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बनाम लोर्ड कर्ज़न (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

banam lorD corzon (shivshambhu ke chitthe aur khat)

बालमुकुंद गुप्त

अन्य

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बालमुकुंद गुप्त

बनाम लोर्ड कर्ज़न (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुल का बड़ा चाव था। गाँव में कितने ही शौकीन बुलबुल बाज़ थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशंभू शर्मा बुलबुलें लड़ाने का चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुल को हाथपर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मण कुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथ से बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोध से यदि पिता ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घंटे से अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिता की निगरानी में।

    सराय के भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे। गाँव के लड़के उनसे दो-दो तीन-तीन पैसे में ख़रीद लाते थे। पर बालक शिवशंभू तो ऐसा नहीं कर सकता था। पिता की आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और कहाँ रखे? उधर मन में अपार इच्छा थी कि बुलबुल ज़रूर हाथ पर हो। इसी से जंगल में उड़ती बुलबुल को देखकर जी फड़क उठता था। बुलबुल की बोली सुनकर आनंद से हृदय नृत्य करने लगता था। कैसी-कैसी कल्पनाएँ हृदय में उठती थीं। उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता। दूसरों को क्या होगा? आज यह वही शिवशंभू है, स्वयं इसी को उस बालकाल के अनिर्वचनीय चाव और आनंद का अनुभव नहीं हो सकता।

    बुलबुल पकड़ने की नाना प्रकार की कल्पनाएँ मन ही मन में करता हुआ बालक शिवशंभू सो गया। उसने देखा कि संसार बुलबुल मय है। सारे गाँव में बुलबुलें उड़ रही है। अपने घर के सामने खेलने का जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुल उड़ती फिरती है। फिर वह सब ऊँची नहीं उड़तीं। बहुत नीची-नीची उड़ती है। उनके बैठने के अड्डे भी नीचे-नीचे है। वह कभी उड़कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहाँ बैठती है और कभी वहाँ, कभी स्वयं उड़कर बालक शिवशंभू के हाथ की उँगलियों पर बैठती है। शिवशंभू आनंद में मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है। उसके दो तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर-उधर कूदते फिरते है।

    आज शिवशंभू की मनोवांछा पूर्ण हुई। आज उसे बुलबुलों की कमी नहीं है। आज उसके खेलने का मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है। आज शिवशंभू बुलबुलों का राजा ही नहीं, महाराजा है। आनंद का सिलसिला यहीं नहीं टूट गया। शिवशंभू ने देखा कि सामने एक सुंदर बाग़ है। वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुँचा। देखा, सोने के पेड़ पत्ते और सोने ही के नाना रंग के फूल हैं। उन पर सोने की बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोने का महल है। उस पर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। उन पर भी बुलबुलें बैठी हैं। बालक दो-तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया। उस समय वह सोने का बाग़ीचा सोने के महल और बुलबुलों सहित एक बार उड़ा। सब कुछ आनंद से उड़ता था, बालक शिवशंभू भी दूसरे बालकों सहित उड़ रहा था। पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी हुआ। बुलबुलों का ख़्याल अब बालक के मस्तिष्क से हटने लगा। उसने सोचा—हैं! मैं कहाँ उड़ा जाता हूँ? माता पिता कहाँ? मेरा घर कहाँ? इस विचार के आते ही सुखस्वप्न भंग हुआ। बालक कुलबुलाकर उठ बैठा। देखा और कुछ नहीं, अपनाही घर और अपनी ही चारपाई है। मनोराज्य समाप्त हो गया।

    आपने माई लार्ड! जब से भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करने के योग्य काम भी किया है? ख़ाली अपना ख़्याल ही पूरा किया है या यहाँ की प्रजा के लिए भी कुछ कर्तव्य पालन किया? एक बार यह बातें बड़ी धीरता से मन में विचारिए। आपकी भारत में स्थिति की अवधि के पाँच वर्ष पूरे हो गए अब यदि आप कुछ दिन रहेंगे तो सूद में, मूलधन समाप्त हो चुका। हिसाब कीजिए नुमायशी कामों के सिवा काम की बात आप कौन-सी कर चले हैं और भड़कबाज़ी के सिवा ड्यूटी और कर्तव्य की ओर आपका इस देश में आकर कब ध्यान रहा है? इस बार के बजट की वक्तृता ही आपके कर्तव्य काल की अंतिम वक्तृता थी। ज़रा उसे पढ़ तो जाइए फिर उसमें आपकी पाँच साल की किस अच्छी करतूत का वर्णन है। आप बारंबार अपने दो अति तुम तराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया मिमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार। पर ज़रा विचारिए तो यह दोनों काम 'शो' हुए या 'ड्यूटी'? विक्टोरिया मिमोरियल हाल चंद पेट भरे अमीरों के एक-दो बार देख आने की चीज़ होगा उससे दरिद्रों का कुछ दु:ख घट जावेगा या भारतीय प्रजा की कुछ दशा उन्नत हो जावेगी, ऐसा तो आप भी समझते होंगे।

    अब दरबार की बात सुनिए कि क्या था? आपके ख़्याल से वह बहुत बड़ी चीज़ था। पर भारतवासियों की दृष्टि में वह बुलबुलों के स्वप्न से बढ़कर कुछ था। जहाँ-जहाँ से वह जुलूस के हाथी आए, वहीं-वहीं सब लौट गए। जिस हाथी पर आप सुनहरी झूलें और सोने का हौदा लगवाकर छत्र-धारण-पूर्वक सवार हुए थे, वह अपने क़ीमती असबाब सहित जिसका था, उसके पास चला गया। आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि आपका नहीं। दरबार में जिस सुनहरी सिंहासन पर विराजमान होकर आपने भारत के सब राजा महाराजाओं की सलामी ली थी, वह भी वहीं तक था और आप स्वयं भलीभाँति जानते हैं कि वह आपका था। वह भी जहाँ से आया था वहीं चला गया। यह सब चीज़ें ख़ाली नुमायशी थीं। भारतवर्ष में वह पहले ही से मौजूद थीं। क्या इन सबसे आपका कुछ गुण प्रकट हुआ? लोग विक्रम को याद करते हैं या उसके सिंहासन को, अकबर को या उसके तख़्त को? शाहजहाँ की इज़्ज़त उसके गुणों से थी या तख़्तेताऊस से? आप जैसे बुद्धिमान पुरुष के लिए यह सब बातें विचारने की हैं।

    चीज़ वह बनना चाहिए जिसका कुछ देर क़ायम हो। माता-पिता की याद आते ही बालक शिवशंभू का सुखस्वप्न भंग हो गया। दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देने की वस्तु हो गया। उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा। नुमायशी चीज़ों का यही परिणाम है। उनका तितलियों का-सा जीवन होता है। माई माई लार्ड! आपने कछाड़ के चाय वाले साहबों की दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहाँ नित्य हैं और हम लोग कुछ दिन के लिए। आपके वह 'कुछ दिन' बीत गए। अवधि पूरी हो गई। अब यदि कुछ दिन और मिलें तो वह किसी पुराने पुण्य के बल से समझिए। उन्हीं की आशा पर शिवशंभू शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन माँगे दिनों में तो एक बार आपको अपने कर्तव्य ख़्याल हो।

    जिस पद पर आप आरूढ़ हुए वह आपका मौरूसी नहीं—नदी नाव संयोग की भाँति है। आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आपका इससे कुछ संबंध रहे। किंतु जितने दिन आपके हाथ में शक्ति है, उतने दिन कुछ करने की शक्ति भी है। जो कुछ आपने दिल्ली आदि में कर दिखाया उसमें आपका कुछ भी था, पर वह सब कर दिखाने की शक्ति आप में थी। उसी प्रकार जाने से पहले, इस देश के लिए कोई असली काम कर जाने की शक्ति आप में है। इस देश की प्रजा के हृदय में कोई स्मृति-मंदिर बना जाने की शक्ति आप में है। पर यह सब तब हो सकता है, कि वैसी स्मृति की कुछ कदर आपके हृदय में भी हो। स्मरण रहे धातु की मूर्तियों के स्मृतिचिह्न से एक दिन क़िले का मैदान भर जाएगा। महारानी का स्मृति-मंदिर मैदान की हवा रोकता था या रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियाँ इतनी हो जावेंगी कि पचास-पचास हाथ पर हवा को टकराकर चलना पड़ेगा। जिस देश में लार्ड लैंसडौन की मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस किसकी मूर्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आपकी एक वैसी ही मूर्ति खड़ी हो?

    यह मूर्तियाँ किस प्रकार के स्मृतिचिह्न है? इस दरिद्र देश के बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं सकती। एक बार जाकर देखने से ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियों के कुछ देर विश्राम लेने के अड्डे से बढ़कर कुछ नहीं है। माई माई लार्ड! आपकी मूर्ति की वहाँ क्या शोभा होगी? आइये मूर्तियाँ दिखावें। वह देखिए एक मूर्ति है, जो क़िले के मैदान में नहीं है, पर भारतवासियों के हृदय में बनी हुई है। पहचानिए, इस वीर पुरुष ने मैदान की मूर्ति से इस देश के करोड़ों ग़रीबों के हृदय में मूर्ति बनवाना अच्छा समझा। यह लार्ड रिपन की मूर्ति है। और देखिए एक स्मृति मंदिर, यह आपके पचास लाख के संगमरमर वाले से अधिक मज़बूत और सैकड़ो गुना क़ीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् 1858 ई. का घोषणापत्र है। आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जी में कुछ इज़्ज़त हो।

    मतलब समाप्त हो गया। जो लिखना था, वह लिखा गया। अब ख़ुलासा बात यह है कि एक बार 'शो' और ‘ड्यूटी’ का मुक़ाबला कीजिए। 'शो' को 'शो' ही समझिए। 'शो' ‘ड्यूटी’ नहीं है! माई लार्ड! आपके दिल्ली दरबार की याद कुछ दिन बाद उतनी ही रह जावेगी जितनी शिवशंभू शर्मा के सिर में बालकपन के उस सुखस्वप्न की है।

    —'भारत मित्र',11, अप्रैल 1903 ई.

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 93)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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