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सांस्कृतिक चेतना

sanskritik chetna

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

सांस्कृतिक चेतना

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    आज जब साहित्य, संस्कृति तथा कला की अंतःशुभ्र सूक्ष्म पुकारे बाह्य जीवन के आडंबर तथा राजनीतिक जीवन के कोलाहल में प्रायः डूब-सी रही है, आप लोगों का इस सांस्कृतिक समारोह में सम्मिलित होना विशेष महत्त्व रखता है। इससे हमें जो आशा, उत्साह, जो स्फूर्ति और प्रेरणा मिल रही है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। आपका अमूल्य सहयोग मनुष्य की उस अंतर्जीवन की आकांक्षा का द्योतक है, जिसके अभाव में आज के युग की बाहरी सफलता अपने ही खोखलेपन में अधूरी तथा असंपूर्ण रह गई है।

    किसी भी देश का साहित्य उसकी अंतश्चेतना के सूक्ष्म संगठन का द्योतक है : वह अंत संगठन जीवन-मान्यताओं, नैतिक शील, सौंदर्य-बोध, रुचि, संस्कार आदि के आदर्शों पर आधारित होता है। आज के सक्रांतिकाल में, जबकि एक विश्वव्यापी परिवर्तन तथा केंद्रीय विकास की भावना मानव-चेतना को चारों ओर से आक्रांत कर उसमें गंभीर उथल-पुथल मचा रही है, किसी भी साहित्यिक अथवा सांस्कृतिक संस्था का जीवन कितना अधिक कटकाकीर्ण तथा कष्टसाध्य हो सकता है, इसका अनुमान आप-जैसे सहृदय मनीषी एवं विद्वान सहज ही लगा सकते हैं। इन आधिभौतिक, आधिदैविक कठिनाइयों को सामने रखते हुए मेरा यह कहना अनुचित होगा कि यह सांस्कृतिक आयोजन आज के युग की उन विराट् स्वप्न-संभावनाओं के स्वल्प समारंभों में से एक है, जो आज पिछली संध्याओं के पलनो में झूलती हुई अनेक दिशाओं में अनेक प्रभातों की नवीन सुनहली परछाइयों में जन्म ग्रहण करने का कृच्छ प्रयास रही है। ऐसे समय हम अपने गुरुजनों का आशीर्वाद तथा पथ-प्रदर्शन चाहते हैं, अपने समवयस्कों तथा सहयोगियों से स्नेह और सद्भाव चाहते हैं, जिससे हम अपने महान् युग के साथ पैग भरते हुए आने वाले क्षितिजों के प्रकाश को छू सके। आप जैसे विद्वज्जनों के साथ हमें विचार-विनिमय तथा साहित्यिक आदान-प्रदान करने का पूर्व संयोग मिल सके, यही हमारे इस अनुष्ठान का उद्देश्य, इस साहित्यिक पर्व का अभिप्राय है, जिसमें हम अपने समवेत हृदय स्पंदन में पिछले युगों की चेतना को थपकी देते हुए और अपनी सांस्कृतिक शिराओं में नवीन युग की गत्यात्मकता को प्रवाहित करते हुए, अपने सम्मिलित व्यक्तित्व में पिछले आदर्शों का वैभव तथा नवीन जागरण के आलोक को मूर्तिमान करने का प्रयत्न करना चाहते हैं।

    आज के साहित्यिक अथवा कलाकार की बाधाएँ व्यक्तिगत से भी अधिक उसके युग-पथ की बाधाएँ हैं। आज मानव जीवन बहिरंतर की अव्यवस्था तथा विशृंखलता से पीड़ित है। हमारा युग केवल राजनीतिक आर्थिक क्रांति का ही युग नहीं, वह मानसिक तथा आध्यात्मिक विप्लव का भी युग है। जीवन-मूल्यों तथा सांस्कृतिक मान्यताओं के प्रति ऐसा घोर अविश्वास तथा उपेक्षा का भाव पहले शायद ही किसी युग में देखा गया हो। वैसे सभ्यता के इतिहास में समय-समय पर अनेक प्रकार के राजनीतिक तथा आध्यात्मिक परिवर्तन आए हैं, किंतु वे एक-दूसरे से इस प्रकार संबद्ध होकर शायद ही कभी आए हो। आज के युग की राजनीतिक तथा सांस्कृतिक चेतनाएँ धूप-छाँह की तरह जैसे एक दूसरे से उलझ गई है। मानव चेतना की केंद्रीय धारणाओं तथा मौलिक विश्वासों में शायद ही कभी ऐसी उथल-पुथल मची हो। आज विश्व-सत्ता की समस्त भीतरी शक्तियाँ तथा बाहरी उपादान परस्पर विरोधी शिविरों में विभक्त होकर लोक-जीवन के क्षेत्र में घोर अशांति तथा मानवीय मान्यताओं के क्षेत्र में विकट अराजकता फैला रहे हैं। आज अध्यात्म के विरुद्ध भौतिकवाद, ऊर्ध्वचेतन-अतिचेतन के विरुद्ध उपचेतन-अवचेतन, दर्शन के विरुद्ध विज्ञान, व्यक्तिवाद के विरुद्ध समूहवाद एवं जनतंत्र के विरुद्ध पूंजीवाद खड़े होकर मानव जीवन में एक अधिविश्व-क्रांति तथा अंतर्गत असंगति का आभास दे रहे हैं। मनुष्य का ध्यान स्वतः ही एक व्यापक अंतर्मुख विकास तथा बहिर्मुख-समन्वय की ओर आकृष्ट हो रहा है। आज मनुष्य की चेतना नए स्वर्गों, नए पातालों तथा नई ऊँचाइयों, नई गहराइयों को जन्म दे रही है। पिछले स्वर्ग-नरक, पिछली पाप-पुण्य तथा सद्-असद् की धारणाएँ एक दूसरे से टकराकर विकीर्ण हो रही है। आज मनुष्य की अहता का विधान अपने ज्योति-तमस् के ताने-बाने सुलझाकर विकसित रूप धारण कर रहा है। मानव-कल्पना नवीन चेतना के सौंदर्य-बोध को ग्रहण करने की चेष्टा कर रही है। ऐसे महान् युग में जब एक नवीन सांस्कृतिक संचरण-वृत्त का उदय हो रहा है, जब आध्यात्मिकता तथा भौतिकता मानव-चेतना में नया सामंजस्य खोज रही है, जब आदि ज्योति एवं आदिम अंधकार, जो अभी जीवन-मान्यताओं में नहीं बँध सके हैं, मनुष्य के अंतर्जगत् में आँख-मिचौनी खेलकर नवीन मूल्यों को अंकित कर रहे हैं, जब चेतना की नवीन चोटियों की ऊँचाइयाँ जीवन की नवीनतम अतलखाइयों में संतुलन भरने की चेष्टा कर रही है—ऐसे युग में सामान्य बुद्धिजीवी तथा सृजनप्राण साहित्यिक के लिए बहिरंतर की इन जटिल गुत्थियों को सुलझाकर नवीन भावभूमि में पदार्पण करना अत्यंत दुर्बोध तथा दुसाध्य प्रतीत हो रहा। इसीलिए आज यदि कोई स्वप्न सृष्टा चेतना के ऊर्ध्वमुख स्पहले आकाशों के नीरव प्रसारों में खो गया है, तो कोई जीवन के बाह्यतम प्रभावों के सौंदर्य में उलझकर कला की सतरंगी उड़ानों में फँस गया है।

    किंतु, हम इस प्रकार के वाद-विवादों, अतिवादों तथा कट्टरपंथी संकीर्णताओं के दुष्परिणामों से मुक्त रहकर सहजबोध तथा सहज भावना का पथ पकड़ना चाहते हैं, जो व्यापक समन्वय का पथ है। ऐसा समन्वय जो कोरा बौद्धिक ही हो, किंतु जिसमें जीवन, मन, चेतना के सभी स्तरों की प्रेरणाएँ सजीव सामंजस्य ग्रहण कर सकें, जिसमें बहरंतर के विरोध एक सक्रिय मानवीय संतुलन में बँध सके। हम साहित्यकारों की सृजन-चेतना के लिए उपयुक्त परिवेश का निर्माण करना चाहते हैं, जिससे उनके हृदय का स्वप्न-संचरण वास्तविकता की भूमि पर चलना सीखकर स्वयं भी बल प्राप्त कर सके और वास्तविकता के निर्मम कुरूप वक्ष पर अपने पद-चिह्नों का सौंदर्य भी अंकित कर सके। हम परिस्थितियों की चेतना को अधिकाधिक आत्मसात् कर उसके मुख पर मानवीय संवेदना की छाप लगाने तथा उसे मानवीय चरित्र में ढालने में विश्वास करते हैं।

    आज के सक्रांति-युग में हम मानवता के विगत गंभीर अनुभवों, वर्तमान संघर्ष के तथ्यों तथा भविष्य की आशाप्रद संभावनाओं को साथ लेकर, युवकोचित अदम्य उत्साह तथा शक्ति के साथ सतत् जागरूक रहकर, नव निर्माण के पथ पर, सब प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जूझते हुए असंदिग्ध गति से बराबर आगे बढ़ना चाहते हैं, जिसके लिए हमारे गुरुजनों के आशीर्वाद की छत्रच्छाया, तथा सहयोगियों की सद्भावना का संबल अत्यंत आवश्यक है, जिससे हम सबके साथ सत्य-शिव-सुंदरमय साहित्य की साधना-भूमि पर, ज्योति-प्रीति-आनंद की मंगलवृद्धि करते, सुंदर से सुंदरतर एवं शिव से शिवतर की ओर अग्रसर होते हुए, निरंतर अधिक से अधिक प्रकाश, व्यापक से व्यापक कल्याण तथा गहन से गहन सत्य का संग्रह करते रहें।

    हिंदी हमारे लिए नवीन संभावनाओं की चेतना है, जिसे वाणी देने के लिए हमें सहस्रों स्वर, लाखों लेखनी तथा करोड़ों कंठ चाहिए। उसके अभ्युदय के रूप में हम अपने साथ समस्त मनुष्य जाति का अभ्युदय पहचान सकेंगे। उसके निर्माण में संलग्न होकर हम समस्त लोक-चेतना का निर्माण कर सकेंगे। उसको सँवार-शृंगार कर हम नवीन मानवता के सौंदर्य को निखार सकेंगे। जिस विराट् युग में हिंदी की चेतना जन्म ले रही है, उसका किंचित् आभास पाकर यह कहना मुझे अतिशयोक्ति नहीं लगता कि हिंदी को संपूर्ण अभिव्यक्ति देना एक नवीन मनुष्यत्व को अभिव्यक्ति देना है। एक महान् अंतर्मूक संगीत के असंख्य स्वरों की तरह आज हम समस्त साहित्यकारों, कलाकारों तथा साहित्यिक संस्थाओं का हृदय से अभिनंदन करते हैं और आशा करते है कि हमारे प्राणों, भावनाओं तथा विचारों का यह मुक्त समवेत आदान-प्रदान युग मानवता के समागम को तथा मानव-हृदयों के संगम को अधिकाधिक सार्थकता तथा चरितार्थता प्रदान कर सकेगा।

    धरती की चेतना आज नवीन प्रकाश चाहती है, वह प्रकाश मानव-आत्मा की एकता का प्रकाश है। धरती की चेतना आज नवीन सौंदर्य चाहती है, वह सौंदर्य मानवचेतना के सर्वांगीण जागरण का सौंदर्य है। धरती की चेतना आज नवीन पवित्रता चाहती सांस्कृतिक चेतना है, वह पवित्रता मनुष्य के अंतर्मुख-तप तथा बहिर्मुख साधना की पवित्रता है। धरती की चेतना आज नवीन वाणी चाहती है और वह वाणी मानव-उर में विकसित हो रही विश्वप्रेम की वाणी है। आज की साहित्यिक संस्था मानवता के अंतरतम सम्मिलन का सृजन-तीर्थ है। इस सृजन-तीर्थ पर एक बार मैं फिर आप मानव-देवों का हृदय से स्वागत करता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 204)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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