Font by Mehr Nastaliq Web

हमारी प्यारी हिंदी

hamari pyari hindi

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

अन्य

अन्य

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

हमारी प्यारी हिंदी

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    अनेक जनों के कान में हमारी नागरी भाषा की भाँति भारतीय भाषा का प्रयोग भी खटकेगा, परंतु यह भी केवल उसी अधम अभ्यास का आभास है कि जो दुर्भाग्य से अद्यपि हिंदी को उर्दू बनाए हुए है, नहीं तो हिंदी और भारतीय भाषा में भी उतना ही भेद है कि जितना आफ़ताब और सूर्य में। अब यदि कोई सूर्य के स्थान पर आफ़ताब ही कहता और नहीं चाहता कि सूर्य शब्द उसके कानों को दुःख दे, तो किसी का क्या चारा है? नहीं तो जिस मूल पर आज यह भाषा सचमुच एक भाषा कही जाने योग्य हुई, हो रही है; और केवल यही कुविचार उसका कुटार अथव उन्नति अवरोधक भी है। यद्यपि यह आग्रह और हठ अब घट रहा है, तथापि यह अभी बहुत दिनों तक इसका पीछा नहीं छोड़ता दिखता परंतु इस हठ और आग्रह का तिरस्कार कर तथा उससे अपने उत्साह को मंद करके उद्योग तत्पर रहना ही इसके हित साधकों की मुख्य चेष्टा है।

    अनेक जन यह भी पूछ बैठेंगे कि—“भारतीय भाषा तो उसी को कहेंगे कि जो समस्त भारत की भाषा हो, केवल पाश्चिमोत्तर प्रदेश उसके इधर-उधर ही जिसका प्रचार है वह भारत भर की भाषा क्योंकर कही जा सकती है; जब कि आज भी भारत में मारवड़ी, मेवाड़ी, पंजाबी, गुजराती, मरहठी, तैलंगी, द्राविड़ी, कर्नाटकी, ओड़िया, बँगला, आदि प्रधान तथा इनके अनेक आभ्यंतरिक भेद वर्तमान हैं? यद्यपि यह आपत्ति कुछ बहुत ही वे जोड़ नहीं है, परंतु उन्हें समझना चाहिए कि हिंदी शब्द भी इससे हीन नहीं हो सकता, क्योंकि हिंद की भाषा हिंदी, तब उससे एक प्रदेश की भाषा का ग्रहण कैसे हो सकता है? जो कहिए कि यह किसी विशेष भाषा के अर्थ में रूढ़ि हो गया है, तो ब्रज भाषा और बुंदेलखंडी बिहारी भाषा भी इससे पृथक् नहीं है। क्योंकि आप इन्हें एक पृथक् स्वतंत्र भाषा नहीं कह सकते।

    वस्तव में इसमें बड़ी उलझन है, और यही कारण है जो, आज हमने भारतीय भाषा का प्रयोग किया है, क्योंकि इसके अतिरिक्त कि हिंदी विशुद्ध हिंदी शुद्ध अथव संस्कृत शब्द नहीं है, यह किसी विशेष भाषा का बोधक भी पूर्ण रूप से नहीं हो सकता, क्योंकि अनेक भाषाओँ पर उसका बोधक भी पूर्ण रूप से नहीं हो सकता, क्योंकि अनेक भाषाओँ पर उसका समान अधिकार है, जैसा कि बिहारी हिंदी-ब्रजभाषा-बुंदेलखंडी-कन्नौजी (सूर्यधारी) भोजपुरी भाषाएँ भी हिंदी के आभ्यंतरिक मुख्य भेद शाखा ही हैं।

    अतएव जिस समय स्थान पर हिंदी से समग्र हिंदी भारत भर की भाषाओं से संबंध हो वहाँ हिंदुस्तानी की नाई भारतीय भाषा प्रयोग करना समीचीन होगा, जो कि कालक्रम से सब प्रकार सुसंपन्न भाषा बन गई हैं। चाहे उनकी माता मूल एक क्यों हो, परंतु हिंदी से उन्हें कुछ भी संबंध नहीं है। इसी भाँति भारतवर्ष के मध्य देश में अर्थात् बिहार, पश्चिमोत्तर, अवध, मध्यप्रदेशादि देशों के अनेक प्रांतों में जो कुछ न्यूनाधिक फेरफार से बोली जाती और परस्पर एक दूसरे प्रांत के निवसियों से सुगमतापूर्वक समझी जाती, उन सब भाषाओँ के समूह को हिंदी कहेंगे? उनमें बहुतेरी तो निज प्रांत के नाम से मिलकर विशेषता की उद्बोधक होगी, परंतु पूर्वक समझी जाती, उन सब भाषाओँ के समूह को हिंदी कहेंगे? परंतु काशी, प्रयाग, अयोध्या के मध्य और कुछ समीप की भाषा में किसी विशेष शब्द के आयोजन की आवश्यकता नहीं है। अत: इसी देश को उसकी राजधानी भी माननी होगी, अथव यों कहिए कि इस प्रांत के निवासियों की घरऊ बातचीत की भाषा ही विशुद्ध हिंदी है, क्योंकि इसी के मूल पर प्रसरित और पल्लवित होकर अन्य प्रांतों की विशेष भाषाएँ कुछ-कुछ विभिन्न हो एक नवीन उपाधि से युक्त हो पृथकता की झलक देती हैं। सारांश सामान्य हिंदी से केवल इसी देश की भाषा का ग्रहण होगा; पर अन्य विशेष हिंदी भाषाओं में किसी विशेष उपाधि की भी आवश्यकता होगी, इसका एक प्रबल प्रमाण यह भी है कि—अन्य प्रांतों की भाषाओं के लिए तो, जैसा कि ऊपर गिना चुके हैं पृथक् नाम हैं, परंतु इसके लिए कोई विशेष नाम नहीं है।

    यद्यपि दस-दस बीस-बीस कोस ही की दूरी पर भाषा में कुछ-कुछ अंतर अर्थात् उसके उच्चारण अथवा लब लहज़े में भिन्नता हो जाती है, परंतु शब्दों और क्रियाओं का जब तक विशेष रूपांतर हो तब तक उसमें भेद नहीं कहा जा सकता, वरंच किसी एक प्रदेश के एक प्रांत के निवसियों से दूसरे प्रांत के रहने वलों को यथार्थ समझ पड़ने पर वे दोनों प्रांतिक भाषाएँ उस एक ही भाषा के दो भेद शाखा मानी जाएँगी; जैसे कि एक वृक्ष की अनेक शाखाएँ, चाहे वह आकार में सीधी टेढ़ी क्यों हों पर एक ही प्रकार के पत्र-पुष्प से युक्त होने के कारण वृक्ष की संज्ञा में वे अंतर्गत हो जाती है। अब देखिए कि ब्रजभाषा बिहारी अथव कन्नौजी और बुंदेलखंडी चाहे परस्पर एक दूसरे से कुछ विशेष विभिन्नता दिखलातीं, परंतु विशुद्ध हिंदी अर्थात हमारे प्रांत की हिंदी के सन्मुख वह विभिन्नता बहुत ही न्यून हो जाती है, ठीक जैसे कि एक माता की अनेक पुत्रियाँ जो भिन्न देशों में ब्याही गई और सदैव ससुराल में रहने से यद्यपि परस्पर उनकी भाषाओं में बहुत कुछ भेद पड़ गया हो, परंतु संयोग से वे सब जैसे अपने मायके पितृगृह में आकर बिना कष्ट के आपस में मिल प्रेम से बिना किसी परिश्रम के अपने भाव एक दूसरे पर प्रकट करतीं, और समझ कर प्रसन्न हो अपनी अभिन्नता दिखलाती हों।

    इसके अतिरिक्त यह स्मरण रहे कि यह सब बातें केवल ग्राम्य भाषा सामान्य भाषा ही से संबंध रखती हैं, परंतु विशेष में सब की भाषा एक ही हैं, जैसे कि इन सब की नागरी भाषा एक ही है जिसमें कहीं बाल बराबर का भी भेद नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमघन सर्वस्व द्वितीय भाग (पृष्ठ 48)
    • संपादक : प्रभाकरेश्वर प्रसाद उपाध्याय, दिनेश नारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : बदरीनारायण उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मलेन
    • संस्करण : 2007

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY