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नाटकों में रस का प्रयोग

natkon mein ras ka prayog

जयशंकर प्रसाद

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जयशंकर प्रसाद

नाटकों में रस का प्रयोग

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    पश्चिम ने कला को अनुकरण ही माना है; उस में सत्य नहीं। उन लोगों का कहना है कि मनुष्य अनुकरणशील प्राणी है, इसलिए अनुकरणमूलक कला में उस को सुख मिलता है। किंतु भारत में रस सिद्धांत के द्वारा साहित्य में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्टा हुई क्योंकि भरत ने कहा है—आत्माभिनयतं भावो (26-39), आत्मा का अभिनय भाव है। भाव ही आत्म चैतन्य में विश्रांति पा जाने पर रस होते हैं। जैसे विश्व के भीतर से विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह नाटकों से रस की। आत्मा के निजी अभिनय में भावसृष्टि होती है। जिस तरह आत्मा की और इदम् की भिन्नता मिटाने में अद्वैतवाद का प्रयोग है, उसी प्रकार एक ही प्रत्यगात्मा के भाववैचित्र्यों का—जो नर्तक आत्मा के अभिनय मात्र हैं—अभेद या साधारणीकरण भी रस में है। इस रस में आस्वाद का रहस्य है। प्लेटो इसलिए अभिनेता में चरित्रहीनता आदि दोष नित्य सिद्ध मानता है क्योंकि वे क्षण-क्षण में अनुकरणशील होते हैं, सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते। किंतु भारतीयों की दृष्टि भिन्न है। उन का कहना है कि आत्मा के अभिनय को, वासना या भाव को अभेद आनंद के स्वरूप में ग्रहण करो। इसमें विशुद्ध दार्शनिक अद्वैत भाव का भोग किया जा सकता है यह देवतार्चन है। आत्म-प्रसाद का आनंद पथ है। इस का आस्वाद ब्रह्मानंद ही है।

    आस्वाद के आधार पर विवेचना करने में कहा जा सकता है कि आस्वाद तो केवल सामाजिकों को ही होता है। नटों को उस में क्या ? आधुनिक रंगमंच का एक दल कहता है कि नट को आस्वाद, अनुभूति की आवश्यकता नहीं। रंग-मंच में हम वाह्म विन्यास (मेकअप) के द्वारा गूढ़ से गूढ़ भावों का अभिनय कर लेते हैं। किंतु यह विवाद भारतीय रंगमंच के प्राचीन संचालकों में भी हुआ था। इसी तरह एक पक्ष कहता था—

    ‘अष्टावेव रसानाट्येप्विति केचिदचृचुदन, तदचास्यतः किञ्चिन्नरस स्वदते नटः।’ अर्थात् नट को आस्वाद तो होता ही नहीं, इसलिए शांत भी क्यों अभिनयोपयोगी रस माना जाए। यह कहना व्यर्थ है कि ‘शांतस्य शमसाध्यत्त्वान्नटे चतद्संभवात् अष्टावेव रसाः नाट्ये शांतस्तत्र युज्यते।’ शम का अभाव नटों में होता है। शांत का अभिनय असंभव है। नटों में तो किसी भी आस्वाद का अभाव है। इसलिए शांत रस भी अभिनीत हो सकता है, इसकी आवश्यकता नहीं कि नट परम शांत, संयत हो ही। किंतु साधारणीकरण में रस और आस्वाद की यह कमी मानी नहीं गई। क्योंकि भरत ने कहा है कि—

    इन्द्रियार्थश्च मनसा भाव्यते अनुभावितः

    नवेत्तिश्चमना: किञ्चिदिवयं पश्चहेतुकम्।। (24-28)

    इंद्रियों के अर्थ को मन से भावना करनी पड़ती है। अनुभावित होना पड़ता है। क्योंकि अयन्मनस्क होने पर विषयों से उस का संबंध ही छूट जाता है। फिर तो—क्षिप्रं संजातयेनाश्चा वाष्येणाष्टतलोदना, कुर्वीतनर्तकी हर्ष प्रीत्यावास्यैश्च सस्मितैः (26-50)। इन रोमांच आदि सात्त्विक अनुभावों का पूर्ण अभिनय असंभव है। भरत ने तो और भी स्पष्ट कहा है—एवं बुधः परं भावं सोऽस्मीति मनसा स्मरन्। वागङ्गलीलागतिभिश्चेष्टाभिश्च समाचरेत् (35-14)। तब यह मान लेना पड़ेगा कि रसानुभूति केवल सामाजिकों में ही नहीं प्रत्युत नटों में भी है। हाँ, रस विवेचना में भारतीयों ने कवि को भी रस का भागी माना है। अभिनवगुप्त स्पष्ट कहते हैं—कविगतसावारणीभूतसंविन्मूलश्च काव्यपुरस्सरो नाट्यव्यापारः सैव संवित् परमार्थतो रसः (अभिनव भारती 6 अध्याय)। कवि में साधारणीभूत जो संवित् है, चैतन्य है, वही काव्य पुरस्सर हो कर नाट्य व्यापार में नियोजित करता है, वही मूल संवित् परमार्थ में रस है। अब यह सहज में अनुमान किया जा सकता है कि रस विवेचना में संवित् का साधारणीकरण त्रिवृत् है। कवि, नट और सामाजिक में वह अभेद भाव से एक रस हो जाता है।

    इधर एक निम्न कोटि की रसानुभूति की भी कल्पना हुई है कुछ लोग कहते हैं कि 'जब किसी अत्याचारी के अत्याचार को हम रंगमंच पर देखते हैं, तो हम उस नट से अपना साधारणीकरण नहीं कर पाते। फलतः उस के प्रति रोष भाव ही जाग्रत होता है, यह तो स्पष्ट विषमता है।' किंतु रस में फलयोग अर्थात् अंतिम संधि मुख्य हैं, इन बीच के व्यापारों में जो संचारी भावों के प्रतीक हैं रस को खोज कर उसे छिन्न-भिन्न कर देना है। ये सब मुख्य रस वस्तु के सहायक मात्र हैं। अन्वय और व्यतिरेक से, दोनों प्रकार से वस्तु निर्देश किया जाता है। इसलिए मुख्य रस का आनंद बढ़ाने में ये सहायक मात्र ही हैं, वह रसानुभूति निम्न कोटि की नहीं होती। इस कल्पना के और भी कारण हैं। वर्तमान काल में नाटकों के विषयों के चुनाव में मतभेद है। कथा-वस्तु भिन्न प्रकार से उपस्थित करने की प्रेरणा बलवती हो गई है। कुछ लोग प्राचीन रस-सिद्धांत से अधिक महत्त्व देने लगे हैं—चरित्र-चित्रण पर। उन से भी अग्रसर हुआ है दूसरा दल, जो मनुष्यों के विभिन्न मानसिक आकारों के प्रति कुतूहलपूर्ण है, अथच व्यक्ति-वैचित्र्य पर विश्वास रखने वाला है। ये लोग अपनी समझी हुई कुछ विचित्रता मात्र को स्वाभाविक चित्रण कहते हैं, क्योंकि पहला चरित्र-चित्रण तो आदर्शवाद से बहुत घनिष्ट हो गया है, चारित्र्य का समर्थक है, किंतु व्यक्ति वैचित्र्य वाले अपने को यथार्थवादियों में ही रखना चाहते हैं।

    यह विचारणीय है कि चरित्र-चित्रण को प्रधानता देने वाले ये दोनों पक्ष रस से कहाँ तक संबद्ध होते हैं। इन दोनों पक्षों का रस से सीधा संबंध तो नहीं दिखाई देता; क्योंकि इसमें वर्तमान युग की मानवीय मान्यताएँ अधिक प्रभाव डाल चुकी हैं, जिस में व्यक्ति अपने को विरुद्ध स्थिति में पाता है। फिर उसे साधारणतः अभेद वाली कल्पना, रस का साधारणीकरण कैसे हृदयंगम हो? वर्तमान युग बुद्धिवादी है, आपाततः उसे दुःख को प्रत्यक्ष सत्य मान लेना पड़ा है। उसके लिए संघर्ष करना अनिवार्य सा है। किंतु इसमें एक बात और भी है। पश्चिम को उपनिवेश बनाने वाले आर्यों ने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए मानवीय भावनाएँ विशेष परिस्थिति उत्पन्न कर देती हैं। उन परिस्थितियों से व्यक्ति अपना सामंजस्य नहीं कर पाता। कदाचित् दुर्गम भूभागों में, उपनिवेशों की खोज में, उन लोगों ने अपने को विपरीत दशा में ही भाग्य से लड़ते हुए पाया। उन लोगों ने जीवन की इस कठिनाई पर अधिक ध्यान देने के कारण इस जीवन को (ट्रेजडी) दुःखमय ही समझ पाया। और यह उन की मनुष्यता की पुकार थी, आजीवन लड़ने के लिए। ग्रीक और रोमन लोगों को बुद्धिवाद भाग्य से, और उस के द्वारा उत्पन्न दुःखपूर्णता से संघर्ष करने के लिए अधिक अग्रसर करता रहा। उन्हें सहायता के लिए संघबद्ध होने पर भी, व्यक्तित्व के, पुरुषार्थ के विकास के लिए, मुक्त अवसर देता रहा। इसलिए उनका बुद्धिवाद, उनकी दुःख भावना के द्वारा अनुप्राणित रहा। इसी को साहित्य में उन लोगों ने प्रधानता दी। यह भाग्य या नियति की विजय थी।

    परंतु अपने घर में सुव्यवस्थित रहने वाले आर्यों के लिए यह आवश्यक था, यद्यपि उनके एक दल ने संसार में सब से बड़े बुद्धिवाद और दुःख सिद्धांत का प्रचार किया, जो विशुद्ध दार्शनिक ही रहा। साहित्य में उसे स्वीकार नहीं किया गया। हाँ, यह एक प्रकार का विद्रोह ही माना गया। भारतीय आर्यों को निराशा थी। करुण रस था, उस में दया, सहानुभूति की कल्पना से अधिक थी रसानुभूति। उन्होंने प्रत्येक भावना में अभेद, निर्विकार आनंद लेने में अधिक सुख माना।

    आत्मा की अनुभूति व्यक्ति और उसके चरित्र-वैचित्र्य को ले कर ही अपनी सृष्टि करती है। भारतीय दृष्टिकोण रस के लिए इन चरित्र और व्यक्ति-वैचित्र्यों को रस का साधन मानता रहा, साध्य नहीं। रस में चमत्कार ले आने के लिए इनको बीच का माध्यम-सा ही मानता आया। सामाजिक इतिहास में, साहित्य-सृष्टि के द्वारा, मानवीय वासनाओं को संशोधित करने वाला पश्चिम का सिद्धांत व्यापारों में चरित्र निर्माण का पक्षपाती है। यदि मनुष्य ने कुछ भी अपने को कला के द्वारा संभाल पाया, तो साहित्य ने संशोधन का काम कर लिया। दया और सहानुभूति उत्पन्न कर देना ही उस का ध्येय रहा और है भी। वर्तमान साहित्यिक प्रेरणा—जिस में व्यक्ति-वैचित्र्य और यथार्थवाद मुख्य हैं—मूल में संशोधनात्मक ही हैं। कहीं व्यक्ति से सहानुभूति उत्पन्न करके समाज का संशोधन है; और कहीं समाज की दृष्टि से व्यक्ति का। किंतु दया और सहानुभूति उत्पन्न कर के भी वह दुःख को अधिक प्रतिष्ठित करता है, निराशा को अधिक आश्रय देता है। भारतीय रसवाद में मिलन, अभेद सुख की सृष्टि मुख्य है। रस में लोकमंगल की कल्पना, प्रच्छन्न रूप से अंतर्निहित है। सामाजिक स्थूल रूप से नहीं, किंतु दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर। वासना से ही क्रिया संपन्न होती है, और क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उन महती लीलाओं से विद्रोह करता है। यह है पश्चिम की कला का गुणनफल! रसवाद में वासनात्मकतया स्थित मनोवृत्तियाँ, जिन के द्वारा चरित्र की सृष्टि होती है, साधारणीकरण के द्वारा आनंदमय बना दी जाती हैं। इसलिए वह वासना का संशोधन करके उन का साधारणीकरण करता है। इस समीकरण के द्वारा जिस अभिन्नता की रससृष्टि वह करता है, उसमें व्यक्ति की विभिन्नता, विशिष्टता हट जाती है; और साथ ही सब तरह की भावनाओं को एक धरातल पर हम एक मानवीय वस्तु कह सकते हैं। सब प्रकार के भाव एक-दूसरे के पूरक बन कर, चरित्र और वैचित्र्य के आधार पर रूपक बना कर, रस की सृष्टि करते हैं। रसवाद की यही पूर्णता है।

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