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भारतेंदु अवसान

bhartendu avsan

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

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और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    हे इस सभा को शोभा देने वाले! और इस असह्य शोक में संगी होने वाले! सज्जन सभ्य समूह!!! निश्चय आज उस करुणामय विषय के वर्णन की आवश्यकता आन पड़ी कि जिसे स्मरण कर, केवल मनुष्य मात्र को शोक मूर्छा आए किंतु प्रस्तर को भी यदि शान हो तो मोम सा अवश्य पिघल जाए, जिसके लिखने में हमारी यह लेखनी भी सिर झुकाए थरथराती और चिरचिराहट के मिस अंतर्नाद कर चिंघारती है। प्रत्यक्ष जिसकी छाती फट गई, और उसने काले आँसुओं की लड़ी से झड़ी लगा दिया हाय! हाय!! वह भारतीय प्रजा का एक ही प्यारा, और भारतआकाश का ऊँज्यारा, भारतेंदु रूपी इंदु, वह भारत-भामिनी के स्वच्छ ललाट का केशर बिंदु, वह अनगिनत गुणों का आकर, और पश्चिमोत्तर देश का प्रभाकर निश्चय आज अस्त हो गया, कि जिस से देश हितैषियों का समाज शोक ग्रस्त हो गया, आज आर्यों का मान अवश्य घट गया, आज आर्य विद्या का पुष्कर पट गया आज आर्यों का सच्चा हितैषी उनसे मुँह मोड़ गया, आज आर्यावर्त का आधार उसे छोड़ गया, आह! वह सर्व-जन-मन-रंजन खंजन उड़ गया, जिसके कारण उन्नति आशा का जहाज आज विपत्ति वारिधि में बूड़ गया। सच है! वह ऐसा ही अनुपम जन था, जो सचमुच इस देश का सौभाग्य धन था। वह केवल कविता के सब देशों का अनन्य महाकवि था, किंतु हिंदी भाषा का तो अवश्य मानों छबि था, वह किसका नहीं प्यारा, वह रसिकों के नेत्रों का तारा, वह नागरी-बाला का शृंगार करने वाला, वह अभिमानी भारत के हाथ का भाला, वह आर्य वैरियों के शस्त्राघात की ढाल वह उर्दू का कराल काल क्या सचमुच स्वयम् काल के गाल में जा दबा! विधि! तूने यह कौन विचार विचारा है कि जिसमें हमारा कुछ भी नहीं चारा है मनुष्य विचारा इस स्थान पर हैरान है, जैसा किसी उर्दू शायर का बयान है—

    “न गोरे सिकंदर है कब्रोदारा मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे” कजा जब कि जाती है जी की दुशमन, किसी की नहीं चलती कुछ मुश-फ़िके मन। गुज़र गाहे दुनिया में है मौत रह जन, छुटा क्या अजबरूह से जामए तन, लुटे राह में कारवाँ कैसे-कैसे”।

    कबीर ने भी बहुत ठीक कहा है—

    दस द्वारे को पींजरा तामै पंछी पौन।

    रहिबे को अचरज महा, गए अचंभा कौन॥

    इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य का शरीर अवश्य अनित्य और नाश होने वाला है, परंतु जीवन पर्यंत मनुष्य के मन में इसका मान कदापि नहीं होता कि हमें भी एक दिन मरना होगा। महाराजा युधिष्ठिर ने बहुत ही ठीक कहा—कि दुनिया देखती है कि सब लोग मरते चले ही जाते हैं, पर तो भी उन्हें रहने की उम्मेद बनी ही रहती है इससे बढ़कर आश्चर्य क्या है। परंतु वह हरिशचंद्र कि जिसे लोगों ने यथार्थ ख़िताब ‘माहेहिंद’ अर्थात् भारतेंदु पद प्रदान किया, नित्य अपने मृत्यु के दिन को याद करता, और यही कारण था कि वह अपने निश्चित सिद्धांतों का पक्का, और अपने कर्तव्य कार्यों के करने में सदैव बद्ध परिकर रहा। मेरी इन दोनों बातों का प्रमाण उसके एक कवित्त का यह पद है—“कहैंगे सबैही नैन नीर भरि-भरि पाछे, प्यारे हरिचंद की कहानी रह जाएगी” सच है! “जीते जी कद्र बशरा की नहिं होती प्यारे याद आएगी तुझे मेरी वफ़ा मेरे बाद।”

    इसमें संदेह नहीं कि दुनियाँमुर्दा परस्त है, जैसे उसने भी अपने जीते संसार के सलूक यही कहा कि—हाँ! प्यारे हरिचंद्र का संसार ने कुछ भी गुण रूप समझा और सचमुच अप्राप्त वस्तु की अधिक चाह होती है जैसे आज उस मृत महामान्य का शोक सबको व्याकुल कर रहा है। लेकिन ऐसे मनुष्य जिनकी कीर्ति संसार को उसकी याद दिलाया करती है, पूर्ण रूप से काल भी उसके नाश में समर्थ नहीं है, और सत्कवि तो मानो मरते ही नहीं यथा—

    “जिंद: दिल लोग पढ़ा करते हैं गजलै दिन-रात, कभी शायर नहीं मरता वे ख़ुदा सच है य: बात। आबदारी से है हर मिसरये तर आबेहयात, नाजगी है सुखने काहन: में य: बादे वफ़ात; लोग अकसर मेरे जीने का गुमां रखते हैं”।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमघन सर्वस्व द्वितीय भाग (पृष्ठ 62)
    • संपादक : प्रभाकरेश्वर प्रसाद उपाध्याय, दिनेश नारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : बदरीनारायण उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मलेन
    • संस्करण : 2007

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