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भाषा और संस्कृति

bhasha aur sanskriti

सुमित्रानंदन पंत

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भाषा और संस्कृति

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    आजकल जो अनेक समस्याएँ हमारे देश के सामने उपस्थित हैं, उनमें भाषा का जश्न भी अपना विशेष महत्त्व रखता है। इधर पत्र-पत्रिकाओं में किसी किसी रूप में इनकी चर्चा होती रहती है और इस संबंध में अनेक सुझाव भी देखने को मिलते हैं। इस प्रश्न के सभी विवादपूर्ण पहलू लोगों के सामने गए हैं और उन पर यथेष्ट प्रकाश भी डाला जा चुका है।

    इस समय हमें अत्यंत धीरज, साहस तथा सद्भाव से काम करने की आवश्यकता है। भाषा मनुष्य के हृदय की कुंजी है, और किसी भी देश या राष्ट्र के संगठन के लिए एक अत्यंत सबल साधनों में से है। विश्व मानवता का मानसिक संगठन भी भाषा ही के आधार पर किया जा सकता है। भाषा हमारे मन का परिधान या लिबास है। उसके माध्यम से हम अपने विचारों, आदर्शों, सत्य-मिथ्या के मानों तथा अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों को सरलतापूर्वक व्यक्तकर एक-दूसरे के मन में वाहिन करते हैं। भाषा भी, संस्कृति ही की तरह, कोई स्वभाव सत्य नहीं, एक संगठित वस्तु है, जो विकास क्रम द्वारा प्राप्त तथा परिष्कृत होती है। अगर हमारे भीतर भाषा का स्वरूप संगठित नहीं होता, तो हम जो कुछ शब्द-ध्वनियों या लिपि-संकेतों द्वारा कहते हैं, और अपनी चेतना के जिन सूक्ष्म भावों का अथवा मन के जिन गुणों का परस्पर आदान-प्रदान करना चाहते हैं, वह सब संभव तथा सार्थक नहीं होता।

    इस दृष्टिकोण से जब हम अपने युग तथा देश की परिस्थितियों पर विचार करते हैं, तो हमें यह समझने में देर नहीं लगती कि अपने देश की जनता में, उसके विभिन्न वर्गों और संप्रदायों में, एकता स्थापित करने के लिए तथा अपने राष्ट्रीय जीवन को सशक्त, संयुक्त एवं संगठित बनाने के लिए हमें एक भाषा के माध्यम की नितांत आवश्यकता है, जिसका महत्त्व किसी भी दूसरे तर्क या विवाद से घटाया नहीं जा सकता। यह ठीक है कि हमारी सभी प्रांतीय भाषाएँ यथेष्ट उन्नत है, उनका साहित्य पर्याप्त विकसित है और वे अपने प्रांतों के राज-काज को सँभाल सकती है। किंतु राष्ट्रभाषा के प्रचार तथा अभ्युदय से प्रांतीय भाषाओं के विकास में किसी प्रकार की क्षति या बाधा पहुँच सकती है, इस प्रकार का तर्क समझ में नहीं आता। वास्तव में राष्ट्रभाषा या एक भाषा का प्रश्न अगली पीढ़ियों का प्रश्न है। आज की पीढ़ी के हृदय में मध्ययुगों को इतनी विकृतियाँ और संकीर्णताएँ अभी अवशेष हैं कि हम छोटे-मोटे गिरोहों, संप्रदायों, वादों और मतों में बँटने की अपनी ह्रास युग की प्रवृत्तियों को छोड़ ही नहीं सकते। विदेशी शासन के कारण हमारी चेतना इतनी विकीर्ण तथा पराजित हो गई है कि हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को ठीक-ठीक समझ ही नहीं सकते और अपने स्वार्थों से बाहर, एक सबल संतुलित राष्ट्रीय संगठन के महत्त्व की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। अगली पीढ़ियाँ अपनी नवीन परिस्थितियों के कारण राष्ट्रीय आदर्शों के गौरव के प्रति अधिक जाग्रत और प्रबुद्ध हो सकेगी, इसमें संदेह नहीं। उनके हृदयों में अधिक स्फूर्ति होगी, रक्त में नवीन जीवन, तथा प्राणों में अदम्य उत्साह एवं शक्ति। वे अपनी प्रांतीय भाषा के साथ राष्ट्रभाषा के वातावरण में भी बढ़ेगी और उसे भी आसानी से सीख लेगी।

    आज तक हम सात समुद्र पार की विदेशी भाषा को तोते की तरह रटकर साक्षर तथा शिक्षित होने का अभिमान ढोते आए हैं। तब प्रांतीय भाषाओं के जीवन का प्रश्न हमारे मन में नहीं उठता था। आज जब राजकाज में अँग्रेज़ी का स्थान हिंदी ग्रहण करने जा रही है तब प्रांतीय भाषा-भाषियों का विरोध हठधर्मी की सतह पर पहुँच गया है। धार्मिक सांप्रदायिकता के जाल से मुक्त होकर अब हम भाषा संबंधी सांप्रदायिकता के दलदल में डूबने जा रहें हैं!

    सौभाग्यवश हमारी सभी प्रांतीय भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा रही है। दक्षिणी भाषाओं में भी संस्कृत के शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में बढ़ने लगा है। उत्तर भारत की भाषाएँ तो विशेष रूप से संस्कृत के सौष्ठव, ध्वनि- सौंदर्य तथा उसकी चेतना के प्रकाश से अनुप्राणित तथा जीवित है। अगर हम अपनी हठधर्मी से लड़ सके, तो मुझे कोई कारण नहीं दीखता कि क्यों हम आज हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में एकमत होकर स्वीकार कर उसे वास्तविकता में परिणत नहीं कर सकते। अन्य प्रांतीय भाषाओं की तुलना में राशि (जनसंख्या) तथा गुण (सरलता, सुबोधता, उच्चारण-सुविधा आदि) की दृष्टि से भी हिंदी का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण तथा प्रमुख है।

    हिंदी-उर्दू का प्रश्न प्रादेशिक भाषाओं के प्रश्न से कुछ अधिक जटिल तथा विवादपूर्ण है। एक तो दोनों की जनक-भाषाएँ आमूल भिन्न है। हिंदी संस्कृत की संतान है, उर्दू फ़ारसी और अरबी की। फिर अभी हम दुर्भाग्यवश जिस प्रकार हिंदू और मुस्लिम संप्रदायों में विभक्त है, हमारे सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाया है। फलत: हिंदी और उर्दू को भी हम दो विभिन्न संस्कृतियों की चेतनाओं तथा उपादानों की वाहक मानने लगे हैं। पर यह पुरानी दुनिया का इतिहास है। संसार में आज सभी जातियों, वर्गों, समूहों या संप्रदायों में धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि अनेक प्रकार की विरोधी शक्तियों का संघर्ष देखने को मिलता है जो आगे चलकर आने वाली दुनिया में अधिक व्यापक सामंजस्य ग्रहण कर सकेगा और मनुष्य को मनुष्य के अधिक निकट ले आएगा, तब भिन्न-भिन्न समूहों की अंतश्चेतना के संगठनों में साम्य, सद्भाव तथा एकता स्थापित हो जाएगी। इसे अनिवार्य तथा अवश्यंभावी समझना चाहिए।

    हमें हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा के—उसे आप उत्तर प्रदेश की भाषा कह ले—दो रूप मानना चाहिए। दोनों एक ही जगह फूली-फली हैं। दोनों के व्याकरण में, वाक्यों के संगठन, संतुलन तथा प्रवाह आदि में पर्याप्त साम्य है—यद्यपि उनके ध्वनि-सौंदर्य में विभिन्नता भी है। साहित्यिक हिंदी तथा साहित्यिक उर्दू एक ही भाषा को दो चोटियाँ है, जिनमें से एक अपने निखार में संस्कृत-प्रधान हो गई है, दूसरी फ़ारसी-अरबी प्रधान और उनका बीच का बोलचाल का स्तर ऐसा है जिसमें दोनों भाषाओं का प्रवाह मिलकर एक हो जाता है। हिंदी-उर्दू के एक होने में बाधक वे भीतरी शक्तियाँ हैं जो आज हमारी धार्मिक, सांप्रदायिक, नैतिक आदि संकीर्णताओं के रूप में हमें विच्छिन्न किए हुई है। भविष्य में हमारे राष्ट्रीय निर्माण में जो सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शक्तियाँ काम करेंगी वह बहुत हद तक इन विरोधों को मिटाकर दोनों संप्रदायों को अधिक उन्नत और व्यापक मनुष्यत्व में बाँध देगी। विरोध के भीतरी कारण नहीं रहेगे अथवा पंगु हो जाएँगे।

    इस समय हमारा चेतन मानव प्रयास इस दिशा में केवल इतना ही हो सकता है कि दोनों भाषाओं को मिलाने के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सके। वह आधार इस समय स्थूल ही आधार हो सकता है—और वह है नागरी लिपि। सरकार को हिंदी-उर्दू-भाषियों के लिए, राज-काज एक ही लिपि को स्वीकार कर उसका प्रचार करना चाहिए। यही नीति हमारे शिक्षा केंद्रों की भी होनी चाहिए। हमें इस समय भाषा के प्रश्न को बलपूर्वक सुलझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। केवल एक लिपि के आधार पर ज़ोर देना चाहिए। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि नागरी लिपि उर्दू से ही नहीं, संसार की सभी लिपियों से शायद अधिक सरल, सुबोध तथा वैज्ञानिक है और उसमें समयानुकूल छोटे-मोटे परिवर्तन आसानी से हो सकते हैं।

    भाषा का सूक्ष्म जीवन लिपि का आधार पाकर अपनी रक्षा अपने आप कर सकेगा। उसमें आने वाली पीढ़ियाँ अपने जीवन के रक्त से, अपनी प्रीति के आनंद ने तथा स्वप्नों के सौंदर्य से सामंजस्य प्रदान कर सकेगी। वह मेल अधिक स्वाभाविक नियमों से संचालित होगा। आज हम बलपूर्वक हिंदुस्तानी के रूप में दोनों को मिलाने का कृत्रिम और कुरूप प्रयत्न कर रहे है। यह हमें कहीं नहीं ले जाएगा। क्योंकि ऐसे सचेष्ट प्रयत्न किन्हीं आंतरिक नियमों के आधार पर ही सफल हो सकते हैं। ऐसे बाहरी प्रयत्नों से हम भाषा का व्यक्तित्व, उसका सौष्ठव तथा सौंदर्य बनाने के बदले बिगाड़ ही देंगे। भारतवर्ष के अन्य प्रांतों की भाषाओं के जीवन को सामने रखते हुए मैं सोचता हूँ हिंदी-उर्दू का मेल संस्कृत के ध्वनि सौंदर्य, रुचि-सौष्ठव तथा व्यक्तित्व के आधार पर ही सफल हो सकेगा, जिसमें अधिकाधिक मात्रा में बोलचाल के लोक-प्रचलित तद्भव शब्दों का समावेश किया जा सकता है। किंतु सचेष्ट प्रयत्नों के अलावा भाषा का अपना भी जीवन होता है और आने वाली पीढ़ियाँ नवीन विकसित परिस्थितियों के आलोक में भाषा को किस प्रकार सँवारेगी यह अभी किसी गणित के नियम से नहीं बतलाया जा सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 197)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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