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कविता रसास्वाद

kavita rasasvad

जयशंकर प्रसाद

अन्य

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जयशंकर प्रसाद

कविता रसास्वाद

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    कविता कोई मूर्तिमती देवी नहीं है, जो उसका दर्शन कर लिया जाए, पर तो भी श्रीहर्ष ने सरस्वती-वर्णन के समय सरस्वती के कुछ अंगों से इसकी समता की है, जैसे—

    जात्यावृत्तेन मिद्यमानं छंदो भुजद्वंद्वममूद्यदीयम्।

    श्लोकार्ध विश्रांतिमयी भविष्णु पर्वद्वयोसंधि सुचिह्नमध्यम्॥

    इसलिए सरस्वती के अंगों में इसकी गणना हो सकती है, पर नहीं यह तो उसके स्थूल रूप का मान है। रसात्मक कविता तो कुछ अलौकिक होती है, क्योंकि साहित्य-दर्पणकार ने लिखा है—

    सत्वोद्रकादखंडस्वप्रकाशानंदचिन्मयः

    वेद्यांतरस्पर्शंशून्यो ब्रह्मास्वाद सहोदरः

    अस्तु, जब सतोगुण का हृदय में उद्रेक होता है तब उसका अलौकिक आलोक हृदय पट पर अंकित होता है। स्वप्रकाश और चिन्मय होने से उसका आस्वाद ब्रह्मज्ञान की समता में समझा जाता है, और वास्तव में 'शब्द ब्रह्म' है भी ठीक उसी तरह जैसे वीणा का कोमल स्वर अँगुली और तार के सम्मिलन से उत्पन्न होता है। शब्दों के मनोरम संगठन स्वरूपी अँगुली चालन हृदयतंत्री को अपूर्व राग से भर देता है, पर वह राग कैसा है? और क्यों मनोहर है? उसका क्या परिणाम है? यह सब बातें उस मनोमुग्धकारी स्वर के सुनने के समय कुछ प्रतीत नहीं होता, केवल उसकी मोहिनी आकर्षण शक्ति में मनुष्य उसके अनुभव के समय चेतना विहीन-सा रहता है। यद्यपि उस गान के समाप्त होने पर यह सब धीरे-धीरे ध्यान में ले सकता है कि यह कौन राग था, और कौन स्वर था, पर सुनने में तो वह अलौकिक आनंद में आत्मविस्तृत-सा हो जाता है। अस्तु, उसी तरह कविता का भी आस्वाद अनोखा है।

    कविता के आस्वाद करने वाले के हृदय में एक अपूर्व आह्लाद होता है, और वह कैसा है? यह व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो भावुक है वह अपने अनुभवों के प्रतिवर्तन करने में वा तदनुकूल कविता पाठ करने के समय, अपने हृदय को बाह्यज्ञान शून्य कर एक अथाह आनंद सिंधु में छोड़ देता है। लक्ष्य उसका आह्लाद ही रहता है, चाहे वह वीर रस की कविता पढ़े, श्रृंगार, करुण, यह उसके पद्य हैं। लक्ष्य केवल उसका वही लोकोत्तर चमत्कार ही है, क्योंकि अनुपात करुण रस में होता है और विश्वेश्वर की अनंत महिमा गान के समय भी भक्तों के हृदय में होता है। रोमांच भयानक वस्तु दर्शन में भी होता है, और प्रिय दर्शन में भी होता है, और उसी तरह सच्चे हृदय से ईश्वर के ध्यान में भी रोमांच हो जाता है।

    परंतु हमारे कहने का तात्पर्य यही है कि उसके आस्वाद के लिए सहृदयता की आवश्यकता होती है। कविता मात्र के आस्वाद के समय केवल स्वप्रकाशानंद ही रहता है। जब उसका मानव हृदय उपयोग लेता है, तब उसमें रस और उनके भाव अनुभाव इत्यादि भिन्नतया प्रतीयमान होते हैं, जैसे बाल्मीकीय रामायण की लीजिए उसकी कविता में मुग्ध होकर आह्लाद में भरकर किसी ने लिखा है—

    कूजंतं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्।

    आरुह्य कवितां शाखां वंदे वाल्मीकिकोकिलम्।

    पर जब उसकी उपयोगिता का अवसर होता है तो तत्काल लोग कहते हैं कि— 'रामवदाचरणीयं तु रावणवत्'

    अस्तु, उसका आनंद सत्य मय है। लक्षण उसका स्वप्रकाशनंद ही है। इसीलिए कहा भी है—

    पुण्यवंत: विवृण्वंति योत्मिद्रससंततिम्।

    (इंदु, किरण 4, कला 2, 1967)

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 436)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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