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काव्य-संस्मरण

kavya sansmran

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

काव्य-संस्मरण

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    जिस प्रकार अनेक रंगों में हँसती हुई फूलों की वाटिका को देखकर दृष्टि सहसा आनंद-चकित रह जाती है, उसी प्रकार जब काव्य चेतना का सौंदर्य हृदय में प्रस्फुटित होने लगता है, तो मन उल्लास से भर जाता। जाने जगत् में कहाँ किन घाटियों को छायाओं में, किन गाते हुए स्रोतों के किनारे तरह-तरह की फैनी झाड़ियों की ओट में पत्तों के झरोखों से झाँकते हुए ये छोटे-बड़े फूल इधर-उधर बिखरे पड़े थे, जबकि मनुष्य के कलाप्रिय हृदय ने उनके सौंदर्य को पहचानकर, उनका संकलनकर तथा उन्हें मनोहर रंगों की मैत्री में अनेक प्रकार की क्यारियों तथा आकारों में साज-सँवारकर उन्हें वाटिका अथवा उपवन का रूप दिया और इसी प्रकार अपने उपचेतन के भीतर भावनाओं तथा आकांक्षाओं के गूढ़ तहों में छिने हुए अपनी जीवन-चेतना के आनंद, सौंदर्य तथा रस की खोजकर उसे काव्य के रूप में संचित किया।

    जिस प्रकार बादलों के अंधकार से सहसा अनेक रंगों के रहस्यभरे इंद्रधनुष को उदित होते देखकर किशोर मन आनंद-विभोर होकर किलकारी भरने लगता है, उसी प्रकार एक दिन कविता के रत्नच्छायामय सौंदर्य से अनुप्राणित होकर मेरा मन ‘मेघदूत’ की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा। मैं तब नौ दस साल का रहा हूँगा। मेरे बड़े भाई बी० ए० की परीक्षा समाप्तकर छुट्टियों में घर आए हुए थे और बड़ी भाभी को मधुर कंठ से गाकर राजा लक्ष्मण सिंह का मेघदूत सुनाया करते थे। मैं चुपचाप उनके पास बैठकर अत्यंत तन्मयता के साथ मेघदूत के पद सुना करता था और एक अज्ञात आकुलता से मेरा मन चंचल हो उठता था, संभवतः, भाई साहब के कंठ-स्वर के प्रभाव के कारण। तब मैं यह नहीं जानता था कि मेघदूत कालिदास की रचना है और यह केवल उसका हिंदी अनुवाद। बार-बार सुनने के कारण मुझे मेघदूत के अनेक पद कंठस्थ हो गए थे और एकांत में मेरा मन उन्हें दुहराया करता था, जैसे किसी ने उन्हें अपने आप मेरे स्मृति पट पर अंकित कर दिया हो।

    सखा तेरे पी को जलद प्रिय मैं हूँ पतिवती

    सँदेसो ले वाको तब निकट आयो सुन सखी!

    यह प्रिय का जलद मेरे लिए भी जैसे कुछ संदेश लेकर आया है, तब मैं इसे नहीं जानता था। जिसे अब मैं शिखरिणी छंद के नाम से जानता हूँ, तब वह मुझे बहुत प्रिय लगता था। मैं प्रायः गाया करता था––

    ‘मिले भामा तेरी सुभग तन श्यामा लतन में

    मुखाभा चंदा में चकित हरिणी में दृग मिले––

    चलोर्मी मे भौंहे, चिकुर बरही की पुछन में

    पै हा काहू में मुहि सकल तो प्रकृति मिले!’

    अब मुझे लगता है कि विरही यक्ष की तरह ही मैं भी जाने कब से चकित हरिणी सी दृगवाली कविता-कामिनी के लिए छाया-पंख-मेघ द्वारा संदेश भेजता रहा हूँ––किंतु उसकी कोई पूर्ण प्राकृति––जिससे मन को संतोष हो ऐसी छवि, मैं अभी तक नही अंकित कर पाया हूँ, और मन ही मन सोचता हूँ––

    घाम धूम नीर समीर मिले पाई देह,

    ऐसो घन कैसे दूत काज भुगतावेगो।

    नेह को सँदेसो हाथ चातुर पठेवे जोग,

    बादर कहोजी ताहि कैसे के सुनावेगो॥

    महाभारत के युद्ध का समर्थन जिस प्रकार गीता द्वारा कराया गया है, उसी प्रकार मेघ द्वारा दूत-कार्य कराने का समाधान मानो उपर्युक्त चरणों द्वारा किया गया है। मेघदूत मे यत्र-तत्र आए हुए प्रकृति-वर्णनों ने मुझे बहुत ही मुग्ध किया है। यहाँ केवल एक ही उदाहरण देकर संतोष करूँगा :

    जल सूखत सिंधु भई पतरी तन, बेनी सरी को दिखावती है।

    तटरूखन ते झरे पात पके, छबि पीरी मनो अँग लावती है॥

    धरि सोहनो रूप बियोगिनी को वह तो में सुहाग मनावती है।

    करियो घन सो विधि वाके लिये तन छीनता जो कि मिटावती है॥

    छुटपन में मुझे विरहिणी नारी की रूप-कल्पना अत्यंत सुंदर लगती थी, संभव है यह मेघदूत ही का प्रभाव हो।

    शिला पै गेरू ते कुपित ललना तोहि लिखिके

    घरयों जो लों चाहूँ तन अपन तेरे पगन में।

    चले आँसू तौलों दृगन मग रोके उमगिके

    नहीं धाता धाती चहत हम याहू विधि मिले।

    इन पंक्तियों को गाते तो आँखों में बरबस आँसू उमड़ आते थे।

    मेघदूत के अतिरिक्त मुझे शकुंतला में चौकड़ी भरते हुए हिरन का दृश्य भी बड़ा मोहक लगता था, जो इस प्रकार है :

    फिर फिर सुंदर ग्रीवा मोरत, देखन रथ पाछे जो घोरत।

    कबहुँक डरपि बान मति लागे, पिछली गात समेटत आगे।

    अधरोथी मग दाभ गिरावत, थकित खुले मुख ते बिखरावत।

    लेत कुलॉच लखो तुम अबही, धरत पॉव धरती जब तव ही।

    इस ‘पिछली गात समेटत आगे’ का संस्कृत का रूप है—

    पश्चार्धेन प्रविष्ट शरपतनभयाद्भूयसा पूर्व कायम्––इस चरण में तो जैसे हिरन की गति आँखों के सामने मूर्तिमान हो उठती थी।

    ‘पहरे बल्कल बसन यह लागत नीकी बाल’ वाले छंद को जब पीछे मैंने संस्कृत में पढ़ा, तब तो जैसे शकुंतला की समस्त मधुरिमा के सौरभ से हृदय भर गया। वह इस प्रकार है :

    सरसिज मनुविद्ध शैवलेनापि रम्य,

    मलिनमपि हिमाशोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति

    इहमधिक मनोज्ञा बल्कलेनापि तन्वी,

    किमिवहिमधुराणा मडन नाकृतीनाम्।

    अंतिम पंक्ति का सत्य तो बार-बार जीवन में परखने को मिलता रहा।

    इस प्रकार मेघदूत और शकुंतला के राजा लक्ष्मणसिंह-कृत हिंदी अनुवादों ने ही छुटपन में सबसे पहले मेरे भीतर काव्य प्रेम की नीव डाली। इसके बाद जिन पंक्तियों की ओर सर्वप्रथम मेरा ध्यान आकर्षित हुआ वह तुलसीकृत रामायण की है, जिनका पाठ मेरी बहिन किया करती थी, यह भी छुटपन ही की बात है। वे पक्तियाँ है :

    जय जय जय गिरिराज किशोरी, जय महेश मुख चंद चकोरी।

    जय गजवदन षडानन माता, जगत जननि दामिनि द्युति गाता।

    नहि तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।

    भव भव विभव पराभव कारिणि, विश्व विमोहिनि स्ववश विहारिणि।

    इन पंक्तियों की ओर मेरा ध्यान इसलिए भी आकर्षित हुआ कि मैं गिरिराज हिमालय के अचल में पला हूँ और रात-दिन हिमशिखरों का दृश्य देखता रहा हूँ। पार्वती की इस स्तुति को सुनकर हिमालय के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ गई थी और जब उसके वाष्प-शुभ्र शृंगो पर कभी बिजली चमक उठती थी, जगत जननि दामिनिद्युति गाता का स्मरण हो आने से, मेरा मन, आँखों के सामने दिगंतव्यापी हिम श्रेणियों को देखकर विचित्र संभ्रम के भाव से भर जाता था।

    मध्ययुगीन हिंदी-कवियों में पीछे जिस रचना ने मुझे सबसे अधिक मोहित किया है वह है श्री नरोत्तमदास कृत सुदामा चरित, जिसे मैंने जाने कितनी बार पढ़ा है :

    सीस पगा झगा तन में प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा,

    धोती फटी-सी, लटी दुपटी, अरु पय उपानह की नहि सामा।

    द्वार खड़ो द्विज दुर्बल, देखि रह्यो चकि सो बसुवा अभिरामा,

    पूछा दीनदयाल को घाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

    द्वार पर खड़ी सुदामा की मूर्ति आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठती थी और हृदय कुतूहल से भर जाता था कि देखे कृष्ण क्या कहते हैं? आज अनेक दीनहीन किसान-मज़दूरों के काव्य-चित्र देखने को मिलते हैं––किंतु नरोत्तमदास के सुदामा का वह जीवित सम्मोहन उनमें नहीं मिलता। सुदामा की स्त्री अपनी गृहस्थी का जो चित्र उपस्थित करती है, वह तो जैसे बरछी की तरह हृदय में चुभ जाता है :

    कोदो सवाँ जुरतो भरि पेट, चाहति हौ दधि दूध मिठौती,

    सीत वितीतत जो सिसियात तो हौं हठती पै तुम्हें हठौती।

    जौ जनती हित हरि सौं तो मै काहे को द्वारिका पेलि पठौती,

    या घर तें कबहू गयो पिय, टूटो तयौ अरु फूटी कठौती।

    वस्तु-स्थिति की ज्ञाता सुदामा की पत्नी उसे द्वारिका जाने को कई तरह से मनाती है। वह कहती है—लोचन अपार वै तुम्हें पहचानि है?––जो पै सब जनम दरिद्र ही सतायौ तौ पै कौने काज आइहै कृपानिधि की मित्रई?––किंतु निरीह स्वाभिमानी सुदामा उसे समझाता है—सुख-दुख करि दिन काटे ही बनै भूलि विपति परे पै द्वार मित्र के जाइए।

    सुदामा का द्वारिका जाना, कृष्ण से मिलना और फिर लौटकर अपनी कुटी को पहचान सकना सभी वर्णन मेरे किशोर हृदय को अत्यंत मर्मस्पर्शी लगते थे।

    देव, बिहारी, पद्माकर, मतिराम आदि अनेक कवियों के चमत्कारपूर्ण पदों ने तब मेरे मन को अनेक अनूठे भावों की सौरभ से रससिक्त किया है। प्राचीन कवियों में विद्यापति मुझे बहुत प्रिय रहा है। उसकी कल्पना, उसका सौंदर्य-बोध तथा कवित्व-शक्ति सदैव चिर नवीन रहेगी :

    सरसिज विनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे

    जीवन बिनु तन तन बिनु जीवन को जीवन पिय दूरे।

    पंक्तियाँ मन को एक अज्ञात प्रभाव से आकुल कर देती थी।...सूरदास के––खंजन नैन रूप रसमाते––चंचल चारु चपल अनियारे, पल पिजरा समाते––पद चंचल पक्षियों की तरह पंख मारकर कल्पना के आकाश में बार-बार मँडराया करते थे :

    हमारे प्रभु अवगुन चित घरो,

    इक लोहा पूजा मे राख्यो इक घर बधिक परयौ

    पारस गुन अवगुन नहि देखत, कंचन करत खरयौ

    इन पदों से मुझे सदैव बड़ी सांत्वना मिलती रही है।

    खड़ीबोली के कवियों नें गुप्तजी के ‘जयद्रथ-वध’ नामक खंडकाव्य के अनेक चरण मुझे कंठस्थ हो गए थे। उनमें उत्तरा का विलाप मुझे विशेष रूप से प्रिय लगता था।

    राति मति सुकृति वृति पूज्य प्रिय पति स्त्रजन शोभन संपदा

    हा एक ही जो विश्व में सर्वस्व था तेरा सदा

    यों नष्ट उसको देखकर भी बन रहा तू भार है।

    हे कष्टमय जोवन तुझे विक्कार बारंबार है

    इन चरणों को मैं प्रायः गुनगुनाया करता था। आगे चलकर तो गुप्त जी को अनेक रचनाओं से मुझे प्रेरणा मिली है। उनको नवीनतन कृतियों में ‘पृथ्वी पुत्र’ मुझे विशेष प्रिय है। उस समय ‘प्रिय प्रवास’ के भी अनेक अंश मुझे अच्छे लगते थे, विशेषकर यशोदा और श्रीराधा का विलास। अभी भी मुझे उसकी अनेक पंक्तियों याद है :

    पत्रों पुष्पों रहिनविन विश्व में हो कोई

    कैसी हो हो सरस सरिता वारिसूया होने,

    ऊधो सीधी सदृश कभी भाग फूटे किसी को

    मोती ऐसा रतन हाय कोई खोजे! इत्यादि।

    श्री नाथूराम शंकर शर्मा के भी कई छंदों ने मुझे मुग्ध किया है––विशेषकर उनकी ‘केरेल की तारा’ नामक रचना ने, जो तब कविता-कलाप में प्रकाशित हुई थी :

    चौंक चौंक चारों ओर चौकड़ी भरेंगे मृग

    खंजन खिलाडियों के पख झड़ जाएँगे

    आज इन अँखियों से होड़ करने को भला

    कौन से अडोले उपमान अड़ जाएँगे––

    अथवा मोहिनी की माँग के लिए ‘तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है’ आदि अनेक पंक्तियाँ आज भी स्मृति पट पर जग उठती हैं।

    किंतु कोई विशेष काव्य-कृति कब, क्यों प्रिय लगती है, यह कहना सरल नहीं है। संभवतः बहुत कुछ उस समय के वातावरण तथा चित्त-वृत्ति पर भी निर्भर रहता। और यदि कुछ रचनाएँ स्मृति पट पर अंकित हो जाती है, तो वह सदैव ही उनको उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं माना जा सकता।

    प्रसादजी की रचनाओं के संपर्क में मैं बहुत पीछे आया, उससे पहले मेरा परिचय निराला जी की कविताओं से हो चुका था। सन् 30-31 के बाद निरालाजी से व्यक्तिगत परिचय बढ़कर मैत्री में परिगत हो चुका था। तब वह प्रायः जिन रचनाओं को सुनाया करते थे, उनमें अनेक कविताएँ मुझे विशेष प्रिय रही है, जैसे––

    भर देते हो––बार बार तुम करुणा की किरणों से

    तप्त हृदय को शीतल कर देते हो!––इत्यादि अथवा

    जागो एक बार-प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें

    अरुण पंख तरण किरण खोल रही द्वार! आदि

    और भी अनेक ऐसी रचनाएँ जिन्हें मैं स्मृति से उद्धृत कर सकता हूँ और जो अब उनके परिमल नामक काव्य संग्रह में संगृहीत है, मुझे प्रिय रही है। परिमल की रचनाएँ मेरे अंतर में निरालाजी की घन-गंभीर मंद मधुर ध्वनि में अंकित है। उनकी बड़ी रचनाओं में तुलसीदास, सरोजस्मृति तथा राम की शक्ति-पूजा मुझे विशेष प्रिय है। छोटी रचनाओं में परिमल के गीतों के अतिरिक्त गीतिका के अनेक गीत बड़े सुंदर लगते हैं, यथा—सखि, वसंत आया, भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया—अथवा—मौन रही हार, प्रिय पथ पर चलती, सब कहते शृंगार––अथवा––मेरे प्राणों में आओ, शतशत शिथिल भावनाओं के उर के तार सजा जाओ इत्यादि। इस प्रकार गीतिका के अनेक गीत मुझे अत्यधिक प्रिय है जिनमें ‘वीणा-वादिनि वर दे’ भी है जो अत्यंत लोकप्रिय हो चुका है।

    प्रसाद जी की—‘बीती विभावरी जागरी,

    अंबर पनघट पर डुबो रही ताराघट ऊषा नागरी’

    गीत एक विचित्र आशा-जागरण का मंत्र लेकर मन को लुभाता है। और उनका ‘हे लाज भरे सौंदर्य बताओं मौन बने रहते हो क्यों—’ गीत तो जैसे प्रसाद जी की मूर्तिमती कविता की तरह हृदय में अपने आप गूँजता रहता है। प्रसाद जी के नाटकों के अनेक अन्य गीतों की तरह कामायनी के भी अनेक अंश मेरी स्मृति की प्रिय धरोहर में से है, जिनका उदाहरण देना संभव नहीं।

    महादेवी जी का जो मर्म मधुर गीत सबसे पहले अपनी अपलक प्रतीक्षा की आशा लेकर मन में प्रवेश कर गया, वह उनके नीहार नामक संग्रह में मिलता है :

    जो तुम जाते एक बार!

    कितनी करुणा, कितने सँदेश, पथ में बिछ जाते बन पराग,

    गाता प्राणों का तार तार, अनुराग भरा उन्माद राग।

    आँसू लेते वे पद पखार!

    मुझे अपनी रचनाओं में ‘चाँदनी’ सबसे प्रिय है, जो मेरे मन की आकांक्षाओं से मेल खाती है :

    जग के दुख दंन्य शयन पर, यह करुणा जीवन बाला

    रे कब से जाग रही यह आँसू की नीरव माला।

    किंतु, ‘जो तुम जाते एक बार’ को मैं इससे भी अधिक अपने निकट पाता हूँ। आगे चलकर तो महादेवी जी ने अनेक ऐसे गीत दिए हैं जिन्हें कंठस्थ कर लेने को जी करता है, जिनमें ‘मैं नीरभरी दुख की बदली’ भी है। सांध्यगीत तथा दीपशिखा के अनेक गीत मन के मौन सहचर बन गए हैं जो अंतर को स्वप्न ध्वनित करते रहते हैं।

    बच्चन भी मेरा अत्यंत प्रिय कवि तथा मित्र रहा है। निशा-निमंत्रण तथा एकांत संगीत के अनेक गीत ‘मध्य निशा में पंछी बोला’ की तरह मन के अंतरतम निराशा के स्तरो में गहरी वेदना उड़ेल देते है। वैसे बच्चन की ओर सबसे पहले मैं उसकी पग-ध्वनि से आकर्षित हुआ :

    उर के ही मधुर प्रभाव चरण बन, करते स्मृति पट पर नर्तन

    मुखरित होता रहता बन बन,

    मैं ही उन चरणों में नूपुर, नूपुर ध्वनि मेरी ही वाणी

    वह पग ध्वनि मेरी पहचानी!––

    बच्चन की कविता की पगध्वनि मेरे मन की चिर पहचानी बन चुकी है। उसकी मिलन-यामिनी के अनेक गीत मुझे पसंद हैं, विशेषकर :

    प्राण, संध्या झुक गई गिरि ग्राम तरु पर

    उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चाँद

    मेरा प्यार पहिली बार लो तुम!––इत्यादि

    काव्य वन के चंचल खंजन श्री नरेंद्र शर्मा को मैं नरेन कहता हूँ। सबसे पहले उनके ‘प्रवासी के गीत’ की प्रथम रचना ने ही मेरा ध्यान उनके कवि की ओर आकृष्ट किया :

    साँझ होते ही जाने छा गई कैसी उदासी,

    यह पंक्ति जैसे जीवन की अनेक गहरी साँझों को मौन मुखरित कर जीवन विषाद के साक्षी की तरह मन की आँखो के सामने प्रत्यक्ष होती रहती है। उनके ‘मिट्टी और फूल’ की अनेक रचनाओं की पक्तियाँ मन मे जब-तब गूँज उठती है। नरेंद्र के अतिरिक्त श्री अज्ञेय जी की अनेक रचनाएँ मेरी प्रिय रही हैं। ‘हारिल’ रचना मैंने कई बार पढ़ी है। ‘हरी घास पर क्षण भर’ की हरियाली मे क्षणभर ही नहीं, अनेक बार देर तक विचरण करता रहा हूँ। ‘नदी के द्वीप’ कविता के समर्थन में तो कई बार उनसे कह चुका हूँ कि मैं भी नदी का ही द्वीप हूँ।

    वैसे अनेक और भी रचनाएँ मुझे अपने समकालीन एवं नवीन कवियों की प्रिय है, जिनकी चर्चा समयाभाव के कारण इस छोटी-सी वार्ता में करना संभव नहीं। इनमें दिनकर की किरणों का सम्मोहन मुझे सर्वाधिक प्रिय है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 177)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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