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रतन का जतन करु

ratan ka jatan karu

कबीर

कबीर

रतन का जतन करु

कबीर

और अधिककबीर

    रतन का जतन करु, माँड़ी का सिंगार।

    आया कबीरा फिर गया, झूठा है हंकार॥

    मानव-शरीररूपी रत्न को अच्छे उपाय से रखो, अथवा महान-रत्न अपने जीव को, अपनी चेतना-आत्मा को सम्हालकर रखो। जिस माया के श्रृंगार एवं चटक-मटक में तुम भूलते हो, वह पसेव चढ़े हुए चिकने कपड़े या सजे हुए बाजार के समान दिखाऊ एवं क्षणभंगुर है। सद्गुरु कहते हैं कि जीव संसार में आते हैं और फिर थोड़े दिनों में लौट जाते हैं, इसलिए यहां का अहंकार मिथ्या है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीजक: पारख प्रबोधिनी व्याख्या (पृष्ठ 531)
    • संपादक : अभिलाष दास
    • रचनाकार : कबीर
    • प्रकाशन : कबीर पारख संस्थान
    • संस्करण : 1969

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