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ठाकुर जी की बटोर

thakur ji ki bator

हजारीप्रसाद द्विवेदी

अन्य

अन्य

हजारीप्रसाद द्विवेदी

ठाकुर जी की बटोर

हजारीप्रसाद द्विवेदी

और अधिकहजारीप्रसाद द्विवेदी

    (इस गाँव में हिंदुओं के सौ घर हैं, मुसलमानों के पंद्रह। धनी-मानी हिंदू ही हैं, ग़रीब कहाने योग्य मुसलमान ही। फिर भी गाँव के ठाकुर-बारी और मस्जिद में बड़ा अंतर है। मस्जिद जगमगाई रहती है, ठाकुरबारी में भूत रेंगते रहते हैं। मैं मस्जिद को भी ख़ुदा का ‘अपना’ घर नहीं मानता और ठाकुर-बारी को भी ठाकुर जी का एकमात्र मंदिर नहीं समझता। इस बार तीन वर्ष पर घर लौटा तो मालूम हुआ, एक साधु ठाकुर जी की पूजा साल भर से कर रहे हैं, पर दोनों शाम भोजन कर सकने भर का अन्न उन्हें नहीं मिल पाता। एक दिन जब मेरे एक ग्रेजुएट मित्र साधु को साथ लेकर मेरे पास आए और ठाकुरबारी की दुर्व्यवस्था का सजीव वर्णन किया तो मैं उनकी प्रस्तावित सभा में, जहाँ ठाकुर जी के राग-भोग की व्यवस्था करने का विचार होने वाला था, उपस्थित रहने और यथासंभव सहायता देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो गया। स्थानीय भाषा में इसी प्रस्तावित सभा का नाम रखा गया ‘ठाकुर जी की बटोर।’)

    तीन चार घंटा-ध्वनि के साथ विज्ञापन करने और अनेक सज्जनों को अनेक बार व्यक्तिगत रूप से अनुरोध करने पर भी जब सभा-स्थल पर कुछ बच्चों के सिवा और कोई नहीं आया तो मैं कुछ उद्विग्न हो आया। मैं सोचने लगा, लोग ठाकुर जी के प्रति इतने उदासीन क्यों हैं? हिंदुओं में धर्म-भावना क्या लुप्त हो गई है? मैंने कल्पना के नेत्रों से देखा कि जिस देवता के मंदिर के सामने बैठा हुआ हूँ उसकी छत्रछाया तीन हज़ार वर्षों से कोटि-कोटि नर-नारियों को शांति दान कर रही है। सिंधु उपत्य का में किसी अर्ध देवत्व-प्राप्त अनार्य वीर ने या उत्तरी प्रांतों के उपास्य किसी बाल-देवता ने युग-प्रतिष्ठित भागवत धर्म में परम दैवत का स्थान प्राप्त किया। तब से सैकड़ों बर्बर अनार्य जातियाँ उसके पावन नाम से उसी प्रकार हत-दर्प होकर शांत जीवन बिताने लगीं जिस प्रकार मंत्रौषधि के प्रयोग से उपगत-ज्वर महासर्प। मैंने मानो स्पष्ट ही देखा भारतवर्ष के उत्तरी-पश्चिमी किनारे से चींटियों की तरह सेनाएँ घुस रही हैं, लूट-पाट, नोच-खसोट, मार-पीट, कुछ भी उसके लिए असंभव नहीं है। किसी सैन्य दल के रक्त-कलुष हाथ में तीक्ष्ण फलक कुंत है, किसी के खर-धार तलवार। देखते-देखते समृद्धशाली नगर जलाकर भस्म कर दिए जाते हैं, बच्चे माताओं की गोदी से छीनकर पटक दिए जाते हैं, तरुणियों का दल ढोरों की भाँति हाँक कर ले जाया रहा है,—सारा उत्तरी भारत क्षण भर के लिए श्मशान की तरह हो जाता है। फिर मैंने देखा, यही जातियाँ यहीं बस जाती हैं और पचास वर्ष बाद अपने सिक्कों पर अपने को परम भागवत कहने में गर्व अनुभव करती हैं! इतना शीघ्र इतना विकट परिवर्तन! सचमुच उस देवता के सामर्थ्य का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है, जिसने एक नहीं, दो नहीं, बिसियों आर्योत्तर बर्बर जातियों को आचार-निष्ठ, शांत भक्त बना दिया! भागवत का श्लोक मन ही मन गुनगुनाते हुए मैंने उस महावीर्य देवता को मन ही मन प्रणाम किया—

    किरात-हूणान्ध्र-पुलिन्द-पुक्कसा-

    आभीर-कंकाः यवनाः खसादयः;

    येऽन्येऽपि पापास्तदपाश्रयाश्रयात्

    शुद्ध्यंति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।

    मैं सोचता ही गया—आज हम बौद्ध संस्कृति की संपूर्ण जानकारी के लिए तिब्बत, चीन, जापान, श्याम आदि देशों की ओर टकटकी बाँधे हैं, एक दिन ऐसा भी था जबकि पश्चिमी प्रांतों में—गांधार, पारस्य, शकस्थान,—इसी महावीर्य देवता के नाम और महिमा का कीर्तन होता था, भावावेश में लोग दरविगलित नेत्रों से महाविष्णु का स्मरण करते थे—वह दिन आज बीत गया है। पश्चिम में एक स्वतः सम्बुद्ध धर्म-भावना का अवतार हुआ जिसके एक हाथ में दृढ़-मुष्टि कठोर कृपाण थी, और दूसरे में समानता के आश्वासन का अमृत वरदान। उसका प्राण देवता अंतर्मुख था पर वह अपनी परिधि पर अक्लांत भाव से चक्कर मार रहा था। उसने किसी से समझौता नहीं किया, किसी को मित्र नहीं माना, जो सामने आया उसी को ललकारा, जिधर लपका उधर ही काल-चक्र घूम पड़ा! वह इस्लाम था। इसी इस्लाम ने पश्चिम में इस महावीर्य देवता को उखाड़ फेंका। विजय गर्व से स्फीत-वक्ष इस्लाम निर्भीक भाव से आगे बढ़ता गया, जिसने उसे आत्म-समर्पण किया वही उसके रंग में रंग गया, अब से लेकर गांधार तक एक ही विजय ध्वजा बार-बार प्रकंपित होकर धरित्री का हृदय कंपित करने लगी। आज हम उस कुचली हुई संस्कृति के लिए इन देशों की ओर ताकने की कुछ आवश्यकता ही नहीं समझते।

    हाँ, जिस मंदिर के सामने बैठा हुआ मैं उसके उपासकों की प्रतीक्षा में समय बिता रहा हूँ वह उसी महावीर्य किंतु पराजित देवता का प्रतीक है। उसके उपासक एकाधिक बार कुचले गए हैं, लूटे गए हैं, नोचे गए हैं, और तंग किए गए हैं। वे थके हुए, निर्वीर्य, निष्पोषित उपासक हैं। उपासक के तेज से ही उपास्य तेजस्वी होता है। देवता का यह प्रतीक भी तेजोहीन, वीर्यहीन और निष्प्राण है।

    इसी समय मैंने देखा, हमारी आशा-लता को लहलहाते हुए तीन वृद्ध हिंदू सभास्थल में उपस्थित हुए। उन्होंने माथे की पगड़ी उतारी और अपना अनाडंबर प्रणिपात ठाकुर जी को निवेदित किया। मन ही मन मैं सोचने लगा, आज भी करोड़ों हिंदू इसी प्रकार अनाडंबर भाव से गंभीर विश्वास के साथ ठाकुर जी को प्रणाम करके शांति पाते हैं। कौन कहता है कि वह महावीर्य देवता तेजोहत हो गया है। विजयस्फीत इस्लाम उसको कुचल नहीं सकता। आज गांधार मुसलमान हो गया है, उसे इस्लाम का अमृत वरदान प्राप्त हो गया है। तो क्या हुआ? इस्लाम के आने के पहले विद्या और ज्ञान का महापीठ गांधार आज मुसलमान होकर बदल गया है। पाणिनि और यास्क की संतान आज भारतवर्ष में हींग बेचती फिरती है। इस्लाम का इससे भयंकर पराजय और क्या हो सकता है? वैदिक ऋचाओं के बनाने वाले ऋषियों की संतान का इससे अधिक पतन क्या हो सकता है? मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि पाणिनि और यास्क, चरक और सुश्रुत, पतंजली और व्यास स्वर्ग में अत्यंत उदास बैठे हैं। भृकुटियाँ किंचित कुंचित हो गई हैं, विशाल ललाट पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिख रही हैं, आँख छलछला आई हैं—हाय, इस्लाम, तुम कब देख सकोगे?

    मुझे ऐसा लगा, इस्लाम ने मेरी बात सुन ली है। उसके हाथ तलवार की मूठ पर ठीक ही बैठे हैं, मूर्ति अत्यंत उग्र है पर क्रूर नहीं। मुझे उस मूर्ति में वीरता का तेज दिखा, देर तक उस पर आँख ठहर नहीं सकती। इस्लाम ने शांत गंभीर स्वर में कहा, तुम ठीक कहते हो, पर तुम्हारे लगाए हुए अभियोग की मुझे बिल्कुल परवाह नहीं। मैं संस्कृति फैलाने नहीं आया, मैं कुफ़्र तोड़ने आया हूँ। हज़ारों को दास बनाकर, लाखों को दलित और अस्पृश्य बनाकर जिस संस्कृति का जन्म होता है वहाँ कुफ़्र का प्राबल्य होता है। मैं उसे साफ़ करने आया हूँ। इस असम व्यवस्था के साथ मेरा समझौता नहीं हो सकता। जिस सैकड़ों कच्चे-पक्के रंग के बेमेल पट को तुम कला का श्रेष्ठ निदर्शन मानते हो, उसे मैं भद्दे दाग़ों का एक हास्यासद प्रदर्शन समझता हूँ; मैं धरती को एक पक्के रंग में रंगी देखना चाहता हूँ, भले ही वह रंग नीला हो। आज इस्लाम की ध्वजा से धरती काँप रही है, क्योंकि उसमें भीरुता है, उसमें भेद-भाव है, उसमें भ्रांति और त्रुटि है। इस्लाम का विजयतूर्य इस भीरुता, इस भेद-भाव और भ्रांति त्रुटि को दूर करके ही चुप होगा। समझौता करना डरपोकों का काम है, इस्लाम डरपोक नहीं है, वह मरना भी जानता है और मारना भी जानता है। संस्कृति के विनाश की आशंका से पद-पद पर संत्रस्त बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग कायर हैं।

    मैंने ज़रा विस्मय और आशंका के साथ जवाब दिया—संसार को एक रंग में रंगने का प्रयत्न क्या मनुष्यता के वैचित्र्य-पूर्ण विकास में बाधा पहुँचाना नहीं है? चमेली को गुलाब बनाने का प्रयत्न या चमेली और गुलाब दोनों को कुछ एक विचित्र-सा एक-रंगा फूल बनाने का प्रयत्न क्या श्रेयस्कार है? यह तो स्वयं ही एक भयंकर कुफ़्र है। इस्लाम ने गरजकर जवाब दिया—शक्तिहीन ऐसी बातें कहा करते हैं, निर्वीर्य ऐसी बातें सुना करते हैं। तुममें मेरे कथन का सत्य अर्थ ग्रहण करने की शक्ति नहीं है, उसे धैर्य के साथ समझ सकने का साइंस नहीं है। उपमाओं और रूपकों का सहारा लेकर प्रकृत अर्थ को विकृत करना दुनिया के बुद्धिमान कहे जाने वाले लोगों का एक व्यवसाय है। तुमने मेरी सीधी-सी बात का विकृत अर्थ लगाया है। मैं कभी नहीं कहता कि गुलाब और चमेली को एक कर दिया जाए। मैं कहता हूँ गुलाब और चमेली हों या आम और धतूरे, सबको एक ही समान खुला आसमान, एक ही समान खाद और पानी की सुविधा, एक ही समान यंत्र और उपचार प्राप्त होने चाहिए। इस्लाम की उग्र मूर्ति पर ज़रा सा हास्य दिखाई पड़ा, वह मानो अवहेलना के साथ बड़ी संस्कृतियों का मज़ाक़ उड़ाना चाहता था। मैंने फिर बुद्धि का आश्रय लेते हुए पूछा—ऐसे भी तो पौधे हो सकते हैं जो गुलाब और चमेली के अनुकूल खाद पाकर ही मुरझा जाएँ? कुछ पौधे पानी से बढ़ते हैं, कुछ पानी से ही मर जाते हैं। उनका क्या उपाय होगा? इस्लाम ने इस बार कड़ककर जवाब दिया—मर जाएँ तो मर जाने दो, मुझे परवाह नहीं। जो तीन लोक से न्यारे हैं, उनका न रहना ही अच्छा है। उनके रहने से बाक़ी दुनिया को कष्ट होगा और देखो, तुम अधिक तर्क न करो। यह शक्तिहीन का लक्षण है। इस वज्रमुष्टि महाकृपाण को देखो। इस्लाम इस पर भी पूर्ण विश्वास करता है। यही भगवान का वरदान है, मनुष्यता का रक्षक है, इस्लाम अपने कृपाण पर कभी संदेह नहीं करता। यह कहकर एक अजब मस्ती के साथ मुसकराता हुआ इस्लाम ऊपर की ओर उठा, मानों वह जगत की सारी जड़ता, समस्त अंधकार, सारे जंजाल को विध्वस्त कर सकने के महाव्रत में अपने आपके सामने किसी दूसरे को नहीं मानना चाहता, मानों उसकी सफलता निश्चित है, मानों वह अद्वितीय कर्मठ योद्धा है।

     

    (दो)

    संस्कृति क्या है? मैं ज़रा उद्विग्न भाव से सोचने लगा। मुझे एक बार याद आए वैदिक युग के कर्मकांड-पटु ऋत्विजों के दल, जो प्रत्येक कुश और पल्लव के स्थान, पात्र, और विधान के विचार में गंभीर भाव से सतर्क थे। फिर याद आई उपनिषत्-कालीन ऋषियों की, जो बड़ी गंभीरता के साथ मौन भाव से चिंतन कर रहे थे कि क्या होगी वह चीज़ जिसे पाकर हम अमृत नहीं हो सकते? फिर याद आए काषाय-धारी बौद्ध भिक्षु, जो 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' घर बार छोड़कर, उत्तुंग शैल-शिखर और भीमकाय महासागर लाँघ रहे थे; और अंत में याद आईं, उज्जयिनी के सोध-गवाक्षों से लीला-कटाक्ष-क्षेपिणी पौर-विलासिनियाँ। देखते-देखते मेरी कल्पना ने मध्ययुग की आतंक ग्रस्त हिंदू संस्कृति को सामने खड़ा कर दिया—निराभूषणा, संकुचिता, अवमानिता, विक्षुब्धा! उसमें कर्मकांड-काल की सजीवता नहीं थी, उपनिषत्काल की स्वतंत्र चिंता नहीं थी, बौद्ध काल की दुर्वार करुणा-भावना नहीं थी, काव्य-काल की सुखमय विलास-सज्जा नहीं थी। इस्लाम के आक्रमण से उसका तेज म्लान हो गया था, दर्प हत हो गया था पर वह हार मानने को तैयार नहीं थी। वह कुचली हुई वन्य वीरुध की भाँति म्लान होकर भी सजीव थी, फिर से पनप उठने के लिए सचेष्ट थी, निरुपाय होकर वह जिधर सुविधा पाती उसी तरफ़ आश्रय को लपक पड़ती। इसी समय दक्षिणी आसमान से कई तेजःपुंज ज्वलंत ज्योतियाँ उत्तर की ओर बड़े वेग से दौड़ती हुई नज़र आईं। दिशाएँ तिमिराच्छन्न थीं, आसमान धूल से भरा हुआ था, धरित्री रक्त से तर थी! दक्षिण आकाश से आई हुईं इन ज्योतियों ने कोई बाधा नहीं मानी, किसी की परवाह न की। वे बढ़ती ही गईं। अचानक प्रकाश की किरण में स्पष्ट मालूम हुआ, इस कुचली हुई संस्कृति-लता को एक सहारा मिला है। वह सहारा था वैष्णव धर्म—भक्ति मतवाद। इसने इस लता को केवल आश्रय नहीं दिया, रस की धारासार वर्षा से उसे लहलहा दिया; पत्र और पुष्प की नूतन समृद्धि से देखने वालों की आँखें निहाल हो गईं। मैं जिस देवता के मंदिर के सामने बैठा हुआ हूँ, वह उसी आश्चर्यजनक भक्ति मतवाद का उपाश्रय है। कौन कहता है यह पराजित देवता का प्रतीक है? यह आश्रयों का ख़ज़ाना, सच्चा तिलस्म और अचिंतनीय जादू की लकड़ी है।

    मैंने साफ़ देखा मुर्शिदाबाद की सड़कों पर मुसलमान वंशोद्भूत साधक हरिदास भावावेश में हरिनाम संकीर्तन करते जा रहे हैं और जल्लाद उन पर अविश्रांत भाव से दंड प्रहार करते जा रहे हैं, चेहरे पर ज़रा भी शिकन नहीं पढ़ती, शांत और मोहक तेज बढ़ता ही जा रहा है—मैं स्तब्ध निर्वाक! मैंने देखा मेवाड़ के राजवंश की शोभा और शान मीरा बाई दर-विगलित नयन, कंपमान कंठ स्वर और खिन्न गात्र से गोपाल लाल के विरह में नृत्य कर रही हैं, राज-परिचारक ने ज़हर का प्याला दिया है, वे अजब लापरवाही से पी रही हैं—मैं रुद्ध-श्वास, हृत-चेष्ट! मैंने और भी देखा, बंदा वीर दिल्ली नगरी में बंदी होकर बैठा है; आँखों के सामने सात सौ प्राण-प्रिय साथी देखते-देखते तलवार से मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। जल्लाद बंदा की गोद में उसका कोमल बच्चा डालता है; आज्ञा मिलती है, इसे अपने हाथों मार डालो। बंदा कृपाण उठाता है। पिता-पुत्र साथ ही बोल उठते हैं—वाह गुरु जी! और कृपाण उस कोमल कलेवर को कदली स्तंभ की भाँति विदीर्ण कर देता है—मैं विचलित, अश्रु-अंध, विक्षुब्ध! कहाँ से आई इतनी शक्ति? ठाकुर, तुम धन्य हो!

    मेरे सामने अचानक प्रकाश का एक महासमुद्र दिखाई दिया, देखते-देखते उस प्रकाश ने एक निश्चित रूप ग्रहण किया,—एक त्रिभंगी मूर्ति, माथे पर मोर-पंख, हाथ में बंशी और लकुट, कटि में पितांबर, वक्षःस्थल पर वैजयंती की माला, कंधे पर कामरी। जी में आया मध्ययुग के कवि के कंठ में कंठ मिलाकर चिल्ला उठूँ—

    ‘या लकुटी अरु कामरिया पर,

    राज तिहूँपुर कौ तजि डारों’।

    ठीक इसी समय मेरी चिंता को आहत करते हुए कुछ भले आदमी सभा-स्थल पर उपस्थित हुए। समय बहुत निकल गया था। जितने लोग आ गए थे उन्हीं के साथ प्रस्तावित विषय को बिना भूमिका के ही उठा दिया गया। ठाकुर जी के राग-भोग की व्यवस्था के साथ-ही-साथ सारे गाँव के छोटे-मोटे झगड़ों का विचार आरंभ हुआ। बहस द्रौपदी का चीर हो उठा। महज़ सात रुपए माहवार का प्रबंध करना था, मैंने उत्तेजना में अपनी शक्ति के बाहर कुछ अधिक भार उठाने का संकल्प करके वृद्ध सज्जनों के चित्त को शायद कुछ आघात पहुँचाया, पर कुछ फल नहीं हुआ। मैं फिर एक बार उद्विग्न हो उठा। कुछ समझ में नहीं आया कि मध्ययुगी महिमा शालिनी संस्कृति का उपाश्रय यह महावीर्य देवता आज इतना उपेक्षित क्यों है? मेरे सामने कुछ ही क्षण पहले जो तेजःपुंज दिखाई पड़ा था, वह धीरे-धीरे धूमिल होने लगा। मैंने समझा, यह भी मेरा बौद्धिक विकार था, वास्तव में न मध्य-युग की कोई संस्कृति ही महत्वपूर्ण थी और न उसका आश्रय यह देवता ही। अचानक तर्क और बहस के भीतर से एक प्रकाश दिखाई पड़ा। मैं चौंक उठा, उत्तेजित हो गया और क्षण भर के लिए हतबुद्धि हो रहा।

    बात यह हुई। सभा में एक पंडित जी बैठे थे। इन्हें हम लोगों ने बड़ी आग्रह से बुलाया था। मनोनीत सभापति को अनुपस्थिति में उन्हीं के सभापति होने की बात थी। इन पंडित जी को अपनी शास्त्र-निष्ठा पर अभिमान था। साधारण मनुष्य के लिए यह समझना बड़ा कठिन है कि कब पंडित का शास्त्र उसकी बुद्ध को दबा देता है और कब उसकी बुद्धि शास्त्र को। सभा में उन्होंने मुझे और मेरे मित्र को चुनौती-सी देते हुए कहा कि ठाकुर जी की पूजा अब तक शास्त्र-निषिद्ध विधि से होती रही है। जो साधु इस समय पूजा कर रहे हैं, वे ब्राह्मण नहीं हैं और शास्त्र के मत से ठाकुर उसी जाति के होकर पूजा ग्रहण करते हैं, जिस जाति में पुजारी का जन्म हुआ रहता है। इसके पूर्ववर्ती पुजारी भी अब्राह्मण थे। पिछले तीन वर्षों ठाकुर जी अब्राह्मण होकर ही पूजा ग्रहण कर रहे हैं। इसीलिए यह अत्यंत स्पष्ट बात है कि ब्राह्मण ऐसे ठाकुर जी को पूज्य नहीं समझ सकता! ब्राह्मण धर्म का यथोचित पालन कठिन व्रत है।

    पंडित जी ने अपने वक्तव्य को और भी स्पष्ट करते हुए बताया कि अनाधिकारी की पूजा से गाँव का अमंगल हो रहा है। इसलिए पहले अब्राह्मण साधु को स्थान च्युत किया जाए, फिर राग-भोग की व्यवस्था बाद में होती रहेगी। मेरा नाम पुकार कर उन्होंने इस विषय पर मेरी स्पष्ट सम्मति चाही।

    क्षण भर में मेरे सामने मध्य-युग की भूयोभूयः पद-ध्वस्त भारतीय संस्कृति की जादू-भरी मूर्ति खेल गई। वह ब्राह्मण-संस्कृति नहीं थी, श्रमण संस्कृति नहीं थी, राजन्य संस्कृति नहीं थी, शास्त्रीय संस्कृति भी नहीं थी। वह संपूर्ण हिंदू जाति की एक केंद्रा संस्कृति थी—परिपूर्ण, तेजोमयी, जीवंत! ये वृद्ध सज्जन जिनके ललाट-पट्ट पर रामानुजी संप्रदाय का विशाल तिलक अंकित है, जो पंडित जी की हाँ में हाँ मिला रहे हैं, आज भूल ही गए हैं—और शायद उन्हें कभी जाने का मौक़ा ही नहीं मिला—कि रामनुज के दादा गुरुओं की परंपरा के सभी अलवार भक्त अब्राहाण ही नहीं थे, शूद्र से भी निम्न कुल में अवतरित हुए थे! महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने शुद्र शिष्य कृष्णदास अधिकारी (अष्टछाप के एक कवि) को श्रीनाथ जी के मंदिर का प्रधान अधिकारी बनाया था। महाप्रभु के गोलोकवास के अनंतर एक बार उन्होंने महाप्रभु के एकमात्र पुत्र श्री गोकुलनाथ गोसाई को भी मंदिर में जाना निषिद्ध कर दिया था। पंडित जी अब्राह्मणीभूत ठाकुर का चरणोदक लेने में हिचकते हैं, गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के प्राण-प्रतिष्ठाता महाप्रभु चैतन्य देव ने मुसलमान भक्त हरिदास का चरणोदक हठ के साथ छककर पिया था। लेकिन मारिए गोली इन ऐतिहासिक घटनाओं को। गोप कुल में पालित और क्षत्रिय वंश में अवतीर्ण अखंडानंद विग्रह भगवान् श्रीकृष्णचंद्र क्या ऋषि-मुनियों से भरी सभा में पूजा के पात्र नहीं समझे गए?

    मैं सोच में पड़ गया। इस सभा में जो अब्राह्मण कुलोत्पन्न सज्जन बैठे हैं उनके पास क्या आत्म-सम्मान नाम की कोई चीज़ नहीं है? वे इस कथन का विरोध क्यों नहीं करते? और इस सभा में जो ब्राह्मण सज्जन बैठे हैं उनमें क्या लोक कल्याण की भावना का कुछ भी अवशेष नहीं रह गया? वही क्यों नहीं इस बात का प्रतिवाद कर रहे हैं? क्यों पहले दल वाले भीरु हैं, कायर हैं, डरपोक हैं और क्यों दूसरे दल वाले हठी हैं, अभिमानी हैं, रूढ़ि-प्रिय हैं? मैंने उत्तेजित भाव से कहा—'जो ठाकुर जाति-विशेष की पूजा ग्रहण करके ही पवित्र रह सकते हैं, जो दूसरी जाति की पूजा ग्रहण करके आग्राह्य-चरणोदक हो जाते हैं, वे मेरी पूजा नहीं ग्रहण कर सकते। मेरे भगवान हीन और पतितों के भगवान हैं, जाति और वर्ण से परे के भगवान हैं, धर्म और संप्रदाय के ऊपर के भगवान है वे सबकी पूजा ग्रहण कर सकते हैं, और पूजा ग्रहण करके आब्राह्मण-चांडाल सबको पूज्य बना सकते हैं। मेरी बात अभी समाप्त भी नहीं हो पाई थी कि मेरे मित्र ने मुझे बीच ही में रोका। उन्होंने ओरेटर की भाषा और भाष्कार के लहज़े में कहा कि वे मेरी बात से सोलह आने सहमत हैं, पर ऐसी बात ऐसे समय में नहीं कहनी चाहिए। वे शंकित हो रहे थे कि उनकी परिश्रमपूर्वक बुलाई हुई सभा कहीं व्यर्थता में पर्यवसित न हो जाए। मेरी उत्तेजना उनकी आशंका का प्रधान कारण थी। लेकिन मुझे इस्लाम की बात याद आ रही थी—डरपोक ही समझौता किया करते हैं।

     

    (तीन)

    मेरे मित्र मुझे समझा रहे थे (क्योंकि भरी सभा में नासमझी का कार्य एक मात्र मैंने ही किया था!) और मैं अपनी सहज सहचीरी कल्पना के साथ ऊपर उठने लगा। मैं सभा-स्थल से कुछ ऊपर उठा, ठाकुर जी के मंदिर के ऊपर गया, उनकी निष्कंप ध्वजा से भी ऊपर उठा—उठते-उठते मैं आविल आकाश का प्रत्येक स्तर लाँघ गया। अब मैं ऐसी जगह आ गया जहाँ से दुनिया का कोई रहस्य दिखने से बाक़ी नहीं था। मैंने दक्षिण की ओर देखा। सूची-भेद्य निबिड़ अंधकार के साथ चिता की आग जूझ रही थी, उसी प्रकाश में कलकल-निनादिनी नदी चाँदी की लकीर-सी चमक रही थी, सामने दूर तक फैले हुए सैकत-राशि पर केवल कंकाल और नर-मुंड बिखरे पड़े थे। चिता के पास एक काली-सी मूर्ति बैठी थी, शायद वह चिता का अधिकारी चांडाल था। इसी समय मेरे आश्चर्य को शतगुण वृद्धि करते हुए एक चारु-दर्शन महात्मा चिता की ओर भागते हुए दिखाई दिए। घने, काले, घुँघराले बाल अस्त-व्यस्त थे, पर शोभा उनसे चुई-सी पड़ती थी; विशाल भालपट्ट पर रामानुजी तिलक विराजमान था, पवित्रता उसमें अपनी छाया देख रही थी; कटि देश और स्कंध देश पीत पट्टांबर से विभूषित थे; मुख-मंडल के चारों ओर प्रकाश की किरण छिटक रही थीं; मनोहर मुख देखकर आँखें धन्य हो जाती थीं। महात्मा अचानक बाकर चांडाल के चरणों से लिपट गए। चांडाल चिल्ला उठा— “प्रभो, पामर को और भी अपराधी बना रहे हो? क्या करते हो देवता? छोड़ो, छोड़ो, मैं पापी, मैं चांडाल, मुझे रौरव नरक में न फेंको!”

    महात्मा ने कसकर चरण पकड़ लिया। उसी अवस्था में बोले—शांत हो जाओ। मेरे नारायण, नष्ट हो जाने दो मेरी सारी वासना, मेरा सारा अभिमान इस पावन तीर्थ में। मैं उस मठ का प्रधान हूँ। तीन दिन पहले तुम भगवान का दर्शन करने गए थे, मेरे शिष्यों ने तुम्हारा अपमान किया था तब से भगवान् रूठ गए हैं। तीन दिन से मैं भूखा-प्यासा हूँ। मेरे ठाकुर ने मेरा अन्न खाना छोड़ दिया है। आज वे आए थे, चेहरा उनका उदास था, आँखें उनकी डबडबायी हुई थीं, उत्तरीय उनका अश्रुसिक्त था, गला उनका भरा हुआ। मैंने रोते हुए पूछा— मेरे ठाकुर, मेरे प्यारे, तुम्हें हो क्या गया है? भर्राई हुई आवाज़ में उन्होंने गरजकर कहा— रामानंद, मैंने तुम्हारा मठ छोड़ दिया है, तुम्हारे शिष्यों ने मेरे भक्त का अपमान किया है। मैं अब यहाँ नहीं आ सकता। भीत भाव से मैंने पूछा—तुम अब कहाँ रहोगे मेरे ठाकुर? भगवान ने जल्द गंभीर स्वर में कहा—जहाँ मेरे भक्त रहते हैं। वह देखो, उस श्मशान में वही मेरा भक्त चिता जला रहा है। तुम उसकी कृपा के बिना मुझे नहीं पा सकते। यह कह कर वे चले गए और मैं दौड़ा तुम्हारे पास आया। मेरा शास्त्र-भिमान आज धूल में लोट रहा है, मेरा वर्ण और आश्रम का अभिमान आज अस्त हो गया है; तुम भक्त हो, तुम नारायण के रूप हो, मेरे ऊपर कृपा करो। आज्ञा दो, मैं क्या सेवा कर सकता हूँ।

    चांडाल भक्त ने गद्गद् कंठ से कहा—प्रभो, मैं क्या कृपा कर सकता हूँ। भगवान् अगर मुझे कुछ इसी प्रकार की अनाधिकार चर्चा करने को कहते हैं, तो उठो प्रभो, मैं आज्ञा देता हूँ, स्नान करके मुझे अपना शिष्य बना लो, वह रास्ता दिखा दो जिससे मैं अभिमान का समुद्र तैर सकूँ, भक्ति की नौका पा सकूँ। रामानंद ने आज्ञा पालन किया, और दिग्वधुओं ने मौन शंख नाद। मैं चिंतातुर हो उठा। यह इतिहास है या मनोवांछितत स्वप्न?

    मैंने देखा, मेरे गाँव के मंदिर से भी ठाकुर जी निकले जा रहे हैं। उनकी मुखाकृति गंभीर है। जिस चटुल-चपल आनंदमयी मूर्ति की कल्पना मैंने आजतक की है, उसका कोई चिन्ह उस चेहरे पर नहीं है। सारा आसमान अणु-परमाणुओं के साथ 'धिक-धिक' कर उठा। मेरे सिवा यह धिक्कार-वाक्य और कोई दूसरा नहीं सुन सका। लज्जा और ग्लानि सें मेरा चेहरा काला पड़ गया। मेरे ग्रेजुएट मित्र मुझे अब भी समझा रहे हैं। मैं शायद कुछ समझने योग्य हो चला था। अचानक उनके मुँह से एक युक्ति की अवतारणा होते देख मेरी भावुकता को एक और दचका लगा। उन्होंने मेरे वाक्य का यह अर्थ लगाया—जो मेरा लक्ष्य न होते हुए भी सही था—कि मैं मुसलमानों को  भी पूजन का अधिकारी मान रहा हूँ।

    हाय हिंदू और हाय मुसलमान! आठ सौ वर्ष के निरंतर संघर्ष के बाद, एक दूसरे से इतने नज़दीक रहकर भी, तुमने अपनी एक संस्कृति न बनाई! अभी कुछ हो क्षण पहले सभा में बैठे हुए एक क्षत्रिय अध्यापक को अभिवादन करते हुए एक वैश्य शिष्य ने कहा था—‘सलाम, बाबू साहब।’ शास्त्र-निष्ठ पंडित जी ने डपटकर बताया—‘यह मुसलमानी क़ायदा है।’ क्षत्रिय अध्यापक ने क्षमा याचना सी करते हुए कहा—‘हम लोगों में बुरा रिवाज़ चल गया है।’ लेकिन यह और इसी तरह के दो-चार और बुरे रिवाज़ ही तो हिंदू और मुसलमान नामक दो विशाल शिलापटों को जोड़ने के गोंद थे। आज वह भी टूटने जा रहे हैं, वर्जन परायण हिंदू-भाव सबको धो-पोंछ डालना चाहता है, अभिमानी मुसलमान-भाव कुछ भी ग्रहण करना नहीं चाहता।

    मुझे इस समय ऐसा मालूम हुआ कि पश्चिमी महासमुद्र की भयंकर लहरों से दो-चार श्वेतांग नाविक जूझते हुए चले आ रहे हैं। सामने और पीछे जहाँ तक दृष्टि जाती है, केवल पानी ही पानी दिख रहा है, केवल लहरों का फूलकार केवल लोल समुद्र का गर्जन! उनके चेहरे शांत है मस्तिष्क धीर! इस शांति को देखकर मैं डर गया। यह वह शांति थी जिसके पेट में सारी दुनिया का तूफ़ान था। मैं साँस रोक कर उनके असम साहस और धैर्य को देखता रह गया—निर्वाक्, निश्चेष्ट, निस्तब्ध! अंत में ये नाविक भारतीय किनारे पर पहुँचे फिर टिड्डियों के दल की तरह शत-शत नौकाएँ महा समुद्र के लोल वक्ष पर छोड़ दी गईं। भारतीय अंतरीप इस कोने से उस कोने तक इन विदेशियों से भर गया। मौक़ा देखकर इन्होंने दरार पर आघात किया, पहले से ही अलग हिंदू और मुसलमान दूर से दूरतर होते गए। मौक़ा देखकर विदेशी राजा बन बैठे और अपूर्व अध्यवसाय और लगन के साथ दोनों जातियों को समझने की कोशिश करते गए। जितना ही उन्होंने समझा उतना ही भेद-भाव को उत्तेजित किया। आज हम प्रत्येक बात को हिंदू दृष्टिकोण और मुसलमान दृष्टिकोण से देखने के आदी हो गए हैं, मानों ऐसा कोई दृष्टिकोण ही नहीं है जिससे हिंदू और मुसलमान साथ ही देख सकें। मैंने फिर एक चार दीर्घश्वास के साथ मन ही मन कहा—हाय रे हिंदू और हाय रे मुसलमान!

    अंत में काफ़ी बहस-मुबाहिस के बाद, सभा दूसरे दिन के लिए स्थगित हुई। मैं अब भी कल्पना के मनोगामी रथ पर आसीन था। मेरे बग़ल में एक तरुण पंडित मित्र बैठे थे। वे दूसरे गाँव से आए थे। एकमात्र वे ही शुरू से आख़िर तक निर्लिप्त भाव से बैठे रहे। उन्होंने सब सुना पर कहीं भी विचलित नहीं हुए, कहीं भी चंचल नहीं हुए मुझे झकझोरते हुए उन्होंने कहा—“चलिए, आज की सभा समाप्त हुईं। आप बहुत उत्तेजित हो जाते हैं।” मैंने कहा—'ठीक है।'

    पर क्या ठीक था? मेरे गाँव की यह ठाकुर-बारी कुछ ऐसी महत्वपूर्ण नहीं है कि इसकी अव्यवस्था के कारण विराट हिंदू समाज अणुमात्र भी लज्जा अनुभव करे। और यह सभा? यह तो ततोधिक नगण्य है। फिर क्या कारण है कि इस मामूली-सी सभा ने मेरे मन में भारतीय महामानव समुद्र के प्रत्येक तरंग-विस्फूर्जन की स्मृति उत्पन्न करा दी? शायद यह हिंदू समाज की जीवनी शक्ति का सबूत हो, यह इस विराट महामानव समुद्र की सजीवता का प्रमाण हो। असल बात यह है कि इस महामानव समुद्र का कोई तरंग स्वतंत्र नहीं है। इस मामूली-सी ठाकुर-बारी की समस्या भी सारे विश्व की समस्या के साथ जटिल भाव से उलझी हुई है, उसको विच्छिन्न भाव से सुलझाया नहीं जा सकता। सभाएँ होती रहेंगी, राग-भोग की व्यवस्था होगी भी, नहीं भी होगी, पर समस्या ज्यों की त्यों रहेगी अगर उसे विराट पैमाने पर नहीं सोचा गया। सारे गाँव के मनुष्य सारे जगत के साथ विचित्र भाव से जड़ित हैं, उन पर विश्व की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार की गुरुतर समस्याओं का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव पड़ रहा है। वे ठाकुर जी से उदासीन होने को बाध्य हैं। सामने जो मस्जिद जगमगाई हुई है, वह भी समान रूप से उपेक्षित है। आज दस वर्ष पहले वह इतनी जगमगाई नहीं थी। उसकी आज की जगमगाहट उसी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दवाब का परिणाम है जिसके कारण यह ठाकुरबारी उपेक्षित है। एक ही किरण दो रंग के शीशों से प्रतिफलित होकर दो तरह की दिख रही है। यही ठीक था। मैं उठ पड़ा उठते- उठते मैंने फिर सोचा—लेकिन क्या कारण है कि एक ही आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्या के दबाव से वह मुसलमानी मस्जिद जगमगा उठी है, और यह हिंदू मंदिर उपेक्षित है? क्या मुसलमानी धर्म ज़्यादा सजीव है? शायद नहीं। क्या हिंदू धर्म ज़्यादा मुर्दा है? शायद नहीं। असल कारण यह है कि भारतवर्ष के मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, वे हिंदू धर्म के उत्कर्ष से भीत हैं। दूसरी तरफ़ हिंदू धर्म ज़रूरत से ज़्यादा आत्म-विश्वासी हो गया है। मुसलमान अपनी बची-खुची सारी शक्ति समेटकर मुसलमानियत का प्रदर्शन कर रहे हैं। यह अवस्था बहुत दिनों तक नहीं चलने की। वह आगंतुक उत्साह भी समाप्त हो जाएगा। और यह अत्यधिक आत्मबोध-मूलक शैथिल्य तो समाप्त हो ही चला है। जब दोनों समाप्त हो जाएँगे तभी रास्ता सूझेगा, तभी शांति आएगी। तथास्तु।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल्पलता (पृष्ठ 52-66)
    • रचनाकार : आचार्य हज़ारी प्रसाद द्वेवेदी
    • प्रकाशन : ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस

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