समय जाते देर नहीं लगती। पंद्रह वर्ष बीत चुके; पर जान पड़ता है कि अभी कल की बात है। सन् 1916 में मैं तीसरी बार इंट्रेंस की परीक्षा देने बैठा था।
दो साल मैं लगातार फ़ेल हो चुका था। और चीज़ों में मैं ज्यों-त्यों पास भी हो जाता; पर गणित का विषय मुझे अंत में ले डूबता। छोटे दर्जों में भी इसने मेरे रास्ते में रोड़े अटकाए; परीक्षाओं में इसने मेरे साथ सदा अड़नीति से काम लिया; पर मैं किसी-न-किसी करवट से दर्जा बराबर चढ़ता ही गया। इंट्रेंस में पहुँचना था कि यह मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गया।
लोगों का ऐसा ख़याल था—और अब भी है—कि प्रतिभा नाम की चीज़ मेरे बाँटे कभी पड़ी ही नहीं; पर मैं इसे मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। ऐसा सोचना भी मेरे ऐसे व्यक्ति के प्रति घोर अन्याय करना है। जिसने सातवीं कक्षा में 'पेट' पर निबंध लिख पाने की आज्ञा पाकर यह दोहा लिखा हो—
'नित रितवत नित के भरत, जिमि चुअना कंडाल।
इति न होत अति अजब गति, पेट ग़ज़ब चंडाल।'
मैं स्वयं कहूँगा कि मेरी प्रतिभा सर्वतोमुखी नहीं थी। गणित की ओर से वह रूठी हुई दुलहिन-सी मुँह फेर लेती।
ख़ैर, गणित की कृपा से दो साल फ़ेल होकर तीसरे साल मैं फिर इंट्रेंस की परीक्षा देने बैठा। गणित के ज्ञान से अब भी बिल्कुल कोरा था; पर परीक्षा देने चला गया। एक आदत-सी पड़ गई थी जो परीक्षा भवन तक मुझे खींच ही ले गई।
गणित का पर्चा मेरे सामने रख दिया गया। पर्चा पड़ने के पहले मैंने त्रिकुटी में ध्यान लगाकर ईश्वर से प्रार्थना की कि 'हे प्रभो! आनंददाता ज्ञान मुझको दीजिए' कि मैं दो-एक सवाल तो ठीक कर सकूँ—और नहीं तो 'शीघ्र सारे गार्डों को दूर मुझसे कीजिए' कि मैं आसानी से नक़ल ही कर सकूँ।
इसके बाद मैं पर्चे को एक बार पढ़ गया। पढ़ते ही ऐसी इच्छा हुई कि अपना सर खुजलाऊँ, फिर मैंने सोचा कि पर्चे को दुबारा पढ़ लूँ, तब निश्चिन्त होकर सर खुजलाना शुरू करूँ। मैंने यही किया, दुबारा पढ़ गया। दुबारा पढ़ डालना महज़ एक रस्म की बात थी; अगर सौ बार भी पढ़ता तो इसी नतीजे पर पहुँचता कि इस कम्बख़्त पर्चे का एक सवाल भी मेरे लिए नहीं बनाया गया है।
मैंने क़लम को कान पर चढ़ा लिया और हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ रहा। मन में उस परमात्मा का गुणगान करने लगा जिसने गणित, गोजर और गंडमाला ऐसी चीज़ें संसार को दीं। निराशा और निस्सहायता के भाव मेरे मन-मुकुर को धूमिल करने लगे।
और परीक्षार्थियों की क़लमों ने घुड़दौड़-सी मचा रक्खी थी; पर मेरी क़लम अभी तक टस से मस भी न हुई। कान पर से उतारकर मैं उसे कॉपी के सामने ले आया; पर उसने आगे बढ़ने से क़तई इनकार कर दिया। मैं हिम्मत न हारा और क़लम सम्हाले बैठा ही रहा। मुझे इस तरह बैठा देखकर एक गार्ड ने कहा—'क्यों व्यर्थ कॉपी को क़लम से धमका रहे हो?'
मैं चुप रहा। कहाँ तो मेरे गले में फाँसी पड़ी है और कहाँ इन्हें हाँसी सूझ रही है! अपना वक़्त सब कुछ कराता है। न मैं ऐसा होता, न ये मेरे ऊपर अपनी ज़बान माँजते!
मैं कभी पर्चे की ओर देखता था, कभी कॉपी की ओर, और कभी क़लम की ओर; पर तीनों ढाक के तीन पात की तरह अलग ही नज़र आते! इन तीनों का अस्तित्व एक दूसरे का विरोधी जान पड़ता था। मैंने कॉपी से कई बार अपनी लेखनी का साक्षात कराया; पर कुछ काम न निकला।
मैंने 'देवता, पित्तर, भुंइया, भवानी' सबको मनाया; पर किसी ने स्थिति को सुलझाने की कोशिश न की। मैंने आध घंटे के अंदर क़लम में चार नई निबें लगाई कि शायद इसी तरह उसकी
अकर्मण्यता दूर हो; पर सब उपचार व्यर्थ गए। मैंने सोचा कि लाओ पर्चे को कॉपी पर नक़ल कर दूँ और घर का रास्ता लूँ; पर 'जब तक साँस तब तक आस' ने ऐसा न करने दिया। मेरी इस समय ऐसी दशा थी कि परीक्षक महोदय यदि मेरे सामने आ खड़े होते तो मैं उन्हें मामा पुकार बैठता—सुना है कि साँप को भी मामा पुकारें तो उसे दया आ जाती है।
जब मनुष्य निरुपाय हो जाता है, तब मूर्खता पर कमर कसता है। संकटापन्न अवस्था में अच्छे-अच्छे बुद्धिमानों की बुद्धि भी मोच खा जाती है तो मेरी क्या बिसात, मैं तो अपने को किसी बुद्धिमान का इज़ारबंद होने योग्य भी नहीं समझता!
मैंने जब अच्छी तरह देख लिया कि और कोई चारा नहीं है, तब यही निश्चय किया कि परीक्षक के नाम कॉपी में एक पत्र लिख दूँ और लिखकर घर का मार्ग पकड़ूँ।
ज्यों-ज्यों मैं ग़ौर करता था, मुझे एक यही कार्यक्रम समयोचित और उपयुक्त जँचता था। इस कार्यक्रम की विशेषता यह थी कि इससे हानि कुछ भी नहीं थी; क्योंकि परीक्षक यदि मेरी धृष्टता से चिढ़ जाता तो अधिक-से-अधिक मुझे फ़ेल कर देता, पर यह कौन-सी नई बात हो जाती। फ़ेल होना तो यों भी मेरा 'परीक्षा-सिद्ध'अधिकार था। इसके विपरीत यदि मेरा पत्र पढ़कर दया से द्रवीभूत होकर वह कुछ नंबर दे निकलता, तब तो परीक्षा फल निकलने पर मैं-ही-मैं दिखाई पड़ता। यह कोई असंभव बात नहीं थी; परीक्षक बड़ा आदमी होता है, और सुना है बड़े लोगों के 'दिल दरियाव' में अक्सर—अनायास—दया की मौज उठने लगती है।
मैं इस पत्र में परीक्षक के बाल-बच्चों की ख़ैर मनाता और लिखता कि मेरी नौका मझधार में है और आप ही उसके खेवैया हैं। इन बातों के अतिरिक्त मैं एक बात बड़े मार्के की लिखने वाला था। वह यह कि इस साल मेरी शादी होने वाली है, अगर फ़ेल हो जाऊँगा तो फिर न जाने कितने दिन के लिए शादी टल जाएगी; इसलिए यदि दया करके आप मुझे पास कर देंगे तो अप्रत्यक्ष रूप से आपको कन्यादान का भी फल होगा।
मैं सोच ही रहा था कि इस पत्र को लिखना शुरू करूँ कि किसी ने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रक्खा। मैंने पीछे घूमकर देखा तो एक गार्ड महाशय को खड़ा पाया। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि वे और गार्डों की तरह हृदयहीन नहीं जान पड़ते थे। उनकी दृष्टि में दया और स्पर्श में संवेदना थी।
वे चले गए पर मेरे हृदय में आशा का संचार कर गए। मुझे निश्चय हो गया कि वे मेरे लिए कुछ करेंगे। यही हुआ भी। वे थोड़ी देर में टहलते हुए मेरे पास आए और बड़ी सफ़ाई से एक सोखते का टुकड़ा मेरे पास फेंककर चल दिए।
मैंने उस सोखते के टुकड़े को बड़ी सावधानी से उलटकर देखा। उस पर पर्चे के दो सबसे कठिन प्रश्नों के उत्तर उनकी संक्षिप्त विधि के सहित पेंसिल के बहुत हल्के हाथ से लिखे हुए थे।
अब क्या था! दो सवाल तो मैंने मार लिए। बाक़ी बच गए चार, कुल छः करने थे। इनसे कैसे निपटा जाए! अब आगे की सुध लेनी थी। मेरे ऊपर अकारण कृपा करने वाले गार्ड महोदय भी कहीं खिसक गए थे।
ठीक इसी समय एक ऐसी घटना हुई जिसने मुझे सच पूछिए तो क़तरे से दरिया कर दिया। मुझसे कुछ दूर पर मेरे ही स्कूल का एक लड़का बैठा हुआ था। वह यकायक खड़ा हो गया और बड़े उत्तेजित स्वर में अपने पास वाले गार्ड से बोला—'मास्टर साहब! मास्टर साहब! यह चौथा सवाल ग़लत छपा है।' गार्ड ने उसे डाँटकर बैठा दिया। और सभी लोग उसकी बात पर अविश्वास की हँसी हँस पड़े।
पर मैंने इस मौक़े पर बड़ी समझदारी से काम लिया। मैं उस लड़के को बख़ूबी जानता था। गणित के ग्रंथों की सैकड़ों उदाहरण मालाएँ उत्तरों सहित उसके कंठस्थ थीं। ऐसा लड़का बिना कारण किसी प्रश्न को ग़लत नहीं बता सकता। मुझे विश्वास हो गया कि जब वह कहता है, तब प्रश्न अवश्य ग़लत होगा। बस, मैंने पन्ना उलट लिया और मार्जिन में प्रश्न नंबर 4 दर्ज करके उसके सामने लिख दिया—'इस प्रश्न को कई बार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह ग़लत छपा है; इसलिए इसके उत्तर निकालने की आवश्यकता नहीं है।'
बाद को साबित हुआ कि उस लड़के ने ठीक कहा था। प्रश्न वास्तव में ग़लत छप गया था। सारी यूनिवर्सिटी में दस-ही-पाँच लड़के इस भेद को जान पाए थे और उन लड़कों से परीक्षक बहुत प्रसन्न हुआ था। कहना न होगा कि उन्हीं दस-पाँच में मैं भी एक था।
कहाँ एक सवाल भी पहाड़ हो रहा था, कहाँ चुटकी बजाते मैंने तीन कर लिए। छ: में तीन पास होने के लिए काफ़ी थे; इसलिए चिंता जाती रही और उत्साह बढ़ गया। मैंने सोचा कि जब क़िस्मत ने चर्राना शुरू किया है, तब उसे चर्राने का काफ़ी मौक़ा देना चाहिए। संभव है किसी सूरत से, किसी ज्ञानेन्द्रिय द्वारा, किसी ओर से, किसी रूप में, किसी प्रश्न पर, किसी समय, कुछ भी प्रकाश पड़ जाए, कोई इशारा मिल जाए तो कुछ नम्बर और बटोर लूँ।
मैं शेष प्रश्नों को बार-बार पढ़ने लगा। सिर्फ़ पढ़ना-भर हाथ लगता था; पर तब भी मैं बार-बार पढ़ने से बाज़ न आया। एक प्रश्न दशमलव का था, जिसे मैंने दूर ही से प्रणाम करके छोड़ दिया। मेरा विश्वास है कि भगवान रामचंद्र ने बजाए दशानन के दशमलव का संहार किया होता तो अगणित स्कूली छात्रों के धन्यवाद-भाजन बने होते। दूसरा प्रश्न ब्याज का था जिसे मैं तुरंत समझ गया कि इस जन्म में न कर पाऊँगा। तीसरा सवाल इस प्रकार था—
'एक घड़ी तीन बजे चलाई जाती है और ठीक सात बजे वह बंद हो जाती है। बताओ कि इतनी देर में घड़ी की दोनों सूइयाँ एक दूसरे को किस-किस समय में पार करेंगी।'
ऐसे सवालों को करने के लिए अंकगणित में एक ख़ास तरीक़ा है, जिसे एक बार सीखने की कोशिश करने पर मुझे सौ बार तौबा करना पड़ा था। और किसी वक़्त मैं इस प्रश्न की ओर फूटी आँख भी न देखता; पर इस वक़्त स्वयं परमात्मा मेरी पीठ पर था और मुझे तदबीरों की फुरहरी सुँघा रहा था। जो प्रश्न मेरे लिए भरतपुर के क़िले से भी बढ़कर था, उसे मैंने आज यों सर किया।
मेरी जेब में घड़ी थी। उसे मैंने निकाला। उसमें बारह बजे थे। मैंने उसमें तीन बजा दिए और फिर धीरे-धीरे सूई घुमाने लगा और देखने लगा कि दोनों सूइयाँ सात बजने तक कहाँ-कहाँ पर मिलती हैं।
यों मैंने छः में चार सवाल कर लिए। मूँछें तो उस समय थी नहीं; पर जहाँ होनी चाहिए वहाँ का चमड़ा ऐंठता हुआ मैं उस दिन मकान आया।
दो महीने में परीक्षा का फल प्रकाशित हुआ। दुनिया ने देखा कि मैं पास हूँ। लोग आश्चर्य में डूबे, उतराए और उभचुभ हुए। किसी ने अंधे के हाथ बटेर की कहानी याद की। किसी ने पत्थर पर दूब जमना स्वीकार किया। कई नास्तिकों ने ईश्वर को मान लिया। मैंने अपनी पीठ ठोंकी और कहा जीते रहो। जैसा मेरा राजपाट लौटा, वैसा ईश्वर करे सबका लौटे।
- पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 87)
- संपादक : प्रेमचंद
- रचनाकार : अन्नपूर्णानंद
- प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
- संस्करण : 1932
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