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चलते-चलते पगु थका

chalte chalte pagu thaka

कबीर

कबीर

चलते-चलते पगु थका

कबीर

और अधिककबीर

    चलते-चलते पगु थका, नगर रहा नौ कोस।

    बीचहि में डेरा परा, कहहु कौन को दोष॥

    मानो कोई यात्री हो। वह सुबह से चल रहा हो। चलते-चलते उसके पैर थक गए हों, अभी उसका मूल निवास स्थान नौ कोस की दूरी पर हो, इतने में शाम गई हो। इसलिए बीच में ही उसका पड़ाव पड़ गया हो, तो कहो इसमें किसका दोष है! वस्तुत: चलने वाले का दोष है जो सही रास्ते से चलकर भटक गया है। भटकने वाले का रास्ता लंबा हो ही जाता है।

    इसी प्रकार कर्म, उपासना, ज्ञान सभी मार्गों में चलते-चलते मनुष्य का जीवन थक जाता है और वह बूढ़ा हो जाता है, परंतु आत्मस्थिति एवं स्वरूपस्थिति, चतुष्टय अंत:करण में संस्कारित पांचों विषयों की आसक्तिरूपी नौ कोस की दूरी पर ही रह जाती है और मौत का समय जाता है। इसमें कहो भला किसका दोष है! दोष चलने वाले का ही है, जो कल्याण का सही रास्ता पकड़कर भूले पथ में भटक गया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीजक: पारख प्रबोधिनी व्याख्या (पृष्ठ 420)
    • संपादक : अभिलाष दास
    • रचनाकार : कबीर
    • प्रकाशन : कबीर पारख संस्थान
    • संस्करण : 1969

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