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हिंद, हिंदु और हिंदी

hind, hindu aur hindi

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

अन्य

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बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

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बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    ये तीनों हकारादि शब्द ने केवल अकेले हमीं, को वरंच हिंद-निवसी समस्त हिंदुओं को श्रवणानंददाई है। इन तीनों के आदि का ‘ह’ अक्षर मिलकर ह-ह-ह—प्रसन्नता-सूचक हास्य का रूप अंग होता है। यों ही कभी-कभी यही शब्द कष्ट उपहास का भी वची हो जाता है; यों ही तीन ‘हिं’ मिलकर हिं-हिं-हिं—जैसे आनंद सहज हास्य का स्वाभाविक कल स्वर है उसी भाँति दुःख और दैन्य प्रकाशक भी हैं। वस्तव में यह साधारण रीति से समस्त सामान्य और विशेषजनों को एक ही प्रकार से आनंदोन्मत्त दीन बनाने में समान रीति से समर्थ है कि जिसे सुन औरों के मुख से भी उसी भाव और प्रभाव से वे ही शब्द उच्चारित होते हैं। परंतु हाँ शोक कि जाने क्यों ईश्वर की अकृपा से अब अधिकांश पिछले ही व्यर्थ से इसका अर्थ कठिन कष्ट का कारण है।

    यद्यपि इनमें एक ही हकारादि शब्द के विषय में कुछ कहने को बहुत समय और स्थान चाहिए, और इन तीनों ही के विषय में पृथक्-पृथक् हमें बहुत कुछ कहना है, और एक ही के लिए अनेक बार और अनेक प्रकार से अनेक प्रबंध लिखने की इच्छा है, अत: एक स्थान पर तीनों का एक बार ही प्रवेश कर देना कुछ अनुचित क्यों हो; परंतु इनमें परस्पर एक दूसरे के संग अति निकटस्थ संबंध रहने और तीनों के आदि, अंत और मध्य तीनों काल में अन्योन्याश्रय के वर्तमान रहने से इन तीनों के विषय में एक साथ विचार करना भी कुछ विशेष अयोग्य होगा। इनमें एक को दूसरे से क्या संबंध है? प्रथम इसी के समझने-समझाने की बड़ी आवयश्कता है। मानों एक हकार की तीन हिं शाखा हैं, क्रमश: एक से एक की उत्पत्ति से मानो पिता पुत्र और पौत्र का सा संबंध है—अत: सभी एक से एक आवश्यक और एक दूसरे के प्रबलतर सहायक हैं। यों ही बिना एक दूसरे की शोभा सम्मान का वर्तमान रहना फीका और कुछ असंभव भी है। क्योंकि इसमें कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है कि किसी देश की उन्नति तहाँ तक हो ही नहीं सकती कि जहाँ तक उस देश के निवसियों की उन्नत दशा नहीं और यावत्पर्य्यन्त उस देश की भाषा की उन्नति नहीं, तब तक उस जाति की उन्नति कैसे मानी जाएगी? हब हिंद भारत की दशा उन्नति पर थी, हिंदू आर्य जाति की दशा तथा हमारी हिंदी भाषा अर्थात् संस्कृत नागरी इत्यादि की भी उन्नति थी; अब जबसे कि भारत की दशा आरत हुई है, इन दोनों का भी अध: पतन हुआ; यों कहिए कि जब से हिंदू जाति का प्रारब्ध, प्रताप पराक्रम का सूर्य पश्चिम समुद्र में जा अस्त हुआ, हिंद और हिंदी की उन्नति के दिन का अंत हो क्रमशः उनका दीनदशारूपी अंधकार बढ़ता गया। वस्तव में यह विभेद कहीं अयुक्त भी होता, क्योंकि केवल एक आर्य जाति की उन्नति अवनति के आधार पर उन दोनों की उन्नति अवनति निर्भर है इसलिए हमने इन तीनों को एक ही में मिलाया है इसलिए कि इन तीनों का स्वयम्-सिद्धि संबंध है।

    बहुतेरे जन कहते और हम नित्य सुनते हैं, कि हिंद भारत अब क्रमशः उन्नति कर रहा है, परंतु क्या यह सच है? हमारे पाठकों में अनेक जन कह उठेंगे, कि ‘हाँ! हाँ इसमें भी क्या कुछ संदेह है! तुम्हें इतनी समझ परिज्ञान नहीं! देखते नहीं हो क्या से क्या हो गया, और निरंतर क्या हुआ जाता है?’ हाँ हम भी आधे मुँह इसे स्वीकार कर लेंगे, पर क्या हमारा हठीला मन भी मान लेगा? नहीं-नहीं और कदापि नहीं। वह हो सकता है कि ‘अजी ओस चाटने से कहीं प्यास बुझी है!’ अथव ‘दूसरे को लाठी टेक कर उसके विरूद्ध निज मनोवांछित स्थल को पहुँचने का आशा और उद्योग किस अर्थ का?’ ‘उच्छिष्ट भोजन कर गर्हित जीवन धारण से क्या लाभ!’ अथव ‘स्वप्न और प्रेतबाधाभियुक्त उन्मत्तावस्था के विचार और वक्य का क्या ठिकाना!’ सारांश ममत्व, अपनपौ, अपना, हमारा, हम, हमसे और हमीं से, हमारा और हमारा ही कहाँ तक कहें कि तीन ‘ह’ कार वह और एक यह बस इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं, और कदापि नहीं। अन्य, शब्द, वर्ण, मात्रा, अनुस्वार विसर्ग देखा, और, सुना जा सकता, और ईश्वर चिर दिन चित्त के विरुद्ध इसके स्वीकार का अवसर दे, बस इसी प्रकार और कहाँ तक कहें कि जिसका अंत नहीं।

    पाठक जन कहेंगे कि “यह कैसी व्यर्थ और बेजोड़ बातें बक चले हो।” हाँ यथार्थ में यह उन्मत्त प्रलाप ही है, परंतु हाय! इस, इसमें भी संदेह नहीं कि इसी के बिना उक्त चारों की दशा हित और हीन हो रही है! हे ईश्वर तू उक्त चारों हकार से इन्हीं बेजोड़ शब्दों की ध्वनि का संबंध जोड़ दे! और इनके तथा उन चारों हकार के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तु का नाता तुरंत तोड़ दे! हमारे लेख को निपट अटपटा अनुमान करने लगे होंगे। फिर यदि इस संबंध में इसी प्रकार की कुछ और बातें करें तो और उपद्रवों के अतिरिक्त भय है, कि पाठक वर्ग कदाचित् सचमुच हमें पूरा पागल ही अनुमान कर लें! अत: कुछ सीधी बातें कह कर इस संबंध को समाप्त कर देना ही समीचीन बोध होता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमघन सर्वस्व द्वितीय भाग (पृष्ठ 45)
    • संपादक : प्रभाकरेश्वर प्रसाद उपाध्याय, दिनेश नारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : बदरीनारायण उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मलेन
    • संस्करण : 2007

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