अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले

ab kahan dusre ke dukh se dukhi hone wale

निदा फ़ाज़ली

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अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले

निदा फ़ाज़ली

और अधिकनिदा फ़ाज़ली

    बाइबिल के सोलोमेन जिन्हें क़ुरआन में सुलेमान कहा गया है, ईसा से 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे। कहा गया है, वह केवल मानव जाति के ही राजा नहीं थे, सारे छोटे-बड़े पशु-पक्षी के भी हाकिम थे। वह इन सबकी भाषा भी जानते थे। एक दफ़ा सुलेमान अपने लश्कर के साथ एक रास्ते से गुज़र रहे थे। रास्ते में कुछ चींटियों ने घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनी तो डर कर एक-दूसरे से कहा, 'आप जल्दी से अपने-अपने बिलों में चलो, फ़ौज आ रही है।' सुलेमान उनकी बातें सुनकर थोड़ी दूर पर रुक गए और चींटियों से बोले, 'घबराओ नहीं, सुलेमान को ख़ुदा ने सबका रखवाला बनाया है। मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ, सबके लिए मुहब्बत हूँ।' चींटियों ने उनके लिए ईश्वर से दुआ की और सुलेमान अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गए। 

    ऐसी एक घटना का ज़िक्र सिंधी भाषा के महाकवि शेख़ अयाज़ ने अपनी आत्मकथा में किया है। उन्होंने लिखा है—'एक दिन उनके पिता कुएँ से नहाकर लौटे। माँ ने भोजन परोसा। उन्होंने जैसे ही रोटी का कौर तोड़ा। उनकी नज़र अपनी बाज़ू पर पड़ी।। वहाँ एक काला च्योंटा रेंग रहा था। वह भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए।' माँ ने पूछा, 'क्या बात है? भोजन अच्छा नहीं लगा?' शेख़ अयाज़ के पिता बोले, 'नहीं, यह बात नहीं है। मैंने एक घरवाले को बेघर कर दिया है। उस बेघर को कुएँ पर उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ।'

    बाइबिल और दूसरे पावन ग्रंथों में नूह नाम के एक पैग़ंबर का ज़िक्र मिलता है। उनका असली नाम लशकर था, लेकिन अरब ने उनको नूह के लक़ब से याद किया है। वह इसलिए कि आप सारी उम्र रोते रहे। इसका कारण एक ज़ख़्मी कुत्ता था। नूह के सामने से एक बार एक घायल कुत्ता गुज़रा। नूह ने उसे दुत्कारते हुए कहा, 'दूर हो जा गंदे कुत्ते!' इस्लाम में कुत्तों को गंदा समझा जाता है। कुत्ते ने उनकी दुत्कार सुनकर जवाब दिया...'न मैं अपनी मर्ज़ी से कुत्ता हूँ, न तुम अपनी पसंद से इनसान हो। बनाने वाला सबका तो वही एक है।' 

    मट्टी से मट्टी मिले,
    खो के सभी निशान।
    किसमें कितना कौन है,
    कैसे हो पहचान॥

    नूह ने जब उसकी बात सुनी और दुखी हो मुद्दत तक रोते रहे। 'महाभारत' में युधिष्ठिर का जो अंत तक साथ निभाता नज़र आता है, वह भी प्रतीकात्मक रूप में एक कुत्ता ही था। सब साथ छोड़ते गए तो केवल वही उनके एकांत को शांत कर रहा था।

    दुनिया कैसे वजूद में आई? पहले क्या थी? किस बिंदु से इसकी यात्रा शुरू हुई? इन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान अपनी तरह से देता है, धार्मिक ग्रंथ अपनी-अपनी तरह से। संसार की रचना भले ही कैसे हुई हो लेकिन धरती किसी एक की नहीं है। पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर आदि की इसमें बराबर की हिस्सेदारी है। यह और बात है कि इस हिस्सेदारी में मानव जाति ने अपनी बुद्धि से बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दी हैं। पहले पूरा संसार एक परिवार के समान था अब टुकड़ों में बँटकर एक दूसरे से दूर हो चुका है। पहले बड़े-बड़े दालानों-आँगनों में सब मिल-जुलकर रहते थे अब छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में जीवन सिमटने लगा है। बढ़ती हुई आबादियों ने समंदर को पीछे सरकाना शुरू कर दिया है, पेड़ों को रास्तों से हटाना शुरू कर दिया है, फैलते हुए प्रदूषण ने पंछियों को बस्तियों से भगाना शुरू कर दिया है। बारूदों की विनाशलीलाओं ने वातावरण को सताना शुरू कर दिया। अब गर्मी में ज़्यादा गर्मी, बेवक़्त की बरसातें, ज़लज़ले, सैलाब, तूफ़ान और नित नए रोग, मानव और प्रकृति के इसी असंतुलन के परिणाम हैं। नेचर की सहनशक्ति की एक सीमा होती है नेचर के ग़ुस्से का एक नमूना कुछ साल पहले बंबई (मुंबई) में देखने को मिला था और यह नमूना इतना डरावना था कि बंबई निवासी डरकर अपने-अपने पूजा-स्थल में अपने ख़ुदाओं से प्रार्थना करने लगे थे।

    कई सालों से बड़े-बड़े बिल्डर समंदर को पीछे धकेल कर उसकी ज़मीन को हथिया रहे थे। बेचारा समंदर लगातार सिमटता जा रहा था। पहले उसने अपनी फैली हुई टाँगे समेटीं, थोड़ा सिमटकर बैठ गया। फिर जगह कम पड़ी तो उकड़ूँ बैठ गया। फिर खड़ा हो गया...जब खड़े रहने की जगह कम पड़ी तो उसे ग़ुस्सा आ गया। जो जितना बड़ा होता है उसे उतना ही कम ग़ुस्सा आता है। परंतु आता है तो रोकना मुश्किल हो जाता है, और यही हुआ, उसने एक रात अपनी लहरों पर दौड़ते हुए तीन जहाज़ों को उठाकर बच्चों की गेंद की तरह तीन दिशाओं में फेंक दिया। एक वर्ली के समंदर के किनारे पर आकर गिरा, दूसरा बांद्रा में कार्टर रोड के सामने औंधे मुँह और तीसरा गेट-वे-ऑफ़ इंडिया पर टूट-फूटकर सैलानियों का नज़ारा बना बावजूद कोशिश, वे फिर से चलने-फिरने के क़ाबिल नहीं हो सके।

    मेरी माँ कहती थी, सूरज ढले आँगन के पेड़ों से पत्ते मत तोड़ो, पेड़ रोएँगे। दीया-बत्ती के वक़्त फूलों को मत तोड़ो, फूल बद्दुआ देते हैं।...दरिया पर जाओ तो उसे सलाम किया करो, वह ख़ुश होता है। कबूतरों को मत सताया करो, वे हज़रत मुहम्मद को अज़ीज़ हैं। उन्होंने उन्हें अपनी मज़ार के नीले गुंबद पर घोंसले बनाने की इजाज़त दे रखी है। मुर्ग़े को परेशान नहीं किया करो, वह मुल्ला जी से पहले मुहल्ले में अज़ान देकर सबको सवेरे जगाता है—

    सब की पूजा एक-सी, अलग-अलग है रीत। 
    मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत॥

    ग्वालियर में हमारा एक मकान था, उस मकान के दालान में दो रोशनदान थे। उसमें कबूतर के एक जोड़े ने घोंसला बना लिया था। एक बार बिल्ली ने उचककर दो में से एक अंडा तोड़ दिया। मेरी माँ ने देखा तो उसे दु:ख हुआ। उसने स्टूल पर चढ़कर दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश की। लेकिन इस कोशिश में दूसरा अंडा उसी के हाथ से गिरकर टूट गया। कबूतर परेशानी में इधर-उधर फड़फड़ा रहे थे। उनकी आँखों में दु:ख देखकर मेरी माँ की आँखों में आँसू आ गए। इस गुनाह को ख़ुदा से मुआफ़ कराने के लिए उसने पूरे दिन रोज़ा रखा। दिन-भर कुछ खाया-पिया नहीं। सिर्फ़ रोती रही और बार-बार नमाज़ पढ़ पढ़कर ख़ुदा से इस ग़लती को मुआफ़ करने की दुआ माँगती रही। 

    ग्वालियर से बंबई की दूरी ने संसार को काफ़ी कुछ बदल दिया है। वर्सोवा में जहाँ आज मेरा घर है, पहले यहाँ दूर तक जंगल था। पेड़ थे, परिंदे थे और दूसरे जानवर थे। अब यहाँ समंदर के किनारे लंबी-चौड़ी बस्ती बन गई है। इस बस्ती ने न जाने कितने परिंदो-चरिंदों से उनका घर छन लिया है। इनमें से कुछ शहर छोड़कर चले गए हैं। जो नहीं जा सके है उन्होंने यहाँ-वहाँ डेरा डाल लिया है। इनमें से दो कबूतरों ने मेरे फ़्लैट के एक मचान में घोंसला बना लिया है। बच्चे अभी छोटे हैं। उनके खिलाने-पिलाने की ज़िम्मेदारी अभी बड़े कबूतरों की है। वे दिन में कई-कई बार आते-जाते हैं। और क्यों न आएँ-जाएँ आख़िर उनका भी घर है। लेकिन उनके आने-जाने से हमें परेशानी भी होती है। वे कभी किसी चीज़ को गिराकर तोड़ देते हैं। कभी मेरी लाइब्रेरी में घुसकर कबीर या मिर्ज़ा ग़ालिब को सताने लगते हैं। इस रोज़-रोज़ की परेशानी से तंग आकर मेरी पत्नी ने उस जगह जहाँ उनका आशियाना था, एक जाली लगा दी है, उनके बच्चों को दूसरी जगह कर दिया है। उनके आने की खिड़की को भी बंद किया जाने लगा है। खिड़की के बाहर अब दोनों कबूतर रात-भर ख़ामोश और उदास बैठे रहते हैं। मगर अब न सोलोमेन है जो उनकी ज़ुबान को समझकर उनका दु:ख बाँटे, न मेरी माँ है, जो इनके दुखों में सारी रात नमाज़ों में काटे—

    नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम। 
    सूरज ठेकेदार-सा, सबको बाँटे काम॥
    स्रोत :
    • पुस्तक : स्पर्श (भाग-2) (पृष्ठ 91)
    • रचनाकार : निदा फ़ाज़ली
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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