मैंने कविता लिखना कैसे प्रारंभ किया
mainne kavita likhna kaise prarambh kiya
सुमित्रानंदन पंत
Sumitranandan Pant

मैंने कविता लिखना कैसे प्रारंभ किया
mainne kavita likhna kaise prarambh kiya
Sumitranandan Pant
सुमित्रानंदन पंत
और अधिकसुमित्रानंदन पंत
देश भक्ति के साथ मोहिनी मंत्र मातृभाषा का पाकर
प्रकृति प्रेम मधु-रस में डूबा गूंज उठा अंगों का मधुकर
फूलों की ढेरों में मुझको मिला ढँका अमरो का पावक
युग पिक बनना भाया मन को, जीवन चिंतक, जन भू भावक!
नैसर्गिक सौंदर्य, पुष्प-सा, खिला दृष्टि में निर्निमेष दल
प्रथम छंद उर लगा गूंथने,—फूलहार मधु रंग ध्वनि कोमल
प्राणों को था स्पर्श मिल चुका कविगुरु रस मानव का मादन
मेघदूत के छंद हृदय में प्रेम मद्र भरते गुरु गर्जन।
नव युग के सौंदर्य बोध से भारत माता को कर भूषित
कवि रवींद्र के स्वर्ण पंख स्वर श्रवणों में रहते मधु गुंजित।
इन थोड़े से शब्दों में मैंने ‘आत्मिका’ शीर्षक अपनी संस्मरण प्रधान कविता में, सूत्र रूप में अपने कवि जीवन के श्रीगणेश के सबब में प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। अब भी जब मैं सोचता हूँ कि इस घोर राजनीति और अर्थशास्त्र के युग में मैंने अपने लिए यह अंतर्मुख और बहिर्मौन सात्विक कविजीवन क्यों चुना तो मेरे भीतर बराबर एक ही उत्तर उठता है और वह यह कि जिस अनिंद्य नैसर्गिक सौंदर्य को कोड़ में मैंने भाग्यवश जन्म लिया था उसने जैसे मेरे समस्त अस्तित्व को अपने सम्मोहन से वशीभूत कर जकड़ लिया। अपनी जन्मभूमि का चित्रण संक्षेप में मैंने ‘आत्मिका’ में इस प्रकार किया है–
आरोही हिमगिरि चरणों पर रहा ग्राम वह–मरकन मणि कण,
श्रद्धानत, आरोहण के प्रति मुग्ध प्रकृति का आत्मसमर्पण!
साँझ प्रातः स्वर्णिम शिखरों से द्वाभाएँ बरसाती वैभव
ध्यानमग्न निःस्वर निसर्ग निज दिव्य रूप का करता अनुभव
भेद नील को मौन हिम शिखर जाने क्या कहते अंतर में
निर्निमेष नयनों से पीता नत अनंत के नीरव स्वर में!
दूग शोभा तन्मय रहते नित देख क्षीर शृंगो का सागर
उर असीम बन जाता, अतः स्पर्श शुभ्र सत्ता का पाकर
शोभा चपल हुए किशोर पग, गरिमा विनत बना गंभीर मन,
रंग भूमि थी प्रकृति मनोरम, पृष्ठ भूमि हिमवत् की पावन!
अनजाने सुंदर निसर्ग ने किया हृदय स्पर्शों से संस्कृत,
उस पवित्र प्रातर की आभा हुई निविष्ट हृदय में श्रविदित!
ऋषियों की एकाग्र भूमि में मैं किशोर रह सका न चंचल,
उच्च प्रेरणाओं से अविरत आंदोलित रहता अंतस्तल!
तो, नैसर्गिक सौंदर्य की प्रेरणा ही मेरी दृष्टि में वह मूल शक्ति थी जिसने मेरे एकांत प्रिय मन को काव्य सृजन की ओर उन्मुख किया। और आज भी मेरे शब्दों के कुंजों से प्राकृतिक सौंदर्य का मर्म मुखर मर्मर कलरव ही फूट पड़ता है। वैसे जब मैं अल्पवयस्क किशोर था तभी से भारतीय चेतना के जागरण का आह्वान मेरे कानों में पड़ने लगा था। ‘निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल जैसे मंत्रो द्वारा मातृभाषा प्रति के बीज मेरे मन में छुट में डाल दिए गए थे। मेरे बड़े भाई स्वयं संस्कृत काव्य के प्रेमी थे तथा हिंदी एवं पहाड़ी में कविता भी करते थे। उनके संपर्क में आकर मेरा आकर्षण कविता की ओर और भी अधिक बढ़ने लगा था। मेरे अनेक समवयस्क भी उन दिनों अल्मोड़ा में कविता किया करते थे। उनके साथ मैत्री होने पर मेरी छंद गूँथने की प्रवृत्ति को और भी आत्म-बल तथा प्रोत्साहन मिला। जैसे धान के खेत में चलते हुए कोई यों ही मनोरंजन के लिए सुनहली धान की बाली तोड़ कर अँगुलियों में नचाने लगता है उसी प्रकार अल्मोड़े के अपने छात्र जीवन के घने साहित्यिक वातावरण में मैंने भी जैसे अनजाने ही किसी अंतर प्रवृत्ति के कारण अपने लिए कविकर्म को चुन लिया और तब से वह मुझे अपनी अँगुलियों के संकेतों पर नचाता आ रहा है। आज भी मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैं अभी नए रूप से कविता लिखना सीख रहा हूँ। मुझे तब नहीं मालूम था कि कविता करना शब्दों की रचना करना नहीं, बल्कि नए युग तथा नई मानवता की रचना करना है और उसे पुस्तकों के पन्नों पर नहीं मानव-हृदयों पर अंकित करना है। मन ही मन ख़ूब जानता हूँ कि अभी मुझे कविता करना नहीं आया है। अपने को मैं महत् सृजन-कर्म के लिए कैसे तैयार करूँ, मुझे एक मात्र यही चिंता रहती है। आज के महानाश के भूकंप में सिहरती हुई त्रस्त धरा पर मानव जीवन कविता के भारहीन स्वप्न कोमल चरण धरकर संभवतः नवीन संभावनाओं के क्षितिजों की ओर अग्रसर हो सके न जाने क्यों मन ऐसा सोचता है?
- पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 242)
- रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
- प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1961
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