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सांस्कृतिक आंदोलन

sanskritik andolan

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

सांस्कृतिक आंदोलन

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    आज का विषय है सांस्कृतिक आंदोलन, क्यों, कैसा?—इसमें हमारा अभिप्राय है, क्या हमें सास्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है? इस युग में जिस प्रकार राजनीतिक प्रार्थिक आंदोलन लोक-जीवन को की पूर्ति कर रहे हैं क्या हमें उसी तरह एक सांस्कृतिक आंदोलन भी चाहिए, जो हमारे युग की समस्या का समाधान करने में सहायक हो? और अगर चाहिए तो उसके आधार क्या हो, उसे किन मान्यताओं को अपनाकर चलना चाहिए?

    शायद “आंदोलन” शब्द हमारे अभिप्राय को प्रकट करने के लिए अधिक उपयुक्त नहीं। वह आज के संघर्षपूर्ण वातावरण में अधिक आंदोलित लगता है। हमें कहना चाहिए शायद ‘संचरण’—सांस्कृतिक संचरण, जिससे सृजन और निर्माण की ध्वनि अधिक स्पष्ट होकर निकलती है। बाहरी दृष्टि से देखने में उपर्युक्त विषय—सांस्कृतिक आंदोलन, क्यों, कैसा?—ऐसा जान पड़ता है कि हम लोग यहाँ किसी प्रकार का बौद्धिक व्यायाम करने के लिए अथवा तार्किक दाँव-पेंच दिखाने के लिए एकत्र हुए हैं। पर ऐसा नहीं है। मेरा विनम्र विचार है कि हमें संस्कृति जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तु को—जिसका संबंध मनुष्य के अंतरतम विश्वासों, श्रद्धाओं, आदर्शों तथा सत्य, शिव और सुंदरः के सिद्धांतों से है—केवल मन या बुद्धि के धरातल पर ही नहीं परखना चाहिए। उसका संबंध मनुष्य की अंतश्चेतना, उसकी गंभीरतम अनुभूतियों, उसके अंतर्मन के सहजबोध तथा रहस्य-प्रेरणा से भी है। हम मनुष्य के मन और बुद्धि की सीमाओं से अच्छी तरह परिचित है। संस्कृति क्या है, इस पर एक महान् ग्रंथ ही लिखा जा सकता है और फिर भी उसके साथ यथेष्ट न्याय नहीं हो सकता। अभी मैं अंतश्चेतना, अंतविश्वास और सहजबोध के बारे में जो कह चुका हूँ, उनके अस्तित्व के बारे में भी कोई बौद्धिक प्रमाण नहीं दिया जा सकता। ये सदैव अनुभूति ही के विषय रहेंगे।

    संस्कृति के आधारों तथा मान्यताओं की बात भी मुझे कुछ ऐसी लगती है। बुद्धि का प्रकाश तो किसी हद तक सभी सूक्ष्म विषयों पर डाला जा सकता है, पर हमें बुद्धि के निर्णय को आख़िरी हद या अंतिम सीमा नहीं मान लेना चाहिए। उससे भी प्रबल और पूर्ण साधन मनुष्य के भीतर ज्ञान प्राप्ति अथवा सत्य-बोध के लिए बतलाए जाते हैं।

    मेरे विचार में किसी भी सांस्कृतिक आंदोलन या सांस्कृतिक संस्था का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह मनुष्य की सृजनशील प्रवृत्ति को उसकी बुद्धि के ऊपर स्थान दे और उसे मानव-हृदय में जाग्रत कर उसके विकास के लिए उपयुक्त साधन और वातावरण प्रस्तुत करे। जहाँ मनुष्य स्वयं स्रष्टा बन जाता है वहाँ उसका अंतरतम चेतन व्यक्तित्व सक्रिय हो जाता है—उसे सौंदर्य, आनंद और शांति का अनुभव होने लगता है, जीवन का अंधकार और मन का कुहासा छिन्न-भिन्न होने लगता। वह जीवन और उसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर उसका अपने अनुकूल तथा समाज और युग के अनुरूप निर्माण एवं सृजन करने लगता है, वह प्रकृति और स्वभाव का अंग ही रहकर उनका द्रष्टा और स्रष्टा भी बन जाता है।

    मनुष्य के श्रद्धा, विश्वास तथा भीतरी आस्थाओं के समर्थन में मैं इन थोड़े से शब्दों में संकेत-भर कर रहा हूँ। वैसे हमारा युग विज्ञान का युग कहलाता है—जिसका अर्थ है भूत-विज्ञान का युग। विज्ञान शब्द मनोविज्ञान, अंतर्विज्ञान, आत्मविज्ञान आदि जैसे सूक्ष्म दर्शन विषयों के लिए भी प्रयुक्त होता है, लेकिन इस युग में हमने विज्ञान द्वारा चेतना के निम्नतम धरातल पर ही—जिसे पदार्थ या भूत कहते हैं अधिक प्रकाश डाला है और भाप, बिजली जैसी अनेक भौतिक-रासायनिक शक्तियों पर अपना आधिपत्य जमा लिया है, जिसका परिणाम यह हुआ कि मानव जीवन की, भौतिक एवं आधुनिक अर्थ में, सामाजिक परिस्थितियाँ अधिक सक्रिय और सशक्त हो गई है। जीवन की इन सबल बाह्य गतियों का नए ढंग से संगठन करने के लिए आज संसार में नवीन रूप से राजनीतिक-आर्थिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव, लोकशक्तियों का संघर्ष, तथा महायुद्धों का हाहाकार बढ़ रहा है। ये राजनीतिक-आर्थिक आंदोलन हमारी पार्थिव सत्ता के विप्लव और विस्फोट है। वस्तु-सत्ता का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए इनकी अपने स्थान पर उपयोगिता भी सिद्ध ही है। फलतः आज हमारा पदार्थ-जीवन, भौगोलिक दृष्टि से, मुख्यतः तीन विभागों में विभक्त हो गया है। एक ओर पूंजीवादी राष्ट्र है, दूसरी ओर साम्यवादी रूस और चीन, तथा तीसरी ओर हिंदुस्तान—जैसे अन्य छोटे-बड़े देश, जिनका निर्माणकाल अभी प्रारंभ ही हुआ है या नहीं हुआ है और जो उपर्युक्त दोनों सशक्त संगठनों के भले-बुरे परिणामों से प्रभावित तथा संत्रस्त है। हमें तीसरे विश्वयुद्ध की अस्पष्ट गर्जना अभी से सुनाई देने लगी है, जो संभवतः अणु युद्ध होगा।

    ऐसी अवस्था में हम अनुभव करते हैं कि मानव जाति को इस महाविनाश से बचाने के लिए हमें आज मनुष्य-चेतना के ऊर्ध्व स्तरों को भी जाग्रत तथा सक्रिय बनाना है, जिससे आज की विश्व-परिस्थितियों में संतुलन पैदा किया जा सके और लोक-जीवन के इस बहिर्गत प्रवाह के लिए एक अंतर्मुख स्रोत भी खोलना है, जिससे जीवन की मान्यताओं के प्रति उसका दृष्टिकोण और व्यापक बन सके। आधुनिक भौतिकवाद मुझे, मध्ययुगीन भारतीय दार्शनिकों के आत्मवाद की तरह, अपने युग के लिए एकांगी तथा अधूरा लगता है। मानव जीवन के सत्य को अखंडनीय ही मानना पड़ेगा, उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते। मैं सोचता हूँ मनुष्य की चेतना, सत्ता, मन और पदार्थ के स्तरों में नवीन विश्व-परिस्थितियों के अनुरूप समन्वय एव संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से जो भी प्रयत्न संभव हो, उन्हें हमें नवीन सांस्कृतिक संचरण के रूप में अग्रसर करना होगा। क्योंकि संस्कृति का संचरण राजनीति की तरह समतल संचरण है, धर्म और अध्यात्म की तरह ऊर्ध्व संचरण। वह इन दोनों का मध्यवर्ती पथ है और मानव जीवन की बाहरी और भीतरी दोनों गतियों, प्रवृत्तियों एवं क्रियाओं का उसमें समावेश रहता। मनुष्य को सृजनात्मिका वृत्ति को उसमें अधिक संपूर्ण प्रसार मिलता है।

    ऐसे आंदोलन द्वारा हम पिछले धर्मों, आदर्शों और संस्कृतियों में अस्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित मानव चेतना के अंतर-सौंदर्य को अधिक परिपूर्ण रूप से प्रस्फुटित कर सकेंगे, और उसे जाति, श्रेणी, संप्रदायों से मुक्त एक नवीन मानवता में ढाल सकेंगे। जहाँ तक मान्यताओं का प्रश्न है मेरी समझ में मानवीय एकता ही हमारे जीवन मानो का आधार बननी चाहिए। जो आदर्श अथवा विचारधाराएँ मनुष्य को एकता के विरोधी हो या उसके पक्ष में बाधक हो उनका हमें परित्याग करना चाहिए, और जो उसकी सिद्धि में सहायक हो उनका पोषण करना चाहिए। मानव एकता के सत्य को हम मनुष्य के भीतर से ही प्रतिष्ठित कर सकते है, क्योंकि एकता का सिद्धांत अंतर्जीवन या अंतचेतना का सत्य है। मनुष्य के स्वभाव, मन और बहिर्जीवन में सदैव ही विभिन्नता का वैचित्र्य रहेगा। इस प्रकार हम भिन्न जातियों और देशों की विशेषताओं की रक्षा करते भी मनुष्य को एक आंतरिक एकता के स्वर्णपान में बाँध सकेंगे एवं आज के विरोधों से रहित एक अंत संगठित मनुष्यता का निर्माण कर सकेंगे जिसके चेतना, मन और प्राणों के स्तरों में अधिक संपूर्ण संतुलन होगा, जो अंतर्जीवन की अभीप्साओं और बहिर्जीवन के उपभोग में एकांत समन्वय स्थापित कर सकेगी और जिसका दृष्टिकोण जीवन की मान्यताओं के प्रति अधिक ऊर्ध्व, व्यापक तथा गंभीर हो जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 201)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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