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मेरी सबसे प्रिय रचना

meri sabse priy rachna

सुमित्रानंदन पंत

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मेरी सबसे प्रिय रचना

सुमित्रानंदन पंत

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    यदि मुझे अपनी रचना के संबंध में कहना होता तो मैं आपको बिना किसी संकोच या हिचक के तुरंत यह बतला देता कि शेली या वर्डस्वर्थ, टैगोर या कालिदास, वाल्मीकि या व्यास की वह कौन-सी रचना है जो मुझे सबसे प्रिय है और वह क्यों मुझे सबसे प्रिय है? पर बात अपनी कविता के बारे में कहने की है और यही सबसे कठिन समस्या है ‘निज कवित्त केहि लागे नीका’ पढ़ने के बाद भी आप जाने क्यों मुझसे यह पूछना चाहते हैं कि मुझे अपनी सबसे प्रिय रचना कौन-सी लगती है? बात यह है कि मैं जिस समय जो भी रचना लिखता हूँ उस समय मुझे वही अपनी सबसे प्रिय रचना प्रतीत होती है… दुबारा चाहें भले ही मेरा जी उसे पढ़ने को करता हो या मैं नई सृजन वेदना या सृजन उल्लास के नशे में फिर दूसरी रचना की सृष्टि करने में तल्लीन हो जाऊँ।

    मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया था तब खड़ी बोली की कविता की नीव ही नहीं पड़ चुकी थी उसके प्रासाद के कई शिखर कलशों तथा गुंबदों का भी निर्माण हो चुका था। द्विवेदी-युग के कवि नई भारती की आरती का थाल सँजोकर तब वाणी के मंदिर में उन्मुक्त उदात्त कंठो से गा रहे थे। खड़ी बोली जागरण की चेतना थी। द्विवेदी-युग जिस जागरण का प्रारंभ था हमारा युग उसके विकास का समारंभ था। छायावाद के शिल्प-कक्ष में खड़ी बोली ने धीरे-धीरे काव्य-सौंदर्य, पद-मार्दव तथा भाव-गौरव प्राप्त कर प्रथम बार भाषा का सिंहासन ग्रहण किया। गद्य में निखार लाने के लिए उसे अभी और भी साधना तथा तपस्या करनी है।

    हमारी पीढ़ी एक प्रकार से, व्यापक अर्थ में जागरण की ही पीढ़ी रही है। हिंदी हम लोगों के लिए एक मात्र भाषा ही नहीं एक नई चेतना, नई प्रेरणा का प्रतीक बनकर आई थी। देश में सर्वत्र, सभी क्षेत्रों में, नवीन जागरण की लहर दौड़ रही थी, नवीन अभ्युदय के चिह्न उदय हो रहे थे,...हमने उस जागरण, उस अभ्युदय को, हिंदी ही के रूप में पहचाना था। उसी सर्वतोन्मुखी सशक्त जातीय अभ्युत्थान की चेतना को वाणी देने के प्रयत्नों में हिंदी का भी कंठ फूटा था। उसने अपनी मध्ययुगीन ब्रजभाषा की तुतलाहट ही को नहीं छोड़ दिया था, उसके भीतर एक सबल भावना का सिंधु भी हिलोरें लेने लगा था। इस प्रकार हिंदी हमारे भीतर भाषा के अतिरिक्त एक राष्ट्रीय जागरण, एक सामाजिक प्रेरणा शक्ति के रूप में,—एक मानवीय सौंदर्यबोध तथा एक नवीन आत्माभिव्यक्ति के रूप में प्रकट हुई थी।

    श्री गुप्त जी को ‘भारत-भारती’ तब हमारे लिए कितना महान् राष्ट्रीय उत्थान का संदेश तथा आत्म-गौरव का आश्वासन लेकर आई थी! श्रीकृष्ण ने जाने कब बाँसुरी छोड़कर पाँचजन्य उठा लिया था! प्रथम महायुद्ध के बाद धीरे-धीरे समस्त देश में स्वतंत्रता का गान तथा उद्बोधन का मंत्र गूंज उठा था। जो जागरण सर्वप्रथम बंगाल में रवींद्रनाथ के स्वरों में छनकर एक काव्यात्मक सबोध, सांस्कृतिक आह्वान तथा संकेत के रूप में ध्वनित हुआ था, वह हिंदी के भीतर से धीरे-धीरे गाँधीवादी कर्म चेतना के सक्रिय यथार्थ के रूप में प्रकट तथा प्रस्फुटित होने लगा। नया हिंदी काव्य केवल रवींद्रनाथ की ही प्रतिध्वनि नहीं रहा, उसने अपने युग की पृष्ठभूमि से स्वतंत्र रूप से प्रेरणा ग्रहण की। इस प्रकार हमारे युग की कविता, जो छायावादी कविता कही जाती है, जहाँ एक ओर राष्ट्रीय अभ्युत्थान के गीत गुनगुना रही थी वहाँ, मुख्य रूप से, वह भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण को ही मुखरित करने में संलग्न थी। मध्ययुगीन काव्य-चेतना या तो अपने रीतिकालीन विलास-शृंगार के कर्दम में डूबी हुई सांमती रूप-भावना में सीमित थी या सत परंपरागत रसशुद्ध समदृष्टि जीवन-दर्शन से पीड़ित थी। छायावादी कविता सोई हुई भारतीय चेतना की गहराइयों में नवीन रागात्मकता की माधुर्य-ज्वाला, नवीन जीवन-दृष्टि का सौंदर्यबोध तथा नवीन विश्वमानवता के स्वप्नों का आलोक उड़ेल रही थी। छायावाद से पहले खड़ीबोली का काव्य, भाव तथा भाषा की दृष्टि से, बिल्कुल दरिद्र था। छायावाद ने उसमें अँगड़ाई-लेकर जागते हुए भारतीय-चैतन्य का भाव-वैभव भरा। विश्व बोध के व्यापक आयाम, लोक-मानव की नवीन आकाक्षाएँ, जीवन प्रेम से प्रेरित परिष्कृत अहता का मासल सौंदर्य-परिधान पहले पहल उसी ने हिंदी-कविता को प्रदान किया।

    यह सब छायावाद के लिए इसलिए संभव हो सका कि भारतीय पुनर्जागरण विश्व सभ्यता के इतिहास के एक और भी महान् लोक जागरण का अंग बनकर आया था। विश्व सभ्यता के इतिहास का ही नहीं, वह मानव-चेतना के भी एक महान् सांस्कृतिक क्रांति के युग का समारंभ बनकर उदय हुआ था। इसलिए छायावाद में हमें राष्ट्रीय जागरण के गंभीर स्वप्न, मौन संवेदन-भरे गीत तथा धरती के जन-जागरण के संघर्ष-मुखर विद्रोह भरे स्वर एक साथ सुनने को मिलते हैं। प्रगतिशील कविता वास्तव में छायावाद की ही एक धारा है। दोनों के स्वरों में जागरण का उदात्त संदेश मिलता है—एक में मानवीय जागरण का, दूसरे में लोक-जागरण का। दोनों की जीवन-दृष्टि में व्यापकता है, एक में सत्य के अन्वेषण या जिज्ञासा की, दूसरी में यथार्थ के खोज या बोध की। दोनों ही वैयक्तिक क्षुद्र अहंता को अतिक्रम कर प्रवाहित हुई है, एक ऊपर की ओर, दूसरी विस्तृत धरातल की ओर। दोनों ही क्षमतापूर्ण रही है,—एक गांभीर्य की, दूसरी गति की शक्ति से प्रगतिशील कविता लोक संस्कृति की भावात्मक या घन-चेतना को जन्म दे सकने के कारण अपने ह्रास में जिस प्रकार संकीर्ण दलबंदी, बौद्धिक कुंठा तथा कोरी राजनीतिक नारेबाज़ी में खो गई, उसी प्रकार छायावाद के अंतर्गत उसकी जीवन-सौंदर्यवादी काव्यधारा भी अनिवैयक्तिक, उपचेतनाग्रस्त भावना, आत्मदया पीड़ित अहता तथा रूपकारिता एव साज-सँवार संबंधी आग्रह के कारण प्रयोगवाद के रूप में विकीर्ण हो रही है। उसने अब वह मानववादी व्यापकता, उदात्तता, वह मन स्पर्शों तथा अंतर्भेदों दृष्टि को गहराई, वह लोकोभ्युदय की अभीप्सा तथा जागरण के संदेश का प्रकाश नहीं देखने को मिलता। उसमें उर्दू शायरी की बारीकियाँ, रीतिकालीन चित्रणों, अत्युक्तियों तथा भेदोपभेदों को विचित्रताओं एवं सस्ती अहंजन्य असाधारणताओं के कारण युगीन ह्रास के सभी चिह्न प्रकट होने लगे है।

    अपने युग के काव्य-साहित्य की पृष्ठभूमि का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराना इसलिए आवश्यक हो गया कि अपनी सबसे प्रिय रचना के बारे में कहने से पहले मैं आपके सम्मुख यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरी काव्यरवि या संस्कार का निर्माण करने में किन शक्तियों का हाथ रहा तथा मेरी काव्य-संबंधी मान्यताओं को किस प्रकार सांस्कृतिक-राजनीतिक जागरण को व्यापक चेतना ने प्रेरित एवं प्रभावित किया। मेरी प्रिय-अप्रिय की भावना व्यक्तिगत रुचि से चालित रहकर जीवन मान्यताओं-संबंधी दृष्टिकोण से शामिल रही।

    मैंने प्रकृति के एक सौंदर्यवादी कवि के रूप में काव्य के सारे ग़मों का अभ्यास आरंभ किया। सौंदर्य, स्वभाव से ही मुझे अपनी भावना के सहज धरोहर के रूप में मिला। प्रकृति के सुंदर मुख को मैंने छुटपन ही में पहचान लिया था। ‘वीणा ग्रंथि’ तथा ‘पल्लव’ काल की मेरी किशोर कल्पना नैसर्गिक सौंदर्य के ही मधुर स्वप्न देखती रही। रंगों की तूली से चित्रित सद्य स्फुट प्रकृति की शोभा उसे विस्मय-विमुग्ध करती रही। ‘गुंजन’ में धीरे-धीरे मैंने अपनी ओर मुड़कर तथा अपने भीतर देखकर अपने बारे में गुनगुनाना सीखा। अपने भीतर मुझे अधिक नहीं मिला। व्यक्तिगत आत्मोन्नयन के सत्य में मुझे कुछ भी मोहक, सुंदर तथा महत्त्वपूर्ण नहीं दिखाई दिया। मैंने जीवन मुक्ति के लिए छटपटाती हुई प्राण-कामना तथा राग-भावना को ‘ज्योत्स्ना’ के रूपक में अधिक व्यापक, सामाजिक, अवैयक्तिक तथा मानवीय धरातल पर अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर व्यक्तिगत जीवन साधना के प्रति-जिसकी क्षीण प्रतिध्वनियाँ ‘गुंजन’ में मिलती है—विद्रोह प्रकट किया और अपने परिवेश की सामाजिक चेतना से असंतुष्ट होकर एक अधिक संस्कृत, सुंदर एवं मानवोचित सामाजिक जीवन का स्वप्न प्रस्तुत किया। स्वप्न इसलिए कि उसे वैयक्तिक या सामाजिक जीवन में मूर्त करने की बात तब मेरे मन में नहीं उठी थी, उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया था। बाधा-बंधनहीन किशोर कल्पना उड़ान भरना जानती थी, वह उसने भर दी। आदर्श, लक्ष्य अथवा साध्य का अनुमान मेरी सबसे प्रिय रचना कर उसकी रूपरेखा बनाना कठिन नहीं होता, पर उसकी ओर अग्रसर होने के लिए पथ का अन्वेषण करना सरल नहीं होता। उसके लिए जीवन की वास्तविकता का भी अनुभव चाहिए। पथ की खोज मुझे बराबर रही है, और अब भी है। लक्ष्य के प्रति मेरे मन में कोई संदेह या दुविधा कभी नहीं रही।

    गाँधीवाद तथा मार्क्सवाद का मुख्य भेद सावन का भेद है, लक्ष्य दोनों का विभिन्न शब्दों में व्यापक लोकहित ही है। गाँधीवाद युग के अधिक निकट होने के कारण युगीन पृष्ठभूमि की दृष्टि से अधिक आधुनिक है, मार्क्सवाद साधन के संबंध में निश्चय ही पिछड़ा हुआ है। नमक-सत्याग्रह से लेकर सन् 42 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के बीच का समय असहयोग आंदोलन के उतार का समय रहा है, जबकि हमारे जागरण युग की कर्मचेतना श्रांत-श्लय होकर, एक प्रकार से, विश्राम ग्रहण कर रही थी और व्यक्तिगत सत्याग्रह में कभी-कभी इधर-उधर सुलगकर अपने जीवंत अस्तित्व का स्मरण-भर दिला देती थी। इस बीच अनेक प्रकार का आशा-निराशा, उत्साह-कुंठा का स्नायविक संग्राम युग मानस में फलतः युग-साहित्य में, चलता रहा और अनेक प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं एवं विचार-दर्शनों का प्रभाव मन में उथल-पुथल मचाता रहा। यह युग, साहित्य में, हिंदी कविता के प्रगतिशील युग के नाम से प्रसिद्ध। इस काल में मैंने भी मार्क्स के गंभीर आर्थिक, सामाजिक सिद्धांतों तथा विचार निर्णयों से प्रभावित होकर ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ लिखी थी, जिनसे संभवतः हिंदी में प्रगतिवाद का नया चरण आरंभ हुआ था। अपने इस नए रुझान का आभास मैं ‘युगांत’ में पहले ही दे चुका था।

    सामाजिक ऐतिहासिक दर्शन के अध्ययन के फलस्वरूप मेरा जीवन-दृष्टिकोण आमुल परिवर्तित नहीं हो गया था, जैसा कि मेरे आलोचकों को तब प्रतीत हुआ, मेरी जीवन-दृष्टि अधिक व्यापक हो गई थी। अर्थात् आदर्श के अंतर्मुख चिंतन के साथ मेरे मन ने यथार्थ का बहिर्मुख-आग्रह भी स्वीकार कर लिया था। जीवनादर्श के प्रति मेरा प्रेम वैसा ही बना रहा, किंतु उसकी प्राप्ति के लिए उसके विकास के अंग के रूप में वस्तु-जगत् के सवर्ष को भी मेरा मन समझने लगा, तथा उसको यथार्थता को महत्त्व भी देने लगा। किंतु यह सब होने पर भी आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान मेरे भीतर बना ही रहा। मेरी चेतना तब इतनी विकसित, सशक्त एवं परिपक्व नहीं हो सकी थी कि वह आदर्श और यथार्य को एक ही मानव-सत्य के, समग्र सत्य अंगों—परस्पर पूरक अंगों के रूप में देख सके अथवा ग्रहण कर सके।

    अब मैं अपने कवि-मन के विकास के एक अत्यंत आवश्यक मोड़ या स्थिति के बारे में कहने जा रहा हूँ, जहाँ से ‘स्वर्ण-किरण’ का युग आरंभ होता है, और जिसे आप मेरे चेतना-काव्य का युग भी कह सकते हैं। यह ‘ग्राम्या’ से पाँच वर्ष के बाद का समय है। इस बीच मेरे मन में ‘ज्योत्स्ना’ और ‘ग्राम्या’ की चेतनाओं का यथार्थ की चिंतन धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा और इसी का परिपाक ‘स्वर्ण-किरण’ की विकसित जीवन-चेतना के रूप में हुआ, जिसको मैं अपनी स्वर्णोदय’ नामक रचना में संभवतः अधिक सफल अभिव्यक्ति दे सका हूँ।

    ‘स्वर्ण-किरण’ की काव्य-दृष्टि को मेरे आलोचकों ने समन्वयवादी जीवन दर्शन कहकर आत्मसंतोष ग्रहण किया है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि उसके पुष्कल चैतन्य की उन्होंने जान-बूझकर उपेक्षा की है। नहीं, उसकी ओर उन्होंने संभवतः यथेष्ट ध्यान नहीं दिया है। और उसे समझने की चेष्टा भी अभी नहीं जाग्रत हुई है। इसका एक कारण, और संभवतः मुख्य कारण, यह है कि वर्तमान सांस्कृतिक ह्रास के युग में मानव-चेतना और विशेषतः बुद्धिजीवियों एवं कलाकारों की भावप्रवण संवेदनशील चेतना प्राणिक जीवन-वृत्तियों के उच्छवासों तथा भावनाओं के उपचेतन स्तरों में ऐसी उलझ गई है कि उन गुहाओं से घने अंधकार को नवीन चैतन्य के स्वर्णिम प्रकाश से विगलित होने में समय लगेगा। संभवतः समय आने पर, ‘स्वर्ण-किरण’ के युग की मेरी रचनाएँ—जिनमें मेरी इधर की सभी रचनाएँ सम्मिलित है—पाठकों एवं आलोचकों का ध्यान अधिक आकृष्ट कर सकेगी और उनके प्रति अधिक न्याय हो सकेगा। मैं उनके संबंध में केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि उनमें केवल समन्वयवादी या अध्यात्मवादी बौद्धिक दर्शन ही नहीं है, उनमें मेरी समस्त जीवन अनुभूति का, ग्राम्या की हरीतिमा का भी, निचोड़ है। उनमें जीवन-सौंदर्य के परिधान में मूर्त नवीन जीवत मानव-चैतन्य भी है, जिसको अधिक परिपक्व अथवा पूर्णतम अभिव्यक्ति में अभी नहीं दे सका हूँ।

    यह एक इतना विराट् तथा विश्वव्यापी चेतनात्मक, फलतः मान्यताओं की, क्रांति का युग है कि मानव-मन उसके महत्त्व को अभी पूर्णतः ग्रहण नहीं कर पाया है। यह महत् अतः क्रांति जो कि मानव जीवन में एक महान परिवर्तन तथा रूपांतर उपस्थित कर सकेगी, अभी केवल विकास के पथ में है। मैंने ‘उत्तरा’ के गीतों में इस ओर किया है। नव युग का सूक्ष्म सांस्कृतिक ऐश्वर्य, मनोवैभव तथा जीवन-सौंदर्य अभी पूर्णतः प्रस्फुटित होकर मनुष्य के भीतर नहीं अवतरित हो सका है। इसीलिए सभवतः मेरी सबसे प्रिय रचना भी अभी कहीं रुकी हुई है, मैं उसे शब्दों में बाँधकर मूर्त नहीं कर सका हूँ। उसके लिए अभी उपयुक्त भावना-भूमि प्रस्तुत नहीं हो सकी है। संभव है, मैं कभी भविष्य में अपनी सबसे प्रिय रचना को आपके सम्मुख रख सकूँगा।

    आज के युग में कविता को केवल वादों, बौद्धिक दर्शनों, सामूहिक नारों, अवचेतन के वैचित्र्य-भरे अपरूप उच्छ्वासों एवं उद्गारों के रूप में ही देखना उसके प्रति अन्याय करना है। जुगुनुओं की पंक्तियों की भाँति मानव-मन की विषण्ण गहराइयों में जगमगाती, रीढ़-हीन बिखरी बेलों की तरह धरती पर जड़ी हुई एवं बेलबूटों की तरह कढ़ी हुई सतरें और जिस तथ्य को भी वाणी देती हो, वे निश्चय ही नए युग के नए मानव के चैतन्य को अथवा नए मानव-सत्य को अभिव्यक्त नहीं करती, इसमें मुझे रत्ती भर संदेह नहीं। सभवतः यह कविता के विश्राम ग्रहण करने का समय है। नया मानव-चैतन्य होकर अपने लिए नवीन भावभूमि, नवीन सौंदर्य-वाणी, नवीन माधुर्य-रस तथा नवीन इंद्रिय आनंद का स्पर्श खोज रहा है। मैं नई कविता को धीरे-धीरे, नवीन अनुराग को ज्वाला के चरण बढ़ाकर, और भी निकट आते हुए देख रहा हूँ। संभव है, उसी में कहीं मेरी सबसे प्रिय रचना हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 223)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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