पहले हमें यह जानना चाहिए कि जब हम किसी देश के जातीय साहित्य के इतिहास का उल्लेख करते हैं तब उससे हमारा तात्पर्य क्या होता है। अर्थात् जब हम भारतीय आर्य जाति का साहित्य, यूनानी साहित्य, फ़्रांसीसी साहित्य या अंग्रेज़ी साहित्य आदि वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं तब हम किस बात को व्यंजित करना चाहते हैं? कुछ लोग कहेंगे कि वाक्यांशों का तात्पर्य यही है कि उन भाषाओं में कौन-कौन से लेखक हुए, वे कब-कब हुए, उन्होंने कौन-कौन से ग्रंथ लिखे, उन ग्रंथों के गुण-दोष क्या हैं और उनके साहित्यिक भावों में क्या-क्या परिवर्तन हुए। यह ठीक है, पर जातीय साहित्य में इन बातों के अतिरिक्त और भी कुछ होता है। जातीय साहित्य केवल उन पुस्तकों का समूह नहीं कहलाता जो किसी भाषा या किसी देश में विद्यमान हों। जातीय साहित्य जाति-विशेष के मस्तिष्क की उपज और उनकी प्रकृति के उन्नतिशील तथा क्रमागत अभिव्यंजन का फल है। संभव है कि कोई लेखक जातीय आदर्श से दूर जा पड़ा हो और उसकी यह विभिन्नता उसकी प्रकृति की विशेषता से उत्पन्न हुई हो; परंतु फिर भी उसकी प्रतिभा में स्वाभाविक जातीय भाव का कुछ न कुछ अंश वर्तमान रहेगा ही। उसे वह सर्वथा छोड़ नहीं सकता। यदि किसी काल में स्वाभाविक जातीय भाव कुछ ही चुने हुए स्वनाम धन्य वर्तमान लेखकों में पाया जाएगा तो हम कह सकेंगे कि उस काल के जातीय साहित्य की वही विशेषता थी। जब हम कहते हैं कि अमुक काल के भारतीय आर्यों, यूनानियों या फ़्रांसीसियों का जातीय भाव ऐसा था तब हमारा यह तात्पर्य नहीं होता कि उस काल के सभी भारतीयों, यूनानियों या फ़्रांसीसियों के विचार, भाव या मनोवेग एक से थे। उससे हमारा वही तात्पर्य होता है कि व्यक्तिगत विभिन्नता को छोड़ कर जो साधारण भाव किसी काल में अधिकता से वर्तमान होते हैं वही भाव जातीय प्रकृति के व्यंजक या बोधक होते हैं और उन्हीं को जातीय भाव कहते हैं, चाहे उन्हें कोई दोष समझे, चाहे गुण! उन्हीं जातीय भावों का विवेचनापूर्वक विचार करके हम इस सिद्धांत पर पहुँचते हैं कि अमुक काल में अमुक जाति के जातीय भाव ऐसे थे। उन्हीं के आधार पर हम किसी जाति की शक्ति, उसकी श्रुटि और उसकी मानसिक तथा नैतिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा इस बात का अनुभव करते हैं कि उस जाति ने संसार की मानसिक तथा अध्यात्मिक उन्नति में कहाँ तक योग दिया। मध्य काल अर्थात् सन् ईसवी की दसवीं से चौदहवीं शताब्दियों के बीच यूरोप में किसी नवयुवक की शिक्षा तब तक पूर्ण नहीं समझी जाती थी जब तक वह यूरोप के सभी मुख्य-मुख्य देशों में पर्य्यटन में कर आता था। इसका उद्देश्य यही था कि वह अन्य देशों के निवासियों, उनकी भाषाओं, उनके रीति-रवाज तथा उनकी सार्वजनिक संस्थाओं आदि का ज्ञान प्राप्त कर ले जिसमें पारस्परिक तुलना से वह अपने जातीय गुण-दोषों का ज्ञान प्राप्त कर सके और अपने शील-स्वभाव तथा व्यवहार को परिमार्जित और सुंदर बना सके। साहित्य का अध्ययन भी एक प्रकार का पर्य्यटन या देश-दर्शन ही है। उसके द्वारा हम अन्य देशों और जातियों के मानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन से परिचय प्राप्त करते और उनसे निकटस्थ संबंध स्थापित करके उनके उपार्जित ज्ञान-भांडार के रसास्वादन में समर्थ होते हैं। देश-दर्शन के लिए की जाने वाली साधारण यात्रा और साहित्यिक यात्रा में बड़ा भेद है। साधारण यात्रा तो हम किसी निर्दिष्ट काल में ही कर सकते हैं, पर साहित्यिक यात्रा के लिए काल का कोई बंधन नहीं। यह यात्रा हम चाहे जिस काल में कर सकते हैं। तात्पर्य यह कि हम किसी भी जाति की, किसी भी काल की विद्वन्मंडली से, जब चाहें, परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए किसी प्रकार का अवरोध या बंधन नहीं है।
इस प्रकार दूसरी जातियों के साहित्य के इतिहास का अध्ययन करके हम उस जाति की प्रतिभा, उसकी प्रवृत्ति, उसकी उन्नति आदि के क्रमिक विकास का इतिहास जान सकते हैं। इस दशा में साहित्य इतिहास का सहायक और व्याख्याता हो जाता है। इतिहास हमें यह बताता है कि किसी जाति ने किस प्रकार अपनी सांसारिक सभ्यता को बढ़ाया और वह क्या करने में समर्थ हुई। साहित्य बताता है कि जाति-विशेष की आंतरिक वासना, भावना, मनोवृत्तियाँ तथा कल्पनाएँ क्या थीं, उनमें क्रमशः कैसे परिवर्तन हुआ, सांसारिक जीवन के उतार-चढ़ाव का उन पर कैसा प्रभाव पड़ा और उस प्रभाव ने उस जाति के मनोविकारों और मानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन को नए साँचे में कैसे ढाला। साहित्य ही से हमें जातियों के आध्यात्मिक मानसिक और नैतिक विकास किंवा उन्नति का ठीक-ठीक पता मिलता है।
किसी काल के बहुत से कवियों या लेखकों की कृतियों के साधारण अध्ययन से भी हमें इस बात का पता लग जाता है कि कुछ ऐसी साधारण बातें हैं जो उन सब की कृतियों में एक सी पाई जाती हैं, चाहे और अनेक बातों में विभिन्नता ही क्यों न हो। उनके अध्ययन से ऐसा प्रकट होता है कि विभिन्न होने पर भी उनमें कुछ काल की प्रकृति-समता है। जब हम तुलसीदास के ग्रंथों पर विचार करते हैं तब हमारा मन हठात् सूरदास, केशवदास, ब्रजवासीदास आदि के ग्रंथों पर चला जाता है। तब हम इन सबकी तुलनात्मक जाँच करने और इनकी समता या विभिन्नता का ज्ञान प्राप्त करने में लग जाते हैं। यह संभव है, और कभी-कभी देखने में भी आता है कि एक ही वंश या माता-पिता की संतति में जहाँ प्रायः कुछ बातें समान होती है वहाँ कोई ऐसी भी संतति जन्म लेती है जिसमें एक भी गुण सब के जैसा नहीं होता। उसमें सभी बातों में औरों से भिन्नता पाई जाती है। यही बात किसी निर्दिष्ट काल के किसी ग्रंथकार में भी हो सकती है। पर साधारणतः उस काल के अधिकांश ग्रंथकारों में कोई न कोई सामान्य गुण प्रायः होता ही है। इसी सामान्य गुण को हम उस काल की प्रकृति या भाव कह सकते हैं।
हिंदी-साहित्य का इतिहास ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह विदित होता है कि हम उसे भिन्न-भिन्न कालों में ठीक-ठीक विभक्त नहीं कर सकते। उस साहित्य का इतिहास एक बड़ी नदी के प्रवाह के समान है, जिसकी धारा उद्गम स्थान में तो बहुत छोटी होती है, पर आगे बढ़कर और छोटे-छोटे टीलों या पहाड़ियों के बीच में पड़ जाने पर वह अनेक धाराओं में बहने लगती है। बीच-बीच में दूसरी छोटी-छोटी नदियाँ कहीं तो आपस में दोनों का संबंध करा देती हैं और कहीं कोई धारा प्रबल वेग से बहने लगती है और कोई मंदगति से। कहीं खनिज पदार्थों के संसर्ग से किसी धारा का जल गुणकारी हो जाता है और कहीं दूसरी धारा के गँदले पानी व दूषित वस्तुओं के मिश्रण से उसका जल अपेय हो जाता है। सारांश यह कि जैसे एक ही उद्गम से निकल कर एक ही नदी अनेक रूपों को धारण करती है और कहीं पीनकाय तथा कहीं क्षीणकाय होकर प्रवाहित होती है, और जैसे कभी-कभी जल की एक धारा अलग होकर सदा अलग ही बनी रहती और अनेक भू-भागों से होकर बहती है, वैसे ही हिंदी-साहित्य का इतिहास भी आरंभिक अवस्था से लेकर अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित हो रहा है। प्रारंभ में कवि लोग देश के इतिहास को कविता के रूप में लिखते रहे। समय के परिवर्तन से साहित्य की यह स्थूल धारा क्रमशः क्षीण होती गई, क्योंकि उसका जल खिंच कर भगवद्-भक्ति रूपी एक अन्य धारा में जाने लगा। यह भगवद्-भक्ति रूपी धारा रामानंद और वल्लभाचार्य के अवरोध के कारण दो धाराओं में विभक्त होकर राम-भक्ति और कृष्ण-भक्ति के रूप में परिवर्तित हो गई। फिर आगे चल कर केशवदास के प्रतिभा-प्रवाह ने इन दोनों धाराओं के रूप को बदल दिया। जहाँ पहले भाव-व्यंजना तथा विचारों के प्रत्यक्षीकरण पर विशेष ध्यान रहता था, वहाँ अब साहित्य-शास्त्र के अंग प्रत्यंग पर ज़ोर दिया जाने लगा। राम-भक्ति की साहित्य-धारा तो तुलसीदास के समय में ख़ूब ही उमड़ चली। उसने अपने अमृतोपम भक्ति-रस के द्वारा देश को आप्लावित कर दिया और उसके सामने मानव-जीवन का सजीव आदर्श उपस्थित कर दिया। साहित्य-शास्त्र की धारा उसमें अपना पानी न मिला सकी पर कृष्ण-भक्ति की धारा में उसका पानी बड़े वेग से मिलता गया। अतएव उस धारा का रूप ही कुछ का कुछ—यहाँ तक कि किसी अंश में अपेय तक हो गया। कवियों को कृष्ण-लीला के आक्षेप-योग्य अंश के अतिरिक्त और कोई विषय ही न मिलने लगा, जिस पर वे अपनी लेखनी चलाते। बात यहाँ तक बिगड़ी कि कवियों को नायिका-भेद और नखशिख आदि के वर्णन करने में ही अपनी सारी शक्ति लगाने में प्रयत्नशील होना पड़ा। इसी बीच मुसलमानों की राज्य-धारा के साथ विलासिता और शृंगार-रस-प्रियता का एक और नया प्रवाह उसमें आ मिला। इस प्रकार तीन छोटी-छोटी धाराओं के मेल से बनी हुई एक बहुत बड़ी धारा ने कविता-सरिता के रूप में आकाश-पाताल का अंतर कर दिया। भावों की व्यंजना, विचारों का प्रत्यक्षीकरण, अंतःकरण का प्रतिबिंब कविता में न झलकने लगा। बलवत लाए गए अलंकारों ने कविता-नदी को कठिनता से अवगाहन-योग्य बना दिया—उन्होंने उसे विशेष जटिल कर दिया। जो पहले भावव्यंजना आदि के सहायक थे वे अब स्वयं स्वामी बन बैठे। फल यह हुआ कि कविता की स्वाभाविकता जाती रही और वह अपने आदर्श आसन से गिर गई। कवि नायिकाओं का रूप-रंग वर्णन करने में ही अपना कौशल दिखाने लगे। वे आंतरिक भावों की निवृत्ति न कर सके; वे चरित्र-चित्रण और भाव-प्रदर्शन करना भूल गए। स्थूल दृष्टि के सामने जो कुछ आया उसे शब्दाडंबर से लपेटने में ही वे अपनी कवित्व शक्ति की चरम सीमा मानने लगे। इस प्रकार भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न- भिन्न प्रभावों और कारणों के पंजे में पड़कर साहित्य का रूप बदलता रहा; पर कविता सरिता की धाराएँ बराबर बहती ही रहीं।
जिस काल में जो गुण या विशेषत्व प्रबल रहता है वही उस काल की प्रकृति या भाव कहलाता है। इस भाव या प्रकृति को हम किसी निर्दिष्ट काल के कवियों की कृति के अध्ययन से निर्धारित कर सकते हैं। पर इस बात का हमें ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी-साहित्य का इतिहास निर्दिष्ट कालों में कठिनता से बाँटा जा सकता है। साहित्य का जो प्रभाव आरंभ से बहा वह बहता ही गया। भिन्न-भिन्न कालों में उसके रूप में परिवर्तन तो हुआ; पर प्रभाव का मूल एक ही सा बना रहा।
किसी निर्दिष्ट काल की प्रकृति जानने में हमें कवि विशेष की ही कृति पर अबलंबित न होना चाहिए, चाहे वह कवि कितना ही बड़ा कितना ही प्रतिभाशाली और काव्य-कला के ज्ञान से कितना ही संपन्न क्यों न हो। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कवि भी तत्कालीन सामाजिक जीवन और सांसारिक परिस्थिति के प्रभाव से बचा नहीं रह सकता। उसकी सत्ता स्वतंत्र नहीं हो सकती। वह भी जाति के क्रमिक विकास की शृंखला के प्रबंध के बाहर नहीं जा सकता। इस बात को ध्यान में रखने से ही हम उसके ग्रंथों के अध्ययन से जातीय विकास का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। भूषण और हरिश्चंद्र के ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन करके हम जान सकते हैं कि उनके समयों की स्थिति और तत्कालीन जातीय सत्ता में कितना अंतर था।
अतएव कवि अपने समय की स्थिति के सूचक होते हैं। उनकी कृतियाँ उनके समय का प्रतिबिंब दिखाने में आदर्श का काम देती हैं। उनके आश्रय से हम अपने अनुसंधान में अग्रसर हो सकते हैं और उन्हें आधार मान कर साहित्य के इतिहास को भिन्न-भिन्न कालों में विभक्त कर सकते हैं। यह काल-विभाग अपने-अपने समय के कवियों के विशेष विशेष गुणों के कारण स्पष्टता पूर्वक निर्दिष्ट किया जा सकता है। कविता के विषय, विषय-प्रतिपादन की प्रणाली, भाव-व्यंजना के ढंग आदि की गणना गुणविशेषों में है। यह एक काल के कवियों को दूसरे काल के कवियों से पृथक कर देते हैं। जैसे प्रत्येक ग्रंथ उसके कर्ता का आंतरिक रूप प्रच्छन्न रहता है और प्रत्येक जातीय साहित्य में उस जाति की विशेषता छिपी रहती है। वैसे ही किसी काल के साहित्य में परोक्षरूप से उस काल की विशेषता गर्भित रहती है। किसी काल के सामाजिक जीवन की विशेषता अनेक रूपों में व्यंजित होती है; जैसे राजनीतिक-संघटन, धार्मिक-विचार, आध्यात्मिक कल्पनाएँ आदि। इन्हीं रूपों में साहित्य भी एक रूप है, जिस पर अपने काल की जातीय स्थिति की छाप रहती है। उसका विचारपूर्वक अध्ययन करने से वह छाप स्पष्ट दिखाई देने लगती है।
इस विवेचन से यह ज्ञात होता है कि किसी कवि या ग्रंथकार पर तीन मुख्य बातों का प्रभाव पड़ता है। यही उसके कृति-जात रूप को स्थिर करने में सहायक होती हैं। वे तीन बातें हैं—जाति, स्थिति और काल! जाति से हमारा तात्पर्य किसी जन समुदाय के स्वभाव से है; स्थिति से तात्पर्य उस सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और प्राकृतिक अवस्था से है जो उस जन-समुदाय पर अपना प्रभाव डालती है; और काल से तात्पर्य उस समय के जातीय विकास की विशेषता से है। स्मरण रहे कि यद्यपि ये तीनों ही बातें जातीय साहित्य के विकास और ग्रंथकारों के विशेषत्व के उत्पादन में साधारणतः सहायक हो सकती हैं और होती भी है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि सभी ग्रंथकार इन्हीं तीन शक्तियों के अधीन या इनसे प्रेरित होकर ग्रंथ-रचना करते हैं। क्योंकि यदि हम वह मान लेंगे तो किसी कवि या ग्रंथकार को व्यक्तिगत सच्चाई अथवा विशेषता का सर्वथा लोप हो जाएगा और जहाँ उसका लोप हुआ; वहाँ वास्तविक काव्य का भी लोप हो गया समझिए। साधारण लेखकों की अपेक्षा प्रतिभाशाली लेखकों के लेखों में कुछ विशेष प्रकार के गुण पाए जाते हैं। अतएव यदि पूर्व निर्दिष्ट सिद्धांत सर्वत्र चरितार्थ हो सकेगा तो महाकवियों और प्रख्यात लेखकों की विशिष्टता ही नष्ट हो जाएगी। यह अवश्य सच है कि साधारण श्रेणी के ग्रंथकार या कवि अपने समय की प्रकृति या स्थिति के द्योतक होते हैं, पर सच्चे प्रतिभावान लेखक या कवि के लिए यह बात आवश्यक नहीं है। संभव है कि उसमें वह प्रकृति या स्थिति भी लक्षित होती हो, पर उसकी विशेषता तो इसी में है कि वह किसी अभिनव प्रकृति, स्थिति या भाव का निर्माता हो, उस पर अपना प्रभाव डाल कर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करने में समर्थ और अपनी अलौकिक मानसिक शक्ति से उसे नया रंग-रूप देने, उसे नए साँचे में ढालने में सफल हो। यही उसकी विशेषता, यही उसका गौरव और यही उसकी प्रतिभा का साफल्य है।
ऊपर कहे हुए सिद्धांत के अनुसार ग्रंथकार पर काल, स्थिति और जाति की प्रकृति का प्रभाव तो स्वीकृत किया जाता है, पर उस प्रकृति पर ग्रंथकार के प्रभाव की उपेक्षा की जाती है। इस सिद्धांत में दोष आ जाता है। सारांश यह कि प्रतिभाशाली ग्रंथकार या कवि अपने काल, जाति और स्थिति की प्रकृति-द्वारा निर्मित ही नहीं होता, वह उनका निर्माण भी करता है। वह केवल उनसे प्रभावान्वित होने वाला ही नहीं, उन पर प्रभाव डालने वाला भी है। ग्रंथकार या कवि की विशेष सत्ता की उपेक्षा न की जानी चाहिए, किंतु उसे ध्यान में रख कर साहित्य के विकास का रूप या इतिहास प्रस्तुत करना चाहिए।
जिस प्रकार किसी ग्रंथकर्ता की कृतियों के अध्ययन में तुलनात्मक और आनुपूर्व्य प्रणालियों के अनुसरण की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार किसी जाति के साहित्य के अध्ययन में भी हमें उन्हीं प्रणालियों के अनुसरण की आवश्यकता है। बिना इन प्रणालियों का अवलंबन किए काम ही नहीं चल सकता, तथ्यांश जाना ही नहीं जा सकता। जब हम किसी निर्दिष्ट काल के साहित्य का मिलान किसी दूसरे निर्दिष्ट काल के साहित्य से करते हैं तब हम उन दोनों में प्रायः कुछ बातें तो समान और कुछ विभिन्न पाते हैं। आपस में उनका मिलान करना और उस मिलान का ठीक-ठीक फल समझना हमारा कर्तव्य है। समय के प्रभाव से विचारों, भावों और आदर्शों में परिवर्तन हो जाता है। साथ ही उन्हें प्रदर्शित या व्यंजित करने के ढंग में भी परिवर्तन हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसा जान पड़ने लगता हैं कि हमारे पूर्ववर्ती ग्रंथकारों और हममें बड़ा अंतर हो गया है। साहित्य का अध्ययन यही काम देता है। उसी से इस परिवर्तन का अंतर और उस अंतर का कारण समझ में आता है। वही हमें यह जानने को समर्थ करता है कि उन परिवर्तनों के आधारभूत कौन से कारण या अवस्थाएँ हैं और विभिन्न होने पर भी कैसे वे एक ही विचार-शृंखला की कड़ियाँ हैं, जिनपर निरंतर काम में न आने से जंग सा लग गया है और जो जीर्ण सी प्रतीत होती हैं।
जब दो जातियों में परस्पर संबंध हो जाता है—चाहे वह संबंध मित्रता का हो चाहे अधीनता का हो, चाहे व्यवहार या व्यवसाय का हो—तब उनमें परस्पर भावों, विचारों आदि का विनिमय होने लगता है। जो जाति अधिक शक्तिशालिनी होती है उसका प्रभाव शीघ्रता से पड़ने लगता है और जो कम शक्तिशालिनी या निःसत्व होती है अथवा जो चिरकाल से पराधीन होती है अथवा जिसकी सभ्यता विकसित होकर दब जाती है वह शीघ्रता से प्रभावान्वित होने लगती है। पराधीन जातियों में मानसिक दासत्व क्रमशः बढ़कर इतना व्यापक हो जाता है कि शासित लोग शासकों की नक़ल करने में ही अपने जीवन की कृतकृत्यता समझते हैं। अविकसित जातियाँ दूसरी जातियों की सभ्यता का मर्म समझने में समर्थ नहीं होती। उन पर तो शारीरिक शक्ति का ही प्रभाव अधिक पड़ता है। समशक्तिशालिनी जातियों में यह विनिमय परस्पर हुआ ही करता है अथवा यह कहना चाहिए कि जो बात जिस जाति में स्पृहणीय व उत्कृष्ट होती है उसे दूसरी जाति ग्रहण कर लेती है। इन बातों को ध्यान में रख कर हम किसी साहित्य के अध्ययन से यह जान सकते हैं कि कहाँ तक किस जाति के साहित्य पर विदेशी प्रभाव पड़ा है। भारतवर्ष के पश्चिमी अंचल में पहले-पहल यूनानियों का आगमन हुआ और उनका आवागमन बहुत समय तक होता रहा। अतएव उनकी सभ्यता और कारीगरी का प्रभाव वहाँ की ललित कलाओं पर बहुत अधिक पड़ा। जहाँ यूनानियों का प्रभाव अधिक व्यापक और स्थाई था, वहाँ की ललित कला के रूप में विशेष परिवर्तन हुआ। उस समय के उस परिवर्तन के अवशिष्ट चिन्ह अब तक, विशेष करके मूर्तियों में दिखाई पड़ते हैं। गांधार-प्रदेश में मिली हुई पुरानी मूर्तियाँ यूनानी प्रभाव से अधिक प्रभावान्वित पाई जाती हैं। उनकी काट-छाँट तथा प्राकृति में जो सुंदरता दृष्टिगोचर होती है वह दक्षिण या मध्यभारत में निर्मित मूर्तियों में नहीं दिखाई पड़ती। मुसलमानों के राजत्व काल में भारतवासियों पर उनका भी प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव सैकड़ों वर्षों तक बराबर पड़ता ही गया। फल यह हुआ कि वह अधिक स्थाई और व्यापक हुआ। और वस्तुओं या विषयों पर पड़े हुए इस प्रभाव की विशेष विवेचना हम नहीं करते, हम केवल अपनी काव्य-कला का ही निदर्शन करते हैं। उसकी स्थूल विवेचना से भी हमें यह स्पष्ट विदित हो जाएगा कि उसमें शृंगार-रस का जो इतना आधिक्य है बहुत कुछ प्रभाव का फल है। अंग्रेज़ों के आगमन, संपर्क और सत्ता का प्रभाव तो उससे भी बढ़ कर पड़ा। हमारे गद्य-साहित्य का विकास तो उन्हीं के संसर्ग का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे विचारों, मनोभावों, आदर्शों और संस्थाओं पर भी उन्होंने अपने प्रभाव की स्थाई छापा लगा दी। उन्होंने तो यहाँ तक हमारी सभ्यता पर छापा मारा कि जिधर देखिए उधर ही उनका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। बात यह हुई कि हमारी जाति कुछ समय पहले से ही सुषुप्तावस्था में पड़ी थी। इस कारण यह प्रभाव अधिक शीघ्रता से दूर-दूर तक व्यापक हो गया। जब जागृति के चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे तब एक ओर तो इस प्रभाव का अवरोध होने लगा और दूसरी ओर उसके पृष्ठ-पोषक उसे स्थाई बनाए रखने के लिए उद्योगशील होने लगे। साहित्य का अध्ययन करने वाले, उसका मर्म समझने वाले तथा उसके विकास का सच्चा स्वरूप पहचानने वाले के लिए यह परम आवश्यक है कि वह विदेशी प्रभाव की विवेचना करे और देखे कि यह प्रभाव साहित्य पर किस प्रकार पड़कर यहाँ के लोगों के आदर्शों, विचारों, मनोभावों और लेखनशैली में उसने परिवर्तन कर दिया। उसे यह भी देखना और बताना चाहिए कि इस परिवर्तन के कारण हमारे काव्य या साहित्य में कहाँ तक चारुता या विरूपता आई। अतएव साहित्य के अध्ययन में यह भी आवश्यक है कि हम उन जातियों के साहित्य के इतिहास से अभिज्ञता प्राप्त करें जिनसे हमारा संबंध हुआ है। बिना ऐसा किए हमारा विवेचन अपूर्ण और अल्पोपयोगी होगा।
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है लेखन-शैली विचारों के प्रकाशन का बाहरी रूप है, अथवा यह कहना चाहिए कि वह भाषा के प्रयोग का व्यक्तिगत विशेष ढंग है। समय पाकर जैसे विचारों में परिवर्तन हो जाता है, वैसे ही उनके व्यक्त करने की शैली या ढंग में भी परिवर्तन होता है। साहित्य की अंतरात्मा पर समय, स्थिति, संपर्क आदि का प्रभाव पड़ने पर उसमें परिवर्तन होना अनिवार्य है। किसी निर्दिष्ट काल का कोई ग्रंथकार था कवि उस काल की विशेषता के कारण अपने भावों या विचारों को उस काल की प्रकृति या परिस्थिति के प्रभाव से अछूता नहीं रख सकता। इस दशा में उन विचारों या भावों के व्यक्तीकरण का ढंग भी उस प्रभाव की पहुँच की सीमा के बाहर नहीं रह सकता। उसे भी अपना रूप बदलना ही पड़ता है। जैसे किसी कवि की कृति की अंतरात्मा पर, चाहे उस पर उसकी व्यक्तिगत सत्ता की छाप कितनी ही गहरी क्यों न पड़ी हो, उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और प्राकृतिक स्थिति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता; वैसे ही उसकी रचना का बाहरी रूप भी उसके प्रभाव से नहीं बच सकता। इस सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए हम उदाहरणवत लल्लूलाल और हरिश्चंद्र के गद्य को उपस्थित करते हैं। इन दोनों के गद्य को ध्यानपूर्वक पढ़ कर विवेकशील पाठक स्पष्ट देख सकते हैं कि लेखन शैली में कितना अंतर है। यह सच है कि लल्लूलाल ने ब्रजभाषा के गद्य और ब्रज मंडल की बोली का सहारा लेकर गद्य लिखने का प्रयत्न किया है और हरिश्चंद्र को लल्लूलाल के पीछे के और अपने से 70, 80 वर्ष पहले के गद्य के विकसित रूप का सहारा मिला है। पर यहाँ हमारा उद्देश उन कारणों पर विचार करना नहीं है जिनसे इन दोनों के गद्य में इतना अंतर हो गया है। हम तो केवल यह दिखाना चाहते हैं कि दोनों की गद्य-शैली ने किस तरह भिन्न-भिन्न रूप धारण किए। लल्लूलाल की कृति बहुत पहले की है, उस पर कविता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उस समय तो वह अपना रूप स्थिर करने में लगी हुई थी। पर हरिश्चंद्र के समय में उस रूप में कुछ कुछ स्थिरता आ गई थी, वह परिमार्जित हो चली थी, उसमें प्रौढ़ता और शक्ति-संपन्नता के चिह्न-दिखाई देने लगे थे, वह भाव-व्यंजना में अधिक समर्थ हो चली थी। उसी रूप से अनुप्राणित और प्रभावान्वित होकर हरिश्चंद्र ने गद्य-लेखन की उस शैली की अवतारणा की है जिसे हम उनकी पुस्तकों में पाते हैं। यह विवेचन इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि शैली का अनुपूर्व्य और तुलनात्मक अध्ययन भी साहित्य की स्थिति की विवेचना में सहायक हो सकता है।
अब तक हमने काव्य और साहित्य के विषय में इस दृष्टि से विचार किया कि वह किस प्रकार विचारों, भावों, मनोवेगों या कल्पनाओं का व्यंजक और किस प्रकार लेखक की अंतरात्मा का बाहरी रूप है। हम यह भी देख चुके हैं कि साहित्य और काव्य के उत्पादन में कौन-कौन सी अवस्थाएँ या कारण सहायक होते हैं और हमें किस प्रकार उनका अध्ययन या उनकी आलोचना करनी चाहिए। लेखन-शैली के विषय में भी जो कुछ लिखा गया है, वह भी इसीलिए कि किस प्रकार वह उस अध्ययन या आलोचना की आधारभूत हो सकती है। आरंभ में यह भी कहा जा चुका है कि काव्य के अंतर्गत वे ही पुस्तकें मानी जाती हैं जो विषय तथा उसके प्रतिपादन की विशिष्ट रीति के कारण मानव-हृदय को स्पर्श करने वाली हो और जिनमें लोकोत्तर आनंद देने वाले तथा मनोमोहक मूल तत्वों की सामग्री विशेष रूप से वर्तमान हो। इस भाव को अधिक स्पष्ट करने के लिए यह भी लिखा जा चुका है कि जीवन-व्यापार के निरीक्षण द्वारा जिस संचित सामग्री को कवि कौशल द्वारा काव्य-कला का रूप देता है, वह बुद्धितत्व, रागात्मक-तत्व और कल्पना-तत्व पर अवलंबित रहने के अतिरिक्त एक चौथे तत्व की भी आश्रित रहती है। वही तत्व उस सामग्री को ऐसा रूप देता है जो कम, चारुता और प्रभावोत्पादकता के सिद्धांतों के अनुकूल होता है। बिना इन तत्वों का आश्रय लिए कवि की कृति में चारुता और मनोमोहकता नहीं आ सकती; चाहे उसकी सामग्री कैसी ही उत्तम क्यों न हो और उसके विचार, भावनाएँ और कल्पनाएँ कितनी ही परिपक्व और अश्रुतपूर्व क्यों न हों। इस रचना-चमत्कार के विषय में आगे चलकर विशेष विवेचना की जाएगी। तथापि यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि जिस प्रकार अन्यान्य ललित कलाओं के सिद्धांतों और नियमों के अनुसार प्रस्तुत सामग्री को उन कलाओं का मूर्त रूप दिया जाता है, उसी प्रकार काव्य-कला को भी निर्दिष्ट नियमों और सिद्धांतों का अनुसरण करना पड़ता है। तभी काव्य में सुंदरता आती है और तभी वह सुंदरता आनंद का उद्रेक करने में समर्थ होती है। इन नियमों और सिद्धांतों का समावेश अलंकार आदि के रूप में साहित्य शास्त्र में होता है। यह शास्त्र अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि वृत्तियों तथा अलंकार, रस, रीति और गुण-दोष आदि का वर्णन करता है।
कुछ विद्वान् साहित्य-शास्त्र का स्वतंत्र अध्ययन आवश्यक, उपयोगी और मनोरंजक बताते हैं। पर हमें तोयहाँ उक्त शास्त्र के अनुसार प्रस्तुत की गई कृतियों के अध्ययन के संबंध में ही विचार करना है। हमें तो यही देखना है कि इस शास्त्र की सहायता से आनंद का उद्रेक करने में काव्य कहाँ तक समर्थ होता है। साहित्य-शास्त्र के नियम काव्य-रचना के सहायक मात्र हैं। वे काव्य के आधार नहीं। काव्य के मूल रूप की सत्ता उनसे अलग और स्वतंत्र है। इस बात को भूलकर साहित्य-शास्त्र का विश्लेषण ही अपना मुख्य कर्त्तव्य मान लेना, मानो किसी उद्यान की सुंदरता का अनुभव न करके यह बात जानने में लग जाना है कि माली ने किन-किन नियमों के परिपालन से उसे सुंदरता का रूप दिया है। साधारण लोगों के लिए तो उस सुंदरता का अनुभव करना ही मुख्य बात है : माली की कला का विवेचन गौण है। इसी प्रकार मानव-हृदय पर ललित-कलाओं का जो प्रभाव पड़ता है और उसके कारण आनंद का जो अनुभव होता है, वही मुख्य है, और वही जानना भी चाहिए। रहा इस बात का जानना कि किन-किन उपायों का अवलंबन करके कौन कला सफल और उन्नत हो सकी है, गौण बात है। हाँ, जो किसी विशेष कला का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो अथवा जिनमें सहज प्रतिभा वर्तमान हो, वे उस कला के नियमों और सिद्धांतों का अध्ययन करके उसका चूड़ांत ज्ञान प्राप्त कर लेने पर अपने को विशेषज्ञ बना सकते हैं। जैसे किसी तैयार की हुई वस्तु और उसके तैयार होने की विधि में जो अंतर है, वही काव्य और साहित्य-शास्त्र में भी अंतर है। यह दूसरी बात है कि किसी तैयार की हुई वस्तु को देखकर हम यह जानने के लिए उत्सुक हों कि वह कैसे तैयार की गई है। तब तो हमे उस कारख़ाने में जाना पड़ेगा जिसमें वह बनी होगी और उसके निर्माण की सभी प्रक्रियाओं को एक-एक करके देखना होगा। इसी प्रकार किसी काव्योत्पादक के कारख़ाने की देखभाल—उन कल-पुर्जों की जाँच, जिनकी सहायता से काव्य प्रस्तुत होता है—हम में से विशेष प्रवृत्ति के कुछ ही लोगों के लिए आवश्यक हो सकती है। पर इस तरह की जाँच-पड़ताल सहृदयों के लिए—काव्यरस के लोलुप रसिक मधुव्रतों के लिए भी विशेष मनोरंजक होगी, इसमें संदेह है। अतएव काव्य-कला को रीति, अलंकार आदि बाहरी बातों अथवा उनके विवेचक ग्रंथों में ढूँढ़ना भूल है।
- पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 36)
- संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
- रचनाकार : श्यामसुंदरदास
- प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक
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