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रचना-आलोचना

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त्रिलोचन

अन्य

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और अधिकत्रिलोचन

    रचना और आलोचना में तत्त्वतः अंतर नहीं है। दोनों की समृद्धि जीवन के व्यापक अनुभव से होती है। यह अनुभव समकालिक भूमि पर विशिष्ट होता है। विशिष्टता का निद्धरण दूसरे समवर्ती अनुभवों की राशि पर स्थापित होता है। समवर्ती अनुभव अपनी अनन्तता और व्यापकता में बाह्यतः लक्षणीय नहीं प्रतीत होते। लक्षक मन ही लक्षणीयता को परखकर उभारता है। परख भी समकालिकता और समबोध से अनुशासित होती है। समबोध ज्ञान या अनुभव की उस अवस्था में पुष्ट होता है जो प्रत्येक मन में कल्पना, सूझ या निश्चय के रूप में उदित होता है। कल्पना, सूझ या निश्चय अपने नाम और गुण का विरोधी रूप भी दिखा सकता है अर्थात् कल्पना की जगह अकल्पना, सूझ की जगह असूझ और निश्चय की जगह अनिश्चय भी हो सकता है। यह अनुभव-सिद्ध बात है। यह स्थिति जैसे रचना में वैसे ही आलोचना में मिलती है।

    ज्ञान, इच्छा और क्रिया जैसे और लोगों में है वैसे ही रचनाकार और आलोचक में भी। यह जीवन की समभूमि है जो सबके लिए समकाल में आधार का काम करती है। ज्ञान, इच्छा और क्रिया जिस प्रकार अपने नाम और रूप में पृथक् दिखते हैं उस प्रकार इनकी पृथक् स्थिति नहीं है। किसी एक के अंदर शेष दो का अंतर्भाव सदा रहता है। पार्थक्य तो विश्लेषण बुद्धि से किया जाता है। विश्लेषण बुद्धि इनके संघठन को समझाने का प्रयास करती है। इसी प्रयास का फल है यह नामरूपात्मक भेद।

    जब कोई अपनी समझ दूसरे को जताने की इच्छा करता है तब आकार-इंगित चेष्टा के बाद जो माध्यम उसका समर्थ सहायक बनता है, वह है भाषा। भाषा समाज में समकालिकता की सीमाओं के भीतर समबोध द्वारा प्राप्त होती है। यह समबोध जगत् से संबंध जोड़ता है। बोध सम तभी होता है जब उसका सह-अनुभव अधिक-से-अधिक लोगों में पाया जाए।

    रचनाकार और आलोचक समबोध को क्रिया के आश्रय से ग्रहण करते हैं। समवर्ती क्रिया अपनी अनेकता और अनन्तता में रचना और विचार की अनेक स्थितियाँ देती चलती है और अभिव्यक्ति के प्रयासी अपने-अपने ध्यान से उसका आकलन और प्रतिपादन करते हैं। जिसका ध्यान जैसा होगा उसकी कृति वैसा ही रूप लेगी। ध्यान के मूल में यदि विषम भाव है तो वैषम्य की अभिव्यक्ति होगी। वैषम्य यदि व्यक्तिगत अधिक हुआ तो समष्टि द्वारा विस्मरणीय हो जाएगा। कोई भी व्यंजना बहुजनग्राह्य तभी होती है जब उसमें बहुजन के अनुभव को उचित स्थान दिया जाए। उचित स्थान का भी विवेक, समवर्ती समबोध से ही उत्पन्न होता है।

    प्रश्न उठता है कि समबोध क्या इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिए अभिव्यक्तिनिष्ठ को बाध्य किया जाए? बाध्य करने की तो बात ही नहीं आती। समबोध तो वह आधार है जो स्थिति और स्थान देता है। स्थिति और स्थान गतिशील जीवन के लिए अपेक्षित है। यह अपेक्षा इतनी अविच्छिन्न है कि इसको निवार्य कह सकते हैं अनिवार्य। इसकी स्थिति व्यक्तिबोध इसी समबोध के सहारे खड़ा होता है। आकाश का दिग्वलय पार करनेवाला पक्षी जैसे आकाश का स्थानापन्न नहीं हो सकता वैसे ही समबोध के क्षेत्र में विचरनेवाला, समबोध का एक मात्र प्रतिनिधि नहीं हो सकता। परिणामतः व्यक्ति के राग-द्वेष, हर्ष-शोक और भय-विस्मय आदि भाव तभी ग्राह्य होते हैं जब वह अन्य व्यक्तियों के उन्हीं भावों का पोषण या विक्षोभन करते हैं। व्यक्ति का अहम् भी इसी प्रकार के अन्य व्यक्तियों द्वारा ग्राह्य या अग्राह्य हो जाया करता है क्योंकि अन्य भावों के समान ही, अहम् भी सर्वजनग्राही भाव है। भाव और उसकी व्यंजनापद्धति, दोनों में फैलने की शक्ति है। घोर व्यक्तिवादी भी अपनी काट के व्यक्तियों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तिवादियों का भी एक समूह खड़ा हो जाता है। परिणति में यह अर्थतः व्यक्तिवाद का अंत है। फिर भी व्यक्तिवाद के पोषकों का उत्साह बना रहता है। उनकी व्यंजना नहीं रुकती। व्यक्तिवाद की यह व्यंजना प्रचेष्टा समबोध के ही सहारे समाज के अनेक व्यक्तियों को पकड़ लेती है।

    जो कहते हैं कि कविता को कविता होना चाहिए, वे इस विषय के नवीन बिंदु से या तो अपरिचित हैं या उसे फाँद जाना चाहते हैं। इस प्रकार की उक्ति कहनेवाले, अपने हृदय में निहित रूप को निहारकर आश्वस्त हो जाते हैं कि कभी कभी यही रूप घर-घर में मढ़ा कर रखा जाएगा। स्पष्ट है कि वचन और अर्थ में लगाव होते हुए भी अलगाव है।

    कवि जब पाठक की स्थिति में होता है तब उसकी स्थिति रचना काल से भिन्न होती है। पाठक जहाँ अपनी सामग्री में तारतम्य की खोज करता है वहाँ कवि अपनी प्रतिक्रिया को पूरी तरह झलकाता है। अपनी रचना का पाठक बनकर कवि स्वयं तारतम्य की खोज करने लगता है। पाठक अतीतदर्शी होता है और अतीत आदर्शो की निरंतर गति उसको प्रेरित करती है। कवि पर भी यह पाठक कभी-कभी छा जाता है। ऐसी दशा में रचना का प्रस्थानबिंदु बदल जाने से, वर्तमान की व्यापक प्रतिक्रिया उपेक्षित हो जाती हैं जिसके बिना रचना उत्तम कोटि की नहीं होती।

    अभिव्यक्ति के लिए वैसी ही है जैसी जीवन के लिए भूमि की। जीवन को आधार सब कहीं चाहिए। जैसे साँस लेने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जाता वैसे ही जीवन और अभिव्यक्ति के क्रम में समबोध की स्थिति है। समबोध संयोजक तत्त्व है लेखक और पाठक के बीच। समबोध के विरोध में रचना और आलोचना का उद्देश्य ही लुप्त हो जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओर, अंक 7-8 (पृष्ठ 489)
    • रचनाकार : त्रिलोचन
    • संस्करण : 1972

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