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मेरी कविता का परिचय

meri kavita ka parichay

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

मेरी कविता का परिचय

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    मैं प्रकृति की गोद में पला हूँ। मेरी जन्मभूमि कौसानी कूर्मांचल की पहाड़ियों का सौंदर्यस्थल है, जिसकी तुलना महात्मा गाँधी ने स्विटर्ज़लेंड से की है, यह स्वाभाविक था कि मुझे कविता लिखने की प्रेरणा सबसे पहले प्रकृति से मिलती। मेरी प्रारंभिक कविताएँ प्राकृतिक सौंदर्य-दर्शन से प्रभावित है, जिनमें मुख्यतः वीणा और पल्लव की रचनाएँ हैं। प्रकृति अनेक मनोरम रूपों में मेरे किशोर काव्यपट में प्रकट हुई है और उससे मुझे सदैव लिखने की प्रेरणा मिली है। मैं छुटपन से ही अत्यंत भाव प्रवंग तथा गंभीर प्रकृति का रहा हूँ। मैं अपने साथियों के साथ बहुत कम खेला हूँ, मैंने अपना अधिकांश समय एकांत में अपने ही साथ बिताया है। पुस्तकों का अध्ययन तथा उनपर मनन-चिंतन करना मुझे सदैव ही प्रिय रहा है, जिसका प्रभाव मेरे लिखने पर भी यथेष्ट पड़ा है। परिणामतः “पल्लव” के अंतर्गत “परिवर्तन” जैसी गंभीर कविता भी मैं चौबीस वर्ष की आयु में ही लिख सका हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक देश का कवि, चिंतक या कलाकार अपने देश की बाहर भीतर की परिस्थितियों से ज्ञात-अज्ञात रूप से प्रभावित होता है। हमारा देश सदियों से पराधीन रहा है जिसके कारण हमारे जीवन तथा मन में एक प्रकार का गहरा विषाद घिरा रहा है। इस गहरे विषाद को मेरे समकालीन सभी कवियों ने वाणी दी है। “गुंजन” की रचनाओं तक मेरे मन में भी अपने देश की परिस्थितियों का दबाव रहा है। मेरे प्रणयन-काल में राष्ट्रीय जागरण की भावना वृद्धि पाने लगी थी और गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता का युद्ध भी बल पकड़ने लगा था। हमारा स्वतंत्रता का युद्ध हमारे देश की सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप ही था, उसने अहिंसात्मक रूप ग्रहण किया। इस प्रकार हमारे देश का राजनीतिक जागरण साथ ही साथ सांस्कृतिक जागरण भी रहा है।

    अपने देश के राजनीतिक सांस्कृतिक जागरण से प्रभावित होकर मैंने अनेक रचनाएँ की, जिनमें “ज्योत्स्ना” नामक मेरा भाव रूपक मुख्य है। “ज्योत्स्ना” में मैंने नए सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन का चित्रण किया है और मानव जीवन तथा विश्व जीवन को छोटे-मोटे देश-जातिगत विरोधों से ऊपर एक व्यापक धरातल पर सँवारने का प्रयत्न किया है। ज्योत्स्ना सन् 1931 की रचना है, उसके बाद अपने देश के स्वातंत्र्य युद्ध के जागरण तथा मार्क्सवाद के अध्ययन के फलस्वरूप मैंने “युगांत”, “युगवाणी” तथा “ग्राम्या” में संकलित अनेक कविताएँ लिखी जिनमें मैंने एक और अपने देश की मध्ययुगीन परंपराओं के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई और दूसरी ओर आर्थिक दृष्टि से मार्क्सवादी विचारधारा का समर्थन किया। मध्य युगों से हमारे देश में जीवन के प्रति जो एक निषेधात्मक वैराग्य तथा नैराश्य की भावना फैल गई है उसका मैंने अपने इस युग की रचनाओं में घोर खंडन किया है। इस काल की रचनाओं में मैंने जीवन के बाह्य यथार्थ को वाणी दी है, वह बाह्य यथार्थ जिसका संबंध मुख्यतः मनुष्य के भौतिक-सामाजिक जीवन से है। इस युग में मेरी सामंती यथार्थ की भावना अधिक विस्तृत तथा विकसित हुई है।

    “ग्राम्या” सन् 1940 की रचना है। सन् 40 से 47 तक द्वितीय विश्वयुद्ध को परिस्थितियों के कारण मेरे मन का एक नया आयाम विकसित हुआ। मुझे प्रतीत होने लगा कि स्थाई विश्वशांति तथा लोक-मंगल के लिए केवल बाह्य जीवन के यथार्थ की धारणा को बदलना ही पर्याप्त नहीं होगा उसके लिए मानवता को विस्तृत सामाजिक-आर्थिक धरातल के साथ ही एक व्यापक उच्च सांस्कृतिक धरातल के विकास की भी आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए हमें बाहरी मूल्यों को व्यापक बनाने के साथ भीतरी मूल्यों को भी बदलना पड़ेगा, वे भीतरी मूल्य जिनके मूल मनुष्य के जाति, धर्म, राष्ट्रगत नैतिक, सांस्कृतिक तथा सौंदर्य विषयक संस्कारों तथा रुचियों में है। “स्वर्ण किरण” के बाद की मेरी समस्त रचनाओं में मानव जीवन के प्रति इसी व्यापक तथा सर्वांगीण दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति मिली है। और जैसा कि मैंने चिदंबरा की भूमिका में भी लिखा है मेरा उत्तर काव्य प्रथमतः इस युग के महान् संघर्ष का काव्य है। “युगवाणी” से “वाणी” तक मेरा समस्त काव्य युगमानव एवं नव मानव के अंतर संघर्ष का काव्य है। दूसरे शब्दों में, मेरा काव्य भू-जीवन, लोक-मंगल तथा मानव-मूल्यों का काव्य है, जिसमें मनुष्यत्व और जनगण दो भिन्न तत्व नहीं, एक-दूसरे के गुण-राशि-वाचक पर्याय है।

    हमारा युग ऐतिहासिक दृष्टि से एक महान् संक्रांति का युग है। इस युग में विज्ञान ने मानव के जीवन संबंधी दर्शन तथा दृष्टिकोण में घोर उथल-पुथल पैदा कर दी है। भौतिक विज्ञान ने जीवन की समादिक् (हॉरिज़ॉन्टल) भौतिक परिस्थितियों को अत्यंत सक्रिय बना दिया है। इस बाह्य सक्रियता के अनुपात में मनुष्य की भीतरी मानसिक परिस्थितियाँ, उसके विश्वास, आस्थाएँ तथा संस्कार नवयुग के अनुरूप विकसित नहीं हो सके हैं। प्राचीन जीवन-प्रणाली के आभ्यासों से उसका मन मुक्त नहीं हो सका है। साथ ही विज्ञान उसके ऊर्ध्व (वर्टिकल) मान्यताओं संबधी दृष्टिकोण को, जो पहले धर्म तथा अध्यात्म का क्षेत्र रहा है—विकसित या उर्वर बनाने में सहायक नहीं हो सका है। इसलिए आज विचारकों एवं मानव जीवन के उन्नायकों के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हैं। विश्व की राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों में भी इस युग में अभी संतुलन स्थापित नहीं हो सका, तत्संबंधी विषमताएँ तथा विरोध ही दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी शीतयुद्ध की परिस्थिति में आज जो पंचशील तथा सह-अस्तित्व के सिद्धांत तथा आदर्श हमारे सामने उदय रहे हैं वे भी इतने सशक्त तथा प्रेरणाप्रद नहीं प्रतीत होते कि युगजीवन को आज के संक्रांतिकालीन संकट से उबारकर मनुष्यत्व की प्रगति को आगे बढ़ाना संपन्न हो सके। ऐसे घोर वैषम्य के युग में मानव जीवन के रथ को भू-पथ पर अक्षत रख सकने के लिए मैंने अपनी “अंतिमा” तथा “वाणी” की रचनाओं में कुछ समाधान उपस्थित करने का प्रयत्न किया है जो मेरे कवि मन के अंतःस्फुरण है। यदि वे लोक मंगल तथा मानव-प्रेम की भावना की अभिवृद्धि करने में सहायक हो सके तो मैं अपने कवि कर्म को सफल समझूँगा। आज के कवि तथा कलाकार का मैं यह कर्तव्य समझता हूँ कि वह विश्व-मानवता के पथ को युगजीवन के वैषम्यों तथा विरोधों से मुक्त कर, इस पृथ्वी के देशों को एक-दूसरे के निकट लाकर, उन्हें चिरस्थाई मानव-प्रेम, जीवन-सौंदर्य तथा लोक कल्याण की ओर अग्रसर कर सके। स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, रजतशिखर, शिल्पी, अंतिमा सौवर्ण तथा वाणी की रचनाओं के मैंने अपनी क्षमता के अनुरूप अपनी कविता के चरण इसी दिशा की ओर बढ़ाने का प्रयत्न किया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 256)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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