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रचनात्मक और सामाजिक दायित्व

rachnatmak aur samajik dayitv

त्रिलोचन

अन्य

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रचनात्मक और सामाजिक दायित्व

त्रिलोचन

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    रचनाकार अपने समाज का एक सदस्य होता है। यदि समाज के दूसरे सदस्यों के समान उसके भी मानदंड हुए तो औरों की दृष्टि में उसे उत्तरदायित्वपूर्ण माना जाएगा। लेकिन महत्त्वपूर्ण रचनाओं का निर्माण असंतोष के कारण होता है। और यह असंतोष सामाजिक मानदंड और जीवन की विषमताओं के कारण पैदा होता है। ऐसे रचनाकार भी होते हैं जिनका असंतोष से कोई मतलब नहीं होता। समाज के सर्वमान्य सिद्धांत का वे संतुष्ट चित्त से जीवन भर पालन करते रहते हैं। इन्हें सामाजिक उत्तरदायित्व, स्थापित सामाजिक आदर्शों का ही पर्याय जान पड़ता है। ऐसे लेखक भाषा, शैली और अभिव्यक्ति में समार्थ्य होने पर महान् हो सकते हैं। परंतु समाज के नए प्रश्नों की ध्वनि उनके हृदय में कोई अर्थ-तरंग नहीं उठाती।

    सामाजिक उत्तरदायित्व आदर्श-भेद से अर्थ-भेद का व्यंजक पाया जाता है। वर्तमान समाज अनेक आदर्शों का रंगमंच बन गया है। इन आदर्शों के अनुयायी अपने-अपने ढंग से आदर्शों और कार्य पद्धतियों का निरूपण करते हैं जिनके कारण एका नहीं मिलता। विभिन्न आदर्शों के अनुयायी अपने सूत्रों का विशद और व्यापक अर्थों में उपयोग करते हैं जिससे वे वर्तमान स्थिति के अनुरूप दिखाई दें। रचनाकार किसी आदर्श का अनुयायी हो सकता है और उसकी जीवन दृष्टि पर उसके मान्य सूत्रों का अनुशासन भी हो सकता है। ऐसा रचनाकार अपने वर्ग के चिंतकों और पाठकों द्वारा प्रोत्साहन भी पाते जा सकता है। रचनाकार को पाठकों की आवश्यकता होती है, जिसके निर्माण में उसके समर्थक बराबर योग देते हैं। यह प्रलोभन उपेक्षणीय नहीं है।

    कठिनाई उन रचनाकारों के साथ आती है जो समाज की जीवन में क्रिया पर दृष्टि रखते हैं, समाज में उठने वाली हर आवाज़ को सुनते हैं और अपनी रचनाओं में संतुलन सहित शब्द-बद्ध करते हैं। ये लोग नर-नारी संबंध, जातिगत स्थिति, आर्थिक द्वंद्व आदि का अनुभव के आधार पर निरूपण करते हैं। निरूपण की यह पद्धति, बहुधा पुराने आदर्शों से भिन्न हो जाती है। इस कारण प्राचीनता की दुहाई देने वाले संख्या में अधिक नहीं हैं, पर प्राचीनता के उपासक अपनी अत्यधिकता से उनका बल बढ़ाते हैं। रचनाकार इन अनन्त विरोधों के भीतर रहते हुए तभी उभर सकता है जब उसमें सामाजिक सत्य के प्रति आग्रह और अपनी रचना के प्रति आत्मविश्वास हो। क्योंकि रचना के विरोध की भूमि, नीति, धर्म, समाज, राजनीति, कर्तव्य, औचित्य और परम्परा, कहीं भी हो सकती है।

    हिन्दी का रचनाकार इतने इतने बंधनों में जकड़ा हुआ है कि हम निर्बंध रचना की उम्मीद कर भी नहीं सकते। बंधनों के बाद रचना की बिक्री का क्षेत्र भी विचारणीय है। आज शक्तिशाली ग्राहक सरकार है। सरकारी आलोचना का मतलब सरकारी ग्राहकता की समाप्ति है। यही नहीं, इसके बाद भी एक चीज़ समाप्त होती है जिसे सरकारी पुरस्कार कहते हैं। पुरस्कृत किताबों की सूची उठाइए, इसके बाद शिक्षा प्रसार, पुस्तकालयों की क्रय सूची देखिए तो परिणाम मालूम हो जाएगा। साथ ही उन पुस्तकों की सूची भी पाने की चेष्टा कीजिए जो पुरस्कार के लिए भेजी गई थीं। पता चलेगा कि हिन्दी पुस्तकों की रचना चाहे जिस कारण से होती हो पुरस्कार लाभ की प्रेरणा किसी अंश में न्यून नहीं। क्या अब भी इस प्रश्न की सार्थकता शेष रह जाती है कि 'रचनाकार की हैसियत से क्या आपको सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रश्न बंधन लगता है? यदि हाँ तो क्यों?'

    आधुनिकता का अर्थ बहुत कुछ अनिश्चित चल रहा है। इससे कुछ लोग नवीनता या नयेपन का पर्याय भी मान लेते हैं। वस्तुतः आधुनिकता उस नए चरित्र को उभारती है जो समवर्ती जीवन में मिलता है। नवीनता अनेक आधुनिक लेखकों में मिलने वाली उस वैयक्तिक विशेषता को कहते हैं जो अन्य लेखकों में मिले। हिन्दी लेखक अपने परिवेश से क्या और कितना ग्रहण करता है इस पर विचार करने का यहाँ अवकाश नहीं। पर यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अध्ययन के क्रम में वह कहाँ से कितना ले रहा है। यह आधुनिकता विदेश के बाज़ारों से आयातित है। इसी कारण हिन्दी पाठकों का हृदय उसको पूरी-पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाता। कभी-कभी लेखक विशेष की विशिष्ट शैली और जीवन संदर्भ भी दुर्बोधता पैदा कर देते हैं। लेकिन हिन्दी में यह स्थिति सामान्य नहीं है। वे लेखक जो समाज में उठने वाले प्रश्नों को सुनते हैं और जीवन के वेग बल के साथ रचना में रखते हैं, स्थापित आदर्शों को मानने वालों को भले ही संतुष्ट कर सकें, रचना के विकास में अवश्य योगदान करते हैं।

    स्पष्ट है कि विभिन्न आंदोलनों के चलानेवालों का उत्तरदायित्व और होगा और रचनाकार का और। जो रचनाकार की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता है उसका कार्य नगण्य नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल्पना
    • रचनाकार : त्रिलोचन
    • संस्करण : 1969

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