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भारतीय संस्कृति क्या है

bharatiy sanskriti kya hai

सुमित्रानंदन पंत

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भारतीय संस्कृति क्या है

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं, जब भिन्न-भिन्न देशों के लोग एक नवीन धरती के जीवन की कल्पना में बँधने जा रहे हैं। जब मनुष्य-जाति अपने पिछले इतिहास की सीमाओं का अतिक्रम कर नवीन मनुष्यता के लिए एक विशाल प्रांगण का निर्माण करने का प्रारंभिक प्रयत्न कर रही है और जब विभिन्न संस्कृतियों के पुजारी परस्पर निकट संपर्क में आकर एक-दूसरे को नए ढंग से पहचानने तथा आपस में घुलमिल जाने के लिए व्याकुल है। ऐसे युग में, जब कि मनुष्य के भीतर विराट् विश्व संस्कृति की भावना हिलोरे ले रही है, “वसुधैव कुटुंबकम्” की घोषणा करने वाली भारतीय संस्कृति के प्रश्न पर विचार विवेचन करना असामयिक तथा अप्रासंगिक नहीं होगा, क्योंकि भारतीय संस्कृति के भीतर वास्तव में विश्व संस्कृति के गहन मूल तथा व्यापक उपादान यथोचित रूप से वर्तमान है।

    भारतीय संस्कृति के संबंध में आज हमारे नव शिक्षितों के मन में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हुई है और विचारशील लोग भी अनेक कारणों से भारतीय संस्कृति का उचित मूल्यांकन करने की ओर विशेष अभिरुचि तथा आग्रह प्रकट करते नहीं दिखाई देते हैं। इसके मुख्य कारण यही हो सकते हैं कि राजनीतिक पराधीनता के कारण हमारी संस्कृति के ढाँचे में अनेक प्रकार की दुर्बलताएँ, असुंदरताएँ तथा विचार-संबंधी क्षीणताएँ गई है और मध्य युगों से हम प्राय: लौकिक जीवन के प्रति विरक्त, परलोक के प्रति अनुरक्त, अंधविश्वासों के उपासक तथा रूढ़ि-रीतियों के दास बन गए हैं। मध्य युग भारतीय संस्कृति के ह्रास का युग रहा है, जिसके प्रमुख लक्षण हमारी आत्म-पराजय, सामाजिक असंगठन तथा हमारे मानसिक विकास का अवरोध रहें हैं। इसके अतिरिक्त हमारे विचारकों तथा विवेचकों का मस्तिष्क पाश्चात्य विचारधारा से इतना अधिक प्रभावित तथा आक्रांत रहा है कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के प्रति पश्चिम के समीक्षकों के छिछले तथा भ्रांतिपूर्ण दृष्टिकोण को अक्षरशः सत्य मान लिया है, जिससे अपनी संस्कृति के प्रति उनकी भावना आहत तथा विवेक कुंठित हो गया है। फलतः आज हमारा नव शिक्षित समुदाय भारतीय संस्कृति को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगा है और पश्चिमी विचारों तथा रहन-सहन का थोथा अनुकरण कर अति आधुनिकता के हँसमुख अंधकार से भरे हुए गहरे गर्त की ओर अग्रसर हो रहा है।

    ऐसा क्यों हो गया है, पश्चिमी विचारधारा की क्या विशेषताएँ हैं और उसके आकर्षण के क्या कारण हैं, पहले हम इस पर विचार करेंगे।

    पश्चिमी विचारधारा की मुख्य दो विशेषताएँ हैं, जिनके कारण वह युग-युग से पराधीन तथा जीवन-विमुख भारतीय शिक्षित समुदाय को अपनी ओर आकर्षित कर सकी है। उसकी पहली विशेषता है उनका जीवन संबंधी दृष्टिकोण। पश्चिमी विचारधारा जीवन के प्रति अपने मोह को कभी नहीं भुला सकी है। उसने जीवन की कल्पना को मानव-हृदय के समस्त रस से सींचकर तथा रंगीन भावनाओं में लपेटकर उसे मन की आँखों के लिए सदैव मोहक बनाकर रखा है। जीवन के क्षेत्र का त्यागकर या उससे ऊपर उठकर मन की अंतरंतम गुहा में प्रवेश करना अथवा आत्मा के सूक्ष्म रुपहले आकाश में उड़ना उसने कभी अंगीकार नहीं किया है। और भारतीय विचारधारा के प्रति उसके विरोध का एक यह भी मुख्य कारण रहा है कि उसने मात्र जीवन के सतरंगी कुहासे को उतना अधिक महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि उसे माया कहकर एक प्रकार से उसकी ओर निरुत्साह ही प्रकट किया है।

    दूसरी विशेषता पश्चिमी विचारधारा की यह रही है कि उसने तर्क-बुद्धि के मूल्यांकन की आँखों से कभी ओझल नहीं होने दिया है। उसने तर्क-बुद्धि की सफलता को उसकी सामाजिक तथा लौकिक उपयोगिता में माना है और उसका प्रयोग ऐहिक, व्यक्तिगत तथा सामूहिक सुख की अभिवृद्धि के लिए किया है। पश्चिमी संस्कृति तर्क-बुद्धि से इतनी अधिक प्रभावित रही है कि उसने धीरे-धीरे धर्म को भी उसके सूक्ष्म रहस्यमय तत्त्वों से विमुक्त कर उसे अधिकाधिक लौकिक तथा उपयोगी बनाने की चेष्टा की है और धार्मिक प्रतीकों अथवा प्रतीकात्मक रूढ़ि-रीतियों को केवल अंधविश्वास कहकर, धर्म को कुछ लौकिक तथा जीवनोपयोगी नैतिक नियमों के संयोजन में सीमित कर दिया है। कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को छोड़कर जन-साधारण के लिए पश्चिम में धर्मानुराग का अर्थ केवल व्यक्ति तथा समाज के लिए कल्याणकारी नैतिकता ही से रहा है। और भारतीय संस्कृति के प्रति पश्चिम के विचारकों का एक यह भी आक्षेप रहा है कि उसमें नैतिकता, सदाचार अथवा पाप-पुण्य की भावना पर उतना ज़ोर नहीं दिया जाता है। इसका कारण यह है कि पश्चिमी विचारकों ने भारतीय संस्कृति पर केवल ऊपर ही ऊपर सोच-विचार किया है। और इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संस्कृति सदैव से उच्च से उच्चतम नैतिकता, सदाचार, आदर्शों तथा उदात्त व्यक्तित्वों की पोषक रही है। किंतु वह नैतिकता तक ही कभी भी सीमित नहीं रही है, उसमें मन के आध्यात्मिक आरोहण के लिए नैतिकता एक आवश्यक उच्च सोपान मात्र रही है। पश्चिमी संस्कृति आध्यात्मिकता को आध्यात्मिकता के लिए कभी पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर सकी। जीवन के क्षेत्र में दृढ़ चरण रखे हुए वह आध्यात्मिक स्फुरणों के सौंदर्य, माधुर्य तथा आनंद को केवल प्रशंसक मात्र रही है और आध्यात्मिक ऐश्वर्य का उपयोग उसने जीवन का भार वहन करने भर को किया है।

    भारतीय संस्कृति का मूल अन्य आध्यात्मिकता रहा है और आध्यात्मिकता भी केवल आध्यात्मिकता के लिए, धन जन कामिनी के लिए, जोकि ऐहिक जीवन के अत्यंत आवश्यक उपादान है। किंतु इस प्रकार की आध्यात्मिकता का हम क्या अभिप्राय समझे? इससे हमें यही समझना चाहिए कि भारतीय संस्कृति मनुष्य के अस्तित्व का पूर्ण रूप से अध्ययन किया है। उसने उसके मर्त्य तथा जीव-रूप को ही सम्मुख रखकर उसके लिए जीवन-धर्म की व्यवस्था नहीं बनाई है, बल्कि उसने उसके शाश्वत अमर्त्य रूप की अभिव्यक्ति तथा विकास के लिए भी पथ-निर्देश किया है। जो लोग भारतीय दृष्टिकोण के संबंध में केवल बाहरी ज्ञान रखते हैं, उन्हें उसमें केवल अनेक संप्रदाय, मत, रूढ़ि रीति, तप और साधना के नियम, योग, दर्शन आदि ऐसी अंधविश्वासपूर्ण पुराणपंथी वस्तुएँ मिलती है कि वे उनकी ऐहिक तथा लौकिक जीवन-संबंधी उपयोगिता को यकायक समझ नहीं पाते हैं। हम प्राय: एक जन्म में एक पीढ़ी के, अथवा अधिक से अधिक तीन पीढ़ियों के जीवन को देख पाते हैं और वह जीवन-वृत्त जिन मान्यताओं, दृष्टिकोणों, अभिरुचियों तथा परिस्थितियों को लेकर चलता है उन्हीं को सत्य मान लेते हैं। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार जीवन तत्त्व सदैव विकासशील रहा है और व्यक्ति के जीवन की स्थिति केवल बाह्य जीवन ही में नहीं, उससे भी ऊपर अथवा परे, शाश्वत परात्पर सत्य में मानी गई है। इस शाश्वत जीवन के लिए भारतीय संस्कृति ने अंतर्मुखी पथ निर्धारित किया है। मनुष्य का पूर्ण विकास एक सुख-संपन्न पूर्ण सामाजिकता ही में नहीं, बल्कि मुक्त शांत आनंदमय अमरत्व की स्थिति प्राप्त करने में माना गया है और ऐसे व्यक्तियों ने, जो इस स्थिति को प्राप्त कर सके हैं, मानव-समाज के समतल सत्य में भी बराबर नवीन मौलिक तथा उच्च गुणों का समावेश किया है। भारतीय संस्कृति जहाँ व्यक्तिवादी है वहाँ उसके लोकोत्तर व्यक्तित्व की रूप-रेखाएँ ईश्वरत्व में मिल जाती है। किंतु यह कहना मिथ्या आरोप होगा कि भारतीय संस्कृति केवल व्यक्तिवादी ही रही है। उसने सामाजिक तथा लौकिक जीवन के महत्त्व को भी उसी प्रकार समझने की चेष्टा की है। और भिन्न-भिन्न युगों की परिस्थितियों के आधार पर उसने अत्यंत उर्वर तथा उन्नत सामाजिक जीवन के आदर्श सामने रखे हैं और उन्हीं के अनुरूप लोक-जीवन का निर्माण करने में भी वह अत्यंत सफल रही है। धर्म-अर्थ-काम सभी दिशाओं में उसका विकास तथा विस्तार अन्य संस्कृतियों की तुलना में अतुलनीय रहा है। उसके वर्णाश्रम को मौलिक व्यवस्था भी जीवन की सभी स्थितियों को सामने रखकर बनाई गई थी, अब भले ही अपने ह्रास-युग में उसका स्वरूप विकृत हो गया हो।

    किंतु फिर भी यह मानना ही पड़ेगा कि बाह्य जीवन की खोज तथा विजय में पश्चिमी प्रतिभा की विश्व सभ्यता को सबसे बड़ी देन रही है। भारतीय संस्कृति का लक्ष्य मुख्यतः अंतर्जगत् की खोज तथा उपलब्धि रही है और निःसंदेह भारतवर्ष अंतर्जगत् का सर्वश्रेष्ठ तथा सिद्ध वैज्ञानिक रहा है।

    आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं, जबकि पूर्व और पश्चिम एक-दूसरे की ओर बाँहें बढ़ाकर एक नवीन मानवता के वृत्त में बँधने जा रहे हैं। आज की जीवन-चेतना को पूर्व और पश्चिम में, ज्ञान और विज्ञान में, या आध्यात्मिकता और भौतिकता में बाँटकर कुंठित करना भविष्य की ओर आँखें बंदकर चलने के समान है। और इसी प्रकार भारतीय संस्कृति या पश्चिमी संस्कृति की दृष्टि से आज की मानवता के मुख को पहचानना, उसके लिए अन्याय करना है।

    मनुष्य का भूत और वर्तमान ही उसे समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। भावी आदर्श पर बिंबित उसका चेहरा इन सबसे अधिक यथार्थ और इसीलिए अधिक सुंदर तथा उत्साहजनक है।

    यदि पिछले युगों और आज भी, पश्चिम की सभ्यता तथा संस्कृति अधिक जीवन-सक्रिय, क्षुब्ध तथा संघर्षप्रिय रही है और भारतवर्ष की संस्कृति अधिक अंतश्चेतन, प्रशांत, अहिंसात्मक तथा बाहर से अल्प क्रियाशील अथवा जीवन-अक्षम; अगर पश्चिम की संस्कृति बहिर्जड़ प्रकृति पर और पूर्व की अंत प्रकृति पर विजयी हुई है; अगर पश्चिम की संस्कृति ने बाह्य का, वस्तु का, विविध का या वैचित्र्य का और भारतीय संस्कृति ने अंतस् का, एक का, कैवल्य का या परम का अधिक अध्ययन, मनन तथा चिंतन किया है; तो आने वाली विश्व सभ्यता और मानव-संस्कृति अपने निर्माण में इन दोनों का उपयोग कर अधिक सुंदर स्वस्थ संपन्न बनकर तथा भावी मानवता की एकता में नवीन विविधता और उसके पिछले संस्कारों की विविधता में नवीन एकता के दर्शन कर, एक ऐसी व्यापक संस्कृति के वृत्त में प्रवेश कर सकेगी जो भारतीय भी होगा और पश्चिमी भी, और इन दोनों को आत्मसात् और अतिक्रमकर इनसे कहीं अधिक महत्, मोहक, मानवीय तथा अपनी पूर्णकाम लौकिकता में अलौकिक भी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 193)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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