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आज का साहित्य

aaj ka sahitya

इलाचंद्र जोशी

इलाचंद्र जोशी

आज का साहित्य

इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    आज साहित्य का प्रश्न जीवन से संबंधित दूसरे बहुत-से प्रश्नों से उलझकर इस कदर जटिल बन गया है कि उसकी कोई सहज-सरल परिभाषा संतोषजनक नहीं हो सकती। प्राचीन काल में कोई भी साहित्य-व्याख्याकार या आलोचक केवल तीन शब्दों में साहित्य की ऐसी परिभाषा प्रस्तुत कर सकता था जो साधारण से साधारण साहित्य-प्रेमी से लेकर बड़े से बड़े साहित्य-स्रष्टा तक को समुचित और संतोषप्रद लग सकती थी। ‘वाक्य रसात्मकं काव्यं’—रसात्मक वाक्य ही काव्य है—काव्य-साहित्य की इस सूत्रगत परिभाषा के औचित्य को लेकर कभी किसी ने कोई शंका नहीं उठाई। पर आज के आलोचकों को काव्य का यह मापदंड अत्यंत संकीर्ण, संकुचित और बचकाना लगता है। इस दृष्टि से कोई भी रसात्मक वाक्य या पूरा पद्य, फिर चाहे उसका रस कितना ही छिछला क्यों हो, काव्य-कोटि तक आसानी से पहुँच सकता है। यदि इस बात को निर्विवाद मान लिया जाए तो साहित्य की सारी समस्याएँ सरल हो जाती हैं और हर गली और हर कूचे में आपको कवि ही कवि और साहित्यकार ही साहित्यकार दिखाई दे सकते हैं।

    पर आज का साधारण पाठक भी इस परिभाषा से संतुष्ट नहीं हो पाता। वह किसी कविता या अन्य साहित्यिक कृति से और भी बहुत-सी शर्तों की पूर्ति चाहता है। जो साहित्यिक कृति उसे जीवन की गहराइयों में नहीं ले जाती, आज के जटिल जीवन की उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में उसकी सहायता नहीं कर पाती, उसकी एकरसता उसे अपनी ओर आकर्षित कर सकने में असमर्थ सिद्ध होती है। एक ज़माना था जब कवि के अंतर से निकला हुया एक साधारण चमकदार उद्गार भी किसी श्रोता या पाठक को मंत्र मुग्ध कर सकता था, एक सामान्य रसमयी उक्ति भी उसके मन को उद्वेलित और भाव-विह्वल कर देती थी। पर आज के बुद्धिवादी श्रोता या पाठक की अंतरानुभूति के ऊपर जैसे एक कड़ी भिल्ली की पतं जम गई है जो किसी साधारण रस को सहज ही में भीतर नहीं प्रवेश होने देती। जब तक आज के जीवन की गहन और व्यापक अनुभूतियों से प्राप्त रसत्व कवि या साहित्यकार के अंतर के मूल रस में घुलकर एक-रूप होकर एक तीव्र रसायन की सृष्टि नहीं करता, तब तक वह आज के आलोचना-परायण श्रोता या पाठक के अंतर की उस कड़ी झिल्ली के सूक्ष्म कोपों से होकर, छनकर उसकी रसानुभूति से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता।

    पिछले तीन दशकों में संसार में सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में जो व्यापक क्रांतियाँ हुई है, वैज्ञानिक क्षेत्र में जो आश्चर्यजनक प्रगति हुई है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कूटचक्रों ने जीवन की सहज गति को जिन जटिल जालों में जकड़ लिया है, उन सबका सम्मिलित प्रभाव विश्व-साहित्य पर भी तीव्र रूप से पड़ा है। भारतीय साहित्य भी स्वभावत: इस युग-विवर्तक प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता था। हिंदी साहित्य में आज हम जो एकदम नया परिवर्तन देखते हैं, उसके मूल में तीव्र गति से परिवर्तित होने वाली नई सामाजिक परिस्थितियाँ ही है।

    आज हम देखते हैं कि साहित्य के संबंध में पिछली मान्यताओं को तनिक भी महत्व नहीं दिया जा रहा है। रामायण और महाभारत तो आज प्रेरणा के स्रोत रहे ही नहीं। कालिदास, तुलसीदास, रवींद्रनाथ आदि प्राचीन तथा आधुनिक युग के महानतम कवियों की रचनाओं को भी नए कवियों तथा लेखकों ने एक प्रकार से बहिष्कृत-सा कर दिया है। आज के कवियों के प्रेरणा-स्रोत है एजरा पौंड, ईलियट, आडेन आदि पाश्चात्य कविगण। इन कवियों ने कविता के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए हैं, नए युग की नई परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार कविता में रूपगत और शैलीगत नए प्रयोग किए हैं। उनके सभी प्रयोग सफल हुए हैं, ऐसा मानना भयंकर भूल होगी। पर इतना निश्चित है कि उन्होंने पुराने ढाँचों में बंद पड़ी कविता की रुद्ध धारा को एक नई गति दी है और एक नया पथ-प्रदर्शन किया है।

    उन्नीसवीं शती तक सारे संसार की विभिन्न भाषाओं में अधिकांशत: छंदोंबद्ध कविताएँ लिखी जाती थीं। उन्नीसवीं शती के चौथे चरण में वाल्ट ह्विट्मैन ने मुक्तछंद में अपने अंतर के भावों और विचारों को उन्मुक्त उड़ान देना आरंभ कर दिया। उसने औद्योगिक क्रांति के नए युग के अनुसार अपने अंतर्भावों की अभिव्यक्ति के लिए एक नया ही माध्यम खोजा। उसके बाद प्रथम महायुद्ध की प्रतिक्रिया और मार्क्स तथा फ़्रायड द्वारा प्रचारित मूलत: नए सिधांतों के फलस्वरूप कविता धीरे-धीरे मुक्त छंदों के बंधनों से भी अपने को अलग करने लगी। पिछली परंपराएँ ढहकर एक नए ही मौलिक वातावरण के निर्माण-कार्य में जुट गईं। कविता केवल अंतर्जगत के भावोच्छवास की अभिव्यंजना का साधनमात्र रहकर नई-नई दिशाओं में नई-नई चिंता-धाराओं को वहन करने योग्य माध्यम बन गई।

    केवल कविता के क्षेत्र में ही नहीं, कथा-साहित्य के क्षेत्र में भी नए-नए प्रयोग होने लगे। पहले जेम्स ज्वाइस, डी० एच० इस दिशा में नए क्रांतिकारी क़दम उठाए और बाद में उनसे भी जटिल और परंपरारहित शैली में कहानी, लारेंस आदि ने जो पाल सार्व ने उपन्यास और नाटक लिखने शुरू कर दिए। व्यक्ति के अंतर की विशृंखल प्रवृत्तियाँ समष्टिगत चेतना की उलझनों से टकराकर विचित्र-विचित्र रूपों में अपने को व्यक्त करने लगीं। विभिन्न साहित्यिक धाराओं का विकास सहज स्वाभाविक पथों से होकर टेढ़े-मेढ़े और अनिश्चित रास्तों से होने लगा।

    उसके बाद आया द्वितीय महायुद्ध, जिसके फलस्वरूप सारे संसार की भीतरी और बाहरी शक्तियाँ जुटकर दो शिविरों में विभाजित हो गईं। समग्र मानवता सिकुड़कर, सिमटकर दो बड़े गुटों में बँट गई। राष्ट्रीयता की बिखरी हुई धाराएँ अंतर-राष्ट्रीयता के दो महासागरों में मिलकर एकाकार होने लगीं। पारस्परिक हिंसा-प्रतिहिंसा का व्यापक चक्र मानव की सामूहिक भाव-चेतना को इस बुरी तरह झकझोरने लगा कि विनाश और विध्वंस की आग में युग-युग के कठिन प्रयोगों और कठोर साधनाओं द्वारा उपलब्ध महान मानवीय आदर्श स्वाहा होने लगे। इन्हीं विश्व-व्यापी तांडवीय प्रवृत्तियों के फलस्वरूप अणु में विस्फोट पैदा करने की प्रक्रिया से मनुष्य परिचित हो गया, जिसका परिणाम हमने पहले अणु बम के आविष्कार के रूप में देखा और बाद में हाइड्रोजन बम जैसे प्रलयंकर अस्त्र के रूप में।

    विकराल से विकराल अस्त्रों के निर्माण के क्षेत्र में जैसी दौड़ आज संसार की महाशक्तियों के बीच देखी जा रही है, उसने सामूहिक मानव-मन से शांति, सुरक्षा और नैश्चित्य की भावनाओं को आँधी के बेग से उड़ा दिया है। आज केवल भौतिक क्षेत्र में ही अणु विस्फोट नहीं हुआा है, वरन् सामूहिक मानव-मन के चेतन के अणुओं के भीतर भी विस्फोट उत्पन्न हो गया है। यही कारण है कि आज सभी दिशाओं में मनुष्य की प्रज्ञा बिखरकर छितरा गई है।

    ऐसी परिस्थिति में यह स्वाभाविक है कि साहित्य समुचित रूप में पनप नहीं सकता। आज विश्वव्यापी साहित्यिक संकट का सुस्पष्ट प्रभाव हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भी दिखाई देता है। आज हम अपने साहित्यकारों में एक ओर पिछली मान्यताओं के प्रति अविश्वास पाते हैं, दूसरी ओर वर्तमान के संबंध में अनश्चित्य और तीसरी ओर भविष्य के संबंध में भय, संशय और अंध आशंका। साहित्य के रूप, शैली, भाव और विचार-तत्त्व में ऐसे नए-नए परिवर्तन आते चले जा रहे हैं कि उनका मूल्यांकन ठीक से हो सकना अभी संभव नहीं दिखता। वैसे परिवर्तन जीवन का नियम है। साहित्यिक शैलियों और भाव-धाराओं में विभिन्न युगों में परिवर्तन होते रहे हैं। वैदिक काल की जो साहित्यिक शैली थी उसका कोई भी आभास हम रामायण के युग में नहीं पाते। रामायण-युगीन भावधारा और महाभारतकालीन भावधारा में बहुत बड़ा अंतर है। कालिदास के युग की शैली पिछले सभी युगों की शैलियों से भिन्न थी। तुलसीदास के युग की साहित्य-शैली का मेल पिछली किसी भी साहित्य-शैली से नहीं मिलता। परिवर्तन का यही क्रम रीतिकाल, भारतेंदुकाल, द्विवेदी युग और छायावाद युग तक चला गया। इसलिए यदि आज के युग में भी हम साहित्य-शैली, भाव-भूमि तथा विचार-धारा में पिछले सभी युगों से अंतर पाते हैं तो साधारणत: हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए और किसी प्रकार का क्षोभ ही।

    पर आज के युग की परिवर्तन-धाराओं की प्रक्रिया और क्रम में बड़ा अंतर है। पिछले साहित्यिक युगों में जब-जब नए परिवर्तन देखे गए तब-तब साहित्य-पारखियों ने इस बात पर ग़ौर किया कि इन परिवर्तित रूपों के भीतर पिछली शैलियों तथा भाव धाराओं के बीजतत्व किसी किसी रूप में वर्तमान थे। पर आज के साहित्य के बदले स्वरूपों में हमें पिछले साहित्यिक युगों के कोई भी चिह्न अवशिष्ट नहीं दिखते। एक मूलत: नई धारा नाना उपधाराओं में विभाजित होकर आज की साहित्य भूमि को एक विजातीय बाढ़ में डुबाती चली जा रही है। यह बाढ़ अपने देश की साहित्यिक परंपरा से नहीं आई है। इसका उद्गम आज के युग की पाश्चात्य साहित्य-शैलियों की विकृतियों में खोजना होगा।

    पर आज के नवीनतम साहित्य का मूल उद्गम स्रोत चाहे कहीं हो, उसमें चाहे कैसी ही विचित्र और परंपरा रहित प्रवृत्तियाँ क्यों पाई जाती हों, उसके समुचित मूल्यांकन में चाहे कैसी ही कठिनाइयाँ उपस्थित क्यों हो रही हों, उसके प्रति सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण रखना बहुत आवश्यक है। क्योंकि भविष्य के स्वस्थ और ठोस साहित्य का निर्माण आज के नए साहित्य के भीतर यत्र-तत्र छिपे हुए सशक्त चीज़ों के आधार पर ही होगा।

    यह बात भी विचारणीय है कि आज के नए साहित्य की प्रवृत्तियों का स्वरूप क्या है। सब से पहले कविता को लीजिए। आज की कविता ने छंद-बंधन से अपने को एकदम मुक्त कर लिया है। पर मुक्त छंद में लिखने का फ़ैशन हिंदी में भी कोई नई बात नहीं है। निराला जी इसका प्रयोग बहुत पहले कर चुके हैं। इसलिए हम उसे नई प्रवृत्ति की विशेषता नहीं मानेंगे। पर नई कविता केवल मुक्तछंद में ही लिखी जाती है, ऐसी बात नहीं है। बहुत-सी नई कविताएँ ऐसी पंक्तियों में लिखी जाती है जिन्हें विशुद्ध गद्य के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। मुक्तछंद छंदोबंधन से मुक्त होने पर भी लय से मुक्त नहीं होता। पर आज की अधिकांश कविताएँ जिस ढंग से लिखी जाती है उनमें लय का भी नितांत अभाव पाया जाता है। अतएव वे विशुद्ध गद्यात्मक रचनाएँ हैं। तब उन्हें कविता क्यों कहा जाता है? छायावादी युग में कुछ लोग तथाकथित गद्यकविताएँ लिखा करते थे। क्या आज की गद्यात्मक नई कविता को भी गद्य-कविता की संज्ञा नहीं दी जा सकती? अवश्य दी जा सकती है। पर उस युग की गद्य-कविता और इस युग की गद्य-कविता में बड़ा अंतर है। आज की कविता की भाव-भूमि तथा पिछली कविता की भाव-भूमि में कोई भी समान आधार नहीं है। उस युग की गद्य-कविता में रहस्यवादिता का पुट काफ़ी रहता था, जबकि आज की नई कविता यथार्थवाद की ज़मीन पर खड़ी है। भावात्मकता किसी किसी रूप में उसमें भी वर्तमान रहती है, पर उसका स्थाई भाव व्यंग्य होता है।

    इसलिए आज की कविता तो पुरानी परिभाषा के अनुसार पद्य है गद्य। विशुद्ध गद्य उसे इसलिए नहीं मानेंगे कि उसकी अभिव्यंजना के भीतर प्राय: एक ऐसा निराला भावात्मक रस सन्निहित रहता है जो लय रहते हुए भी उसमें लयात्मकता का आभास भर देता है। प्रथम कोटि के नए कवि इस कला में माहिर हैं। और वास्तव में यह एक जादू भरी कला है—शब्दों की विशिष्ट संयोजना द्वारा नहीं बल्कि केवल भाव द्वारा कोरे गद्य में गति और लय भर देना। इन्हीं सब कारणों से आज की नई कविता के संबंध में जल्दी से किसी प्रकार का फतवा दे देना आसान नहीं है।

    कथा-साहित्य में भी आज नए प्रयोग हो रहे हैं, और ये नए प्रयोग भी आज के पाश्चात्य साहित्य की कुंठित मनोधारा से उत्पन्न विश्रृंखला शैलियों से प्रभावित हैं। इन शैलियों में नयापन अवश्य वर्तमान है और वे आज के जीवन की विषमता और विश्रृंखला पर चुभते हुए व्यंग्य कसने के लिए बहुत उपयुक्त भी है। पर इस प्रकार के ढाँचे में कोई महान युग-दर्शक और युगांतरकारी रचना संभव नहीं। फिर भी इस सत्य से आँख बचाकर हम नहीं चल सकते कि आज के कथा-सहित्य के छिटपुट प्रयोगों द्वारा हमारे नए कथाकार पूरी सच्चाई से एक ऐसे माध्यम की खोज में भटक रहे हैं जो नए युग की नई प्रवृत्तियों के चित्रण और विश्लेषण द्वारा उन्हीं के भीतर से एक महान् सत्य को आविष्कृत कर सके—ऐसा सत्य जो युग का सच्चा दर्पण बनने के साथ ही युगोत्तर के महान् समन्वयात्मक ध्येय की ओर प्रकाश फेंक सके।

    हिंदी क्षेत्र में उपयुक्त रंगमंच के अभाव के कारण नाट्य-साहित्य में विशेष प्रगति हो सकी। पर रेडियो के माध्यम से एक नई नाट्यकला उत्तरोत्तर विकसित होती चली जा रही है। नाट्य तत्व मूलत: एक ही है—चाहे उसकी अभिव्यंजना रेडियो के माध्यम से हो अथवा मंच के माध्यम से। अंतर केवल इतना ही है कि मंच-नाट्य प्रधानत: दृश्य काव्य होता है जबकि रेडियो नाट्य विशुद्ध श्रव्य काव्य है। नाटकीय कला के समुचित विकास के लिए दोनों माध्यम महत्वपूर्ण है। और यदि तटस्थ दृष्टि से विचार किया जाए तो आज के व्यस्त और बिखरे हुए जीवन की यथार्थ झाँकियों के लिए रेडियो नाट्य का ही महत्व अधिक सिद्ध होगा। इसलिए जब तक हिंदी रंगमंच का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता तब तक हमें रेडियो नाटकों से ही संतोष कर लेना होगा। और, जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, इस दिशा में हिंदी-नाट्य ने काफ़ी प्रगति कर ली है।

    आलोचना के क्षेत्र में आज का हिंदी साहित्य बहुत पिछड़ा हुआ है। तो आज साहित्य के नित्य बदलते हुए रूपों का समुचित मूल्यांकन हो पा रहा है और पिछले साहित्य का सिंहावलोकन ही ईमानदारी से हो रहा है। हमारे आलोचक स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाने वाले और छात्रों को परीक्षाओं से संबंधित नोट लिखाने वाले साधारण अध्यापकों की सीमित दृष्टि से आगे बढ़ सकने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। आज आलोचक का दायित्व कितना बढ़ गया है, इस तथ्य पर वे गहराई से विचार करना ही नहीं चाहते। आलोचक का कर्त्तव्य केवल विविध साहित्य-धाराओं की प्रगति या विकृति का इतिहास बना देना भर नहीं है; और विविध साहित्यिक धाराओं अथवा कुछ विशिष्ट रचनाओं पर मनमाना फ़तवा दे देने से ही आलोचना का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। किसी महत्वपूर्ण साहित्यिक आलोचना के भीतर यही सर्जनात्मक प्रेरणा निहित होनी चाहिए जैसे किसी महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति में। सच्चा आलोचक भी कवि या कलाकार की तरह द्रष्टा होता है। जब तक उसमें प्रेरणात्मक दृष्टि या ‘व्हिजन’ नहीं होता तब तक उसकी महत्ता प्रमाणित नहीं हो सकती।

    खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी में आज आलोचक द्रष्टाओं का नितांत अभाव है। यही कारण है कि आज हम आलोचना के क्षेत्र में तो गहराई पाते हैं ईमानदारी। ऐसी अराजकता छाई हुई है कि विभिन्न साहित्यिक धाराओं पर सहज और सुस्पष्ट प्रकाश पड़ने के बजाए विभिन्न आलोचकों की कुंठित वैयक्तिक रुचियाँ एक-दूसरे से टकराती और भिड़ती हुई पाई जाती है।

    इस संकीर्णता और रुचि-विकृति के कई कारणों में से एक यह है कि हमारा आलोचक-समाज, हमारे नए कवियों तथा कलाकारों की तरह, आज के गलनशील (बल्कि कई अंशों में एकदम गलित) पाश्चात्य साहित्य तथा साहित्यालोचन पद्धति से पूर्णतया प्रभावित है। किसी भी गलनशील कलात्मक प्रवृत्ति का मादक प्रभाव कैसा विकट होता है; इसका अनुमान फ़िल्मी कला की निरंतर बढ़ती हुई लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। हमारे नए साहित्यकार तथा साहित्यालोचक आज की गलनशील पाश्चात्य साहित्य-धाराओं और साहित्य-शैलियों की ऊपरी तड़क-भड़क से इस प्रकार प्रभावित है कि उनकी मौलिक विवेचना की शक्ति ही जैसे उस मादक रस से गलती और विकृत होती चली जा रही है। उनमें किसी ऐसी सशक्त और मौलिक साहित्य-प्रतिभा के समुचित मूल्यांकन या रस-ग्रहण की समर्थता ही जैसे शेष नहीं रह गई है, जो आज के पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से एकदम अछूती हो और जो उत्तरोत्तर विकासशील और सर्व समन्वयात्मक भारतीय प्रतिभा के सहज विकास का स्वाभाविक परिणाम हो। आज भारतीय साहित्य-समाज के भीतर कुछ स्वस्थ और सशक्त बीज अपनी ही मिट्टी के उत्पादक रूप-तत्वों द्वारा पनप कर अपनी ही नई शैली, नई कला और नया संदेश देने के लिए छटपटा रहे हैं। उनकी नाप-जोख आज की गलित और संकुचित पाश्चात्य कला तथा आलोचन शैली के आधार पर करना किस कदर हास्यास्पद है; यह बात आज के नए साहित्यकारों और साहित्यालोचकों के आगे एक दिन निश्चय ही सुस्पष्ट हो जाएगी, और तभी हिंदी साहित्य की वास्तविक नई प्रगति के युग का आरंभ होगा।

    आज की नई कविता युग की द्रुत गति से बदलती हुई आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों की उपज है। इन राष्ट्रव्यापी—बल्कि विश्वव्यापी...नई परिस्थितियों की ओर से आँखें बंद कर लेने का परिणाम यह होगा कि यहाँ के कवि अपनी चहारदीवारी को संकीर्ण से संकीर्णतर बनाते चले जाएँगे और अंत में वे कूपमंडूकता के शिकार बन सकते हैं। इसलिए इस बात की बहुत बड़ी आवश्यकता है कि वे नई कविता की प्रगतिधारा के संबंध में पूर्णत: जागरूक रहें और उसके दुर्गुणों से अपने को बचाते हुए उसके अच्छे गुणों को धीरे-धीरे आत्मसात करते चले जाएँ। क्योंकि इतना तो निश्चित है कि नई कविता अपनी ख़ामियों के बावजूद युग की एक बहुत बड़ी शक्ति को अपनी अंर्तधारा के साथ वहन करती चली जा रही है।

    अंत में मैं नए युग के सभी हिंदी कवियों और लेखकों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे समय रहते अपने नए दायित्वों को अच्छी तरह समझें और उन पर गहराई और ईमानदारी से तटस्थ और व्यापक दृष्टि से सोचें। आज जो विभिन्न दलों के साहित्यकार एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने और अपने-अपने दल की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हुए अपने-अपने नायकत्व का झंडा गाड़ने की ओर प्रवृत्त है, यह प्रवृत्ति अंतत: किसी के लिए भी कभी हितकर सिद्ध नहीं होगी। वह प्रवृत्ति जितनी ही साहित्य-घाती है उतनी ही आत्मघाती भी। आज साहित्यकारों के लिए इस नारे को हृदयंगम और बुलंद करने की बहुत बड़ी आवश्यकता पड़ी है कि ‘संगच्छध्वं, संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्’।

    आज सारे संसार की आँखें भारतीय साहित्यकारों की ओर लगी हुई है। आज पाश्चात्य जगत के सभी सहृदय और सच्चे साहित्यकार अपने यहाँ के साहित्यिक वातावरण की गलनशीलता और गत्यावरोध से घबराकर जाने अनजाने दिशा निर्देशन के लिए भारतीय कवियों और साहित्य कलाकारों की ओर अत्यंत उत्सुकता से और आशा भरी दृष्टि से देख रहे हैं। सारे विश्व के चिंतक आज यह अनुभव करने लगे हैं कि आज के अणु-शासित जीवन की घोर विषमता और विश्रृंखला में यदि सामंजस्य का सच्चा और प्रभावपूर्ण संदेश कहीं से सकता है तो वह केवल भारत से। आज चारों ओर के दंभ, अज्ञान, भय, संशय, बौद्धिक जड़ता और आत्मविनाशी हठकारिता के अंतरराष्ट्रीय अंधकार पूर्ण वातावरण में यदि नए सांस्कृतिक प्रकाश की किरणें कहीं से फूट सकती हैं तो केवल भारत से। एकमात्र परंपरागत भारतीय प्रतिभा ही अपने सर्वग्राही विराट दृष्टिकोण के कारण इस योग्य सिद्ध हो सकती है कि आज के संसार की विकट रूप से उलझी हुई विध्वंसक प्रवृत्तियों को शांति, श्रृंखला और सामजस्य की ओर मोड़ सके।

    ऐसी स्थिति में यह नितांत आवश्यक है कि हमारे नए साहित्यकार पाश्चात्य साहित्य की ह्रासोन्मुखी और गलित प्रवृत्तियों का अंध अनुकरण छोड़कर अपनी ही परंपरागत राष्ट्रीय प्रतिभा के सशक्त बीजों के समयोचित विकास की ओर ध्यान केंद्रित करें और उन्हीं के माध्यम से साहित्यिक प्रगति की ओर सचेष्ट हों।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देखा-परखा (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज
    • संस्करण : 1957
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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