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‘गीतिका’

gitika

नंददुलारे वाजपेयी

अन्य

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और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    श्री० निरालाजी नवीन कविता-कामिनी के रत्नहार के एक अनुपम रत्न हैं, यह हिंदी के काव्य-परीक्षकों की परीक्षा का निष्कर्ष समय की गति के साथ अधिकाधिक लोक प्रचलित हो रहा है। आज से कुछ वर्ष पहले जब मैंने 'भारत' के लेखों में उनके उच्च पद का निर्देश किया था, तब बहुत से व्यक्तियों ने इस संबंध में अपनी शंका प्रकट की थीं और कुछ ने उसे मेरा पक्षपात समझकर उस समय तरह दे दिया था; पर पीछे प्रकारांतर से वे उन्हीं स्वरों का आलाप करते हुए सुन पड़े थे, जो हृदय में दबी अभिलाषा के असामयिक प्रकाशन से उद्भूत होते हैं। उनमें से किसी मैं अनुचित अस्पष्टता, किसी में लज्जाहीन आत्म-प्रशंसा और किसी में निरालाजी के प्रति व्यर्थ की कुत्सा तथा मेरे प्रति आक्षेप भरे हुए थे; किंतु प्रसन्नता की बात है कि कवि की प्रतिभा के प्रति मेरा आरंभिक विश्वास कभी स्खलित नहीं हुआ, कभी मुझे उसकी कृतियों के कारण हिंदी के सम्मुख संकुचित होना पड़ा। साथ ही मुझे उन महानुभावों का हार्दिक दुःख है जो साहित्य के क्षेत्र में ऐसी कुटिल नीतियों का प्रश्रय लेते और सात्विक बुद्धिसंपन्न वाणी-व्यापार का बहिष्कार करते हैं। क्या कारण है कि लोग ज्ञान और प्रकाश की इस भूमि में भी अपने हृदय का अंधकार भरना चाहते हैं? काव्य-साहित्य की इन साफ़-सुथरी पगडंडियों में, सौंदर्य ही जिनकी रूप-रेखा है, कुटिल कंटकों के लिए स्थान ही कहाँ है? हमारी परिष्कृत दृष्टि यदि इन चिरसुरम्य निकेतों में भी मलिनता का प्रवेश-निषेध नहीं कर सकती तो हमारे युग की साहित्यिक साधना पूर्ण और हमारी जीवन-धारा त्रुटिपूर्ण ही समझी जाएगी।

    शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि से उद्भावित समीक्षा, वह चाहे जिसकी लिखी हो, मुझे प्रिय है, यद्यपि मैं जानता हूँ कि वह सबकी लिखी नहीं हो सकती। वह परिष्कृत स्वस्थ और पुष्ट मस्तिष्क की ही उपज हो सकती है—उसकी जिसने जीवन-तत्व का अनुसंधान किया है। वह दृष्टि शब्दों पर, वाक्यों पर, कल्पनाओं और उपमाओं पर रीझवी है; परंतु पृथक-पृथक नहीं। उक्त जीवन तत्व की परख, उसकी ही समुज्ज्वल, आह्लादिनी अभिव्यक्तियों पर मुग्ध होती है। काव्य के इन समस्त उपकरणों का यही प्रयोजन है कि वे उक्त जीवन-सौंदर्य की कला हमारे हृदयों में खिला दें। यदि वे ऐसा करने में अक्षम हैं, तो उनकी संपूर्ण सुधरता और विन्यास व्यर्थ हैं। कहना तो यह चाहिए कि उनकी सुबरता और उनका विन्यास तभी है जब वे उक्त जीवन-सौंदर्य से उपेत हैं। यही काव्य-कला और जीवन सौंदर्य की अनन्यता है। इसका सम्यक परिचय हमें होना चाहिए।

    सौंदर्य चेतना है, चेतना ही जीवन है; अतएव काव्य-कला का उद्देश्य सौंदर्य का ही उन्मेष करना है। मनुष्य अपने को चेतना संपन्न प्राणी कहता है; पर वास्तव में वह कितने क्षण सचेत रहता है? कितने क्षण वह चतुर्दिक फैली हुई सौंदर्य राशि का अनुभव करता है! वह तो अधिकांश आँखें मूँदकर ही दिवसयापन करने का अभ्यस्त होता है। कविता उसकी आँखें खोलने का प्रयास करती है। इसका यह अर्थ नहीं कि काव्य हमें केवल अनुभूतिशील या भावनाशील ही बनाता है। यह तो उसकी प्राथमिक प्रक्रिया है। उसका उच्च लक्ष्य तो सचेतन जीवन-परमाणुओं को संघटित करना और उन्हें दृढ़ बनाना है। इसके लिए प्रत्येक कवि को अपने युग की प्रगतियों से परिचित होना और रचनात्मिका शक्तियों का संग्रह करना पड़ता है। जिसने देश और काल के तत्वों को जितना समझा है, उसने इन दोनों पर उतनी ही प्रभावशाली रीति से शासन किया है।

    उच्च और प्रशस्त कल्पनाएँ, परिश्रम-लब्ध विद्या, और काव्य योग्यता उच्च साहित्य-सृष्टि की हेतु बन सकती हैं; किंतु देश और काल की निहित शक्तियों से परिचय होने से एक अंग फिर भी शून्य ही रहेगा। हमारी दार्शनिक या बौद्धिक शिक्षा तथा साधना भी काव्य के लिए अत्यंत उपयोगिनी हो सकती है; किंतु इससे भी साहित्य के चरम उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इन सब की सहायता से मूर्त्तिमती होने वाली जीवन-सौंदर्य की प्रतिमा ही प्रत्येक कवि की अपनी देन है। इसी से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता और शताब्दियों तक स्थिर रहता है। इसके बिना कवि की वास्तविक सत्ता प्रकट नहीं होती।

    निरालाजी की कल्पनाएँ उनके भावों की सहचरी हैं। वे सुशीला स्त्रियों की भाँति पति के पीछे-पीछे चलती हैं। इसलिए उनका काव्य पुरुष काव्य है। उनके चित्रों में रंगीनी उतनी नहीं जितना प्रकाश है। अथवा यह कहें कि रंगों के प्रदर्शन के लिए चित्र नहीं हैं, चित्र के लिए रंग हैं। काव्य-सौंदर्य की वे बारीकियाँ जो आजीवन काव्यानुशीलन से ही प्राप्त होती हैं उनकी विविधताएँ और अनोखी भंगिमाएँ निरालाजी की रचना में सन्निहित करने का प्रयास नहीं है। वे मुद्राएँ जो संप्रदाय विशेष के कवियों में दिखाई देकर उनकी विशिष्टता का निर्माण करती हैं, अभ्यास द्वारा जिन्हें पुष्ट करना ही उन कवियों का लक्ष्य बन जाता है, निरालाजी का लक्ष्य नहीं है; परंतु उनका एक व्यक्तित्व जिसमें व्यापक जीवन-धारा के सौंदर्य का सन्निवेश है, जिसमें ओज के साथ (जो इस युग की मौलिक सृष्टि का परिचायक है) एक सुकोमल सौहार्द (जो सहानुभूति का परिचायक है) का समाहार है, उनके काव्य में सुस्पष्ट हैं। इन उभय उपकरणों के साथ जो एक साथ अत्यंत विरल हैं कवि की दार्शनिक अभिरुचि कविता की श्रीसंपन्नता में पूर्ण योग देती है। गेय पदों की शाब्दिक सुधरता, संक्षेप में विस्तृत आशय की अभिव्यक्ति, सुंदर परिसमाप्ति और प्रकाश निरालाजी के काव्य को दर्शन द्वारा उपलब्ध हुए हैं। और मैं यह कह चुका हूँ कि सौंदर्य की प्रतिमाएँ निरालाजी ने व्यक्तिगत जीवनानुभव से संघटित की हैं।

    निरालाजी में पूर्ण मानवोचित सहृदयता और तन्मयता के साथ उच्च कोटि का दार्शनिक अनुबंध है। अतएव उनके गीत भी मानव जीवन के प्रवाह से निखरे हुए, फिर प्रकाश से चमकते हुए हैं। उनमें क्लिष्ट कल्पनाओं और उड़ानों का अभाव है; किंतु यही उनकी विशेषता है। उन्हें हमारे एकाध नवयुग प्रवर्तक की भाँति समय-समय पर पट-परिवर्तन कर कई बार जीवन में मरण देखने की नौबत नहीं आई। वे प्रारंभ से ही एकरस हैं और संभवतः अंत तक रहेंगे। यही उनकी नैसर्गिकता है, यही मानवोचित विशिष्टता है। संभव है, कविता में कल्पना के इंद्रजाल देखने की अधिक कामना रखने वालों को इन गीतों से अधिक संतोष हो, किंतु उनमें जो गुण हैं, कला की जो भंगिमाएँ, प्रकाश-रेखाओं की जैसी सूक्ष्म अथच मनोरम गतियाँ हैं वे इन्हीं में हैं और हिंदी में ये विशेषताएँ कम उपलब्ध होती हैं। इन गीतों में असाधारण जीवन-परिस्थितियों और भावनाओं का अधिक प्रत्यक्षीकरण नहीं है, इसका आशय यही है कि इनमें जीवन के किसी एक अंश का अतिरेक नहीं है। इनमें व्यापक जीवन का प्रखर प्रवाह और संयम है। गति के साथ आनंद और विवेक के साथ भी आनंद मिला हुआ है। दोनों के संयोग से बना हुआ यह गीति काव्य विशेष स्वस्थ सृष्टि है।

    परंतु इस विश्लेषण का यह अर्थ नहीं है कि निरालाजी रहस्यवादी कवि नहीं हैं। रहस्यवाद तो इस युग की प्रमुख चिंताधारा है। परोक्ष की रहस्यपूर्ण अनुभूति से उनके गीत सज्जित हैं। रहस्य की कलात्मक अभिव्यक्ति की जो बहुविध चेष्टाएँ आधुनिक हिंदी में की गई हैं उनमें निरालाजी की कृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। कुछ कवियों ने तो रहस्यपूर्ण कल्पनाएँ ही की हैं; किंतु निरालाजी के काव्य का मेरुदंड ही रहस्यवाद है। उनके अधिकांश पदों में मानवीय जीवन के ही चित्र हैं सही; किंतु वे सब-के-सब रहस्यानुभूति से अनुरंजित हैं। जैसे सूरदास जी के पद अधिकांश श्रीकृष्ण की लोक-लीला से संबद्ध होते हुए भी अध्यात्म की ध्वनि से आपूरित हैं, वैसे ही निरालाजी के भी पद हैं। इस रहस्य-प्रवाह के कारण कवि के रचित साधारण जीवन के गीत भी साधारण आकर्षण रखते हैं; किंतु उनके अनेक पद स्पष्टतः रहस्यात्मक भी हैं। 'अस्ताचल रवि जल छल-छल छवि' जैसे पदों में रहस्यपूर्ण वातावरण की सृष्टि की गई है। 'हुआ प्रात प्रियतम तुम जाओगे चले' जैसे पदों में परकीया की उक्ति के द्वारा प्रेम-रहस्य प्रकट किया गया है। 'देकर अंतिम कर रवि गए अपर पार' जैसे संध्यावर्णन के पद में भी प्रकृति की सौम्य मुद्राएँ और भाव-भंगिमा अंकित कर रहस्य-सृष्टि की गई है। इनसे भी ऊपर उठकर उन्होंने शुद्ध परोक्ष (Impersonal) के भी ज्योति चित्र उपस्थित किए हैं; जैसे 'तुम्हीं गाती हो अपना गान, व्यर्थ मैं पाता हूँ सम्मान' आदि पदों में। ऐसे गीतों में कतिपय प्रार्थना-परक और कतिपय वस्तु-निर्देश-परक हैं। कहीं शुद्ध अमूर्त्त प्रकाश मात्र और कहीं मूर्त्त कामिनी या मा आदि रूप हैं। निरालाजी की विशेषता इसी अमूर्त प्रकाश की अभिव्यक्ति कला का अनुलेखन है। यदि उनका कोई विशेष संप्रदाय या अनुयायी वर्ग माना जाए, तो वह यही है और वास्तव में निरालाजी के अनुयायी इसी का अभ्यास भी कर रहे हैं। मूर्त्त रूप में प्रकट होने वाले प्रकाश-चित्र भी निरालाजी की तूलिका की विशेषता लिए हुए हैं। वह विशेषता यही है कि रूपों रंगों में प्रकट होकर भी वे अमूर्त्त का ही अभिव्यसन करते हैं। इन पदों में प्रेमा-भक्ति की पराकाष्ठा प्राप्त हुई है। 'प्रिय, यामिनी जागी' जैसे पदों में इस युग के कवि के द्वारा भक्तों की श्रीराधा की ही अवतारणा हुई है। इस स्थिति से एक सीढ़ी नीचे उतरने पर, या इस पर से ही, निरालाजी के मानवीय चित्रण आरंभ होते हैं जिनके संबंध में मैं ऊपर कह चुका हूँ। इनमें अनहोनी परिस्थितियाँ नहीं हैं, संयमित जीवन-सौंदर्य का आलेखन है; यद्यपि इनमें कोई रहस्य प्रकट नहीं तथापि रहस्यवादी कवि का स्वर सर्वत्र व्याप्त है। इसी से इन पदों में साधारण आकर्षण आया है। कला की दृष्टि से भी इन गीतों में लौकिक की अवतारणा अलौकिक स्तर से ही हुई है। इससे सिद्ध है कि निरालाजी के इन गीतों में भी रहस्यवाद की साहित्य-साधना का ही विकास हुआ है।

    'गीतिका' के गीतों को हम पाश्चात्य प्रगीत काव्यशैली की अपेक्षा भारतीय पद-शैली के अधिक निकट पाते हैं। इनमें रचना की अनिवार्यता, निरपेक्षता और प्रवेग की अपेक्षा चयन, सज्जा और कल्पना का प्राचुर्य है। मधुर भावना की तन्मता के साथ-साथ आलंकारिकता का पुट भी कम नहीं है। सहज वृत्तिनिवेश की अपेक्षा दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक वस्तु का पृथक अस्तित्व दिखाई देता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी (पृष्ठ 185)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : इंडियन बुकडिपो
    • संस्करण : 1949

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