प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है। अजमेर के ब्रह्मपुरी मुहल्ले के उस दो-मंज़िला मकान से, जिसकी ऊपरी मंज़िल में पिताजी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अख़बारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ...सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर। अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था। कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया है जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी ख़ुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी और बेहद क्रोधी और अहंवादी।
पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बताएँ। नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थीं। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।
पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी ख़ूबी और ख़ामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुँथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिता जी की कमज़ोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, ख़ूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का ज़िक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीनभावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती...सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-पन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है...बहुत 'अपनों' के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं...कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस क़दर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए...स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दें, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता!
पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिता जी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित-अनुचित फ़रमाइश और ज़िद को अपना फ़र्ज़ समझकर बड़े सहज भाव से स्वीकार करती थीं वो। उन्होंने ज़िंदगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं, चाहा नहीं...केवल दिया-ही-दिया। हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से उपजा) माँ के साथ था लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका...न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता। ख़ैर जो भी हो, अब यह पैतृक-पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ।
पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं। सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी एक धुँधली-सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले-सतोलिया, लँगड़ी-टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो...तो कमरों में गुड़े-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए, पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ। यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर। हाँ, इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मुहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मुहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िंदगी ख़ुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ़्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत 'पड़ोस कल्चर' से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मुहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक-दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बड़े सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही 'महाभोज' में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था...एक सुखद आश्चर्य का।
उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी—उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक। सन् ’44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्र-छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वजूद का एहसास हुआ। पिता जी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केंद्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्ख़े जुटाए जाते थे, पिता जी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारख़ाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं।
बहस करना पिता जी का प्रिय शग़ल था। चाय-पानी या नाश्ता देने जाती तो पिता जी मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठूँ, सुनूँ और जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। देश में हो भी तो कितना कुछ रहा था। सन् ’42 के आंदोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था, लेकिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ, उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो मुझे दूर-दूर तक कोई समझ नहीं थी। हाँ, क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण, उनकी क़ुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रांत रहता था।
सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी ख़ास समझ के घर में होने वाली बहसें सुनती थी और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् ’45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं 'फर्स्ट इयर' में आई, हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल...जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाक़ायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला...ख़ुद चुन-चुनकर किताबें दी...पढ़ी हुई किताबों पर बहसें की तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत्-प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज वाक्यों वाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था। 'सुनीता' (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा था, अज्ञेय जी का उपन्यास 'शेखर: एक जीवनी' पढ़ा ज़रूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था। कुछ सालों बाद 'नदी के द्वीप' पढ़ा तो उसने मन को इस क़दर बाँधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई...इस बार कुछ समझ के साथ। यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था...पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सही-ग़लत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिह्न ही नहीं लग रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी संदर्भ में जैनेंद्र का 'त्यागपत्र', भगवती बाबू का 'चित्रलेखा' पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी-लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा।
शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने-समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था, उन्होंने वहाँ से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। सन् '46-47 के दिन...वे स्थितियाँ, उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना संभव था भला? प्रभात-फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमख़म और जोश-ख़रोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते ख़ून को लावे में बदल दिया था। स्थिति यह हुई कि एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में। पिता जी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूँ-बैठूँ, जानूँ-समझूँ। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेंद्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा।
यश-कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए...कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी। एक बार कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला। यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं रखेगी...पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया। ग़ुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या क़हर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ ग़ुबार निकल जाए, तब बुलाना। लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो ख़ुश ही हैं, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते। “सारे कॉलिज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा...सारा कॉलिज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है? प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डॉट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए। कहाँ तो जाते समय पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है...इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद गद्गद स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक्। मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर। पर यह हक़ीक़त थी।
एक घटना और। आज़ाद हिंद फ़ौज के मुक़दमे का सिलसिला था। सभी कॉलिजों, स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आह्वान था। जो-जो नहीं कर रहे थे, छात्रों का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ जा-जाकर हड़ताल करवा रहा था। शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी-वर्ग चौपड़ (मुख्य बाज़ार का चौराहा) पर इकट्ठा हुआ और फिर हुई भाषणबाज़ी। इस बीच पिता जी के एक निहायत दक़ियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी, “अरे, उस मन्नू की तो मत मारी गई है पर भंडारी जी आपको क्या हुआ? ठीक है, आपने लड़कियों को आज़ादी दी, पर देखते आप, जाने कैसे-कैसे उलटे-सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह। हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज़्ज़त-आबरू का ख़याल भी रह गया है आपको या नहीं?
वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे, बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ। बंद करो अब इस मन्नू का घर से बाहर निकलना।
इस सबसे बेख़बर में रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के एक बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालाल जी बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, आओ, आओ मन्नू। मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया। 'आई एम रिअली प्राउड ऑफ़ यू'...क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी...घर से निकला भी करो। 'यू हैव मिस्ड समथिंग' और वे धुआँधार तारीफ़ करने लगे—वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दुपहर के ग़ुस्से वाली बात बताई तो मैंने राहत की साँस ली।
आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। पर पिता जी! कितनी तरह के अंतर्विरोधों के बीच जीते थे वे! एक ओर 'विशिष्ट' बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी और अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता पर क्या यह संभव है? क्या पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का रास्ता ही टकराहट का है?
सन् '47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने नोटिस थमा दिया—लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में। इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे, इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज बंद करके हम दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया।
हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिजवालों को अगस्त में आख़िर थर्ड इयर खोलना पड़ा। जीत की ख़ुशी, पर सामने खड़ी बहुत-बहुत बड़ी चिर प्रतीक्षित ख़ुशी के सामने यह ख़ुशी बिला गई।
शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि...15 अगस्त 1947
janmi to madhya pardesh ke bhanapura gaanv mein thi, lekin meri yadon ka silsila shuru hota hai. ajmer ke brahmapuri muhalle ke us do manzila makan se, jiski uupri manzil mein pitaji ka samrajya tha, jahan ve nihayat avyavasthit Dhang se phaili bikhri pustkon patrikaon aur akhbaron ke beech ya to kuch paDhte rahte the ya phir Dikteshan dete rahte the. niche hum sab bhai bahinon ke saath rahti theen hamari bepDhi likhi vyaktitvavihin maan. . . savere se shaam tak hum sabki ichchhaon aur pita ji ki agyaon ka palan karne ke liye sadaiv tatpar. ajmer se pahle pita ji indaur mein the jahan unki baDi pratishtha thi, samman tha, naam tha. kangres ke saath saath ve samaj sudhar ke kamon se bhi juDe hue the. shiksha ke ve keval updesh hi nahin dete the, balki un dinon aath aath, das das vidyarthiyon ko apne ghar rakhkar paDhaya hai jinmen se kai to baad mein uunche uunche ohdon par pahunche. ye unki khushhali ke din the aur un dinon unki dariyadili ke charche bhi kam nahin the. ek or ve behad komal aur sanvedanshil vyakti the to dusri aur behad krodhi aur ahanvadi.
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paanch bhai bahinon mein sabse chhoti main. sabse baDi bahin ki shadi ke samay main shayad saat saal ki thi aur uski ek dhundhli si yaad hi mere man mein hai, lekin apne se do saal baDi bahin sushila aur mainne ghar ke baDe se angan mein bachpan ke sare khel khele satoliya, langDi taang, pakDam pakDai, kali tilo. . . to kamron mein guDe guDiyon ke byaah bhi rachaye, paas paDos ki saheliyon ke saath. yon khelne ko hamne bhaiyon ke saath gilli DanDa bhi khela aur patang uDane, kaanch piskar manja sutne ka kaam bhi kiya, lekin unki gatividhiyon ka dayara ghar ke bahar hi adhik rahta tha aur hamari sima thi ghar. haan, itna zarur tha ki us zamane mein ghar ki divaren ghar tak hi samapt nahin ho jati theen balki pure muhalle tak phaili rahti theen isliye muhalle ke kisi bhi ghar mein jane par koi pabandi nahin thi, balki kuch ghar to parivar ka hissa hi the. aaj to mujhe baDi shiddat ke saath ye mahsus hota hai ki apni zindagi khud jine ke is adhunik dabav ne mahanagron ke flait mein rahne valon ko hamare is parampragat paDos kalchar se vichchhinn karke hamein kitna sankuchit, ashay aur asurakshit bana diya hai. meri kam se kam ek darjan arambhik kahaniyon ke paatr isi muhalle ke hain jahan mainne apni kishoravastha guzar apni yuvavastha ka arambh kiya tha. ek do ko chhoDkar unmen se koi bhi paatr mere parivar ka nahin hai. bas inko dekhte sunte, inke beech hi main baDi hui thi lekin inki chhaap mere man par kitni gahri thi, is baat ka ahsas to mujhe kahaniyan likhte samay hua. itne varshon ke antral ne bhi unki bhaav bhangima, bhasha, kisi ko bhi dhundhla nahin kiya tha aur bina kisi vishesh prayas ke baDe sahj bhaav se ve utarte chale ge the. usi samay ke da sahab apne vyaktitv ki abhivyakti ke liye anukul paristhitiyan pate hi mahabhoj mein itne varshon baad kaise ekayek jivit ho uthe, ye mere apne liye bhi ashcharya ka vishay tha. . . ek sukhad ashcharya ka.
us samay tak hamare parivar mein laDki ke vivah ke liye anivarya yogyata thi—umr mein solah varsh aur shiksha mein maitrik. san ’44 mein sushila ne ye yogyata praapt ki aur shadi karke kolkata chali gai. donon baDe bhai bhi aage paDhai ke liye bahar chale ge. in logon ki chhatr chhaya ke hatte hi pahli baar mujhe ne sire se apne vajud ka ehsaas hua. pita ji ka dhyaan bhi pahli baar mujh par kendrit hua. laDakiyon ko jis umr mein skuli shiksha ke saath saath sughaD grihini aur kushal paak shastari banane ke nuskhe jutaye jate the, pita ji ka agrah rahta tha ki main rasoi se door hi rahun. rasoi ko ve bhatiyarkhana kahte the aur unke hisab se vahan rahna apni kshamata aur pratibha ko bhatti mein jhonkna tha. ghar mein aaye din vibhinn rajanaitik partiyon ke jamavDe hote the aur jamkar bahsen hoti theen.
bahs karna pita ji ka priy shaghal tha. chaay pani ya nashta dene jati to pita ji mujhe bhi vahin baithne ko kahte. ve chahte the ki main bhi vahin baithun, sunun aur janun ki desh mein charon or kya kuch ho raha hai. desh mein ho bhi to kitna kuch raha tha. san ’42 ke andolan ke baad se to sara desh jaise khaul raha tha, lekin vibhinn rajanaitik partiyon ki nitiyan, unke aapsi virodh ya matbhedon ki to mujhe door door tak koi samajh nahin thi. haan, krantikariyon aur deshabhakt shahidon ke romani akarshan, unki qurbaniyon se zarur man akrant rahta tha.
so dasvin kaksha tak aalam ye tha ki bina kisi khaas samajh ke ghar mein hone vali bahsen sunti thi aur bina chunav kiye, bina lekhak ki ahmiyat se parichit hue kitaben paDhti thi. lekin san ’45 mein jaise hi dasvin paas karke main pharst iyar mein aai, hindi ki pradhyapika shila agarval se parichay hua. savitri garls hai skool. . . jahan mainne kakahra sikha, ek saal pahle hi kaulij bana tha aur ve isi saal niyukt hui theen, unhonne baqayda sahitya ki duniya mein pravesh karvaya. maatr paDhne ko, chunav karke paDhne mein badla. . . khud chun chunkar kitaben di. . . paDhi hui kitabon par bahsen ki to do saal bitte na bitte sahitya ki duniya sharat premchand se baDhkar jainendr, agyey, yashpal, bhagavtichran varma tak phail gai aur phir to phailti hi chali gai. us samay jainendr ji ki chhote chhote saral sahj vakyon vali shaili ne bahut akrisht kiya tha. sunita (upanyas) bahut achchha laga tha, agyey ji ka upanyas shekhrah ek jivani paDha zarur par us samay wo meri samajh ke simit dayre mein sama nahin paya tha. kuch salon baad nadi ke dveep paDha to usne man ko is qadar bandha ki usi jhonk mein shekhar ko phir se paDh gai. . . is baar kuch samajh ke saath. ye shayad mulyon ke manthan ka yug tha. . . paap punya, naitik anaitik, sahi ghalat ki bani banai dharnaon ke aage prashnachihn hi nahin lag rahe the, unhen dhvast bhi kiya ja raha tha. isi sandarbh mein jainendr ka tyagpatr, bhagvati babu ka chitralekha paDha aur shila agarval ke saath lambi lambi bahsen karte hue us umr mein jitna samajh sakti thi, samjha.
shila agarval ne sahitya ka dayara hi nahin baDhaya tha balki ghar ki charadivari ke beech baithkar desh ki sthitiyon ko janne samajhne ka jo silsila pita ji ne shuru kiya tha, unhonne vahan se khinchkar use bhi sthitiyon ki sakriy bhagidari mein badal diya. san 46 47 ke din. . . ve sthitiyan, usmen vaise bhi ghar mein baithe rahna sambhav tha bhala? parbhat pheriyan, haDtalen, julus, bhashan har shahr ka charitr tha aur pure damkham aur josh kharosh ke saath in sabse juDna har yuva ka unmaad. main bhi yuva thi aur shila agarval ki joshili baton ne ragon mein bahte khoon ko lave mein badal diya tha. sthiti ye hui ki ek bavanDar shahr mein macha hua tha aur ek ghar mein. pita ji ki azadi ki sima yahin tak thi ki unki upasthiti mein ghar mein aaye logon ke beech uthun baithun, janun samjhun. haath utha uthakar nare lagati, haDtalen karvati laDkon ke saath shahr ki saDken napti laDki ko apni sari adhunikta ke bavjud bardasht karna unke liye mushkil ho raha tha to kisi ki di hui azadi ke dayre mein chalna mere liye. jab ragon mein lahu ki jagah lava bahta ho to sare nishedh, sari varjnayen aur sara bhay kaise dhvast ho jata hai, ye tabhi jana aur apne krodh se sabko tharthara dene vale pita ji se takkar lene ka jo silsila tab shuru hua tha, rajendr se shadi ki, tab tak wo chalta hi raha.
yash kamna balki kahun ki yash lipsa, pita ji ki sabse baDi durbalta thi aur unke jivan ki dhuri tha ye siddhant ki vyakti ko kuch vishisht ban kar jina chahiye. . . kuch aise kaam karne chahiye ki samaj mein uska naam ho, samman ho, pratishtha ho, varchasv ho. iske chalte hi main do ek baar unke kop se bach gai thi. ek baar kaulij se prinsipal ka patr aaya ki pita ji aakar milen aur batayen ki meri gatividhiyon ke karan mere khilaf anushasnatmak karrvai kyon na ki jaye? patr paDhte hi pita ji aag babula. yah laDki mujhe kahin munh dikhane layaq nahin rakhegi. . . pata nahin kya kya sunna paDega vahan jakar! chaar bachche pahle bhi paDhe, kisi ne ye din nahin dikhaya. ghusse se bhannate hue hi ve ge the. lautkar kya qahr barpa hoga, iska anuman tha, so main paDos ki ek mitr ke yahan jakar baith gai. maan ko kah diya ki lautkar bahut kuch ghubar nikal jaye, tab bulana. lekin jab maan ne aakar kaha ki ve to khush hi hain, chali chal, to vishvas nahin hua. gai to sahi, lekin Darte Darte. “sare kaulij ki laDakiyon par itna raub hai tera. . . sara kaulij tum teen laDakiyon ke ishare par chal raha hai? prinsipal bahut pareshan thi aur baar baar agrah kar rahi thi ki main tujhe ghar bitha loon, kyonki ve log kisi tarah Dara dhamkakar, Daut Dapatkar laDakiyon ko klason mein bhejte hain aur agar tum log ek ishara kar do ki klaas chhoDkar bahar aa jao to sari laDkiyan nikalkar maidan mein jama hokar nare lagane lagti hain. tum logon ke mare kaulij chalana mushkil ho gaya hai un logon ke liye. kahan to jate samay pita ji munh dikhane se ghabra rahe the aur kahan baDe garv se kahkar aaye ki ye to pure desh ki pukar hai. . . is par koi kaise rok laga sakta hai bhala? behad gadgad svar mein pita ji ye sab sunate rahe aur main avak. mujhe na apni ankhon par vishvas ho raha tha, na apne kanon par. par ye haqiqat thi.
ek ghatna aur. azad hind fauj ke muqadme ka silsila tha. sabhi kaulijon, skulon, dukanon ke liye haDtal ka ahvan tha. jo jo nahin kar rahe the, chhatron ka ek bahut baDa samuh vahan ja jakar haDtal karva raha tha. shaam ko ajmer ka pura vidyarthi varg chaupaD (mukhya bazar ka chauraha) par ikattha hua aur phir hui bhashanbazi. is beech pita ji ke ek nihayat daqiyanusi mitr ne ghar aakar achchhi tarah pita ji ki lu utari, “are, us mannu ki to mat mari gai hai par bhanDari ji aapko kya hua? theek hai, aapne laDakiyon ko azadi di, par dekhte aap, jane kaise kaise ulte sidhe laDkon ke saath haDtalen karvati, huDdang machati phir rahi hai wo. hamare aapke gharon ki laDakiyon ko shobha deta hai ye sab? koi maan maryada, izzat aabru ka khayal bhi rah gaya hai aapko ya nahin?
ve to aag lagakar chale ge aur pita ji sare din bhabhakte rahe, bas ab yahi rah gaya hai ki log ghar aakar thu thu karke chale jayen. band karo ab is mannu ka ghar se bahar nikalna.
is sabse bekhbar mein raat hone par ghar lauti to pita ji ke ek behad antrang aur abhinn mitr hi nahin, ajmer ke sabse pratishthit aur sammanit Dau. ambalal ji baithe the. mujhe dekhte hi unhonne baDi garmajoshi se svagat kiya, aao, aao mannu. main to chaupaD par tumhara bhashan sunte hi sidha bhanDari ji ko badhai dene chala aaya. ai em riali prauD auf yoo. . . kya tum ghar mein ghuse rahte ho bhanDari ji. . . ghar se nikla bhi karo. yu haiv misD samthing aur ve dhuandhar tarif karne lage—ve bolte ja rahe the aur pita ji ke chehre ka santosh dhire dhire garv mein badalta ja raha tha. bhitar jane par maan ne duphar ke ghusse vali baat batai to mainne rahat ki saans li.
aaj pichhe muDkar dekhti hoon to itna to samajh mein aata hi hai kya to us samay meri umr thi aur kya mera bhashan raha hoga! ye to Dauktar sahab ka sneh tha jo unke munh se prshansa bankar bah raha tha ya ye bhi ho sakta hai ki aaj se pachas saal pahle ajmer jaise shahr mein charon or se umaDti bheeD ke beech ek laDki ka bina kisi sankoch aur jhijhak ke yon dhuandhar bolte chale jana hi iske mool mein raha ho. par pita jee! kitni tarah ke antarvirodhon ke beech jite the ve! ek or vishisht banne aur banane ki prabal lalsa to dusri aur apni samajik chhavi ke prati bhi utni hi sajagta par kya ye sambhav hai? kya pita ji ko is baat ka bilkul bhi ahsas nahin tha ki in donon ka rasta hi takrahat ka hai?
san 47 ke mai mahine mein shila agarval ko kaulij valon ne notis thama diya—laDakiyon ko bhaDkane aur kaulij ka anushasan bigaDne ke aarop mein. is baat ko lekar huDdang na mache, isliye julai mein tharD iyar ki klasej band karke hum do teen chhatraon ka pravesh nishiddh kar diya.
huDdang to bahar rahkar bhi itna machaya ki kaulijvalon ko agast mein akhir tharD iyar kholana paDa. jeet ki khushi, par samne khaDi bahut bahut baDi chir prtikshit khushi ke samne ye khushi bila gai.
shatabdi ki sabse baDi uplabdhi. . . 15 agast 1947
janmi to madhya pardesh ke bhanapura gaanv mein thi, lekin meri yadon ka silsila shuru hota hai. ajmer ke brahmapuri muhalle ke us do manzila makan se, jiski uupri manzil mein pitaji ka samrajya tha, jahan ve nihayat avyavasthit Dhang se phaili bikhri pustkon patrikaon aur akhbaron ke beech ya to kuch paDhte rahte the ya phir Dikteshan dete rahte the. niche hum sab bhai bahinon ke saath rahti theen hamari bepDhi likhi vyaktitvavihin maan. . . savere se shaam tak hum sabki ichchhaon aur pita ji ki agyaon ka palan karne ke liye sadaiv tatpar. ajmer se pahle pita ji indaur mein the jahan unki baDi pratishtha thi, samman tha, naam tha. kangres ke saath saath ve samaj sudhar ke kamon se bhi juDe hue the. shiksha ke ve keval updesh hi nahin dete the, balki un dinon aath aath, das das vidyarthiyon ko apne ghar rakhkar paDhaya hai jinmen se kai to baad mein uunche uunche ohdon par pahunche. ye unki khushhali ke din the aur un dinon unki dariyadili ke charche bhi kam nahin the. ek or ve behad komal aur sanvedanshil vyakti the to dusri aur behad krodhi aur ahanvadi.
par ye sab to mainne keval suna. dekha, tab to in gunon ke bhagnavsheshon ko Dhote pita the. ek bahut baDe arthik jhatke ke karan ve indaur se ajmer aa ge the, jahan unhonne apne akele ke bal bute aur hausale se angrezi hindi shabdkosh (vishayvar) ke adhure kaam ko aage baDhana shuru kiya jo apni tarah ka pahla aur akela shabdkosh tha. isne unhen yash aur pratishtha to bahut di, par arth nahin aur shayad girti arthik sthiti ne hi unke vyaktitv ke sare sakaratmak pahaluon ko nichoDna shuru kar diya. sikuDti arthik sthiti ke karan aur adhik vispharit unka ahan unhen is baat tak ki anumti nahin deta tha ki ve kam se kam apne bachchon ko to apni arthik vivashtaon ka bhagidar batayen. navabi adten, adhuri mahatvakankshayen, hamesha sheersh par rahne ke baad hashiye par sarakte chale jane ki yatana krodh bankar hamesha maan ko kanpati thartharati rahti theen. apnon ke hathon vishvasghat ki jane kaisi gahri choten hongi ve jinhonne ankh mundakar sabka vishvas karne vale pita ko baad ke dinon mein itna shakki bana diya tha ki jab tab hum log bhi uski chapet mein aate hi rahte.
par ye pitri gatha main isliye nahin ga rahi ki mujhe unka gaurav gaan karna hai, balki main to ye dekhana chahti hoon ki unke vyaktitv ki kaun si khubi aur khamiyan mere vyaktitv ke tane bane mein gunthi hui hain ya ki anjane anchahe kiye unke vyvahar ne mere bhitar kin granthiyon ko janm de diya. main kali hoon. bachpan mein dubli aur mariyal bhi thi. gora rang pita ji ki kamzori thi so bachpan mein mujhse do saal baDi, khoob gori, svasth aur hansmukh bahin sushila se har baat mein tulna aur phir uski prshansa ne hi, kya mere bhitar aise gahre heen bhaav ki granthi paida nahin kar di ki naam, samman aur pratishtha pane ke bavjud aaj tak main usse ubar nahin pai? aaj bhi parichay karvate samay jab koi kuch visheshata lagakar meri lekhakiy uplabdhiyon ka zikr karne lagta hai to main sankoch se simat hi nahin jati balki gaDne gaDne ko ho aati hoon. shayad achetan ki kisi part ke niche dabi isi hinabhavana ke chalte main apni kisi bhi uplabdhi par bharosa nahin kar pati. . . sab kuch mujhe tukka hi lagta hai. pita ji ke jis shakki svbhaav par main kabhi bhanna panna jati thi, aaj ekayek apne khanDit vishvason ki vyatha ke niche mujhe unke shakki svbhaav ki jhalak hi dikhai deti hai. . . bahut apnon ke hathon vishvasghat ki gahri vyatha se upja shak. hosh sanbhalane ke baad se hi jin pita ji se kisi na kisi baat par hamesha meri takkar hi chalti rahi, ve to na jane kitne rupon mein mujhmen hain. . . kahin kunthaon ke roop mein, kahin pratikriya ke roop mein to kahin pratichchhaya ke roop mein. keval bahari bhinnata ke adhar par apni parampara aur piDhiyon ko nakarne valon ko kya sachmuch is baat ka bilkul ahsas nahin hota ki unka asann atit kis qadar unke bhitar jaD jamaye baitha rahta hai! samay ka pravah bhale hi hamein dusri dishaon mein bahakar le jaye. . . sthitiyon ka dabav bhale hi hamara roop badal den, hamein puri tarah usse mukt to nahin hi kar sakta!
pita ke theek viprit theen hamari bepDhi likhi maan. dharti se kuch zyada hi dhairya aur sahanshakti thi shayad unmen. pita ji ki har zyadti ko apna prapya aur bachchon ki har uchit anuchit farmaish aur zid ko apna farz samajhkar baDe sahj bhaav se svikar karti theen wo. unhonne zindagi bhar apne liye kuch manga nahin, chaha nahin. . . keval diya hi diya. hum bhai bahinon ka sara lagav (shayad sahanubhuti se upjaa) maan ke saath tha lekin nihayat ashay majburi mein lipta unka ye tyaag kabhi mera adarsh nahin ban saka. . . na unka tyaag, na unki sahishnuta. khair jo bhi ho, ab ye paitrik puran yahin samapt kar apne par lautti hoon.
paanch bhai bahinon mein sabse chhoti main. sabse baDi bahin ki shadi ke samay main shayad saat saal ki thi aur uski ek dhundhli si yaad hi mere man mein hai, lekin apne se do saal baDi bahin sushila aur mainne ghar ke baDe se angan mein bachpan ke sare khel khele satoliya, langDi taang, pakDam pakDai, kali tilo. . . to kamron mein guDe guDiyon ke byaah bhi rachaye, paas paDos ki saheliyon ke saath. yon khelne ko hamne bhaiyon ke saath gilli DanDa bhi khela aur patang uDane, kaanch piskar manja sutne ka kaam bhi kiya, lekin unki gatividhiyon ka dayara ghar ke bahar hi adhik rahta tha aur hamari sima thi ghar. haan, itna zarur tha ki us zamane mein ghar ki divaren ghar tak hi samapt nahin ho jati theen balki pure muhalle tak phaili rahti theen isliye muhalle ke kisi bhi ghar mein jane par koi pabandi nahin thi, balki kuch ghar to parivar ka hissa hi the. aaj to mujhe baDi shiddat ke saath ye mahsus hota hai ki apni zindagi khud jine ke is adhunik dabav ne mahanagron ke flait mein rahne valon ko hamare is parampragat paDos kalchar se vichchhinn karke hamein kitna sankuchit, ashay aur asurakshit bana diya hai. meri kam se kam ek darjan arambhik kahaniyon ke paatr isi muhalle ke hain jahan mainne apni kishoravastha guzar apni yuvavastha ka arambh kiya tha. ek do ko chhoDkar unmen se koi bhi paatr mere parivar ka nahin hai. bas inko dekhte sunte, inke beech hi main baDi hui thi lekin inki chhaap mere man par kitni gahri thi, is baat ka ahsas to mujhe kahaniyan likhte samay hua. itne varshon ke antral ne bhi unki bhaav bhangima, bhasha, kisi ko bhi dhundhla nahin kiya tha aur bina kisi vishesh prayas ke baDe sahj bhaav se ve utarte chale ge the. usi samay ke da sahab apne vyaktitv ki abhivyakti ke liye anukul paristhitiyan pate hi mahabhoj mein itne varshon baad kaise ekayek jivit ho uthe, ye mere apne liye bhi ashcharya ka vishay tha. . . ek sukhad ashcharya ka.
us samay tak hamare parivar mein laDki ke vivah ke liye anivarya yogyata thi—umr mein solah varsh aur shiksha mein maitrik. san ’44 mein sushila ne ye yogyata praapt ki aur shadi karke kolkata chali gai. donon baDe bhai bhi aage paDhai ke liye bahar chale ge. in logon ki chhatr chhaya ke hatte hi pahli baar mujhe ne sire se apne vajud ka ehsaas hua. pita ji ka dhyaan bhi pahli baar mujh par kendrit hua. laDakiyon ko jis umr mein skuli shiksha ke saath saath sughaD grihini aur kushal paak shastari banane ke nuskhe jutaye jate the, pita ji ka agrah rahta tha ki main rasoi se door hi rahun. rasoi ko ve bhatiyarkhana kahte the aur unke hisab se vahan rahna apni kshamata aur pratibha ko bhatti mein jhonkna tha. ghar mein aaye din vibhinn rajanaitik partiyon ke jamavDe hote the aur jamkar bahsen hoti theen.
bahs karna pita ji ka priy shaghal tha. chaay pani ya nashta dene jati to pita ji mujhe bhi vahin baithne ko kahte. ve chahte the ki main bhi vahin baithun, sunun aur janun ki desh mein charon or kya kuch ho raha hai. desh mein ho bhi to kitna kuch raha tha. san ’42 ke andolan ke baad se to sara desh jaise khaul raha tha, lekin vibhinn rajanaitik partiyon ki nitiyan, unke aapsi virodh ya matbhedon ki to mujhe door door tak koi samajh nahin thi. haan, krantikariyon aur deshabhakt shahidon ke romani akarshan, unki qurbaniyon se zarur man akrant rahta tha.
so dasvin kaksha tak aalam ye tha ki bina kisi khaas samajh ke ghar mein hone vali bahsen sunti thi aur bina chunav kiye, bina lekhak ki ahmiyat se parichit hue kitaben paDhti thi. lekin san ’45 mein jaise hi dasvin paas karke main pharst iyar mein aai, hindi ki pradhyapika shila agarval se parichay hua. savitri garls hai skool. . . jahan mainne kakahra sikha, ek saal pahle hi kaulij bana tha aur ve isi saal niyukt hui theen, unhonne baqayda sahitya ki duniya mein pravesh karvaya. maatr paDhne ko, chunav karke paDhne mein badla. . . khud chun chunkar kitaben di. . . paDhi hui kitabon par bahsen ki to do saal bitte na bitte sahitya ki duniya sharat premchand se baDhkar jainendr, agyey, yashpal, bhagavtichran varma tak phail gai aur phir to phailti hi chali gai. us samay jainendr ji ki chhote chhote saral sahj vakyon vali shaili ne bahut akrisht kiya tha. sunita (upanyas) bahut achchha laga tha, agyey ji ka upanyas shekhrah ek jivani paDha zarur par us samay wo meri samajh ke simit dayre mein sama nahin paya tha. kuch salon baad nadi ke dveep paDha to usne man ko is qadar bandha ki usi jhonk mein shekhar ko phir se paDh gai. . . is baar kuch samajh ke saath. ye shayad mulyon ke manthan ka yug tha. . . paap punya, naitik anaitik, sahi ghalat ki bani banai dharnaon ke aage prashnachihn hi nahin lag rahe the, unhen dhvast bhi kiya ja raha tha. isi sandarbh mein jainendr ka tyagpatr, bhagvati babu ka chitralekha paDha aur shila agarval ke saath lambi lambi bahsen karte hue us umr mein jitna samajh sakti thi, samjha.
shila agarval ne sahitya ka dayara hi nahin baDhaya tha balki ghar ki charadivari ke beech baithkar desh ki sthitiyon ko janne samajhne ka jo silsila pita ji ne shuru kiya tha, unhonne vahan se khinchkar use bhi sthitiyon ki sakriy bhagidari mein badal diya. san 46 47 ke din. . . ve sthitiyan, usmen vaise bhi ghar mein baithe rahna sambhav tha bhala? parbhat pheriyan, haDtalen, julus, bhashan har shahr ka charitr tha aur pure damkham aur josh kharosh ke saath in sabse juDna har yuva ka unmaad. main bhi yuva thi aur shila agarval ki joshili baton ne ragon mein bahte khoon ko lave mein badal diya tha. sthiti ye hui ki ek bavanDar shahr mein macha hua tha aur ek ghar mein. pita ji ki azadi ki sima yahin tak thi ki unki upasthiti mein ghar mein aaye logon ke beech uthun baithun, janun samjhun. haath utha uthakar nare lagati, haDtalen karvati laDkon ke saath shahr ki saDken napti laDki ko apni sari adhunikta ke bavjud bardasht karna unke liye mushkil ho raha tha to kisi ki di hui azadi ke dayre mein chalna mere liye. jab ragon mein lahu ki jagah lava bahta ho to sare nishedh, sari varjnayen aur sara bhay kaise dhvast ho jata hai, ye tabhi jana aur apne krodh se sabko tharthara dene vale pita ji se takkar lene ka jo silsila tab shuru hua tha, rajendr se shadi ki, tab tak wo chalta hi raha.
yash kamna balki kahun ki yash lipsa, pita ji ki sabse baDi durbalta thi aur unke jivan ki dhuri tha ye siddhant ki vyakti ko kuch vishisht ban kar jina chahiye. . . kuch aise kaam karne chahiye ki samaj mein uska naam ho, samman ho, pratishtha ho, varchasv ho. iske chalte hi main do ek baar unke kop se bach gai thi. ek baar kaulij se prinsipal ka patr aaya ki pita ji aakar milen aur batayen ki meri gatividhiyon ke karan mere khilaf anushasnatmak karrvai kyon na ki jaye? patr paDhte hi pita ji aag babula. yah laDki mujhe kahin munh dikhane layaq nahin rakhegi. . . pata nahin kya kya sunna paDega vahan jakar! chaar bachche pahle bhi paDhe, kisi ne ye din nahin dikhaya. ghusse se bhannate hue hi ve ge the. lautkar kya qahr barpa hoga, iska anuman tha, so main paDos ki ek mitr ke yahan jakar baith gai. maan ko kah diya ki lautkar bahut kuch ghubar nikal jaye, tab bulana. lekin jab maan ne aakar kaha ki ve to khush hi hain, chali chal, to vishvas nahin hua. gai to sahi, lekin Darte Darte. “sare kaulij ki laDakiyon par itna raub hai tera. . . sara kaulij tum teen laDakiyon ke ishare par chal raha hai? prinsipal bahut pareshan thi aur baar baar agrah kar rahi thi ki main tujhe ghar bitha loon, kyonki ve log kisi tarah Dara dhamkakar, Daut Dapatkar laDakiyon ko klason mein bhejte hain aur agar tum log ek ishara kar do ki klaas chhoDkar bahar aa jao to sari laDkiyan nikalkar maidan mein jama hokar nare lagane lagti hain. tum logon ke mare kaulij chalana mushkil ho gaya hai un logon ke liye. kahan to jate samay pita ji munh dikhane se ghabra rahe the aur kahan baDe garv se kahkar aaye ki ye to pure desh ki pukar hai. . . is par koi kaise rok laga sakta hai bhala? behad gadgad svar mein pita ji ye sab sunate rahe aur main avak. mujhe na apni ankhon par vishvas ho raha tha, na apne kanon par. par ye haqiqat thi.
ek ghatna aur. azad hind fauj ke muqadme ka silsila tha. sabhi kaulijon, skulon, dukanon ke liye haDtal ka ahvan tha. jo jo nahin kar rahe the, chhatron ka ek bahut baDa samuh vahan ja jakar haDtal karva raha tha. shaam ko ajmer ka pura vidyarthi varg chaupaD (mukhya bazar ka chauraha) par ikattha hua aur phir hui bhashanbazi. is beech pita ji ke ek nihayat daqiyanusi mitr ne ghar aakar achchhi tarah pita ji ki lu utari, “are, us mannu ki to mat mari gai hai par bhanDari ji aapko kya hua? theek hai, aapne laDakiyon ko azadi di, par dekhte aap, jane kaise kaise ulte sidhe laDkon ke saath haDtalen karvati, huDdang machati phir rahi hai wo. hamare aapke gharon ki laDakiyon ko shobha deta hai ye sab? koi maan maryada, izzat aabru ka khayal bhi rah gaya hai aapko ya nahin?
ve to aag lagakar chale ge aur pita ji sare din bhabhakte rahe, bas ab yahi rah gaya hai ki log ghar aakar thu thu karke chale jayen. band karo ab is mannu ka ghar se bahar nikalna.
is sabse bekhbar mein raat hone par ghar lauti to pita ji ke ek behad antrang aur abhinn mitr hi nahin, ajmer ke sabse pratishthit aur sammanit Dau. ambalal ji baithe the. mujhe dekhte hi unhonne baDi garmajoshi se svagat kiya, aao, aao mannu. main to chaupaD par tumhara bhashan sunte hi sidha bhanDari ji ko badhai dene chala aaya. ai em riali prauD auf yoo. . . kya tum ghar mein ghuse rahte ho bhanDari ji. . . ghar se nikla bhi karo. yu haiv misD samthing aur ve dhuandhar tarif karne lage—ve bolte ja rahe the aur pita ji ke chehre ka santosh dhire dhire garv mein badalta ja raha tha. bhitar jane par maan ne duphar ke ghusse vali baat batai to mainne rahat ki saans li.
aaj pichhe muDkar dekhti hoon to itna to samajh mein aata hi hai kya to us samay meri umr thi aur kya mera bhashan raha hoga! ye to Dauktar sahab ka sneh tha jo unke munh se prshansa bankar bah raha tha ya ye bhi ho sakta hai ki aaj se pachas saal pahle ajmer jaise shahr mein charon or se umaDti bheeD ke beech ek laDki ka bina kisi sankoch aur jhijhak ke yon dhuandhar bolte chale jana hi iske mool mein raha ho. par pita jee! kitni tarah ke antarvirodhon ke beech jite the ve! ek or vishisht banne aur banane ki prabal lalsa to dusri aur apni samajik chhavi ke prati bhi utni hi sajagta par kya ye sambhav hai? kya pita ji ko is baat ka bilkul bhi ahsas nahin tha ki in donon ka rasta hi takrahat ka hai?
san 47 ke mai mahine mein shila agarval ko kaulij valon ne notis thama diya—laDakiyon ko bhaDkane aur kaulij ka anushasan bigaDne ke aarop mein. is baat ko lekar huDdang na mache, isliye julai mein tharD iyar ki klasej band karke hum do teen chhatraon ka pravesh nishiddh kar diya.
huDdang to bahar rahkar bhi itna machaya ki kaulijvalon ko agast mein akhir tharD iyar kholana paDa. jeet ki khushi, par samne khaDi bahut bahut baDi chir prtikshit khushi ke samne ye khushi bila gai.
shatabdi ki sabse baDi uplabdhi. . . 15 agast 1947
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।