Font by Mehr Nastaliq Web

भारत वर्ष की दरिद्रता

bharat varsh ki daridrata

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

अन्य

अन्य

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

भारत वर्ष की दरिद्रता

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    जिसके धन और प्रशस्त भूमि की प्रशंसा, जिसमें प्राय: पृथ्वी मात्र की सभी वस्तु उत्पन्न होती हैं, संसार भर करता था; जहाँ सामान्य ऋतुओं के भोगने से देशियों को किसी दूसरे स्थान को जाने की आकांक्षा तक नहीं होती, और जहाँ की ख़ाने सभी अमूल्य रत्नों को उत्पन्न करती, कोई भी प्रस्तर ऐसे नहीं हैं जो यहाँ उत्पन्न होते हों; जिसके समृद्धि पाने की लालसा ने पहले समर विजयी सिकंदर और सिल्यूकस को हिमपूरित पहाड़ों को ढकवा मैसीडोनिया के लंबे भालों को यहाँ चमकाया, और फिर पीछे लुटेरे पहाड़ियों को उपद्रव और प्रलय फैलाने को बुलाया; जिसके खोजने में विलायत की कंपनियों ने जाने कितनी जहाज़ें डुबाईं, धन खोया और मनुष्यों को भी साथ ही साथ समुद्र में समाधि लेनी पड़ी, उसके दरिद्रता के कारण आज उपाए खोजी जा रही हैं। कौन समझ सकता था कि जो इतने रत्नों का आगार था, जिसके धन की प्रशंसा परदेशी कवियों ने की थी और जो इसी के लिए संसार भर में विख्यात था और जिसके ऐसे होने की शंका और प्रभुत्व पाने की इच्छा से आज कई पुरुषों से रूस घात लगाए हैं और अब ऐसा विकृत रूप धारण किए हैं, उसकी अब ऐसी दशा हो जाए कि जो अपनी उपज से इतर देशों को भी खिलाता था, वह अपने वासियों को दिन भर में एक बार भी खिला सके। क्या भारतवासी व्यवसाय और परिश्रम बुद्धि और विद्या से हीन और शून्य तो नहीं हो गए; वा इस भूमि में वह शक्ति ही नहीं बच रही, जिससे जो केवल एक मनुष्य के परिश्रम से परिवार मात्र भोजन करते थे, अब सब के परिश्रम करने पर भी पूरे प्रकार से अटने के अतिरिक्त रात्रि दिवस पेट के चपेट से संवई और साग, खजूर और गेहूँ की गाँठ तक का लाला पड़ा है। ऐसी दशा कैसे हुई और कैसे जो सुख का आकर था आज दु:ख का विवर हो रहा है। इसी विषय पर आज हमें कुछ कहना है और उनके मिथ्या आश्चर्यों को झूठा बनाना है जो व्यर्थ अपने मन की बकते हैं और ऐसी साक्षात् वस्तु को झूठी ठहरा इस देश की समृद्धि को कहते हैं कि तब से उत्तम है। यहाँ की दरिद्रता के कारण को विचारने और कहने पर बातें प्रत्यक्ष हो जाएँगी।

    यह बात प्रत्यक्ष है कि जो देश बहुत घना बसा है वहाँ के बासियों को यदि कई प्रकार के मार्ग धन के उपार्जन के हों तो एक ही दो अथवा तीन के रहने से उनमें भीड़ बड़ी हो जाती है इसी से लाभदायक अथवा सर्वपोषक नहीं हो सकते। यहाँ के वासियों को मुख्य एक ही मार्ग और नाम के वास्ते तीन मार्ग द्रव्योपार्जन के बच गए हैं, वनित अथवा व्यापार, कृषि और नौकरी।

    व्यापार की दशा जैसी कुछ इस देश में आगे थी उसके समक्ष में आधुनिक व्यापार को किसी अंश में कोई ममताओं को पहनते, बर्तते और काम में लाते थे एवं अन्य देशी वस्तुओं के अनुपस्थिति से इन्हीं को स्थान मिलता था और धनाढ्यों के घर में जितनी सामग्री सजावट के अर्थ काम में लाई जाती थीं देशी ही रहती थीं। परंतु परदेशी जहाज़ों के आगमन से यंत्र निर्माणित, अल्प व्यय के कारण सर्वजन सुलभ वस्तुओं के सामने यहाँ की बनी पुराने चाल की भूखे ग्राहकों को कैसे रुचिकर हो सकती थी। निदान सांसारिक विषय में कुशल चघड़ चतुर विलायतियों की सस्ती स्वच्छ वस्तुओं के हिंदुस्तानी पण्यों में प्रवेश पाने से और फ़्री ट्रेड की आशा इस देश के शासकों के देने से धीरे-धीरे देशी व्यवसाय निष्फल हो चले और व्यापार के क्षेत्र में पराजित होने से पूँजी तक गवाँ इतर दोनों मार्गों में इस कक्षा के मनुष्यों ने प्रवेश करना आरंभ किया और जो कुछ शेष बच गया है वह भी कुछ दिन में नष्टप्राय हुआ चाहता है। कारण इसका प्रत्यक्ष है हमारे देश का यह स्वभाव है कि कभी कोई कार्य दस जन मिलकर नहीं कर सकते और विलायती व्यवसायियों के सामने जो सदैव कंपनी द्वारा बड़े-बड़े साहस करते हैं कभी अकेले मनुष्य का किया कुछ नहीं हो सकता चाहे कितना ही धनी क्यूँ हो; क्योंकि अकेले की अवधि बहुत थोड़ी होती है और कंपनियाँ बहुत काल पर्यंत भी जीवित रहती है। हमारे देश के मनुष्य क्यों एक साथ मिलकर कार्य नहीं कर सकते? क्यों इन्हें एक दूसरे पर भरोसा नहीं रहता। इसका कारण हम केवल दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि और प्रमाद समझेंगे। इसमें संदेह नहीं है कि यदि दृढ़ता के साथ ऐसे कार्य किए जाए और स्वच्छ व्यवहार के साथ उचित मनुष्य नियुक्त किए जाएँ जो ऐसे कार्यों को कर सकते हों और हर प्रकार से इसके उत्तरदायी हो और साझियों को निश्चय करा दिया जाए कि उनका धन रक्षित रहेगा और उचित कार्य में लगाया जाएगा, इसके हानि-लाभ का वे भाग्यानुसार भागी होंगे, तो ऐसे कार्य असाध्य नहीं हो सकते परंतु वहाँ के वासियों के स्वभाव में तो एकाकी रहना अकेले बर्ताव करना, रात-दिन अपनी ही क्षुद्र रक्षा मे पड़े रहना अच्छा लगता है। इन्हें ऐसे कार्य केवल असंभव जान पड़ते हैं वरन् इन्हें यह निश्चय हो गया है कि ऐसे संयोग में एक दिन का निबटना कठिन है, क्योंकि मूर्खता में उचित व्यवसाय की समझ इनमें नहीं है। अपने मन से जो चाहे वह करे परंतु उचित शिक्षा और मंत्र के मानने में अपना अपमान समझते हैं क्योंकि वे अपने अर्थ के जानने में संसार भर में किसी को कुशल नहीं समझते। यदि खाने-पीने का ठिकाना है तो मूर्खता की अवधि में अपने को उस नियमित न्यून स्थान का नरेश मान जगत को तुच्छ समझते हैं। प्राचीन समय में जब इन्हें अपने देश वालों से केवल बर्तना पड़ता था तब तक तो किसी प्रकार इस अविश्वास और मूढ़ता से कोई विशेष हानि नहीं हो सकती थी, परंतु परदेशियों के आगमन से ये बातें विशेष हानिकर हो गई हैं। देश भी इस प्रकार से दरिद्र हो गया है कि एकाएकी साहस करना कठिन हो गया है तो बिना समाजबद्ध हुए व्यापार की वृद्धि, देशी वस्तुओं का संग्रह, परदेशी वस्तुओं का त्याग कदाचित् होना संभव नहीं है। भारतवर्ष के 25 करोड़ वासियों मे कोई भी ऐसा होगा जो विलायती कपड़े पहनता हो और दूसरी आवश्यक सामग्रियों को इन्हीं विलायतियों के घर की बनी लेता हो। जब आवश्यक शारीरिक वस्त्र को हमें परदेशियों से लेना पड़ता है, तब धन का रहना कैसे संभव है, निदान व्यापार का नाश हो जाना ही देश की दरिद्रता का मुख्य कारण है। नाम-मात्र का एक व्यापार जो यहाँ के व्यापारी करते हैं जिन्हें हम व्यापारी कहकर दलाल कहेंगे, क्योंकि वे विलायती वस्तुओं के बेचने के बिचवई हैं, यद्यपि किसी प्रकार इनकी जीविका चली जाती है तथापि इस देश के धन की वृद्धि दलाली से नहीं हो सकती।

    हमने व्यापार के विषय में कहा है कि व्यापारियों के व्यापार में हानि पहुँचने से उन सबों को इतर दोनों मार्गों को लेना पड़ा है यही कारण मुख्य है जिससे कृषिकारों को भी वही दु:ख भोगना पड़ा है जो सब भोग रहे हैं। खेती ही एक शरण व्यापारियों और चाकरों को मिली है। जितनी प्रजा हिंदुस्तान की है उनको किसी किसी तरह पालना कृषिकारों के मत्थे पड़ा है। दयालु भारतभूमि ने अपने अंक में लक्ष्मी से तिरस्कृत, शक्ति और विद्या से शून्य हस्तकारी में मुग्ध, आधुनिक यंत्र और पदार्थ विद्या में अकुशल, इसी से इतर देशियों के बराबर काम करने में अशक्त अपने आलसी संतानों को स्थान दिया है। परंतु अब वह भी अपनी संतान की वृद्धि के कारण उनके सबके पालने में निश्चय असमर्थ सी देख पड़ रही है। प्राकृतिक शक्ति ने भी इसे जवाब दिया है। निरंतर पीड़ित होने से इसमें अब उपज की शक्ति भी वैसी नहीं रही और खेतों के कर के बढ़ जाने से उनके मालिकों में परिवर्तन हुआ करता है। किसानों को इस परिवर्तन से धनहीन हो जाने के कारण समय पर उचित दयाशील प्राणदाता के मिलने से कुटिल और निर्दय छोटी पूंजी वाले बनिए तथा और अल्प महाजनों की शरण मिलने से कुटिल और निर्दय छोटी पूँजी वाले बनिए महाजनों की शरण लेनी पड़ती है, जो उनकी हड्डी तक चूस जाने में अन्याय और पाप नहीं समझते। नित्य प्रति देखने में आता है कि असामियों को बिसार के कारण कितना कष्ट उठाना पड़ता है, कितनी दूर इसी के लिए उन्हें निष्फल जाना होता है, चुटकी बजाना पड़ता है। और केवल इसीलिए कि उन्हें समय पर बिसार मिल जाए, जिसकी सवाई या यह डेढ़ी अपने दयाशील [?] महाजन को थोड़े ही दिनों में लौटा दें। कितने खेत बिसार मिलने के कारण परती रह जाते हैं। यदि बिसार भी मिला तो समय पर और जितना चाहिए उतना नहीं मिलता। लाचार हो जहाँ 12 वा 13 पंसेरी बीआ डालना चाहिए वहाँ 6 वा 7 पंसेरी डाल संतोष कर लेते हैं। जानना चाहिए कि जिन्हें बिसार की इतनी कमी है उनके कर के लेन-देन की क्या दशा होगी। एक बार ऋणी हो जाने से किसान के गले की फँसड़ी महाजन के हाथ हो जाती है, और वह जीते जी इस ऋण से मुक्त नहीं होता क्योंकि इसकी गणना महाजन के अधीन रहती है। अनपढ़ा किसान मारे भय के चूँ तक नहीं कर सकता, अपनी बात नहीं खोता, महाजन नहीं बिगाड़ता, क्योंकि कल को फिर कहाँ जाएगा। यह बात सही है कि गल्ला महँगा बिकने से किसान को अब उतना ही अन्न में विशेष लाभ होता है। परंतु व्यय की वृद्धि से और ऊपर कहे गए कारणों के उपस्थित होने से किसानों को हर तिहाई केवल थोड़े दिनों के भोजन के अतिरिक्त सब अन्न कर तथा महाजन के ब्याज ही के अर्थ बिक जाता है और वह पूर्ववत् शाक तथा और मोटे अन्न जो अन्य देशों में पशुओं को दिए जाते होंगे खाकर दिन बिताता है। जहाँ पर जंगलों का आधिक्य है वहाँ पर पशुओं के कारण किसानों को जो कुछ कष्ट होता है अकथनीय है। निरंतर रक्षा पर भी शस्त्र-हीन होने से पशुओं से तिहाई का बचना कठिन है, ग्रामों के स्वामी लोग सरकारी तहसीलदारों से बिना कर दिए नहीं छुटकारा पाते। इसी से वे अपने असामियों से निर्दयता से, चाहे उनके खेतों में वर्षा तथा और कारणों से कुछ भी उत्पन्न हुआ हो, कर भर लेते हैं। दैवात् दो तीन वर्ष यदि उक्त कारणों से किसान को कुछ भी मिला तो उसे खेती त्यागना पड़ता है। अंतिम शरण से दुर्भिक्ष के कारण मुखमोड़ चोरी और भिक्षा की ओर दौड़ता है इसी से किसानों को वनपशुओं के समान मनुष्यों से भी तिहाई की रक्षा करनी पड़ती है। निदान करके बढ़ने से, परती ऊसर तक के उठ जाने से, इसी से पृथ्वी के तृणविहीन हो जाने से पशुओं के दुख पाने से, दरिद्रता के कारण जलाशयों के होने से, अन्न का परदेश चले जाने से, नित्य परिवर्तन से, खेती ही की ओर और मार्गों के रुक जाने से सब के दौड़ने से किसान भी नित्यप्रति दीन और दरिद्र होता जाता है।

    जब इस देश में परदेशी नहीं थे और राज्य का भार देशियों पर था, तब इसी देश के लोग नौकरी पाते थे। अब विदेशी राजा के होने से नौकरियाँ विलायतियों को विशेष कर दी जाती हैं। और देश के लोगों को परिश्रम कर उनके विद्याओं के पढ़ने पर भी नौकरी नहीं मिलती। यदि ये विदेशी यहाँ नौकरी कर यहीं रह जाते और अपने धन को इसी देश में रखते तो थोड़ा बहुत उपकार इस देश का उनसे होता, पर वे तो नौकरी कर कड़ाकुल पक्षियों की भाँति ऋतुपरिवर्तन होते ही पिन्शिन ले उड़कर अपने देश को चले जाते हैं। हमारे देश की दरिद्रता तब पूर्ण रूप से अत्यंत हो जाती है।

    जब कोई नौकरी खाली होती है तो सहस्रों प्रार्थनाएँ उस स्थान के लिए की जाती है इतने लोग बेकार ही रहते हैं जो चारा देखते ही भूखे टूट पड़ते हैं। हमारे देश में उन जातियों के सिवा जो सदा से नौकरी कर आई है और सबों को इसकी विशेष चाह नहीं रहती थी, वरन् पराधीनता गर्हित मानते थे, दरिद्रता में अब सब नौकरी ही नौकरी चिल्लाते हैं। परंतु शासकों का विश्वास हमारे ऊपर है। हमें भारी पदों के देने से सिटपिटाते हैं यद्यपि जिनसे शंका उन्हें हो सकती है वहाँ हमारी पहुँच असंभव है। बहुत दिनों से यह देश आशा लगाए ताक रहा था कि कभी विलायत जाने का अड़ंगा छूटता तो इस देश के कुलीन बिना जाति च्युत हुए अच्छी नौकरियाँ पाते, यदि उनकी भाग्य अनुकूल होती और न्यायपरायण इंग्लैंड के साधारण जनों ने अपनी भाषा से आज्ञा दे दी परंतु असाधारणों की लोलुपता ने जो कलयुग में सब से बढ़ गई है, यद्यपि इसके अपरिमित कोषों के भरने में इस देश ने बहुत कुछ सहायता की है तथापि इसकी हाय-हाय नहीं नहीं छूटी, अस्थिमात्रविशेष को भी खंडित कर निगल जाया चाहती है, इस आशा को दृष्टि से देखा है और मुख्यत: इस अभागे देश के क्रूरग्रहों के निर्दय दृष्टि ने ऐसी लाभदायक आज्ञा को पलटना चाहा है।

    निदान धनोपार्जन के उपायों की दशा तो यों है परंतु इसे कौन देखता है। साधारण लज्जा ढाँकने मात्र के निमित्त स्वच्छ धोती और धुले कुर्ते को नगरों में पहने लोग धन की जाँच करते हैं। गाँव में लँगोटी चढ़ाए पेट खलाड़े दुर्भिक्ष का रूप बनाए, चौथे उपवास पर भोजन पाने वालों को देख कोई नहीं कह सकेगा कि इस देश के चौथाई निवासियों के अर्थ सदा काल नहीं पड़ा रहता। परंतु दानशील देश इनकी यह दशा नहीं देख सकता, किसी किसी प्रकार इनके प्राण की संरक्षा करने से नहीं भागता। परंतु जब एक देश का विशेष अंश सदैव के लिए ऐसी दशा में निमग्न हो जाता है तो राजा और दैव के अतिरिक्त इनका उद्धार कौन कर सकता है? राजा जैसा कुछ चेत किये हैं प्रत्यक्ष है। परमेश्वर की कृपा भाग्य और कर्म के अनुकूल होती है कर्म कर्म को क्या कहना है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमघन सर्वस्व द्वितीय भाग (पृष्ठ 264)
    • संपादक : प्रभाकरेश्वर प्रसाद उपाध्याय, दिनेश नारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : बदरीनारायण उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मलेन
    • संस्करण : 2007

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY