नाटक में विदूषक का प्रयोजन नहीं रहता। शृंगार की पुष्टि के हेतु विदूषक का प्रयोजन होता है, फिर भी सभी स्थल में नहीं, क्योंकि किसी-किसी अवसर पर विदूषक के बदले विट, चेट, पीठमर्द, नर्मसखा प्रभृति का प्रवेश विशेष स्वाभाविक होता है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार कुसुम-बसंतादिक नामधारी, नाटा, मोटा, वामन, कुबडा, टेढ़े अंग का या और किसी विचित्र आकृति का किम्बा हकला, तोतला भोजनप्रिय, मूर्ख, असंगत, किंतु हास्यरस के अविरुद्ध बात कहने वाला, विदूषक होना चाहिए और उसका परिच्छद भी ऐसा हो जो हास्य का उद्दीपक हो।
संयोग शृंगार वर्णन में इसकी स्थिति विशेष स्वाभाविक होती है।
अथ रस वर्णन
शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, अद्भुत, वीभत्स, शांत, भक्ति या दास्य, प्रेम या माधुर्य, सख्य, वात्सल्य, प्रमोद या आनंद।
शृंगार, संयोग और वियोग दो प्रकार का होता है—यथा, शाकुंतल के पहले और दूसरे अंक में संयोग, पाँचवें छठे अंक में वियोग।
हास्य, यथा भाण, प्रहसनों में।
करुणा, यथा, सत्यहरिश्चंद्र में शैव्या के विलाप में। रौद्र यथा धनंजय-विजय में युद्धभूमि वर्णन।
वीर रस चार प्रकार का होता है यथा दानवीर, सत्यवीर, युद्धवीर और उद्योगवीर। दानवीर, यथा सत्य हरिश्चंद्र में 'जेहि पाली इक्ष्वांकु सों' इत्यादि। सत्यवीर यथा हरिश्चंद्र में 'बेचि देह द्वारा सुअन' इत्यादि युद्धवीर यथा नीलदेवी। उद्योगवीर14 मुद्राराक्षस। भयानक अद्भुत और वीभत्स यथा सत्यहरिश्चंद्र में श्मशानवर्णन।
शांत, यथा प्रबोध चंद्रोदय में भक्ति, यथा संस्कृत चैतन्यचंद्रोदय में, प्रेम यथा चंद्रावली में उपलब्ध होता है।
अथ रसविरोध
नाटकरचना में विरोधी रसों को बहुत बचाना चाहिए। जैसे शृंगार के हास्यवीर विरोधी नहीं, किंतु अति करुणा, वीभत्स, रौद्र, भयानक और शांत विरोधी हैं, तो जिस नाटक में शृंगाररस प्रधान अंगी भाव से हो, उसमें ये न आने चाहिए। अति करुणा लिखने का तात्पर्य यह कि सामान्य करुणा तो वियोग में भी वर्णित होगी, किंतु पुत्रशोकादिवत् अति करुणा का वर्णन शृंगार का विरोधी है। हाँ नवीन (ट्रैजेडी) वियोगांत नाटक लेखक तो इस रस का विरोध करने को बाध्य हैं। नाटकों की सौंदर्यरक्षा के हेतु विरोधी रसों का बचाना भी बहुत आवश्यक कार्य है, अन्यथा होने से कवि का मुख्य उद्देश्य नष्ट हो जाता है।
अथ अन्य स्फुट विषय
नाटक रचना के हेतु पूर्वोक्त कथित विषयों के अतिरिक्त कुछ नायिकाभेद और कुछ अलंकारशास्त्र जानने की भी आवश्यकता होती है। ये विषय रसरत्नाकर, भारतीभूषण लालित्यलता आदि ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित हैं।
आजकल की सभ्यता के अनुसार नाटकरचना में उद्देश्य फल उत्तम निकलना बहुत आवश्यक है। यह न होने से सभ्यशिष्टगण ग्रंथ का तादृश आदर नहीं करते। अर्थात् नाटक पढ़ने या देखने से कोई शिक्षा मिले, जैसे सत्यहरिश्चंद्र देखने से आर्यजाति की सत्यप्रतिज्ञा, नीलदेवी से देशस्नेह इत्यादि शिक्षा मिलती है। इस मर्यादा की रक्षा के हेतु वर्तमान समय में स्वकीया नायिका तथा उत्तम गुण विशिष्ट नायक को अवलम्बन करके नाटक लिखना योग्य है। यदि इसके विरुद्ध नायिका नायक के चरित्र हों, तो उसका परिणाम बुरा दिखलाना चाहिए। यथा नहुष नाटक में इन्द्राणी पर आसक्त होने से नहुष का नाश दिखलाया गया है। अर्थात् चाहे उत्तम नायिका नायक के चरित्र की समाप्ति सुखमय दिखलाई जाए, किंबा दुश्चरित्र पात्रों के चरित्र की समाप्ति कंटकमय दिखलाई जाए। नाटक के परिणाम से दर्शक और पाठक कोई उत्तम शिक्षा अवश्य पावैं।
अथ अभिनय विषयक अन्यान्य स्फुट नियम
नाटक की कथा—नाटक की कथा की रचना ऐसी विचित्र और पूर्वापर बद्ध होनी चाहिए कि जब तक चंद्र अंक न पढ़ें किम्बा न देखें, यह न प्रकट हो कि खेल कैसे समाप्त होगा। यह नहीं कि ‘सीधा एक को बेटा हुआ उसने यह किया वह किया प्रारंभ ही में कहानी का मध्य बोध हो।
पात्रों के स्वर—शोक, हर्ष, हास, क्रोधादि समय में पात्रों को स्वर भी घटाना बढ़ाना उचित है। जैसे स्वाभाविक स्वर बदलते हैं, वैसे ही कृत्रिम भी बदलें। 'आप ही आप' ऐसे स्वर में कहना चाहिए कि बोध हो कि धीरे-धीरे कहता है, किंतु तब भी इतना उच्च हो कि श्रोतागण निष्कंटक सुन लें।
पात्रों की दृष्टि—यद्यपि परस्पर वार्ता करने में पात्रों की दृष्टि परस्पर रहेगी, किंतु बहुत से विषय पात्रों को दर्शकों की ओर देखकर कहने पड़ेंगे। इस अवसर पर अभिनयचातुर्य यह है कि यद्यपि पात्र दर्शकों की ओर देखें, किंतु यह न बोध हो कि वह बातें वे दर्शकों से कहते हैं।
पात्रों के भाव—नृत्य की भाँति 'रंगस्थल पर पात्रों को हस्तक भाव या मुख नेत्र भ्रू के सूक्ष्मतर भाव दिखलाने की आवश्यकता नहीं स्वर भाव और यथायोग्य स्थान पर अंगभंगी भाव ही दिखलाने चाहिए।
पात्रों का फिरना—यह साधारण नियम भी माननीय है कि फिरने या जाने के समय जहाँ तक हो सके पात्रगण अपनी पीठ दर्शकों को बहुत कम दिखलावें। किंतु इस नियम पालन का इतना आग्रह न करें कि जहाँ पीठ दिखलाने की आवश्यकता हो, वहाँ भी न दिखलावें।
पात्रों का परस्पर कथोपकथन—पात्रगण आपस में वार्ता जो करें उनको कवि निरे काव्य की भाँति न ग्रथित करे। यथा नायिका से नायक साधारण काव्य की भाँति 'तुम्हारे नेत्र कमल हैं, कुच कलश हैं' इत्यादि न कहैं। परस्पर वार्ता में हृदय के भावबोधक वाक्य ही करने योग्य हैं। किसी मनुष्य या स्थानादि के वर्णन में लंबी चौड़ी काव्यरचना नाटक के लिए उपयोगी नहीं होती।
अथ नाटकों का इतिहास
यदि कोई हम से यह प्रश्न करे कि सब से पहले किस देश में नाटकों का प्रचार हुआ, तो हम क्षणमात्र का भी विलम्ब किए बिना मुक्तकंठ से कह देंगे भारतवर्ष में। इसका प्रमाण यह है कि जिस देश में संगीत और साहित्य प्रथम परिपक्व हुए होंगे, वहीं प्रथम नाटक का भी प्रचार हुआ होगा। हम नहीं समझ सकते कि पृथ्वी की और कोई जाति भी भारतवर्ष के सामने इस विषय में मुँह खोले। आर्यों का परमशास्त्र वेद संगीत और साहित्यमय है। अन्य जाति में संगीत और साहित्य प्रमोद के हेतु होते हैं, किंतु हमारे पूज्य आर्य महर्षियों ने इन्हीं शास्त्रों द्वारा आनंद में निमग्न होकर परमेश्वर की उपासना की है। यहाँ तक कि हमारे तीसरे वेद 'साम' की संज्ञा ही गान है। और किसके यहाँ धर्म संगीत साहित्य-मय है? हमारे यहाँ लिखा है—
वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।
तालज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग प्रयच्छति॥
काव्यालापश्च येकेचित गीतिकान्यखिलानिच।
शब्दरूपधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः॥
जब हमारे धर्म के मूल ही में संगीत और साहित्य मिले हैं, तब इसमें क्या संदेह है कि इस रस के प्रथमाधिकारी आर्यगण ही हैं। इसके अतिरिक्त नाटक रचना में रंग, नट इत्यादि, जो शब्द प्रयुक्त होते हैं। वे सब प्राचीन काव्य, कोष, व्याकरण और धर्मशास्त्रों में पाए जाते हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नाटक रचना हमारे आर्यगणों को पूर्वकाल ही से विदित थी।
सर्वदा नट लोगों के ही द्वारा ये नाटक नहीं अभिनीत होते थे। आर्य राजकुमार और कुमारीगण भी इसको सीखते थे। महाभारत के खिल हरिवंशपर्व के विष्णुपर्व के 93 अध्याय में प्रद्युम्न, साम्बादि यादव राजकुमारों का वज्रनाभ के पुर में जाना और वहाँ नट बन कर (कौबेररम्भाभिसार) नाटक खेलना बहुत स्पष्ट रूप से वर्णित है। वहाँ लिखा है कि जब प्रद्युम्न आदिक वीर वज्रनाभ के पुर में गए तो भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने कुमारों को नाटक करने की आज्ञा देकर भेजा था। प्रद्युम्न सूत्रधार थे, साम्ब विदूषक थे, और गद पारिपार्श्विक थे। यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी गाने बजाने का साज लेकर साथ गई थीं। पहले दिन इन लोगों ने रामजन्म नाटक किया, जिसमें लोमपाद राजा की आज्ञा से गणिका लोगों का शृंगी ऋषि को ठग कर लाना बहुत अच्छी रीति से दिखलाया गया था। दूसरे दिन फिर रम्भाभिसार नाटक किया।15 इसमें पहले इन लोगों ने नेपथ्य बाँधा16 फिर स्त्रियों ने भीतर से बड़े सुंदर स्वर से गान किया17 बाद में गंगा जी के वर्णन में प्रद्युम्न, गद और साम्ब ने मिलकर नांदी गायी18 तदनंतर प्रद्युम्न जी ने विनय के श्लोक पढ़कर सभा को प्रसन्न किया।19 तब नाटक आरंभ हुआ। इसमें शूर नामक यादव रावण बना, मनोवती नाम्नी स्त्री रम्भा20 प्रद्युम्न नलकूबर और साम्व विदूषक। इसी प्रकरण से यह बात सिद्ध होती है कि केवल नट ही नहीं, प्राचीन काल से आर्यकुल में बड़े-बड़े लोग भी इस विद्या को भली भाँति जानते थे।21
मध्य समय के नाटक
मध्य समय के नाटककारों में कविकुलगुरु भगवान् कालिदास22 मुख्यतम हैं। भवभूति23 और धावक दूसरी श्रेणी में हैं। राजशेखर, जयदेव, भट्टनारायण, दंडी24 इत्यादि तीसरी श्रेणी में हैं। अब जितने नाटक प्रसिद्ध हैं, उनमें मृच्छकटिक सबसे प्राचीन है। इसके पीछे शकुंतला और विक्रमोर्वशी बने हैं। यहाँ पर एक बड़ी प्रसिद्ध बात का विचार करना है। प्रायः सभी प्राचीन इतिहास लेखकों ने लिखा है कि श्रीहर्ष, कालिदास के पूर्व हुआ, क्योंकि मालविकाग्निमित्र में कालिदास ने धावक का नाम लिया है, किंतु राजतरंगिणी में हर्ष नामक जो राजा हुआ है वह विक्रमादित्य25 के कई सौ वर्ष पीछे हुआ है। अनंत देव नामक राजा भोज के समय में था। अनंत का पुत्र कलस हुआ, जिसने आठ बरस राज्य किया। इसका पुत्र हर्ष था जिसने कई दिन मात्र राज्य किया था। कनिंघम के मत से हर्ष सन् 1088 ई. में और बिल्सन के मत से 1054 ई. में हुआ था। यद्यपि राजतरंगिणीकार ने हर्ष को कवि लिखा है और बिलण और बिल्लण कवि भी इसके समय में लिखे हैं; किंतु धावक का नाम तथा रत्नावली इत्यादि के बनने का प्रसंग कोई नहीं लिखा।
राजतरंगिणीकार के मत से हर्ष के समय में अत्यंत उपद्रव रहा। और चारों ओर राजकुमार तथा उच्च कुल के लोगों के रुधिर की नदी बहती थी। हर्ष श्रीस्वामी दयानंद सरस्वती की भाँति मूर्तिपूजा के भी विरुद्ध था, इसी हेतु प्रजा उसको तुरुष्क पुकारती थी। इन बातों से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि या तो धावक वाला श्रीहर्ष दूसरा है, कश्मीर का नहीं; या मालविकाग्निमित्रकार कालिदास वह जगतप्रसिद्ध शकुंतला का कालिदास नहीं। दूसरी बात विशेष संभव प्रतीत होती है, क्योंकि शकुंतला और मालविकाग्निमित्र की संस्कृत ही में भेद नहीं काव्य की उत्तमता, मध्यमता में भी आकाश-पाताल का अंतर है।
राजतरंगिणी में लिखा है कि कश्मीर के राजा तुंजीन के समय में चंद्रक कवि ने बड़ा सुंदर नाटक बनाया। यह तुंजीन राजतरंगिणी के हिसाब से गत कलि 3582 में अर्थात् आज से 1002 वर्ष पहले, ट्रायर के मत से 103 ई. पूर्व अर्थात् आज से 1986 वर्ष पहले, कनिंघम के मत से ईस्वी सन् 319 में अर्थात् 1564 वर्ष पहले, विल्सन के मत से 104 ई. पूर्व अर्थात् 1987 वर्ष पहले, विल्फर्ड के मत से सन् 54 ईस्वी में अर्थात् 1829 वर्ष पहले हुआ था।
जिन जिन संस्कृत नाटकों की स्थिति मुझको उपलब्ध हुई है, उनकी एक तालिका प्रकाशित की जाती है। इसमें* ऐसा चिह्न जिन पर दिया है वे नाटक मेरे पढ़े हुए हैं और छपे भी हैं और जिन पर X ऐसा चिह्न है, वे मेरे पढ़े तो हैं, किंतु छपे नहीं हैं और शेष बिना चिह्न के भारतवर्ष में मिलते तो हैं, किंतु मेरे देखे हुए नहीं हैं। इन्हीं नाटकों में कोई-कोई ऐसे भी होंगे जो मृच्छकटिक के पूर्व के बने होंगे, किंतु अब इस बात का पता नहीं लग सकता है, यह सारी सृष्टि दो हज़ार वर्ष की है। जिस काल के अनंत उदर में हम आर्यों के अनंत ग्रंथरत्न गल पच गए, वहाँ इसके पूर्व के नाटक गल भी गए। कालिदास, भवभूति प्रभृति महाकवियों के जीवनचरित स्वतंत्र आलोच्य विषय हैं, अत: इस हेतु यहाँ नहीं लिखे गए।
अथ संस्कृत नाटकतालिका
शाकुंतल * (कालिदास)
मालविकाग्निमित्र * (कालिदास)
विक्रमोर्वशी * (कालिदास)
मालतीमाधव * (भवभूति)
प्रियदर्शिका (श्रीहर्ष)
धूर्तसमागम * (राजशेखर)
कर्पूरमंजरी-X (राजशेखर)
विद्वशालभंजिका * (राजशेखर)
प्रचंडपाण्डव (चंद्रशेखर)
बालरामायण *
प्रसन्नराघव (जयदेव)
अनर्ध्यरारघव * (मुरारि)
पुष्पमाला * (राजशेखर)
उदात्तराघव
महारामायण
अनुमन्नाटक (त्रावंकोरराज)
अंगदनाटक
मुद्राराक्षस (विशाखदत्त)
वेणीसंहार * (नारायण भट्ट)
धनञ्जयविजय * (कांचन)
मृच्छकटिक * (शूद्रक)
जामदग्न्यजय
समुद्रमंथन
त्रिपुरदाह
शारदातिलक (शंकर)
ययातिचरित (रुद्रभट्ट)
ययातिविजय
ययाति शर्म्मिष्ठा
मृगांकलेखा (त्रिमल्लदेव के पुत्र विश्वनाथ)
हास्यार्णव
महावीरचरित * (भवभूति)
उत्तररामचरित * (भवभूति)
रत्नावली * (श्रीहर्ष)
नागानंद (श्रीहर्ष)
विदग्धमाधव X (रूपगोस्वामि)
राधामाधव
पारिजातक
कमलिनीकलहंस चूड़ामणि दीक्षित
तप्तीसंवरण (त्रावंकोरराज)
मालमंगलभाण (मालमंगल)
कलावतीकामरूप
नग्नभूपतिग्रह नाटक
प्रियदर्शना
यादवोदय
बालिवध
अनेकमूर्त
मयपालिका
क्रीड़ारसातल
कनकावतीमाधव
विन्दुमती
केलिरैवतक
कामदत्ता
सुदर्शनविजय
वासन्तिकापरिणय
चित्रयज्ञ (वैद्यनाथ वाचस्पति भट्टाचार्य)
वृषभानुजानाटिका X (मथुरा दास कायस्थ)
ऊषारागोदय X (रुद्रचंद्रदेव)
मल्लिकामारुत * (उद्दण्ड)
बसंततिलकभाण * (वरदाचार्य)
मुकुन्दानंद X
नटकमेलक प्रहसन *
दानकेलिकौमुदी X
अभिराममणि (सुंदरमिश्र)
मधुरानिरुद्ध (चंद्रशेखर)
कंसवध X (कृष्णकविशेष)
प्रद्युम्नविजय (शंकरदीक्षित बालकृष्ण दीक्षित के पुत्र)
श्रीरामचरित (साम्राज्यदीक्षित)
धूर्त्तनर्त्तक (साम्राज्यदीक्षित)
कौतुकसर्वस्व (गोपीनाथ पं.)
प्रबोधचंद्रोदय * (कृष्णमिश्र)
चैतन्यचंद्रोदय कर्णपूर
संकल्पसूर्योदय* (वेदान्ताचार्य)
रामाभ्युदय
कुन्दमाला
सौगन्धिकाहरण
रैवतकमदनिका
कुसुमशेखरविजय (चूड़ामणि)
नर्मवती
विलासवती
शृंगारतिलक (रुद्रभट्ट)
देवीमहादेव
ताराशशांक (श्रीधर)
चंडकौशिक* (आर्यक्षेमीश्वर)
जानरीराघव रुक्मिणीपरिणय X (रामचंद्र)
गृहवृक्षबाटिका
कुलपत्यंग
बध्यशिला
तरंगदत्त (प्रकरण)
लीलामधुकर
दूतागंद X मुण्डितप्रहसन X (सुभट)
नाटकसर्वस्व
उदयनचरित
कृत्यारावण
रामाभिनंद
रामचरित
चंद्रकला (विश्वनाथ)
प्रभावतीपरिणय
पार्वतीस्वयंबर
सुभद्राविजय
सुभद्राहरण
भैमीपरिणय
रुक्मिणीकल्याण (चूड़ामणि)
वसुमती चित्रसेन
विद्यापरिणय (वेदकविस्वामी)
अहल्यासंक्रन्दन
आनंदविलास
सेवंतिकापरिणय
कनकवल्लीपरिणय
रामनाटक
सुभद्राधनंजयविजय (गुरुराम)
वकुलमालिनी परिणय (कृष्ण दीक्षित)
बसंतमूषणभाण
इन्दिरापरिणय
कल्याणीपरिणय
कुसुमवाणविलास
बटुचरित्रनाटक मरकतवल्लीपरिणय
चूड़ामणिनाटक
सामवतनाटक पं. अम्बिकादत्त व्यास
छलितराम
कन्दर्पकेलि
स्तम्भितरम्भ
विजयपारिजात
(आसामवियज) (हरिजीवन)
पुष्पदूषितक (प्रकरण)
ललिता-नाटिका
जानकीपरिणय X रामभद्र दीक्षित)
माधवाभ्युदय (वेदान्ताचार्य)
प्रद्युम्नानंदनीय (वेंकटाचार्य)
पंचवाणविजय
रविकिरण कूर्चिका
सुभद्राधनंजय (गुरुराम)
कन्यामाधव
त्रिपुरारि
सत्यभामापरिणय
भिक्षाटन-नाटक
मन्त्रांग-नाटक
संवरणा-नाटक
सीताराघव नाटक
हरिश्चंद्र- यशश्चन्द्रिका
नरकासुरव्यायोग
अरुणामोदिनी
बृहन्नाटक
काशिदास-प्रहसन
अम्बालभाण
(श्रीवरदाचार्य)
कृष्णभक्तिचन्द्रिकानाटक X (अनंतदेव)
अतन्द्रचन्द्रिका (विद्यानिधि)
पार्थपराक्रम
भर्तृहरिनिर्वेद
धर्मविजयनाटक (शुक्ल भूदेव)
सत्संगविजयनाटक (वैद्यनाथ)
चंद्रप्रभा X
कर्णसुंदरी-नाटिका
रतिवल्लभ X (जगन्नाथ पंडितराज)
जगन्नाथवल्लभनाटक
ध्रुवचरित्र (पं. दामोदर शास्त्री)
अथ भाषा नाटक
हिंदी भाषा में वास्तविक नाटक के आकार में ग्रंथ की सृष्टि हुए पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं हुए। यद्यपि नेवाज कवि का शकुंतला नाटक, वेदांतविषयक भाषाग्रंथ समयसारनाटक, ब्रजवासीदास प्रभृति के प्रबोधचंद्रोदय नाटक के भाषा अनुवाद, नाटक नाम से अभिहित हैं; किंतु इन सबों की रचना काव्य की भाँति है। अर्थात् नाटक रीत्यनुसार पात्रप्रवेश इत्यादि कुछ नहीं है। भाषा कविकुल मुकुट माणिक्य देवकवि का ‘देवमायाप्रपंच नाटक’ और श्रीमहाराज काशिराज की आज्ञा से बना हुआ प्रभावती नाटक तथा श्रीमहाराज विश्वनाथसिंह रीवां का आनंदरघुनंदन नाटक यद्यपि नाटक रीति से बने हैं; किंतु नाटकीय नियमों का प्रतिपालन इनमें नहीं है और ये छंदप्रधान ग्रंथ हैं। विशुद्ध नाटक रीति से पात्र प्रवेशादि नियमरक्षण द्वारा भाषा का प्रथम नाटक मेरे पिता पूज्यचरण श्री कविवर गिरिधर दास (वास्तविक नाम बाबू गोपालचंद्र जी) का है। इसमें इंद्र को ब्रह्महत्या लगना और उसके अभाव में नहुष का इंद्र होना, नहुष का इंद्रपद पाकर मद, उसकी इंद्रानी पर कामचेष्टा इंद्रानी का सतीत्व, इंद्रानी के भुलावा देने से सप्तऋषि को पालकी में जोतकर नहुष का चलना, दुर्वासा का नहुष को शाप देना और फिर इंद्र का पूर्वपद पाना, यह सब वर्णित है।
मेरे पिता ने बिना अँग्रेज़ी शिक्षा पाए इधर क्यों दृष्टि दी यह बात आश्चर्य की नहीं। उनके सब विचार परिष्कृत थे। बिना अँग्रेज़ी की शिक्षा के भी उनको वर्तमान समय का स्वरूप भलीभाँति विदित था। पहले तो धर्म ही के विषय में वह इतने परिस्कृत थे कि वैष्णवव्रत पूर्णपालन के हेतु अन्य देवता मात्र की पूजा और व्रत घर से उठा दिए थे। टामसन साहब लेफ्टिनेंटगवर्नर के समय काशी में पहला लड़कियों का स्कूल खुला, तो हमारी बड़ी बहिन को उन्होंने उस स्कूल में प्रकाश रीति से पढ़ने बैठा दिया। यह कार्य उस समय में बहुत ही कठिन था; क्योंकि इसमें बड़ी ही लोकनिंदा थी। हम लोगों को अँग्रेज़ी शिक्षा दी। सिद्धांत यह कि उनकी सब बातें परिष्कृत थीं और उनको स्पष्ट बोध होता था कि भविष्य में समय कैसा आने वाला है। नहुष नाटक बनने का समय मुझको स्मरण है। आज पच्चीस बरस हुए होंगे, जब कि मैं सात बरस का था नहुष नाटक बन रहा था। केवल 27 वर्ष की अवस्था में मेरे पिता ने देहत्याग किया; किंतु इसी समय में चालीस ग्रंथ (जिनमें बालरामकथामृत, गर्गसंहिता, भाषावाल्मीकि रामायण, जरासन्धवध महाकाव्य और रसरत्नाकर जैसे बड़े-बड़े भी हैं) बनाए।
हिंदी भाषा में दूसरा ग्रंथ वास्तविक नाटककार राजा लक्ष्मणसिंह का शकुंतला नाटक है। भाषा के माधुर्य आदि गुणों से यह नाटक उत्तम ग्रंथों की गिनती में है। तीसरा नाटक हमारा विद्यासुंदर है। चौथे के स्थान में हमारे मित्र लाला श्रीनिवासदास का तप्तीसंवरण, पंचम हमारा वैदिकी हिंसा, षष्ठ प्रियमित्र बाबू तोताराम का केटोकृतांत और फिर तो और भी दो चार कृतविद्य लेखकों के लिखे हुए अनेक हिंदी नाटक हैं। सर, विलियन म्यौर26 साहिब के काल में अनेक ग्रंथ बने हैं; क्योंकि वे ग्रंथ बनाने वालों को पारितोषिक देते थे। इसी से रत्नावली भी हिंदी में बनी27 और छपी हैं; किंतु इसकी ठीक वही दशा है जो पारसी नाटकों की है। काशी में पारसी नाटकवालों ने नाचघर में जब शकुंतला नाटक खेला और उसमें धीरोदात्त नायक दुष्यंत खेमटेवालियों की तरह कमर पर हाथ रखकर मटक-मटक कर नाचने और पतरी कमर बलखाय यह गाने लगा और डाक्टर थिबो बाबू प्रमदादास मित्र प्रभृति विद्वान यह कहकर उठ आए कि अब देखा नहीं जाता, ये लोग कालिदास के गले पर छुरी फेर रहे हैं। यही दशा बुरे अनुवादों की भी होती है। बिना पूर्व कवि के हृदय से हृदय मिलाए, अनुवाद करना शुद्ध झख मारना ही नहीं कवि की लोकांतर स्थित आत्मा को नारकीय कष्ट देना है।
इस रत्नावली की दुर्दशा के दो चार उदाहरण यहाँ दिखलाए जाते हैं। ‘यथा जब यह प्रसंग हुआ कि यौगंधरायण प्रसन्न होकर रंगभूमि में आया और यह बोला तथा गान कर कहता है कि अए मदनिके' अब कहिए यह राम कहानी है कि नाटक?
आनंद सुनिए 'जो आज्ञा रानी जी की ऐसी कर तैसी ही करती है, हहाहाहा!!!
'एक आनंद और सुनिए। नाटकों में कहीं-कहीं आता है ‘नाट्येनोपविश्य’ अर्थात् पात्र बैठकर नाट्य करता है। उसका अनुवाद हुआ है ‘राजा नाचता हुआ बैठता है’
‘नाट्येनोल्लिख्य’ की दुर्दशा हुई है ‘ऐसे नाचते हुए लिखती है’ ऐसे ही ‘लेखनी को लेकर नाचती हुई’ निकट बैठकर नाचती हुई।‘॥
और आनंद सुनिए ‘अतिविष्कम्भकः’ का अनुवाद हुआ है ‘पीछे विष्कम्भक आया’ धन्य अनुवादकर्त्ता! और धन्य गवर्नमेंट जिसने पढ़ने वाले की बुद्धि का सत्यानाश करने को अनेक द्रव्य का श्राद्ध करके इसको छापा।
गवर्नमेंट की तो कृपादृष्टि चाहिए, योग्यायोग्य के विचार की आवश्यकता नहीं। फालेन साहब की डिक्शनरी के हेतु आधे लाख रुपए से अधिक व्यय किया गया, तो यह कौन बड़ी बात है। ‘सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।’ यहाँ तो ‘भेंट भए जय साहि सों ‘भाग चाहियत भाल’ वाली बात है। किंतु ऐसी दशा में अच्छे लोगों का परिश्रम व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि 'आँधरे साहिब की सरकार कहाँ लौं करें चतुराई चितेरो।’
हिंदी भाषा में दस बीस नाटक बन गए हैं; किंतु हम यही कहेंगे कि अभी इस भाषा में नाटकों का बहुत ही अभाव है। आशा है कि काल की क्रमोन्नति के साथ ग्रंथ भी बनते जाएँगे। और अपनी सम्मतिशालिनी ज्ञानवृद्धा बड़ी बहन बंगभाषा के अक्षयरत्न भाण्डागार की सहायता से हिंदी भाषा बड़ी उन्नति करे।
यहाँ पर यह सब प्रकाश करने में भी हम को अतीव आनंद होता है कि लंडन नगरस्थ श्रीयुत फ्रेडरिक पिनकाट साहब ने भी28 (26) शकुंतला का हिंदी भाषा में
अनुवाद किया है। वह अपने 20 मार्च के पात्र में हिंदी ही में मुझेको लिखते हैं। ‘उस पर भी मैंने हिंदी भाषा के सिखलाने के लिए कई एक पोथियाँ बनाई हैं, उनमें से हिंदी भाषा में शकुंतला नाटक एक है।’
हिंदी भाषा में जो सबसे पहला नाटक खेला गया, वह जानकीमंगल था। स्वर्गवासी मित्रवर बाबू ऐश्वर्य नारायण सिंह के प्रयत्न से चैत्र शुक्ल 11 संवत् 1925 में बनारस
थिएटर में बड़ी धूमधाम से यह खेला गया था। रामायण से कथा निकालकर यह नाटक पंडित शीतला प्रसाद त्रिपाठी ने बनाया था। इसके बाद प्रयाग और कानपुर के लोगों ने भी रणधीरप्रेममोहिनी और सत्यहरिश्चंद्र खेला था। पश्चिमोत्तर देश में ठीक नियम पर चलने वाला कोई आर्य शिष्टजन का नाटकसमाज नहीं है।
अथ हिंदी नाटक तालिका
नहुषनाटक (श्रीगिरिधरदास)
शकुंतला (राजालक्ष्मण सिंह)
शकुंतला (फ्रेडरिक पिंकाट साहब)
मुद्राराक्षस (हरिश्चंद्र)
सत्यहरिश्चंद्र (हरिश्चंद्र)
विद्यासुंदर (हरिश्चंद्र)
अँधेर नगरी (हरिश्चंद्र)
विषस्य विषमौषधम् (हरिश्चंद्र)
सतीप्रताप (हरिश्चंद्र)
चन्द्रावली (हरिश्चंद्र)
माधुरी (हरिश्चंद्र)
पाखंडविडम्बन (हरिश्चंद्र)
नवमल्लिका (हरिश्चंद्र)
दुर्लभबंधु (हरिश्चंद्र) सरोजिनी
प्रेमयोगिनी (हरिश्चंद्र)
जैसा काम वैसा परिणाम (हरिश्चंद्र)
नीलदेवी (हरिश्चंद्र)
भारत दुर्दशा (हरिश्चंद्र)
भारतजननी (हरिश्चंद्र)
धनंजयविजय (हरिश्चंद्र)
वैदिकी हिंसा (हरिश्चंद्र)
बूढ़ेमुँह मुँहासे लोग देखे तमाशे (बूड़ो शालिकेर बाबूगोकुल का अनुवाद)
अद्भुत चरित्र वा गृहचण्डी (श्रीमती)
तृप्तीसंवरण (लाला श्रीनिवास दास)
रणधीरप्रेममोहिनी (लाला श्रीनिवास दास)
केटो कृतांत (बाबू तोताराम भारत बंधु संपादक)
सज्जाद सुम्बुल (बाबू केशोराम भट्ट बिहारबंधु संपादक)
शमशाद सौसन (बाबू केशोराम भट्ट)
जय नरसिंह की (पं देवकी नंदन तिवारी, प्रयाग समाचार संपादक)
होली खगेश (पं देवकी नंदन)
चक्षुदान (पं देवकी नंदन)
पद्मावती (पं. बालकृष्ण भट्ट
शर्मिष्ठा संपा. हिंदी प्रदीप)
सरोजिनी (पं. गणेशदत्त)
सरोजिनी (राधाचरण गोस्वामी)
मृच्छकटिक (पं. गदाधरभट्ट मालवीय)
मृच्छकटिक (पं. दामोदर शास्त्री)
मृच्छकटिक (बाबू ठाकुरदयाल सिंह)
वारांगना रहस्य (बाबू बदरीनारायन, चौधरी)
विज्ञानविभाकर (पं. जानी बिहार लाल)
ललिता-नाटिका (पं. अम्बिकादत्त व्यास)
देवपुरुष हृदय (पं. अम्बिकादत्त व्यास)
वेणीसंहार नाटक (पं. अम्बिकादत्त व्यास)
गोसंकट (पं. अम्बिकादत्त व्यास)
जानकी-मंगल (पं. शीतलाप्रसाद त्रिपाठी)
दुःखिनीबाला (बाबू राधाकृष्णदास)
पद्मावती महारस (महाराजधिरज कुमार लाल खंग बहादुरमल्ल युवराज)
रामलीला 7 कांड (पं. दामोदर शास्त्री, विद्यार्थी संपादक)
बालखेल (पं. दामोदर शास्त्री)
राधामाधव (पं. दामोदर शास्त्री)
वेनिस का सौदागर (बाबू बालेश्वर प्रसाद)
वेनिस का सौदागर (बाबू ठाकुरदयाल सिंह)
योरप में नाटकों का प्रचार
योरप में नाटकों का प्रचार भारतवर्ष के बाद हुआ है। पहले दो मनुष्यों के संवाद को ही वहाँ नाटकों का सूत्रपात मानते थे। प्राचीन ईसाई धर्मपुस्तक में 'बुक अव जाब' और सुलैमान के गीतों में ऐसे संवाद मिलते हैं; किंतु इनके अतिरिक्त हिब्रू भाषा में और कोई प्राचीन नाटक का ग्रंथ नहीं। योरप में सबसे प्राचीन नाटक यूनान में मिलते हैं और यह निश्चित अनुमान हुआ है कि भारतवर्ष से वहाँ यह विद्या गई होगी। यूनान में एथेंस प्रदेश में नाटकों का प्रचार विशेष था और डायोनिसस29 नामक देवता के मेले में नाटक प्रायः खेले जाते थे। अनुमान होता है कि वैक्सस30 नामक देवता की पूजा से वहाँ इनका चलन हुआ। प्राचीन काल से यूरोप के नाटक संयोगांत और वियोगांत इन दो भागों में बँटे हैं। आरिअन नामक कवि ने 580 वर्ष ईसा के पूर्व वियोगांत नाटक की सृष्टि की। ट्रैजिडी (Treagedy) शब्द बकरे से निकला है। जिससे अनुमान होता है कि बैक्सस देवता के सामने बकरे की बलि उसी समय पहले यह खेल आरंभ हुआ, इससे वियोगांत नाटक की संज्ञा ट्रैजिडी हुई। (Comedy) कामेडी ग्राम शब्द से निकला है अर्थात् ग्राम्यसुखों का जिनमें वर्णन हो वह कामेडी (संयोगांत) है। थेसपिस ने (536 ई. पू.) प्रथम रंगशाला में एक शिष्य का वेष देकर मनुष्यों को संवाद पढ़वाया और उसी पात्र को प्रिनिशश ने (512 ई. पू.) पहले पहल स्त्री का वेष देकर रंगशाला में सब को दिखलाया। इसके बाद इशिलश के काल तक वियोगांत नाटकों में फिर कोई नई उन्नति नहीं हुई।
आरिअन ही के समय में वरन् उसी के लाग पर सुसेरियन ने संयोगांत नाटकों का प्रचार सारे यूनान में फिर-फिर कर किया और एक छोटी सी चलती फिरती रंगशाला भी उनके साथ थी। उस काल के ये नाटक अब के बंगाली यात्रा या रास जैसे होते थे। उस समय में वियोगांत नाटक गम्भीराशय और विशेष चित्ताकर्षक होने के कारण सभ्य लोगों में और संयोगांत ग्राम्य लोगों में खेले जाते थे। एपिकार्मस, फार्मस, मैग्नेस, क्रेट्स, क्रेटनस यूपोलिस, यूफेटिक्रटेस और एलिस्टेफेन्स ये सब उस काल के प्रसिद्ध कामेडी लेखक थे। बीच में लोगों ने संयोग वियोग मिलाकर भी पुस्तकें लिखकर इस विद्या की उन्नति की।
वियोगांत नाटक में इशिलस, सोफाकोलस और यूरुपिडीस ये तीन बड़े दक्ष हुए। इन कवियों ने स्वयं पात्रों को अभिनय करना सिखाया और स्वाभाविक भावभंगी दिखलाने में विशेष परिश्रम किया। अरस्तू ने इन्हीं तीनों कवियों की अपने ग्रंथ में बड़ाई की है। रोमवाले नाटकविद्या में ऐसे दक्ष नहीं थे। इन लोगों ने यूनान वालों ही से इस विद्या का स्वाद पाया। शोक का विषय है कि प्लाट्स और टेरेन्स के अतिरिक्त इन कवियों में से किसी का न नाम मालूम है न कोई ग्रंथ मिला। आगष्टस के प्रसिद्ध समय में इस विद्या की उन्नति हुई थी; किंतु सेनीका नामक नाटक के अतिरिक्त और किसी ग्रंथ का नाम तक कहीं नहीं मिला। रोम के बड़े-बड़े महलों और वीरों के साथ वहाँ की विद्या और कला भी धूल में मिल गई, यहाँ तक कि उनका नाम लेनेवाला भी कोई न बचा। जब रोम में क्रिस्तानी मत फैला, तो ऐसे नाटक या खेल राजनियम के अनुसार निषिद्ध कर दिए गए। केवल पिता पुत्र एपोलीनारी और ग्रेगरी ने इंजील से कथाभाग लेकर क्रिस्तानों का जी बहलाने का कुछ सवांग इत्यादि बनाए थे।
यूरोप में इटलीवालों ने पहले पहल ठीक तरह से नाटक के प्रचार में उद्योग किया और रोमवालों के चित्त में फिर से मुरझाए हुए इस बीज को हरा किया। सोलहवीं शताब्दी में टिसनो कवि का सोफोनिस्वा नामक वियोगांत नाटक पहले पहल छापा गया। आरिआस्टोवैबिना और मैशियाविली ने ट्रिसीनो की भाँति और कई नाटक लिखे। इसी शताब्दी के अंत में गिएम्बाटिस्टालिआपोर्टा ने प्रहसन पहले पहल प्रकाशित किया और इसमें परिहास की बातें ऐसी सुसभ्यता से वर्णन कीं कि लोगों ने नाटक की इस शैली को बहुत ही प्रसन्नता से स्वीकार किया। इसी समय में हिंशी, बोरगिनी, ओडो और बुओनाटोरी ने जातीय स्नेह बढ़ानेवाले बीररसाश्रित इतिहास के खेल लिखे और प्रचार किए। सतरहवीं शताब्दी में रिनुशिनी ने पहले पहल आपेरा (संगीत नाट्य) का आरंभ किया। इसमें उसने ऐसे उत्तम रीति से प्रेम, देशस्नेह, वीर और करुण रस के गीत बाँधे कि सब लोग अन्य नाटकों को भूल कर इसी की ओर झुके। मैकी नामक कवि ने इसकी और भी उन्नति की। अब स्पेन फरासीस, चारों ओर इसी गीतिनाट्य का चर्चा फैल गया। इसके पीछे जीनो, मेटैस्टेसिओ, गोलडोनी, मोलिएर, रिशोबिनी, गोज्जी, गालडोनी, आलफीरो, माटी, मानजानी और निकोलिनी इत्यादि प्रसिद्ध कवियों ने पूर्वोक्त नाटकों के ऐसी उत्तमता से ग्रंथ लिखे और नाटक में ऐसी उन्नति की कि इटली इस विद्या में सारे योरप की गुरु मानी गई।
यूरोप के अन्य देशों में नाटकों के प्रचार को पादरियों ने बहुत रोका। जहाँ कोई नाटक खेलता, ये पादरी उसको धर्मदंड देने को दौड़ते। विलेना, सान्तिलाना, नाहरो और रूएड़ा नामक कवियों ने इस आपत्ति से बचने को अपनी लेखनी को धर्मविषय के नाटकों के लिखने पर परिचालित किया। विशेष करके करवैनृस ने अपने नाटक ऐसी उत्तमता से लिखे कि लोगों के चित्त से नाटकों की बुराई का संस्कार एकबारगी उठा दिया। इसके पीछे कल्डिरन भी ऐसा ही उत्तम कवि हुआ कि उसको राजनियम विरुद्ध होने पर सैंतीस वर्ष के वास्ते नाटक लिखने की राजाज्ञा मिली। ये दोनों कवि सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वभाग में हुए थे।
फरासीस में नाटकों के विषय में बहुत बादानुवाद होता रहा और इसके होने के नियमों पर लोगों में बड़ी चरचा रही; किंतु कोई बहुत उत्तम नाटक लेखक उस समय नहीं हुआ। जाडिली ने पहले पहल पाँच अंक का एक वियोगांत नाटक ठीक चाल पर बनाया और फरासीस के दूसरे हेनरी बादशाह के सामने वह खेला गया। चौदहवें लुइस के दरबार में कार्निली, मालिएरी और रैसिनी क्रम से एक से दूसरे अच्छे नाटक वाले हुए। इसके बाद बालटायर बड़ा प्रसिद्ध हुआ और फिर पाँच और प्रसिद्ध कवि हुए।
जर्मनी के नाटक के इतिहास में अठारहवीं शताब्दी के आरंभ तक कोई भी विशेष बात नहीं देखी गई। लेसिंग ने पहले पहल अपनी धूम धाम की समालोचना में जर्मनी का ध्यान इधर फेरा। इसके पीछे गोधी और सिलर ये दो बड़े प्रसिद्ध लेखक हुए। इग्लैंड के नाटकों का इतिहास अत्यंत श्रृंखलाबद्ध है। पहले यहाँ केवल मत संबंधी नाटक होते थे और इनका प्रबंध भी पादरियों के हाथ में रहता था। ये नाटक दो प्रकार के होते थे, एक धर्मसंबंधी आश्चर्य घटनाओं के, दूसरे शिक्षा-संबंधी। इग्लैंड के पुनःसंस्कार ने इन पुरानी बातों में कोई स्वाद बाक़ी न रखा। यहाँ तक कि सोलहवीं शताब्दी के मध्य में संयोग और वियोग के नाटक स्वतंत्र रूप से वहाँ प्रचंड हुए। पहला संयोगांत नाटक सन् 1557 में निकोलस उडाल ने लिखा। ठीक उसके दस बरस बाद बीबी नोरटेन और लार्ड बकहर्स्ट से मारवूड़ाक नामक पहला वियोगांत नाटक बनाया। उसके बाद स्टिल, किड़, लाज, ग्रीन, लायली, पील, मार्ली और नैश इत्यादिक कई प्रसिद्ध नाटककार हुए। जगत विख्यात शेक्सपीयर ने अपने वाक्य माधुर्य के आगे सबको जीत लिया। यह प्रसिद्ध कवि सन् 1564 में स्टम्ट फोर्ड बार्बिक्शायर में उत्पन्न हुआ। इसका पिता ऊन का व्यवसाय करता था और उसके दस लड़कों में शेक्सपीयर सबसे बड़ा था। समय के सापेक्ष यह ऐसा प्रसिद्ध कवि हुआ कि पृथ्वी के मुख्य कवियों की गणना में एक रत्न समझा जाने लगा। इसको जैसी कविताशक्ति थी, वैसी ही विचित्र कथाओं की बाँधने की भी शक्ति थी। जिसके मस्तिष्क में ये दोनों शक्तियाँ एकत्र हों, उसके बनाए हुए नाटकों का क्या पूछना है? नाटक भी इसने बहुत बनाए और सब रस के। निस्संदेह यह मनुष्य परमेश्वर की सृष्टि का एक रत्न हुआ है।
बेनजान्सन, व्यूमौन और फ्लेचर, ये तीन शेक्सपीअर के समकालीन प्रसिद्ध नाटककार हुए हैं। मैसिन्जर, फोर्ड और शरली के काल तक इंग्लैंड की प्राचीन नाटक प्रणाली समाप्त होती है। सत्रहवीं शताब्दी के अंत में ड्राइडन ने नई प्रणाली के नाटक लिखने आरंभ किए। अठारहवीं शताब्दी में ली. आटबे, ग्रे. कानग्रीव, सिबर, विचरली, वैनब्रो, फारक्वहर, एडिसन जान्सन, यंग टामसन, लिलो, मूर, गैरिक, गोल्डस्मिथ कालमन्स, कम्बरलैण्ड, हालक्राफ्ट, बीबी इनच वाल्ड, लुइस, मैटूरिन नैट्यूरिन तथा आधुनिक काल में शिरिडन नोल्स, बुलवरलिटन लॉर्डवैरन, विल्स वैरन, गिल्वर्ट, स्विनवर्न, टेनीसन और ब्रौनिंग इत्यादि प्रसिद्ध नाटककार एवं गद्य पद्य के कवि हुए हैं।
इंग्लैंड में इन नाटक लिखनेवालों के लिए एक राजनियम है, जिससे अपने जीवित समय में कवि लोग और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी कविस्वत्व का भोग कर सकते हैं।
॥इति॥
- पुस्तक : भारतेंद्रु ग्रंथावली, खंड-2 (पृष्ठ 442)
- संपादक : मिथिलेश पांडेय
- रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
- प्रकाशन : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 2016
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