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मेरी पहली कविता

meri pahli kavita

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

मेरी पहली कविता

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    जहाँ तक मुझे स्मरण है मेरी पहली कविता में कोई विशेषता नहीं थी, जैसे-जैसे मेरे मन का अथवा मेरी भावना या चेतना का विकास हुआ और मेरा जीवन का अनुभव गंभीर होता गया मेरी कविता में भी निखार आता गया।

    मेरी पहली कविता एक होकर अनेक थी। अपने किशोर मन के आवेग और उत्साह को अथवा कविता के प्रति अपने नवीन आकर्षण को ‘ताल और लय’ में बाँधने की आकुलता में मैं अनेक छंदों में अनेक पद साथ ही लिखा करता था। किसी छंद में चार चरण और किसी में आठ या बारह चरण लिखकर मेरा सद्यः स्फुट काव्य प्रेम मेरी अस्फुट भावना को अनेक रूपों में व्यक्त कर संतुष्ट होता था। इस प्रकार के मेरे समस्त प्रारंभिक किशोर प्रयत्न मेरी पहली कविता कहे जा सकते हैं, क्योंकि उन सबका एक ही विषय होता और उनमें एक ही भावना और प्रायः एक ही प्रकार के मिलते-जुलते शब्द रहते थे, जो केवल विभिन्न छंदों और तुकों के कारण अलग-अलग रचना खंड प्रतीत होते थे। उदाहरण स्वरूप हमारे घर के ऊपर एक गिरजाघर था जहाँ प्रत्येक रविवार को सुबह-शाम घटा बजा करता था। यह अल्मोड़े की बात है और जैसा कि पहाड़ी प्रदेशों में प्रायः हुआ करता है हमारा घर नीचे घाटी में था और गिरजाघर ऊपर सड़क के किनारे। उस गिरजे के घंटे की ध्वनि मुझे अत्यंत मधुर तथा मोहक प्रतीत होती थी। गिरजे के घटे पर मैंने प्रायः रविवार के दिन अनेक छंदों में अनेक कविताएँ लिखी हैं, जिन्हें प्रयत्न करने पर भी अब मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ। उन सब रचनाओं में प्रायः यही आशय रहता था कि ‘हम लोग बेख़बर सोए हुए हैं। यह दुनियाँ एक मोह निद्रा है, जिसमें हम स्वप्नों की मोहक गलियों में भटक रहे हैं। गिरजे का घटा अपने शांत मधुर आह्वान से हमें जगाने की चेष्टा कर रहा है और हमें प्रभु के मंदिर की ओर बुला रहा है जहाँ दुनियाँ की मोह-निशा का उज्ज्वल प्रभात हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। ईश्वरीय प्रेम का जीवन ही केवल मात्र पवित्र जीवन है। प्रभु ही हमें पापों से मुक्ति प्रदान कर सकते हैं’ इत्यादि। अल्मोड़े में पादरियों तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषण प्रायः ही सुनने को मिलते थे, जिनसे मैं छुटपन में बहुत प्रभावित रहा हूँ। वे पवित्र जीवन व्यतीत करने की बाते करते थे और प्रभु की शरण में आने का उपदेश देते थें, जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर मैंने जितनी रचनाएँ लिखी हैं, उन सब में इन्हीं पादरियों के उपदेशों का सार-भाग किसी किसी रूप में प्रकट होता रहा है। ‘गिरजे का घंटा’ शीर्षक एक रचना मैंने अपने आत्मविश्वास तथा प्रथम उत्साह के कारण श्री गुप्त जी के पास भेज दी थी, उन्होंने अपने सहज सौजन्य के कारण उसकी प्रशंसा में दो शब्द लिखकर उसे मेरे पास लौटा दिया था।

    अब एक दूसरा उदाहरण लीजिए। मेरे भाई एक बार अल्मोड़े में किसी मेले से काग़ज़ के फूलो का एक गुलदस्ता ले आए, जिसे उन्होंने अपने कमरे में फूलदान में रख दिया था। मैं जब भी अपने भाई के कमरे में जाता था, काग़ज़ के उन रंग-बिरंगे फूलों को देखकर मेरे मन में अनेक भाव उदय हुआ करते थे। मैं बचपन से ही प्रकृति की गोद में पला हूँ। काग़ज़ के वे फूल अपनी चटक-मटक से मेरे मन में किसी प्रकार की भी सहानुभूति नहीं जगा पाते थे। मैं चुपचाप अपने कमरे में आकर अनेक छंदों में अनेक रूप से अपने मन के उस असंतोष को वाणी देकर काग़ज़ के फूलों का तिरस्कार किया करता था। अंत में मैंने सुस्पष्ट शब्दों में अपने मन के आक्रोश को एक चतुर्दशपदी में छंदबद्ध करके उसे अल्मोड़े के एक दैनिक पत्र में प्रकाशनार्थ भेज दिया, जिसका आशय इस प्रकार था, हे काग़ज़ के फूलों, तुम अपने रूप-रंग में उद्यान के फूलों से अधिक चटकीले भले ही लगो, पर तुम्हारे पास सुगंध है, मधु। तुम स्पर्श को भी तो वैसे कोमल नहीं लगते हो। हाय, तुम्हारी पँखुड़ियाँ कभी कली नहीं रही, वे धीरे-धीरे मुसकुराकर किरणों के स्पर्श से विकसित ही हुई। अब तुम्हीं बताओं तुम्हारे पास भ्रमर किस आशा से, कौन-सी प्रेम याचना लेकर मँडराए? क्या तुम अब भी नहीं समझ पाए कि झूठा, नक़ली और कृत्रिम जीवन व्यतीत करना कितना बड़ा अभिशाप है? हृदय के आदान-प्रदान के लिए जीवन में किसी प्रकार की तो सच्चाई होनी चाहिए। इत्यादि।

    एक और उदाहरण लीजिए मेरे फुफेरे भाई हुक्का पिया करते थे। सुबह-शाम जब भी मैं उनके पास जाता, उन्हें हुक्का पीते पाता था। उनका कमरा तंबाकू के धुएँ की नशीली गंध से भरा रहता था। उन्हें धुआँ उड़ाते देखकर तंबाकू के धुएँ पर मैंने अनेक छंद लिखे हैं, जिनमें से एक रचना अल्मोड़े के दैनिक में प्रकाशित भी हुई है। इस रचना की दो पंक्तियाँ मुझे स्मरण है जो इस प्रकार है—

    सप्रेम पान करके मानव तुझे हृदय में

    रखते, जहाँ बसे है भगवान विश्वस्वामी।

    इस रचना में मैंने धुएँ को स्वतंत्रता का प्रेमी मानकर उसकी प्रशंसा की थी। आशय कुछ-कुछ इस प्रकार था ‘हे धूम! तुम्हें वास्तव में अपनी स्वतंत्रता अत्यंत प्रिय है। मनुष्य तुम्हें सुगंधित सुवासित कर, तुम्हें जल से सरस-शीतल बनाकर अपने हृदय में बंदी बनाकर रखना चाहता है, उस हृदय में जिसमें भगवान का वास है। किंतु तुम्हें अपनी स्वतंत्रता इतनी प्रिय है कि तुम क्षण भर को भी वहाँ सिमिट कर नहीं रह सकते और बाहर निकलकर इच्छानुरूप चतुर्दिक व्याप्त हो जाना चाहते हो। ठीक है, स्वतंत्रता के पुजारी को ऐसा ही होना चाहिए, उसे किसी प्रकार का हृदय का लगाव या बंधन नहीं स्वीकार होना चाहिए। इत्यादि।

    इस प्रकार अपने आस-पास से छोटे-मोटे विषयों को चुनकर मैं अपनी प्रारंभिक काव्य-साधना में तल्लीन रहा हूँ। मेरे भाव तथा विचार तो उस समय अत्यंत अपरिपक्व एवं अविकसित रहे ही होंगे किंतु उन्हें छंदबद्ध करने में तब मुझे विशेष आनंद मिलता था। छंदों के मधुर संगीत ने मुझे इतना मोह लिया था कि मैंने अनेक पत्र भी उन दिनो छंदों ही में गूँथ कर लिखे हैं। यदि प्रारंभिक रचनाओं के महत्त्व के संबंध में तब थोड़ा भी ज्ञान मुझे होता तो मैं उन कविताओं तथा पत्रों की प्रतिलिपियाँ अपने पास अवश्य सुरक्षित रखता। अब मुझे इतना ही स्मरण है कि अपने आस-पड़ोस और दैनदिन की परिस्थितियों एवं घटनाओं से प्रभावित होकर ही मेरी प्रारंभिक रचनाएँ निःसृत हुई हैं और अपनी अस्फुट अबोध भावना को भाषा की अस्पष्ट तुतलाहट में बाँधकर मैं अपने छंद-रचना के प्रेम को चरितार्थ करता रहा हूँ। एक प्रकार से आरंभ से ही मुझे अपने मधुमय गान अपने चारों ओर ‘धूलि को ढेरी में अनजान’ बिखरे पड़े मिले है।

    वैसे एक प्रकार से मैं अल्मोड़े आने से और भी बहुत पहले छंदों की गलियों में भटकता और चक्कर खाता रहा हूँ। तब मैं अपने पिताजी के साथ कौसानी में रहता था और वहीं ग्राम-पाठशाला में पढ़ता था। मेरे फुफेरे भाई तब वहाँ अध्यापक थे और मेरे बड़े भाई बी० ए० की परीक्षा दे चुकने के बाद स्वास्थ्य सुधारने के लिए वहाँ आए हुए थे। मेरे बड़े भाई भी उन दिनों कविता किया करते थे। उनके अनेक छंद मुझे अब भी कंठस्थ हैं। वह अत्यंत मधुर लय में राजा लक्ष्मणसिंह—कृत मेघदूत के अनुवाद को भाभी को सुनाया करते थे। शिखरिणी छंद तब मुझे बड़ा प्रिय लगता था और मैं, ‘सखा तेरे पी को जलद प्रिय मैं हूँ आदि पक्तियों को गुनगुनाकर उन्हीं के अनुकरण में लिखने की चेष्टा करता था। कभी-कभी मैं भाई साहब के मुँह से कोई ग़ज़ल की धुन सुनकर उस पर भी लिखने की कोशिश करता था। लेकिन अब मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरी तब की रचनाओं में छंद अवश्य ही ठीक नहीं रहता होगा और मैं बाल-चापल्य के कारण छंद की धुन में बहुत कुछ असंबद्ध और बेतुका लिखता रहा हूँगा। मुझे स्मरण है, एक बार भाई साहब को मेरी पीले काग़ज़ की कापी मिल गई थी और उन्होंने मेरे ग़ज़लों की ख़ूब हँसी उड़ाई थी। अतएव उस समय को कविता को मैं अपनी पहली कविता नहीं मान सकता।

    व्यवस्थित एवं सुसंबद्ध रूप से लिखना तो मैंने पाँच-छः साल बाद अल्मोड़ा आकर ही प्रारंभ किया। तब स्वामी सत्यदेव आदि अनेक विद्वानों के व्याख्यानों से अल्मोड़े में हिंदी के लिए उपयुक्त वातावरण प्रस्तुत हो चुका था, नगर में शुद्ध साहित्य समिति के नाम से एक बृहत् पुस्तकालय की स्थापना हो चुकी थी और नागरिकों का मातृभाषा के प्रति आकर्षण विशेष रूप से अनुराग में परिणत हो चुका था। मुझे घर में तथा नगर में भी नवोदित साहित्यिकों, लेखकों एवं कवियों का साहचर्य सुलभ हो गया था। मैंने हिंदी पुस्तकों का संग्रह करना प्रारंभ कर दिया था, विशेषकर काव्य-ग्रंथों का, और ‘नंदन पुस्तकालय’ के नाम घर में एक लाइब्रेरी की भी स्थापना कर दी थी। इसमें द्विवेदी युग के कवियों की रचनाओं के अतिरिक्त मध्ययुग के कवियों के ग्रंथ तथा प्रेमचंद जी के उपन्यासों के साथ बंगला, मराठी आदि उपन्यासों के अनुवाद भी रख लिए थे और कुछ पिंगल अलंकार आदि काव्यग्रंथ भी जोड़ लिए थे। सरस्वती, मर्यादा आदि उस समय की प्रसिद्ध मासिक पत्रिकाएँ भी मेरे पास आने लगी थी और मैंने नियमित रूप से हिंदी साहित्य का अध्ययन आरंभ कर दिया था।

    आदरणीय गुप्त जी की कृतियों ने और विशेषकर भारत-भारती, जयद्रथ वध तथा विरहिणी ब्रजांगना ने तब मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया था। प्रिय-प्रवास के छंद भी मुझे विशेष प्रिय लगते थे। ‘कविता कलाप’ को मैं कई बार पढ़ गया था। सरस्वती में प्रकाशित मकुटधर पांडेय जी की रचनाओं में नवीनता तथा मौलिकता का आभास मिलता था। इन्हीं कवियों के अध्ययन तथा मनन से प्रारंभ में मेरी काव्य-साधना का श्रीगणेश हुआ और मैंने सुसंगठित रूप से विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग करना सीखा। छंदों की साधना में मुझे विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा। श्रवणों को संगीत के प्रति अनुराग होने के कारण तथा लय को पकड़ने की क्षमता होने के कारण सभी प्रकार के छोटे-बड़े छंद धीरे-धीरे मेरी लेखनी से सरलतापूर्वक उतरने लगे। जो भी विषय मेरे सामने आते और जो भी विचार मन में उदय होते, उन्हें मैं नए-नए छंदों में नए-नए रूप से प्रकट करने का प्रयत्न करता रहा। काव्य-साधना में मेरा मन ऐसा रम गया कि स्कूल की पाठ्य पुस्तकों की ओर मेरे मन में अरुचि उत्पन्न हो गई और मैंने खेलकूद में भी भाग लेना बंद कर दिया। इन्हीं दिनों अल्मोड़ा हाईस्कूल में पढ़ने के लिए नवयुवक आकर हमारे मकान में रहने लगे, जिन्हें साहित्य से विशेष अनुराग था। जिनके संपादन में हमारे घर से एक हस्तलिखित मासिक पत्र निकलने लगा जिसमें नियमित रूप से दो-एक वर्ष तक मेरी रचनाएँ निकलती रही। उनके साहचर्य से मेरे साहित्यिक प्रेम को प्रगति मिली और नगर के अनेक नवयुवक साहित्यिकों से परिचय हो गया। मेरे मित्र अनेक प्रकाशकों के सूचीपत्र मँगवाकर पुस्तकों तथा चित्रों के पार्सल मँगवाते और उन्हें हम लोगों बेचा करते थे। इस प्रकार उनकी सहायता से हिंदी की अनेक उत्कृष्ट प्रकाशन संस्थाओं तथा उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का मेरा ज्ञान सहज ही बढ़ गया।

    हरिगीतिका, गीतिका, रोला, वीर, मालिनी, मंदाक्रांता, शिखरिणी आदि छंदों में मैंने प्रारंभ में अनेकानेक प्रयोग किए हैं और छोटे-बड़े अनेक गीतों में प्रकृति-सौंदर्य का चित्रण भी किया है। प्रकृति-चित्रण के मेरे दो-एक गीत संभवतः ‘मर्यादा’ नामक मासिक पत्रिका में भी प्रकाशित हुए है। ‘भारत-भारती के आधार पर अनेक राष्ट्रीय रचनाएँ तथा ‘कविता कलाप’ के अनुकरण में राजा रवि वर्मा के तिलोत्तमा आदि चित्रों का वर्णन भी अपने छंदों में मैंने किया है। अनेक पत्र तथा कल्पित प्रेम पत्र लिखकर भी, जो प्रायः सखाओं के लिए होते थे, मैंने अपने छंदों के तारों को साधा है। अपनी प्रारंभिक काव्य-साधना-काल में, जाने क्यों, कविता का अभिप्राय मेरे मन में छंदबद्ध पक्तियों तक ही सीमित रहा है। छंदों में संगीत होता है, यह बात मुझे छंदों की विशेष आकृष्ट करती थी और अनुप्रासों या ललित मधुर शब्दों द्वारा छंदों में संगीत की झंकारें पैदा करने की ओर मेरा ध्यान विशेष रूप से रहता था। कविता के भाव-पक्ष से मैं इतना ही परिचित था कि कविता में कोई अद्भुत या विलक्षण बात अवश्य ही जानी चाहिए। कालिदास की अनोखी सूझ की बात मैं अपने भाई साहब से बहुत छुटपन में ही सुन चुका था, जब वह भाभी को मेघदूत पढ़ाया करते थे। किंतु विलक्षण भाव को संगीत के पंख लगाकर छंद में प्रवाहित करने की भावना तब मुझे विशेष आनंद देती थी और मैं अपनी छंद-साधना के इस पक्ष पर विशेष ध्यान देना प्रारंभ से ही नहीं भूला हूँ।

    मेरी उस प्रारंभिक काल की रचनाएँ, जिन्हें मैं अपनी पहली कविता कहता हूँ, जाने पतझर के पत्तों की तरह मर्मर करती हुई, कब और कहाँ उड़कर चली गई, मैं नहीं कह सकता। अपनी बहुत-सी रचनाएँ काशी जाने से पहले मैं अल्मोड़े ही में छोड़ गया था जो मुझे घर की अव्यवस्था के कारण पीछे नहीं मिली। संभव है उन्हें कोई ले गया हो या किसी ने रद्दी काग़ज़ों के साथ फेंक दिया हो या बाज़ार में बेच दिया हो। वीणा काल से पहले के दो कविता संग्रह जब मैं हिंदू बोर्डिंग हाउस में रहता, मेरी चारपाई में आग लग जाने के कारण, जल कर राख हो गए थे। कीट्स और शेली के दो सचित्र संग्रह भी, जो मुझे प्रो० शिवाधार जी पांडेय ने पढ़ने के लिए दिए थे, उनके साथ ही भस्म हो गए थे। अपने उन दो संग्रहों के जल जाने का दुख मुझे बहुत दिनों तक रहा। उनमें मेरी काव्य-साधना के द्वितीय चरण की रचनाएँ थी। मेरी आँखों में अब उन अस्फुट प्रयासों का क्या महत्त्व होता यह मैं नहीं कह सकता, पर ममत्व की दृष्टि से वे मुझे अपनी प्रारंभिक काव्य-साधना के साक्षी के रूप में सदैव प्रिय रहते, इसमें मुझे संदेह नहीं। अपने कवि-जीवन के प्रथम उषाकाल में स्वर्ग की सुंदरी कविता के प्रति मेरे हृदय में जो अनिर्वचनीय आकर्षण, जो अनुराग तथा उत्साह था, उसका थोड़ा सा भी प्रभास क्या मैं इस छोटी-सी वार्ता में दे पाया हूँ? शायद नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 215)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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