'हंस' का यह 'आत्मकथांक' है। इसमें आत्मकथा ही लिखनी चाहिए; किंतु मेरी आत्मकथा प्रारंभ से आज तक, इतनी भयावनी है कि सचमुच यदि मैं ठीक-ठीक लिख दूँ, तो बहुत से लोग विष खाकर सो रहे, या नहीं तो मेरे ऊपर इतने अधिक मानहानि के दावे दायर हो जाएँ, कि मुझे देश छोड़कर भाग जाना पड़े। इसलिए मैं सब बातों को छिपाकर आत्मकथा नहीं लिखूँगा, और फिर मेरी आत्मकथा में कोई सीखने लायक सबक भी तो नहीं है। ख़ैर, जाने दीजिए, 'मतवाला' की जन्मकथा संक्षेप में सुन लीजिए; क्योंकि विस्तार करने पर फिर वही बात होगी।
सन् 1920-21 में महात्मा गाँधी के अहिंसात्मक असहयोग की आँधी उठी। मैं जंगल के सूखे पत्ते की तरह उड़ चला। पहले 'भारा' नगर (बिहार ) के टाउन स्कूल में हिंदी शिक्षक था, अब वहीं के नए राष्ट्रीय विद्यालय में हिंदी शिक्षक हुआ। कुछ महीनों तक छोटी-मोटी लीडरी ही रही। बाद में पारा के दो मारवाड़ी युवकों नवरंगलाल तुलस्यान और हरद्वार प्रसाद जालान के उत्साह से 'मारवाड़ी सुधार' नामक सचित्र मासिक पत्र मेरे ही संपादकत्व में निकला। उसको छपवाने के लिए पूज्य प० ईश्वरीप्रसाद शर्मा (स्वर्गीय ) ने कलकत्ता में बालकृष्ण प्रेस को ठीक किया। प्रथम अंक छपवाने के लिए मैं पहले-पहल कलकत्ता गया। इसके बाद धनी मारवाड़ियों से सहायता लेने के लिए हाथरस, दिल्ली, इंदौर, जयपुर, बंबई आदि अनेक बड़े नगरों में महीनों घूमता फिरा। किसी तरह दो साल 'मारवाड़ी सुधार' निकला। इसकी बड़ी लंबी कहानी है।
'मारवाड़ी सुधार' का अंतिम अंक जब छप रहा था, तब मैं कलकत्ता में था। उस समय 'बालकृष्ण प्रेस' शंकरघोष लेने के मकान नं० 23 में था। वहीं मैं रहता था। प्रेस के मालिक बाबू महादेव प्रसाद सेठ और मुंशी नवजादिक लाल जी श्रीवास्तव प्रेस ही में रहते थे। ऊपर वाले खंड में रामकृष्ण मिशन के संन्यासी लोग थे, जिनके साथ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' भी थे। 'निराला' जी रामकृष्ण कथामृत का अनुवाद और 'समन्वय' का संपादन करते थे। 'समन्वय' के संचालक स्वामी माधवानंद प्राचार्य द्विवेदी जी से माँगकर 'निराला'जी को वहाँ ले गए थे। और, मुंशी नवजादिक लाल जी श्रीवास्तव उस समय 'भूतनाथ तैल' वाले प्रसिद्ध किशोरीलाल चौधरी की कोठी में मैनेजर थे। इसलिए चौधरी जी का अधिकतर काम प्रेस में ही होता था।
एक दिन मुंशीजी बाज़ार से बँगला साप्ताहिक 'अवतार' खरीद लाए। वह हास्य रस का पत्र था। शायद एक ही पैसा दाम था और शायद पहला ही अंक भी था; किंतु उसी पर छपा था—
Guaranteed Circulation.0000000000001. मसाला भी बड़ा मजेदार था। ख़ूब पढ़ा गया। सोचावट होने लगी, इसी ढंग का एक पत्र हिंदी में निकाला जाए। रोज़ हर घड़ी चर्चा छिड़ी ही रहती थी। कितने ही हवाई क़िले बने और कितने ही उड़ गए। बहुत मंथन के बाद विचारों में स्तंभन आया। उसी दम बात तय हो गई। बीजारोपण हो गया। ता० 20 अगस्त 1923 रविवार को सिर्फ़ बात पक्की हुई। ता० 21 सोमवार को मुंशीजी ने ही पत्र का नामकरण किया 'मतवाला'। मुंशीजी को दिन-रात इसी की धुन थी। नाम को सबने पसंद किया। अब कमिटी बैठी। विचार होने लगा कौन क्या लिखेगा, पत्र में क्या रहेगा, इत्यादि। 'निराला' जी ने कविता और समालोचना का भार लिया। मुंशीजी ने व्यंग्य-विनोद लिखना स्वीकार किया। मैं चुप था। मुझमें आत्मविश्वास नहीं था। बैठा-बैठा सब सुन रहा था। सेठजी भंग का गोला जमाए सटक गुड़गुड़ा रहे थे। मुझसे बार-बार पूछा गया। डरते-डरते मैंने कहा, मैं भी यथाशक्ति चेष्टा करूँगा। सेठजी ने कहा, आप लीडर (अग्र लेख) लिखिएगा, प्रूफ देखिएगा, जो कुछ घटेगा सो भरिएगा।
मैं दहल गया। दिल धड़कता था। मेरी अल्पज्ञता थरथराती थी। ईश्वर का भरोसा भी डगमगा रहा था। हड़कंप समा गया। अथाह मँझधार में पड़ गया। मुंशीजी और सेठजी तैयारी में लग गए। स्तंभों के शीर्षक चुने गए। डिजाइन, ब्लाक, काग़ज़ धड़ाधड़ प्रेस में आने लगे। चारु बाबू चित्रकार ने मुखपृष्ठ के लिए 'नटराज' का चित्र बनाया, देखकर सबकी तबीयत फड़क उठी। 'निराला' जी ने कविता तैयार कर ली, समालोचना भी लिख डाली। मुंशीजी भी रोज़ कुछ लिखते जाते थे। मैं हतबुद्धि-सा हो गया। कुछ सूझता ही न था। श्रावण की पूर्णिमा ता० 26 शनिवार को पड़ती थी। उस दिन 'मतवाला' का निकलना सर्वथा निश्चित था। युवती दुलहिन के बालक पति की तरह मेरा कलेजा धुकधुका रहा था।
ता० 23 बुधवार की रात को मैं लिखने बैठा। कई बार कई तरह से लिखा और फाड़ डाला। बहुत रात बीत गई। नींद भी नहीं आती थी। दिमाग चक्कर काट रहा था। मन, जहाज का पक्षी हो रहा था। यकायक एक शैली सूझ पड़ी। लिखने लगा। भाव टपकने लगे। धारा चली। मन तृप्त हो गया। अग्रलेख पूरा करके सो रहा। सुबह उठते ही सेठजी ने माँगा। तब डरते ही डरते दिया; किंतु ईश्वर ने लाज रख ली। सबने पसंद किया। शीर्षक था- 'आत्म परिचय।
कुछ मैटर प्रेस में जा चुका था। उसका प्रूफ़ भी मैं देख चुका था। अब उत्साह बढ़ने पर मैंने भी कुछ 'बहक' और 'चलती चक्की' लिखी। श्रावणी संवत् 1980 शनिवार ( 23 अगस्त 1923 ) को 'मतवाला' का पहला अंक निकल गया। था तो साप्ताहिक, मगर मासिक पत्र की तरह शुद्ध और स्वच्छ निकला। बाज़ार में जाते ही, पहले ही दिन, धूम मच गई।
वहाँ सब लोग यू० पी० के निवासी थे, केवल मैं ही बिहारी था; इसलिए मेरी भाषा का संशोधन 'निराला' जी कर दिया करते थे। 'मतवाला' मंडल में वही भाषा के आचार्य थे; किंतु मुंशीजी अपनी लिखी चीज़ में किसी को कलम नहीं लगाने देते थे। मुंशीजी पुराने अनुभवी थे, कई अख़बारों में रह चुके थे, उर्दू फ़ारसी के अच्छे जानकार थे, हाथ मँजा हुआ था। सिर्फ़ मैं ही बुद्धू था। अनाड़ी था। नौ सिखुआ था। 'निराला' जी बड़े स्नेह के साथ मेरी लिखी चीज़ें देखते, संशोधन करते और परामर्श देते थे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। उनकी योग्यता का मैं कायल हूँ। फिर मुंशीजी का तो कहना ही क्या! वह तो 'मतवाला' मंडल के प्राण ही थे। उनकी बहक का मज़ा मैं प्रूफ़ में लेता था। उनकी मुहावरेदार चुलबुली भाषा ने 'मतवाला' का रंग जमा दिया। 'निराला' जी की कविताओं और समालोचनाओं ने भी हिंदी-संसार में हलचल मचा दी। वह भी एक अद्भुत युग था। यदि उस युग की कथा विस्तार से कहूँ, तो 'बाड़े कथा पार नहिं लहऊँ !'
- पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 12)
- संपादक : प्रेमचंद
- रचनाकार : शिवपूजन सहाय
- प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
- संस्करण : 1932
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