आज से कुछ ही वर्ष पहले का संसार बहुत बदल गया है। एक ज़माना था जब दुनिया के किसी कोने में कोई परिवर्तन होने में वर्षों बीत जाते थे फिर भी कोई अभूतपूर्व परिवर्तन नहीं होता था। मोटे तौर से यही देखने में आता रहा कि साम्राज्यों के लिए लड़ाइयाँ होती थीं और एक राजा या बादशाह के बाद कोई दूसरा गद्दी पर बैठ जाता था। इस प्रकार के राज्य- परिवर्तन के कारण इतिहास में युगों का लेखा-जोखा नृपतियों के शासनकाल से किया जाता था। शासकों का जीवन-मरण ही इतिहासों का युग-युगांतर था। इतिहास का यही ढंग 19वीं शताब्दी तक चला आया है। इसके बाद सचमुच इतिहास में एक परिवर्तन होता है—हम इतिहास का युग-विभाजन कोरमकोर राजाओं के शासन काल से नहीं, बल्कि शासक जिनके राजा हैं उनकी उन्नति और अवनति के हिसाब-किताब से करने लगे है और देश के शुभचिंतकों के नाम के साथ युग को ज्ञापित करके (यथा, ‘गांधी-युग’) इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि इतिहास को देखने का हमारा दृष्टिकोण कितना बदल गया है।
हाँ तो, एक ज़माना था जब दुनिया के किसी कोने में युग-परिवर्तन होने में सदियाँ बीत जाती थीं। इसका अभिप्राय यह कि परिवर्तन तो होते ही थे किंतु वह परिवर्तन, जिससे समाज और जीवन का ढंग बदलता है, मनुष्य विकास की ओर चलता है, दुर्लभ था। कारण, जिनको लेकर समाज और जीवन है उनकी आवाज़ दबी हुई थी, राजसत्ताओं के कोलाहल में उनकी वह दबी आवाज़ क्षीणतम होकर सुनाई पड़ती थी—क्रंदन के स्वर में। समाज रो रहा था और राजनीति अपने हलवे माँड़े में लगी हुई थी। फलतः हम इतिहास में राज्य-विस्तार तो देखते हैं किंतु समाज-संस्कार शून्य। किंतु वह दबी हुई आवाज़, वह क्रंदन का क्षीण स्वर सर्वथा शून्य में ही लोन नहीं हो गया, वह अपने युग के ज्ञानियों के हृदय पर अति होता गया। उन ज्ञानियों ने, उन सहृदय सामाजिक श्रोताओं ने जनसाधारण के स्वर को साहित्य की रचना में मुखरित किया, विवेक-पूर्वक।
19वीं शताब्दी तक इसी प्रकार साहित्य-रचना होती रही। इस साहित्य-रचना में समाज के दूषित अंश भी हैं। विवेकवान् रचयिता द्वारा जहाँ सामाजिक उत्थान के स्वप्न मिले, वहाँ रसिकों द्वारा पतन के भाव भी। एक ओर समाज उच्चवर्गीय (राजविलासी) लोगों के दूषणों को ही जीवन का आनंद समझकर उसी में अपनी आत्मा का हनन कर अपने को भुलाता आ रहा था, दूसरी ओर अपनी कमज़ोरियों में भी सत्साहित्य के प्रति वह श्रद्धालु था, क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास जैसे साहित्य-स्रष्टा उसके उद्बोधक थे।
किंतु यह प्रगति नहीं थी, यह तो समाज का ढहना-गिरना और उसकी रोकथाम थी। प्रगति का प्रारंभ तो होता है 19वीं शताब्दी के अंत से ही। सत्साहित्य के प्रति श्रद्धालु होकर भी तब तक समाज अकर्मण्य था। उसकी श्रद्धा रूढ़ि हो गई थी, अतः साहित्य द्वारा प्राप्त आदर्श समाज के जीवन में गतिमान् न होकर कुण्ठित था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इसी रूढ़ि एवं अकर्मयता के विरुद्ध समाज-सुधारकों द्वारा असंतोष जगा। यहीं से प्रगति का श्रीगणेश है। समाज-सुधार के आंदोलन ज़ोर पकड़ते गए और आज हम देखते हैं कि तब से अब तक कितना परिवर्तन हो गया है। यदि मध्ययुग का कोई मनुष्य आज के समाज को देख पाए तो वह विस्मय से अवाक् हो जाएगा, इसीलिए आज भी जो रूढ़ि ग्रस्त हैं वे प्रगति के प्रति प्रतिक्रियाशील है।
यह नहीं कि 19वीं शताब्दी के अंत से नवीन राजतंत्र विगत राजतंत्र की अपेक्षा हमारे सामाजिक अभ्युदय के प्रति अधिक आत्मीय था। सच तो यह है कि हमें अपने सामाजिक उत्थान के लिए अपने ही पैरों पर खड़ा होना पड़ा है। यदि मध्ययुग का राजतंत्र हमारी सामाजिक उन्नति की ओर से निश्चेष्ट था तो नवीन राजतंत्र भी निरपेक्ष रहा। कहा जाता है कि नवीन राजतंत्र ने हमें सामाजिक या धार्मिक उन्नति के लिए पूर्ण स्वतंत्रता दी, इसमें हस्तक्षेप करना उसने उचित नहीं समझा। उसकी यह तटस्थ नीति एक प्रकार से अपने लिए एक सुरक्षित निश्चिंतता थी। मध्ययुग में राजतंत्रों को जनता की परवाह नहीं थी, वह उनकी लाठी की भैंस थी, उनका आमना-सामना तो समान शक्तियों से ही होता था, फलतः राजशक्तियाँ आपस में ही लड़ती-भिड़ती थीं। किंतु नवीन राजतंत्र ने मध्ययुग की राजशक्तियों को पिंजड़े का शेर बना दिया, उनकी ओर से उसे भय नहीं रह गया। रह गई जनता। नवीन राजतंत्र को अपने देश की नागरिकता द्वारा जनता की शक्ति का परिचय है, विशेषतः इसलिए भी कि वहाँ जनता द्वारा ही कितनी राज क्रांतियाँ हो चुकी हैं। फलत: मध्ययुग के विषम शासन-भार से मृतप्राय जनता को कुछ जीवन देकर अपना आभारी बनाना नवीन राजतंत्र को ठीक जान पड़ा, अतएव वह सामाजिक या धार्मिक स्वतंत्रता का पृष्ठपोषक बन गया। किंतु इस सौजन्य (!) में उसका एक अपना भी उपकार था यह कि जनता सामाजिक या धार्मिक सुधारों में ही अपने को भूली रहे, राजनीति की ओर उसकी दृष्टि न पड़ने पावे। परंतु जागृति एकांगिनी नहीं होती, वह धीरे-धीरे सर्वांगीण हो जाती है। आज हम देखते हैं कि न केवल सामाजिक बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक जागृति भी हमारे देश में व्याप्त हो गई है। ऐसे समय में जो साम्प्रदायिक विद्वेष चल रहे हैं उनके द्वारा शासकों की उस शुभेच्छा का भी पर्दाफ़ाश हो गया है जो सामाजिक या धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में प्रदर्शित की गई थी।
जगे हुए आदमी को अंधड़ और तूफ़ान भी देखने पड़ते हैं, उसे इन सबसे अपनी दृष्टि को स्वच्छ रखकर प्रगति के पथ पर गतिशील होना पड़ता है। अंधाधुंध चलते रहना ही प्रगति नहीं है। आज हमारी जागृति देश के ग्रीष्मकाल (संतप्त काल) की जागृति है, यह एक प्रज्वलित सौभाग्य है, ठंडे मिज़ाज से ही हम इसका सदुपयोग कर सकते है। आँधी और तूफ़ान में स्थितप्रज्ञ होकर ही हम ठीक राह पर चल सकते हैं, अन्यथा गुमराह हो जाने की अधिक आशंका है। मध्ययुग के अनेक दूषणों से हम आज भी युद्ध कर रहे हैं। कहीं प्रगति की झोंक में हम वर्तमान युग से भी इतने दूषण न ले लें कि प्रगति के बजाय हमें अपनी गंदगी से ही पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाए। समाज, साहित्य और राजनीति इन सब को बड़े सजग हृदय से नव-निर्माण देना है, तनिक सी भूल हमें सदियों पोछे ढकेल सकती है। हमें याद रखना चाहिए कि आज विश्व के रंगमंच पर एक-एक दिन में एक-एक शताब्दी बन रही है, उसमें हमें भी अपना भाग्य आजमाना है।
आज की प्रगति में महिलाएँ भी आगे बढ़ी हैं, कर्त्तव्य-क्षेत्र में वे बहुत कुछ पुरुषों के समीप पहुँच गई है। सदियों के बाद उन्होंने अपनी शक्ति को पहचाना है। वे चाहें तो अपनी आत्मचेतना से प्रगति को संरक्षिका बन सकती हैं। वे अपने व्यक्तित्व की शीतलता से उत्तप्त मस्तिष्कों को प्रकृतिस्थ हृदय से सोचने की प्रेरणा दे सकती है। युगों तक तो वे पर्दे में रही हैं, अब पर्दे से बाहर आ जाने पर भी उनमें वह लज्जा और गतिधीरता तो बनी ही रहनी चाहिए जो बहुत समझ-बूझकर पद-निक्षेप करती है। आज की प्रगति में उन्हें अपनी उसी गतिधीरता को छंद की तरह नियोजित करना है, ताकि प्रगति स्वच्छंद होकर दुर्गति में न पड़ जाए।
aaj se kuch hi varsh pahle ka sansar bahut badal gaya hai. ek zamana tha jab duniya ke kisi kone mein koi parivartan hone mein varshon beet jate the phir bhi koi abhutapurv parivartan nahin hota tha. mote taur se yahi dekhne mein aata raha ki samrajyon ke liye laDaiyon hoti theen aur ek raja ya badashah ke baad koi dusra gaddi par baith jata tha. is prakar ke rajya parivartan ke karan itihas mein yugon ka lekha jokha nripatiyon ke shasankal se kiya jata tha. shaskon ka jivan maran hi itihason ka yug yugantar tha. itihas ka yahi Dhang 19veen shatabdi tak chala aaya hai. iske baad sachmuch itihas mein ek parivartan hota hai—ham itihas ka yug vibhajan koramkor rajaon ke shasan kaal se nahin, balki shasak jinke raja hain unki unnati aur avanti ke hisab kitab se karne lage hai aur desh ke shubhchintkon ke naam ke saath yug ko gyapit karke (yatha, ‘gandhi yug’) is baat ko aspasht kar rahe hai ki itihas ko dekhne ka hamara drishtikon kitna badal gaya hai.
haan to, ek zamana tha jab duniya ke kisi kone mein yug parivartan hone mein sadiyon beet jati theen. iska abhipray ye ki parivartan to hote hi the kintu wo parivartan, jisse samaj aur jivan ka Dhang badalta hai, manushya vikas ki or chalta hai, durlabh tha. karan, jinko lekar samaj aur jivan hai unki avaz dabi hui thi, rajsattao ke kolahal mein unki wo dabi avaz kshintam hokar sunai paDti thi—krandan ke svar mein. samaj ro raha tha aur rajaniti apne halve mauDe mein lagi hui thi. phalatः hum itihas mein rajya vistar to dekhte hain kintu samaj sanskar shunya. kintu wo dabi hui avaz, wo krandan ka ksheen svar sarvatha shunya mein hi lon nahin ho gaya, wo apne yug ke gyaniyon ke hriday par ati hota gaya. un gyaniyon ne, un sahriday samajik shrota ne jansadharan ke svar ko sahitya ki rachna mein mukhrit
kiya, vivek purvak.
19veen shatabdi tak isi prakar sahitya rachna hoti rahi. is sahitya rachna mein samaj ke dushit ansh bhi hai. vivekavan rachyita dvara jahan samajik utthaan ke svapn mile, vahan rasikon dvara patan ke bhaav bhi. ek or samaj uchchvargiy (rajavilasi) logo ke dushno ko hi jivan ka anand samajhkar usi mein apni aatma ka hanan kar apne ko bhulata ya raha tha, dusri or apni kamzoriyon mein bhi satsahitya ke prati wo shraddhalu tha, kyonki gosvami tulsidas jaise sahitya srashta uske udbodhak the.
kintu ye pragti nahin thi, ye to samaj ka Dhahna girna aur uski roktham thi. pragti ka prarambh to hota hai 19veen shatabdi ke ant se hi. satsahitya ke prati shraddhalu hokar bhi tab tak samaj akarmanya tha. uski shraddha ruDhi ho gai thi, atः sahitya dvara praapt adarsh samaj ke jivan mein gatiman na hokar kunthit tha. 19veen shatabdi ke uttraarddh se iso ruDhi evan akarmayta ke viruddh samaj sudharkon dvara asantosh jaga. yahin se pragti ka shrignesh hai. samaj sudhar ke andolan jor pakaDte ge aur aaj hum dekhte hain ki tab se ab tak kitna parivartan ho gaya hai. yadi madhyayug ka koi manushya aaj ke samaj ko dekh pae to wo vismay se avak ho jayega, isiliye aaj bhi jo ruDhi prast hai ve pragti ke prati pratikriyashil hai.
ye nahin ki 19veen shatabdi ke ant se navin rajtantr vigat rajtantr ki apeksha hamare samajik abhyuday ke prati adhik atmiy tha. sach to ye hai ki hane apne samajik utthaan ke liye apne hi pairo par khaDa hona paDa hai. yadi madhyayug ka rajtantr hamari samajik unnati ki or se nishchesht tha to navin rajtantr bhi nirpeksh raha. kaha jata hai ki navin rajtantr ne hamein samajik ya dharmik unnati ke liye poorn svtantrta do, isne hastakshep karna usne uchit nahin samjha. uski ye tatasth niti ek prakar se apne liye ek surakshit nishchintta thi. madhyayug mein rajtantron ko janta ki parvah nahin thi, wo unki lathi ki bhais thi unka aamna samna to saman shaktiyon se hi hota tha, phalatः rajshaktiyon aapas ne hi laDti bhiDti theen. kintu navin rajtantr ne madhyayug ko rajshaktiyon ko pinjDe ka sher bana diya, unki or se use bhay nahin rah gaya. rah gai janta. navin rajtantr ko apne desh ki nagarikta dvara janta ki shakti ka parichay hai, visheshatः isliye bhi ki vahan janta dvara hi kitni rajatiyon ho chuki hai. phaltah madhyayug ke visham shasan bhaar se mritapray janta ko kuch jivan dekar apna abhari banana navin rajtantr ko theek jaan paDa, atev wo samajik ya dharmik svtantrta ka prishthposhak ban gaya. kintu il saujanya(!) mein uska ek apna bhi upkaar tha ye ki janta samajik ya dharmik sudharon mein hi apne ko bhuli rahe, rajaniti ki or uski drishti na paDne pave. parantu jagriti ekangini nahin hoti, wo dhire dhire sarvangin ho jati hai. aaj hum dekhte hain ki na keval samajik balki antarrashtriy rajnitik jagriti bhi hamare desh mein vyaapt ho gai hai. aise samay mein jo samprdayik vidvesh chal rahe hai unke dvara shaskon ki us shubhechchha ka bhi pardafash ho gaya hai jo samajik ya dharmik svtantrta ke roop mein pradarshit ki gai thi.
jage hue adami ko andh aur tufan bhi dekhne paDte hain, use in sabse apni drishti ko svachchh rakhkar pragti ke path par gatishil hona paDta hai. andhadhundh chalte rahna hi pragti nahin hai. aaj hamari jagriti desh ke grishmkal (santapt kaal) ki jagriti hai, ye ek prajvalit saubhagya hai, thanDe mizaj se ho hum iska sadupyog kar sakte hai. andhi aur tufan mein sthitapragya hokar hi hum theek raah par chal sakte hai, anyatha gumrah ho jane ki adhik ashanka hai. madhyayug ke anek dushan se hum aaj bhi yuddh kar rahe hain. kahin pragti ki jhok mein hum varttman yug se bhi itne dushan na le le ki pragti ke bajaye hamein apni gandgi se hi pichha chhuDana mushkil ho jaye. samaj, sahitya aur rajaniti in sab ko baDe sajag hriday se nav nirman dena hai, tanik si bhool hamein sadiyon pochhe Dhakel sakti hai. hamein yaad rakhna chahiye ki aaj vishv ke rangmanch par ek ek din mein ek ek shatabdi ban rahi hai, usmen hamein bhi apna bhagya ajmana hai.
aaj ki pragti mein mahilayen bhi aage baDhi hain, karttavya kshetr mein ve bahut kuch purusho ke samip pahunch gai hai. sadiyon ke baad unhonne apni shakti ko pahchana hai. ve chahen to apni atmachetana se pragti ko sanrakshika ban sakti hain. ve apne vyaktitv ki shitalta se uttapt mastishko ko prakritisth hriday se sochne ki prerna de sakti hai. yugon tak to ve parde mein rahi hain, ab parde se bahar aa jane par bhi unmen wo lajja aur gatidhirta to bani hi rahni chahiye jo bahut samajh bujhkar pad nikshep karti hai. aaj ki pragti mein unhe apni usi gatidhirta ko chhand ki tarah niyojit karna hai, taki pragti svachchhand hokar durgati mein na paD jaye.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।