संस्कृत नाट्य-शास्त्र में रूपक का स्वरूप तथा भेद-प्रभेद

sanskrit naty shastr mein rupak ka swarup tatha bhed prabhed

गोविंद त्रिगुणायत

गोविंद त्रिगुणायत

संस्कृत नाट्य-शास्त्र में रूपक का स्वरूप तथा भेद-प्रभेद

गोविंद त्रिगुणायत

और अधिकगोविंद त्रिगुणायत

    संस्कृत आचार्यों ने इंद्रिय सन्निकर्ष के आधार पर काव्य के दो भेद किए हैं—दृश्य और श्रव्य। नट द्वारा अंग-विक्षेप, भाव-भंगिमाओं और उच्चारण-सौष्ठव के सहारे अभिव्यक्त रसपूर्ण जीवन प्रत्यय चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रधान होने के कारण दृश्य, और कवि की वाणी द्वारा अभिव्यक्त उसके अनुभव श्रवणेंद्रिय के माध्यम से अनुभूय होने के कारण, श्रव्य काव्य के अभिधान से प्रसिद्ध हो गए हैं। रूपक का संबंध काव्य की पहली विधा से है।

    रूपक शब्द 'रूप' धातु में णवुल प्रत्यय जोड़ने से व्युत्पन्न हुआ है। साहित्य में यह नाट्य का वाचक माना जाता है। कहीं-कहीं रूपक के स्थान पर केवल रूप शब्द का प्रयोग भी मिलता है। वास्तव में प्रत्यय-भेद के अतिरिक्त दोनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। नाट्य के अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग बहुत प्राचीन काल से होता आया है। यह कहना कि इन शब्दों में अभिनय के अर्थ का समावेश नवी या दसवी शताब्दी के आस-पास हुआ युक्तियुक्त नहीं है। यदि हम ऋग्वेद सहिता, तैत्तरीयब्राह्मण, थेरगाथा, मिलिंदप्रश्न, अशोक के शिलालेख आदि में प्रयुक्त इन शब्दों को, अर्थ के विवादग्रस्त होने के कारण अभिनय के अर्थ से पूर्ण संबद्ध स्वीकार भी करें तो भी नाट्य-शास्त्र के प्रमाण के आधार पर इनकी प्राचीनता निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाती है।

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    1. रूपक शब्द के बहुत से अर्थ होते हैं। देखिए 'संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी' मोनियर विलियम्स, पृष्ठ 84।

    2. देखिए मांकड लिखित 'टाइप्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा', पृष्ठ 31 कराची (1936)।

    3. देखिए 'ऋग्वेद संहिता' 6।46।18 यहाँ रूप शब्द का अर्थ भेष बदलना है।

    4. इसका संकेत मोनियर विलियम्स ने दिया है- 'संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी' पृष्ठ 884४

    5. देखिए इसका संकेत 'संस्कृत ड्रामा' कोथ-लिखित-पृष्ठ 54 यहाँ 'रूपकम्' शब्द का प्रयोग किया गया है।

    6. देखिए 'मिलिंदप्रश्न' (मिलिंदप्रश्न) पृष्ठ 344 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' से उद्धृत।

    7. 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' मांकड पृष्ठ 27

    नाट्य-शास्त्र में कई स्थलों पर स्पष्ट रूप से 'दशरूप' शब्द का प्रयोग नाट्य की दस विधानों के अर्थ में किया गया है। नाट्य-शास्त्र का समय ई. पू. पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी ईसवी निश्चित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि रूपकशब्द नाट्य के अर्थ में ईसवी शताब्दी पूर्व से ही प्रचलित है।

    रूपक या रूप की स्वरूप-व्याख्या के पूर्व हमें नाट्य, नृत्य, और नृत्त शब्दों की विवेचना करनी पड़ेगी क्योंकि ये तीनों शब्द रूपक के विकास की प्रथम तीन भूमिकाओं के द्योतक हैं। इनको समझे बिना हम रूपक और उसके भेद-प्रभेदों के वास्तविक रूप को नहीं समझ सकते।

    'नाट्य' शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। नाट्य-दर्पण के रचयिता रामचंद्र के मतानुसार यह शब्द 'नाट्' धातु से व्युत्पन्न हुआ है। किंतु यह मत सर्वमान्य हो सका क्योंकि पाणिनि ने नाट्य की उत्पत्ति 'नट्' धातु से मानी है। पाणिनि का मत ही प्रतिष्ठित समझा जाता है। यहाँ पर हम थोड़ा-सा संकेत विद्वानों की उन आनुमानिक क्रीडाओं की ओर कर देना चाहते हैं जो नट् धातु का आधार लेकर की गई है। वैवर साहब ने नट् धातु को 'नत्' धातु का प्राकृत-रूप माना है। मोनियर विलियम्स ने अपने कोष में इसी मत का समर्थन किया है। कुछ दूसरे विद्वानों का कहना है कि नट् धातु 'नृत्' का प्राकृत-रूप तो नहीं है किंतु इसका जन्म नृत् की अपेक्षा बहुत बाद में हुआ था। इस मत के समर्थकों में श्री मांकड और डॉ. चंद्रभानु गुप्त अग्रगण्य है। उनका कहना है कि नृत् धातु का प्रयोग हमें ऋग्वेद तक में मिलता है। किंतु नट् धातु पाणिनि से पहले कहीं भी प्रयुक्त नहीं मिलती है। उनका यह तर्क श्रमसाध्य खोजों पर आधारित नहीं है। मुझे ऋग्वेद में नट् धातु का प्रयोग भी मिला है। अतः श्री मांकड का मत निराकृत हो जाता है। वास्तव में नट् और नृत्त ये दोनों धातुएँ ऋग्वेद-काल से ही स्वतंत्र और निरपेक्ष-रूप से प्रचलित हैं। इसीलिए पाणिनि में इनका उल्लेख अलग-अलग किया है। यह हो सकता है कि इन दोनों के अर्थों में समय-समय पर विविध भाषा-वैज्ञानिक कारणों से परिवर्तन होता रहा हो। ऋग्वेद में ये दोनों भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त मिलती हैं। वेदोत्तर-काल में ये संभवतः समानार्थक हो गई थी। बाद में नद् धातु के अर्थ का और अधिक विस्तार हुआ। उसमें नृत् धातु के अर्थ के साथ-साथ अभिनय का अर्थ भी संबद्ध हो गया। इस बात का प्रमाण हमें नाट्य-सर्वस्व दीपिका और 'सिद्धांत कौमुदी' नामक ग्रंथों से मिलता है। इन दोनों ग्रंथों में नट्-धातु का अर्थ गात्र-विक्षेपण और अभिनय दोनों ही लिया गया है। आगे चलकर नट् धातु केवल अभिनय मात्र की वाचक रह गई। गात्र-विक्षेपण के अर्थ में केवल नृत् धातु का ही प्रयोग प्रचलित हो गया। नाट्य-शब्द अभिनयार्थक नट् धातु से बना है और 'नृत्य' तथा 'नृत्त' ये दोनों शब्द गात्र-विक्षेपणार्थक 'नृत्' धातु से व्युत्पन्न हुए हैं।

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    1. नाट्य-शास्त्र (निर्णय सागर) 1643 पृष्ठ 286 पर लिखा है 'दशरूप विधानेतु पाठय योज्य प्रयोक्तभि'

    2. देखिए उपर्युक्त 'दशरूप विधानेतु' की अभिनव गुप्त-कृत व्याख्या।

    3. देखिए 'साहित्य दर्पण ऑफ़ विश्वनाथ' में काणे साहब की भूमिका पृष्ठ 40 तृतीय संस्करण।

    4. देखिए रामचंद्र लिखित 'नाट्य-दर्पण’ पृष्ठ 28 (जी. ओ. सी.)।

    5. पाणिनि 4।3।126

    6. 'ए हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन लिटरेचर' वेवर-लिखित, तीसरा संस्करण पृष्ठ 197

    7. 'संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी' मोनियर विलियम्स, पृष्ठ 525

    8. देखिए टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' 1847 और देखिए 'दि इंडियन थियेटर' डॉ. चंद्रभान गुप्त लिखित अध्याय 3 पृष्ठ 136

    नाट्य, नृत्य और नृत्त इन तीनों की विस्तृत व्याख्या हमें शारदातनय-विरचित 'भावप्रकाशम्', विद्यानाथ लिखित 'प्रतापरुद्रयशोभूषण', निश्शक शाङ्ग देव प्रणीत 'संगीतरत्नाकर', नामक ग्रंथों में मिलती है। इनके अतिरिक्त मंदारमरंद चंपू, नाट्यदर्पण, सिद्धांत कौमुदी आदि ग्रंथों में भी इनपर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इन सभी ग्रंथों में नाट्य-स्वरूप के संबंध में कोई विशेष मतभेद नहीं दिखाई देता। किंतु नृत्य और नृत्त के संबंध में सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ अलग-अलग हैं। इन सभी ग्रंथों में 'दशरूपकम्' की सबसे अधिक प्रतिष्ठा है। उसी के मत सर्वमान्य भी हैं। अतएव हम यहाँ पर उसी के आधार पर इन तीनों की स्वरूप-व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं।

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    1. देखिए 'ऋग्वेद' 7।104।23

    2. पाणिनि 431129

    3. सायण ने नट् धातु का अर्थ ‘व्याप्नोति' किया है और नृत् हिलने-डुलने के अर्थ में आई है। देखिए 'सायण भाष्य' 10॥15॥3, नृत् के अर्थ के लिए और नट के अर्थ के लिए 4।105।23 की टीका।

    4. देखिए 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' पृष्ठ 8

    5. सिद्धांत कौमुदी के तिडंत प्रकरण में इस प्रकार लिखा है- “नट नृत्ती। इत्थमेव पूर्वमपि पठितम्। तत्रायं विवेकः। पूर्व पठितस्य नाट्यमर्थः। यत्कारिष नटव्यपदेशः।

    6. 'भावप्रकाशम्'- शारदातनय पृष्ठ 181

    7. विद्यानाथ लिखित 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' (बाम्बे संस्कृत सिरीज़) पृष्ठ 101

    8. 'संगीतरत्नाकर' का सातवाँ अध्याय देखिए।

    9. देखिए 'मंदारमरंद चंपू’ कृष्णशर्मन् लिखित पृष्ठ 59 (काव्य-माला सिरीज़)

    दशरूपककार धनजय और उसके टीकाकार धनिक दोनों ने नाट्य के स्वरूप को सविस्तार समझाने की चेष्टा की है। धनजय ने अवस्था की अनुकृति को नाट्य कहा है। आचार्य का अवस्था की अनुकृति से क्या अभिप्राय है इसको स्पष्ट करते हुए धनिक ने लिखा है, काव्य में जो नायक की धीरोदात्त इत्यादि अवस्थाएँ बतलाई गई हैं उनकी एकरूपता जब नट अभिनय के द्वारा प्राप्त कर लेता है, तब वही एकरूपता की प्राप्ति नाट्य कहलाती है। उसमें आगिक अभिनय के साथ सात्त्विक अभिनय भी होता है। उसका विषय रस है इसीलिए वह रसाश्रित कहलाता है।

    नृत्य नाट्य से भिन्न होता है। दोनों में विषय संबंधी अंतर है। नाट्य रसाश्रित होता है और नृत्य भावाश्रित। नृत्य में काव्यत्व भी नहीं पाया जाता। उसमें सुनने को बात भी नहीं होती। इसीलिए प्रायः लोग कहा करते हैं कि नृत्य केवल देखने की वस्तु है। नृत्य में आगिक अभिनय की प्रधानता रहती है। इसमें पदार्थ का अभिनय होता है, वाक्य का नहीं। इसे लोग दैव-आविष्कृत मानते हैं।

    नृत्य से नृत्त भिन्न होता है। नृत्य में पदार्थ का अभिनय होता है किंतु नृत्त में किसी प्रकार का भी अभिनय नहीं होता। नृत्य और नृत्त में आधार-संबंधी भेद है। नृत्य का आधार भाव होते हैं और नृत्त का ताल और लय। यदि हम नाट्य, नृत्य और नृत इन तीनों पर तुलनात्मक रूप से विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि नृत, नृत्य ये नाट्य की ही दो प्रथम भूमिकाएँ हैं।

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    1. देखिए 'नाट्य-दर्पण’- रामचंद्र लिखित (जी० ओ० सी०)

    2. देखिए सिद्धांत कौमुदी' पृष्ठ 196

    3. देखिए 'दशरूपकम्' 1-7। इसकी व्याख्या के लिए डॉ. गोविंद त्रिगुणायात लिखित 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 5 दृष्टव्य है।

    4. हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 5

    5. देखिए 'दशरूपकम्' 1।9

    6. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 6,7

    7. देखिए धनजय लिखित 'दशरूपकम्' में 1।9 को धनिक-कृत संस्कृत टीका।

    8. यही।

    रूपक सामान्यतया नाट्य का पर्यायवाची माना जाता है। किंतु यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो हमें नाट्य और रूपक में भी उसी प्रकार सूक्ष्म अंतर दिखाई पड़ेगा जैसा कि नाट्य और नृत्य में मिलता है। दशरूपककार ने रूपक को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि रूप का आरोप करने के कारण नाट्य को रूपक कहते हैं। साहित्यदर्पणकार ने दशरूपक के ही शब्द यत्किंचित परिवर्तन के साथ दोहराए हैं। नाट्य में अवस्थाओं की अनुकृति को महत्व दिया जाता है। किंतु रूपक में अवस्थाओं की अनुकृति के साथ-साथ रूप का आरोप भी होता है। वास्तव में अभिनय-कला का पूर्ण और सफल रूप हमें रूपक में ही मिलता है। यदि नाट्य को रूप के आरोप से विशिष्ट किया जाए तो पूर्ण साधारणीकरण नहीं हो सकेगा। क्योंकि साधारणीकरण के लिए केवल अवस्थानुकृति ही आवश्यक नहीं होती, रूपानुकृति भी अपेक्षित होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नृत्त, नृत्य और नाट्य ये तीनों रूपक की प्रारंभिक भूमिकाएँ हैं। अभिनय-कला का पूर्ण और चरम रूप हमें रूपक में ही मिलता है।

    संस्कृत साहित्य में हमें दो प्रकार की नाट्य-विधाएँ मिलती हैं—रूपक और उपरूपक। रूपक नाट्य के भेद कहे गए हैं और उपरूपक नृत्य के। रूपको की संख्या के संबंध में आचार्यों में मतभेद है। नाट्य-शास्त्र में दस रूपक गिनाए गए हैं। नाम क्रमशः प्रकरण, अंक, व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम और ईहामृग हैं। उसमें अंक के लिए उत्सृष्टाक का अभिधान भी प्रयुक्त किया गया है।

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    1. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 7

    2. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 5

    3. देखिए 'साहित्य दर्पण' में 'दृश्यं तत्राभिनेयं तद्पारोपातु तु रूपकम्' 3।6

    4. देखिए 'हिंदी दशरूपक' डॉ. गोविंद त्रिगुणायत पृष्ठ 5 पर 'दशधैव रसाधयम' की व्याख्या।

    5. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 6 पर धनिक कृत-नृत्य के स्वरूप की व्याख्या।

    6. देखिए 'नाटयशास्त्र' 18।2,3

    7. देखिए 'नाट्यशास्त्र' 18।8

    इनके अतिरिक्त भरत मुनि ने नाटक और प्रकरण के योग से नाटी की उत्पत्ति बतलाई है। अग्निपुराण में हमें रूपक और उपरूपक संबंधी भेद नहीं दिखाई पड़ता है। उसमें सत्ताईस नाटकों का उल्लेख किया गया है। उनमें दस रूपक और सत्रह उपरूपक सन्निविष्ट है। दशरूपककार ने भरत के अनुकरण पर रूपक के दस भेद माने हैं। 'काव्यानुशासन' और 'नाट्यदर्पण' नामक ग्रंथों में रूपकों की संख्या दस से बढ़ाकर बारह कर दी गई है। 'काव्यानुशासनकार' ने नाट्य के दस भेदों में नाटिका और सट्टक दो प्रकार और जोड़ दिए हैं। 'नाट्यदर्पण' में हमें सट्टक के स्थान पर प्रकरण का उल्लेख मिलता है। 'भावप्रकाशम्' में दशरूपक और नाट्य-शास्त्र में परिगणित रूपक के दस भेदों को ही मान्यता दी गई है। इस ग्रंथ में नाटिका का उद्भव नाटक और प्रकरण के योग से माना गया है। साहित्यदर्पण में रूपक के नाट्य-शास्त्र वाले दस भेद ही स्वीकार किए गए हैं। विश्वनाथ ने नाटिका की गणना उपरूपको में की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृत नाट्य-शास्त्र में रूपकों की संख्या के संबंध में बड़ा मतभेद है। किंतु एक बात बहुत स्पष्ट है, वह यह कि नाटय-शास्त्र और दशरूपक में वर्णित रूपकों के दस भेद प्राय सभी को मान्य हैं। अतएव यहाँ पर हम उन्हीं दशरूपकों का वर्णन करेंगे। उनके नाम नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, वीथी, समवकार, व्यायोग, अंक और ईहामृग है।

    नाटक का नाम रूपकों में सर्वप्रथम लिया जाता है क्योंकि प्रकरणादि अन्य रूपकों के लक्षण नाटक के आधार पर ही निर्धारित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त रूपक के प्राणभूत तत्त्व रस को पूर्ण प्रतिष्ठा भी इसी में पाई जाती है। संभवतः इन्हीं कारणों से किसी ने 'काव्येषु नाटक घेण्ठम्' लिख डाला है। दशरूपककार धनजय ने नाटक की विशेषताओं का विश्लेषण छह दृष्टियों से किया है— प्रारंभिक विधान और वृत्ति, कथावस्तु, नायक, रस, वर्ज्य दृश्य और अंक। दशरूपककार

    फ़ुटप्रिंट-

    1. देखिए 'नाटय-शास्त्र' 18।106

    2. देखिए 'मग्निपुराण' अध्याय 338 श्लोक 1 से लेकर 4 तक।

    3. देखिए 'दशरूपक' 1।8

    4. देखिए हेमचंद्र लिखित 'काव्यानुशासन पृष्ठ 317

    5. देखिए 'नाट्य-दर्पण' रामचंद्र और गुणचंद्र लिखित पृष्ठ 26 (जी. ओ. एस.)।

    6. देखिए 'साहित्यदर्पण' 6।557

    7. देखिए 'दशरूपक' 1।8 'नाट्यशास्त्र' 18।2

    8. देखिए 'हिंदी दशरूपक' में 3।1 की व्याख्या।

    9. यही।

    ने नाटक के प्रारंभिक विधानों का वर्णन इस प्रकार किया है—नाटक में सबसे पहले सूत्रधार के द्वारा पूर्व-रग का विधान होना चाहिए। सूत्रधार के चले जाने पर उसीके सदृश दूसरे नट के द्वारा स्थापना, आमुख या प्रस्तावना की जानी चाहिए। स्थापक को चाहिए कि दिव्य वस्तु की दिव्य होकर, मर्त्य को मर्त्य होकर तथा मिश्र वस्तु की दोनों में से किसी एक का रूप धारण कर स्थापना का विधान करे। स्थापना वस्तु, बीज, मुख अथवा पात्र इनमें से किसी एक की सूचना देने वाली होनी चाहिए। पुनश्च किसी ऋतु का आश्रय लेकर भारती वृत्ति से सन्निबद्ध रंगस्थल को आमोदित करने वाले श्लोकों का पाठ करे। इस प्रारंभिक दृश्य में वीथ्यगों अथवा आमुखागों की योजना भी की जानी चाहिए। आमुख का विधान करते समय सूत्रधार नटी, मारिष था विदूषक से अपने सलाप के मध्य कथा का संकेत कर देता है। आमुख-स्थापना या प्रस्थापना के भी तीन प्रकार होते हैं, उनके नाम क्रमशः कथोद्धात, प्रवृत्तक, प्रयोगातिशय हैं। जहाँ सूत्रधार के इतिवृत्त से संबंधित उसी के वाक्य या अर्थों को लेकर किसी पात्र का प्रवेश कराया जाता है, वहाँ कथोद्धात नामक आमुखाग माना जाता है। प्रवृत्तक वहाँ पर होता है, जहाँ काल की समानता को लेकर श्लेष से किसी पात्र के आगमन की सूचना दी जाती है। प्रयोगातिशय में सूत्रधार इन शब्दों को कहते हुए कि 'यह वह है' किसी पात्र का प्रवेश कराता है। आमुख के यह अंग वीथी के भी अंग माने जाते हैं।

    नाटक की कथा-वस्तु का चुनाव इतिहास से ही किया जाना चाहिए। चुनाव करते समय कवि का कर्तव्य होता है कि वह मूल कथा के उन अंशों का जो रस अथवा नायक के विरोध में पड़ते हैं या तो परिहार कर दे या फिर उनमें आवश्यक परिष्कार कर दे। वस्तु का विन्यास कार्यावस्थाओं, अर्थ-प्रकृतियों और सधियो के अनुरूप किया जाना चाहिए। कथा के बीच में विष्कंभक आदि अर्थोपक्षेपकों का भी नियोजन होना चाहिए।

    नाटक के नायक का धीरोदात्त आदि गुणों से विशिष्ट होना नितांत आवश्यक होता है। धनजय के अनुसार वह प्रतापशाली, कीर्ति की इच्छा करने वाला, वेदत्रयी का ज्ञाता और रक्षक, उच्चवंश

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    1. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 140-141

    2.. देखिए 'दशरूपकम्' 3।23

    3. देखिए 'दशरूपकम्' 3।24,25

    4. देखिए हिंदी 'दशरूपक' पृष्ठ 151 152

    5. वही पृष्ठ

    वाला कोई राजर्षि अथवा दैवी पुरुष होना चाहिए।

    नाटक का प्राण 'रस' होता है। उसमें वीर या श्रृंगार को भगी-रूप में तथा अन्य रसों की अंग के रूप में प्रतिष्ठा होनी चाहिए। इसमें निर्वहण संधि में अद्भुत रस का होना आवश्यक समझा जाता है।

    नाटक में रंगमंच पर कुछ बातों का प्रदर्शन वर्जित माना गया है। प्रमुख वर्जित दृश्य दूर का मार्ग, वध, युद्ध, राज्य और देश-विप्लव, घेरा डालना, भोजन, स्नान, सुरत, अनुलेपन और वस्त्र-ग्रहण आदि माने गए हैं। अधिकारी नायक का वध तो रंगमंच पर किसी भी प्रकार नहीं दिखाना चाहिए। आवश्यक का परित्याग भी नहीं करना चाहिए। यदि आवश्यकता पड़ जाए तो दैवकार्य या पितृकार्य आदि वर्जित दृश्य दिखाए भी जा सकते हैं।

    नाटक पाँच अंक से दस अंक तक हो सकता हैं। पाँच अकों का नाटक छोटा कहा जाता है और दस अंकों का बड़ा। एक अंक में एक ही दिन एक ही प्रयोजन से किए गए कार्यों का प्रदर्शन होना चाहिए। प्रत्येक अंक का नायक से संबंधित होना भी आवश्यक होता है। नायक के अतिरिक्त एक अंक में दो या तीन पात्र और भी हो सकते हैं। किंतु इन पात्रों का अंक के अंत में निकल जाना आवश्यक होता है। अंक में पताका-स्थानकों का भी समावेश करना चाहिए। इसमें बिंदु की अवस्थिति तथा बीज का परामर्श भी होना चाहिए। संक्षेप में, दशरूपक के अनुसार नाटक के लक्षण यही हैं।

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    1. देखिए 'दशरूपकम्' 3।24

    2. देखिए 'दशरूपकम्' 3।33

    3. देखिए 'दशरूपकम्' 3।34

    4. देखिए 'दशरूपकम् 3।34,35

    5. देखिए 'दशरूपकम्' 3।36

    6. देसिए 'दशरूपकम्' 3।36 की धनिक-कृत टीका।

    7. देखिए 'दशरूपकम्' 3।38 'साहित्य दर्पण' में दस अंक के नाटक को महानाटक कहा गया है। सा. व. 6।5227

    8. देखिए 'दशरूपकम्' 3।36,37

    9. देखिए 'दशरूपकम्' 3।30

    10. देखिए 'दशरूपकम्' 3।36,37

    11. देखिए 'दशरूपकम्' 3।37,38

    12. देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 154

    नाट्य-शास्त्र के अन्य ग्रंथों में भी नाटक के स्वरूप का विवेचन किया गया है। यहाँ पर हम उन ग्रंथो में दी गई नाटक संबंधी उन बातों का संकेत कर देना चाहते हैं जो दशरूपक में वर्णित विशेषताओं से या तो भिन्न है या अधिक। नाट्य-शास्त्र में नायक के लिए 'दिव्याश्रयोपेतम्' का विशेषण प्रयुक्त किया गया है। अभिनव गुप्त ने उसका अर्थ दैवी पुरुष किया है। काव्यानुशासनकार ने अभिनव गुप्त का खंडन करते हुए लिखा है कि 'दिव्याश्रयोपेतम्' से आचार्य का अभिप्राय दैवी पुरुष से था। उन्होंने इसका प्रयोग दैवी सहायता के अर्थ में किया था। नाटक का नायक वास्तव में मनुष्य ही होना चाहिए। नायिका उर्वशी आदि मनुष्येतर स्त्री भी हो सकती है। नायक की दृष्टि से नाट्यदर्पणकार का मत भी विचारणीय है। उसका कहना है कि नायक का क्षत्रिय होना आवश्यक है। चाहे वह नृपेतर ही क्यों हो। भावप्रकाशकार का मत अन्य आचार्यों से भिन्न है। उसने सुबंधु का आश्रय लेते हुए लिखा है कि नाटक के पाँच भेद होते हैं—पूर्ण, प्रशांत, भास्वर, ललित और समग्र। पूर्ण नामक प्रकार का वर्णन करते हुए उसने लिखा है कि उसमें पाँचो संधियों की योजना की जाती है। संधियों के नाम भी उसने नए दिए हैं। वे क्रमशः न्यास, समुद्भेद, बीज दर्शन और अनुदिष्ट सहार हैं। इसी प्रकार अन्य नाटक प्रकारों के लक्षण भी इस ग्रंथ में अपने ढंग पर ही गिनाए गए हैं। विस्तार-भय से यहाँ पर उन सबका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। नाटक के संबंध में साहित्य-दर्पण की भी एक बात उल्लेखनीय है वह है अंकों के क्रम-विन्यास की। उसके अनुसार नाटक के अंको का क्रम-विन्यास गोपुच्छ शैली पर होना चाहिए। क्रमश: अंकों का छोटा होते जाना ही गोपुच्छ शैली है। इस प्रकार हम देखते हैं कि नाटक के सबंध में हमें दो परंपराएँ मिलती हैं। एक परंपरा भरतमुनि की है और दूसरी सुबंधु की। भरतमुनि की परंपरा का पोषण अधिकांश आचार्यों ने किया है। सुबंधु की परंपरा उसके नाट्य-शास्त्र संबधी ग्रंथ के साथ ही लुप्त हो गई है। 'काव्यानुशासन' नामक ग्रंथ में उसका थोड़ा-बहुत आभास मिलता है। भरतमुनि की परंपरा के अनुरूप संस्कृत में बहुत से सफल नाटक मिलते हैं। उदाहरण रूप में अभिज्ञान शाकुंतलम्, उत्तररामचरित आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

    प्रकरण की रूपरेखा नाटक से भिन्न होती है। धनजय के अनुसार प्रकरण की कथा-वस्तु कवि-कल्पित होनी चाहिए। उसका नायक मंत्री, ब्राह्मण या वैश्य भी हो सकता है। उसका धीर प्रशांत

    फ़ुटप्रिंट-

    1. देखिए 'नाट्य-शास्त्र 18।।10

    2. देखिए 'काव्यानुशासन' हेमचंद्र लिखित पृष्ठ 317

    3. देखिए 'नाट्य-दर्पण' रामचंद्र लिखित

    4. देखिए 'भावप्रकाशम्' शारदातनय-विरचित पृष्ठ 223

    होना भी आवश्यक होता है। उसकी प्रयोजन-सिद्धि आपत्तियों से बाधित चित्रित की जानी चाहिए। उसकी प्रकृति धर्म-प्रिय होनी चाहिए। प्रकरण की नायिकाएँ दो प्रकार की हो सकती हैं—कुल-वधू और वेश्या। दोनों की योजना एक साथ भी की जा सकती है। इसी आधार पर धनजय ने प्रकरण के तीन भेद माने हैं- कुल-वधू-प्रधान, वेश्या-प्रधान, और उभय-प्रधान। शेष बातों में प्रकरण नाटक के सदृश ही होता है। नाट्य-शास्त्र की प्रकरण संबंधी उपर्युक्त सभी बातें मान्य हैं। उसमें अंको का विधान और कर दिया गया है। उसके अनुसार प्रकरण में पाँच दस अंक तक हो सकते हैं। नाट्यदर्पणकार ने नायक के संबंध में दशरूपक और नाट्य-शास्त्र दोनों से भिन्न मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार प्रकरण का नायक धीर प्रशांत ही नहीं धीरोदात्त भी हो सकता है। नाट्यदर्पण में नायिका के संबंध में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार नायिका नीच जाति की भी हो सकती है। प्रकरण के भेदों के संबंध में भी मतभेद है। काव्यानुशासन और 'नाट्यदर्पण' नामक ग्रंथों में प्रकरण के तीन भेदों के स्थान पर सात भेद गिनाए गए हैं। विस्तार-भय से यहाँ पर उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। मृच्छकटिक प्रकरण का सुंदर उदाहरण माना जाता है।

    अब भाण नामक रूपक पर विचार कर लेना चाहते हैं। इसमें विट् (एक कला-पारगत व्यक्ति) द्वारा किसी एक ऐसे धूर्त चरित्र का जिससे या तो उसका स्वयं साक्षात्कार हुआ हो या उसके संबंध में उसने किसी दूसरे से सुना हो, वर्णन किया जाता है। यहाँ संबोधन, उक्ति, प्रत्युक्ति आदि में वीर रस-द्योतक शौर्य आदि और श्रृंगार रस सूचक सौभाग्य आदि का सन्निवेश आकाश-भापित से किया जाता है। इसका कारण विट् के अतिरिक्त दूसरे पात्र का होना है। इसमें अधिकतर भारती वृत्ति का ही आश्रय लिया जाता है। सध्यङ्गो से युक्त संधियों की योजना भी इसकी प्रधान विशेषता है। इसकी वस्तु भी कल्पित होती है। उसमें लास्य के दसों अंगों की

    फ़ुटप्रिंट-

    1. देखिए 'दशरूफम्' 3।39, 40, 41, 42 तथा धनिक-कृत इनको टीका का हिंदी अनुवाद हिंदी दशरूपक' में।

    2. देखिए 'नाट्य-शास्त्र' 18-93 से 104 तक।

    3. देखिए 'नाट्य-दर्पण' रामचंद्र विरचित, पृष्ठ 177

    4. यही।

    5. देखिए 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' पृष्ठ 53

    6. यही।

    7. 'रसार्णव सुधाकर' नामक ग्रंथ में मृच्छकटिक को मिश्र प्रकरण का सुंदर उदाहरण बताया गया है।

    प्रतिष्ठा भी रहती है। नाट्य-शास्त्र में धूर्त चरित्र के आधार पर भाण के दो भेद किए हैं—आत्माभूतशसी, वह जिसमें नायक अपने अनुभवों का वर्णन करता है, और परसश्रय-वर्णन विशेष, वह जिसमें दूसरे के अनुभवों का वर्णन किया जाता है। नाट्य-शास्त्र से यह भी ध्वनि निकलती है कि भाण एकाकी रूपक है। 'काव्यानुशासन' में भाण के संबंध में एक बात और कही गई है। उसके अनुसार इसकी रचना साधारण लोगों के लिए हुआ करती है। 'नाट्यदर्पण' में भाण के रस-पक्ष पर विशेष विचार किया गया है। उसके अनुसार भाण श्रृंगार-रस-प्रधान होता है और वीर तथा हास्य गौण होते हैं। भाव-प्रकाशनकार ने उसमें केवल श्रृंगार का होना ही आवश्यक माना है। उसके अनुसार उसमें अन्य रस नहीं होने चाहिए। साहित्यदर्पण के अनुसार भाण के उदाहरण-रूप में लीला-मधुर नामक रचना ली जा सकती है।

    प्रहसन भाण से मिलता-जुलता होता है। मिलता-जुलता कहने का आशय यह है कि प्रहसन और भाण दोनों में वस्तु, संधि, सध्यग और लास्य आदि एक जैसे होते हैं। नाट्य-शास्त्र में इसके दो भेद माने गए हैं—शुद्ध और संकीर्ण। साहित्यदर्पणकार ने संकीर्ण प्रहसन में दो अंकों का होना बतलाया है। रसार्णव सुधाकर का मत सब से अलग है। उसके अनुसार भाण में दस तत्त्व प्रधान होते हैं। उनके नाम क्रमशः अवगलित, अवस्कंद, व्यवहार, विप्रलभ, उपपत्ति, अनृत, विभ्रांति, भय, गद्गद्वाक् और प्रलाप हैं। यहाँ पर स्थानाभाव के कारण इन सबकी व्याख्या नहीं हो सकती। इनके लिए मूल ग्रंथ देखना चाहिए।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'दशरूपकम्' 3।49, 50, 51 लास्य के दस अंगों का वर्णन 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 158 पर देखिए।

    2. 'नाट्य-शास्त्र' 3।159, 60

    3. 'नाट्य-शास्त्र' 3।161 में 'एकांगो बहुचेष्ट सततं कार्योवृधैमाणः' में एकांग के स्थान पर एकांक होना चाहिए।

    4. 'नाट्य-दर्पण' 'रामचंद्र, पृष्ठ 127

    5. उसी ग्रंथ में पृष्ठ 132 पर यह भी लिखा है कि उसमें सभी रस समान भाव से रहते हैं।

    6. 'भावप्रकाशम्' पृष्ठ 244

    7. 'साहित्य दर्पण' 6।530 के नीचे गद्य भाग देखिए।

    8. 'नाट्य-शास्त्र' 18।149, 150

    9. 'साहित्य-दर्पण' 6।555

    10. 'रसार्णव सुधाकर' शिंगभूपाल- लिखित (त्रिवेंद्रम संस्कृत सिरीज़)

    दशरूपकों में से एक रूपक डिम भी है। काव्यानुशासन के अनुसार डिम के लिए डिंब और विद्रोह नामक शब्द भी प्रयुक्त होते हैं—डिम का अर्थ होता है सघात, सघात के अर्थ होते एक तो घात प्रतिघात और दूसरा समूह। मैं समूह-परक अर्थ लेने के पक्ष में हूँ। इसमें नायकों के क्रिया-सघात का प्रदर्शन किया जाता है, इसीलिए इसे डिम कहते हैं। डिम में प्रस्तावना आदि बातें नाटक के सदृश ही होती हैं। इसका इतिवृत्त प्रसिद्ध होता है। कैशिकी को छोड़कर उसमें शेष सभी वृत्तियाँ उपनिबद्ध रहती हैं। देव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और महासर्प आदि इसके नेता होते हैं। इसमें भूत, प्रेत, पिशाच आदि सोलह अत्यंत उद्धत पात्र नियोजित किए जाते हैं। श्रृंगार और हास्य को छोड़कर शेष 6 रसों की प्रतिष्ठा होती है। इसमें माया, इंद्रजाल, संगम, क्रोध, उद्भ्रांति इत्यादि चेष्टाएँ, सूर्य, चंद्र, उपराग आदि घटनाएँ प्रदर्शित की जाती हैं। इसमें चार अंक होते हैं। विमर्श को छोड़कर शेष सभी संधियाँ भी रहती हैं। नाट्य-शास्त्र में भी डिम के लगभग यही लक्षण बतलाए गए हैं। अन्य नाट्याचार्यों ने भी उनका समर्थन किया है। भरतमुनि के अनुसार त्रिपुरदाह नामक नाटक आदर्श डिम का उदाहरण है।

    वीथी नामक नाट्य-रूप भी कम प्रसिद्ध नहीं है। वीथी का अर्थ है मार्ग या पंक्ति। इसमें संध्यगों की पंक्ति रहती है इसीलिए इसे वीथी कहा जाता है। इसमें अंकों की संख्या भाण के समान ही मानी गई है। इसमें श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक हो सकने के कारण उसकी सूचना दी जाती है। अन्य रसों का स्पर्श भी रहता है। श्रृंगार रस के औचित्य विधान के लिए कैशिकी वृत्ति की योजना की जाती है। इसमें संधियों के अंग भाण के सदृश ही नियोजित किए जाते हैं। प्रस्तावना के बतलाए हुए उद्धापक इत्यादि अगों की निबंधना भी होती है। इसमें पात्र दो से अधिक नहीं होते। नाट्य-शास्त्र में भी वीथी के प्राय ये ही सब लक्षण बतलाए गए हैं। उसमें इतना और स्पष्ट कर दिया गया है कि वीथी में तेरह वीथ्यगों की योजना अवश्य की जानी चाहिए। 'मालविका' नामक रचना वीथी का उदाहरण मानी जाती है।

    समवकार भी एक रूपक है। इसमें कई नायकों के प्रयोजन एक साथ संभव पीणं रहते हैं, इसीलिए इसे समवकार कहते हैं। नाटक के सदृश इसमें भी आमुख आदि का विधान ररहता है।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'काव्यानुशासन'- हेमचंद्र, पृष्ठ 322

    2. 'नाट्य-शास्त्र' में डिम के लक्षण देखिए 18।135 से लेकर 140

    3. 'दशरूपकम्' 3।68, 69

    4. 'नाट्य-शास्त्र' 18।155, 156

    उसका इतिवृत्त पौराणिक देवताओं तथा राक्षसों से संबंधित होता है। विमर्श संधि को छोड़कर शेष सभी संधियों की योजना की जाती है। वृत्तियों में कैशिकी का प्रयोग प्रधान रहता है। इसमें धीरोदात्तादि गुण-संपन्न बारह नायक होते हैं। उनके फल भी पृथक्-पृथक् होते हैं। उनमें वीर रस की प्रधानता होती है। इसमें अंक केवल तीन ही रहते हैं। तीन कपट, तीन श्रृंगार और तीन विद्रवो की योजना के कारण समवकार अन्य रूपकों से बिल्कुल भिन्न होता है। इसमें संधियों का नियोजन भी एक विशेष क्रम से किया जाता है। पहले अंक में मुख और प्रतिमुख इन दो संधियों से युक्त बारह नाडियों का होना आवश्यक समझा जाता है। दूसरे अंक में चार और तीसरे अंक में दो नाडियों की योजना की जाती है। इसमें वीथ्यगों का सन्निवेश भी रहता है। दशरूपक के अनुसार समवकार के लक्षण यही हैं। दशरूपककार ने नाट्य-शास्त्र का ही अनुगमन किया है। अतएव दोनों के लक्षणों में कोई परस्पर मतभेद नहीं है। भावप्रकाशम् और साहित्यदर्पण में संधियों के नियोजन का क्रम कुछ और अधिक स्पष्ट कर दिया गया है। उनके अनुसार पहले में दो, दूसरे में तीन और तीसरे में विमर्श को छोड़कर शेष सभी संधियों की योजना की जाती है।

    व्यायोग उस रूपक को कहते हैं जिसका इतिवृत्त प्रख्यात हो और नायक धीरोदात्त हो। इसमें गर्भ और विमर्श इन दो संधियों को छोड़कर शेष तीन संधियों की योजना की जाती है। डिम के सदृश इसमें रस भी प्रदीप्त रहते हैं। इसमें स्त्री-निमित्तक संग्राम दिखाने की प्रथा नहीं है। यह एकांकी रूपक है। इसमें केवल एक दिन की घटनाएँ ही चित्रित की जाती हैं। नाट्य-शास्त्र के अनुसार इसका नायक कोई दैवी पुरुष या राजा होना चाहिए। काव्यानुशासन से यह भी पता चलता है कि इसमें नायिकाएँ नहीं होतीं। यदि स्त्री पात्रों को लाना ही चाहें तो दो-एक दासियों की अवतारणा की जा सकती है।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. तीन कपटों के नाम इस प्रकार हैं- वस्तुस्वभाव-कृत, देव-कृत और अरि-कृत, देखिए 'हिंदी दशरूपक' पृष्ठ 163

    2. तीन धर्मों के नाम क्रमशः धर्म-श्रृंगार, अर्थ-शृंगार और काम-श्रृंगार हैं। देखिए वही ग्रंथ।

    3. तीन विद्रव इस प्रकार हैं- नगरोपरोध-कृत, युद्ध-कृत, वाताग्नि-कृत। देखिए वही।

    4. 'दशरूपकम्' 3।68, 69

    5. 'साहित्य-दर्पण' 6।532, 533

    6. 'दशरूपकम' 3।60, 61

    7. 'नाट्य-शास्त्र' 18।135, 18।135, 137

    8. 'काव्यानुशासन' हेमचंद्र, पृष्ठ 326

    9. वही।

    अंक नामक रूपक में कथावस्तु तो प्रख्यात ही होती है किंतु कवि अपनी कल्पना से उसको विस्तृत कर देता है। करुण रस की प्रधानता होती है। साधारण वर्ग के पात्र होते हैं, नायक भी कोई साधारण व्यक्ति ही बनाया जाता है। इसमें स्त्री पात्र भी कई होते हैं और उन स्त्री पात्रों का उसमें विलाप दिखलाया जाता है।

    ईहामृग नामक रूपक की कथा-वस्तु मिश्र अर्थात् प्रख्यात और कवि-कल्पित दोनों ही होती हैं। इसमें चार अंक और तीन संधियाँ होती हैं। नायक और प्रति-नायक दोनों की कल्पना उसमें की जाती है। एक मनुष्य होता है और दूसरा दैवी पुरुष। दोनों ही व्यक्ति इतिहास प्रसिद्ध होते हैं। प्रतिनायक का धीरोदात्त होना आवश्यक होता है। कार्य-ज्ञान के उलट-फेर से अनुचित कार्य किया करता है। कभी-कभी चाहने वाली दिव्य स्त्री के अपहरण इत्यादि के द्वारा चाहने वाले नायक का श्रृंगाराभास भी कुछ-कुछ प्रदर्शित करना चाहिए। किसी बहुत बड़ी उत्तेजना की स्थिति को लाकर किसी बहाने से युद्ध का टल जाना भी दिखाना चाहिए। महात्मा के वध की स्थिति उत्पन्न करके भी उसका वध करवाना सफल कलाकार का लक्षण होता है। संक्षेप में दशरूपकों के लक्षण वर्णित किए गए, अब उपरूपकों पर विचार करेंगे।

    उपरूपक नृत्य के भेद माने जाते हैं। इन उपरूपकों का वर्णन तो नाट्य-शास्त्र में मिलता है और दशरूपक में ही। दशरूपक के टीकाकार धनिक ने प्रसंग-वश केवल सात उपरूपकों का निर्देश किया है। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं—डोंबी, श्रीगदित, भाण, भाणी, प्रस्थान, रासक और काव्य। कीथ के अनुसार नाट्य-शास्त्र में भी लगमग पंद्रह उपरूपकों का यत्किंचित परिवर्तन के साथ वर्णन मिलता है। हाल का मत भी कीथ से मिलता जुलता है। उसने लिखा है कि नाट्य-शास्त्र में हमें बहुत से ऐसे पारिभाषिक शब्द मिलते हैं जिनका विकास बाद में रूपकों के अभिधान से हो गया है। उपरूपकों के नामों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें अग्नि-पुराण में मिलता है। किंतु इसमें केवल सत्रह भेदों के नाम ही दिए गए हैं।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'दशरूपकम्' 18।70, 71

    2. 'दशरूपफम' 3।72, 73, 74, 75

    3. देखिए 'दशरूपकम्' 1।9 की धनिक-कृत टीका।

    4. देखिए कीथ-कृत संस्कृत ड्रामा 349

    5. 'दशरूपकम्' हाल पृष्ठ 6

    6. 'अग्निपुराण' 328 अध्याय

    7. यही

    इनके स्वरूप की व्याख्या भी नहीं की गई है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं— तोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, कर्ण, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीगदित, नाट्यरासक, रासक, उल्लोप्यक और प्रेक्षण। भावप्रकाशम् में बीस उपरूपकों का उल्लेख किया गया है। उनके नाम हैं क्रमशः तोटक, नाटिका, गोष्ठी, सलाप, शिल्पक, डोंबी, श्रीगदित, भाणी, काव्य, प्रेक्षणक, सट्टकम, नाट्यरासकम, रासक, उल्लोप्यक, हल्लीश, दुर्मल्लिका, मल्लिका, कल्पवल्ली और पारिजातक। इनमें से उन्नीस के स्वरूप की व्याख्या तो इस ग्रंथ में की गई है किंतु सट्टक की व्याख्या करना किसी कारण से ग्रंथकार भूल गया है। नाट्यदर्पण में केवल चौदह उपरूपक ही मिलते हैं उनके नाम क्रमशः सट्टक, श्रीगदितम्, दुर्मीलिता, गोष्ठी, हल्लीशक, नर्त्तनक, प्रेक्षणक, रासक, नाट्यरासक, काव्य, भाणक, और भाणिका है। साहित्य-दर्पणकार ने केवल अठारह उपरूपक माने हैं। आजकल उसी का मत प्रचलित है। उसके द्वारा गिनाए गए उपरूपकों के नाम इस प्रकार हैं- नाटिका, तोटक (श्रोतक), गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थानक, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षणकम्, रासकम्, संलापकम्, श्रीगदितम्, शिल्पकम्, विलासिका या विनायिका, दुर्मल्लिका, प्रकर्णिका, हल्लीश और भाणिका। उपरूपक संबंधी उपयुक्त उल्लेखों को यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो प्रकट होगा कि उपरूपकों की संख्या बीस से भी अधिक थी। 'भावप्रकाशम्' में जो बीस उपरूपक गिनाए गए हैं उनमें अग्निपुराण का कर्ण नाट्यदर्पण का नर्त्तनक, साहित्यदर्पण का विलासिका और अभिनवगुप्त द्वारा संकेतित तीन प्रकार सम्मिलित नहीं हैं। 'भावप्रकाशम्' की सूची में यदि ये छह और जोड़ दिए जाएँ तो उपरूपकों की संख्या छब्बीस हो जाएगी। विस्तार-भय से यहाँ प्रसिद्ध उपरूपकों की स्वरूप-व्याख्या ही की जा रही है।

    भरतमुनि ने नाटिका का उल्लेख 'नाटी' नाम से किया है। उनके मतानुसार नाटी की उत्पत्ति नाटक और प्रकरण के योग से हुई है। साहित्यदर्पण में इसे स्वतंत्र उपरूपक माना गया है। इसमें स्त्री पात्रों की बहुलता होती है, चार अंक होते हैं और साग-मधुर लास्यो का विधान रहता है। यह श्रृंगार-प्रधान रचना होती है, इसमें राजा ही नायक हो सकता है, क्रोध, संधि और दम आदि भावों का चित्रण किया जाता है। कोई सुलक्षणा स्त्री इसकी नायिका होती है। अभिनवगुप्त ने भरतमुनि के नाटिका संबंधी लक्षणों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि आचार्य के मतानुसार नाटिका में

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'नाट्य-दर्पण' पृष्ठ 213

    2. 'साहित्यदर्पण' में 6।552 से लेकर 6।576 तक (ईसवी 1934 कलकत्ता जीवानंद विद्यासागर)

    3. 'नाटय-शास्त्र' (जी. ओ. एस.) भाग 2 पृष्ठ 435, 436

    दो नायिकाएँ होती हैं। एक स्वकीया 'देवी' होती है और दूसरी कोई उच्च कुल की सुंदरी होती है। क्रोध, प्रसादन और दम्भादि से देवी (पटरानी) का संकेत किया गया है और रति-सभोगादि से दूसरी नायिका का। दशरूपककार ने भरतकृत लक्षणों का ही विस्तार किया है। उसमें लिखा है कि नाटिका में कथा-वस्तु तो नाटक से लेनी चाहिए और नायक प्रकरण से। अपने लक्षणों से वह श्रृंगार-रस परिपूरित होनी चाहिए। नाटिका एक अंक से लेकर चार अंक तक की हो सकती है। उसमें स्त्री पात्रों की अधिकता रहती है। कैशिकी वृत्ति का प्रयोग आवश्यक समझा जाता है। इसमें दो नायिकाएँ दिखाई जाती हैं- एक ज्येष्ठा और दूसरी मुग्धा। ज्येष्ठा नायक की विवाहिता रानी होती है। वह स्वभाव से प्रगल्भ, गंभीर और मानिनी होती है। नायक उसके आधीन होता है। वह अपनी दूसरी प्रेमिका से (जो कि मुग्धा नायिका होती है) उसकी इच्छा के बिना समागम भी नहीं कर सकता। इसीलिए नायक को मुग्धा नायिका से मिलने में थोड़ी कठिनता रहती है। यह मुग्धा नायिका दिव्य और परमसुंदरी होती है। अंत पुर में संगीत आदि कलाओं का अभ्यास करते हुए वह नायक को हर समय श्रुतिगोचर और दृष्टिगोचर होती रहती है जिससे नायक का अनुराग उसके प्रति दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। भावप्रकाशकार ने नाटिका में विदूषक का होना भी बतलाया है। संस्कृत साहित्य में प्रियदर्शिका, विद्धशालभजिका आदि नाटिकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं।

    नाटिका के सदृश ही प्रकर्णिका भी होती है। दोनों में अंतर केवल इतना है कि नाटिका में राजकीय प्रणय का वर्णन होता है और प्रकर्णिका में व्यापारियों के प्रेम का। प्रकर्णिका के शेष लक्षण नाटिका के सदृश ही होते हैं।

    त्रोटक कुछ आचर्यों के द्वारा नाटक का ही एक भेद माना गया है। जब नाटक में लौकिक और अलौकिक तत्त्वों का सम्मिश्रण होता है तथा विदूषक का अभाव रहता है तब उसे त्रोटक कहते हैं। साहित्यदर्पणकार 'भावप्रकाशम्' के लेखक के इस मत से कि त्रोटक में विदूषक नहीं होना चाहिए, सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार त्रोटक में विदूषक का होना परमावश्यक होता है। भावप्रकाशकार के अनुसार इसमें नौ अंक तक हो सकते हैं। मेनका, नहुष, विक्रमोवंशीयम् आदि सफल त्रोटक हैं।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'दशरूपकम्' 3।43, 44, 45

    2. 'नाट्यदर्पण' रामचंद्र और गुणचंद्र लिखित पृष्ठ 122

    3. 'भावप्रकाशम् पृष्ठ 238।4-14

    4. 'साहित्यवर्पण' जीवानंद विद्यासागर द्वारा संपादित (1934 कलकत्ता) 6।558

    भावप्रकाशकार ने सट्टक को भी नाटक का ही एक प्रकार माना है। नाटक का यह प्रकार नृत्य पर आधारित कहा गया है। इसमें कैशिकी और भारती वृत्तियाँ प्रधान रहती हैं। संधियाँ इसमें नहीं होती हैं। मागधी, शौरसेनी प्राकृतों का प्रयोग किया जाता है। इसमें अंक नहीं होते हैं, किंतु फिर भी यह चार भागों में विभाजित किया जाता है।

    भाण और भाणिका ये दोनों उपरूपक परस्पर मिलते-जुलते हैं। दोनों में केवल इतना अंतर होता है कि एक तो स्वरूप और स्वभाव से उद्धत और दूसरा मसृण होता है। भाण की कथावस्तु हरिहर, भवानी, स्कंद और प्रमथाधिप से संबंधित होती है। क्रिया-व्यापार का वेग इसमें बड़ा तीन रहता है। इसमें राजा की प्रशस्तियाँ भी रहती हैं और संगीत का प्राधान्य भी रहता है।

    'भावप्रकाशम्' में डोंबी या डोंबिका का उल्लेख किया गया है। इसमें एक अंक होता है, कैशिकी वृत्ति होती है, वीर या श्रृंगार का परिपाक दिखाया जाता है। कुछ लोग डोंबी को भाणिका का ही दूसरा नाम मानते हैं। अधिकांश आचार्यों ने इन्हें अलग-अलग माना है।

    रासक की स्वरूप व्याख्या भी 'भावप्रकाशम्' में विस्तार से की गई है। उसके अनुसार उसमें एक अंक, सुश्लिष्ट नादी, पाँच पात्र, तीन संधियाँ, कई भाषाएँ, कैशिकी और भारती वृत्तियाँ, सभी वीथ्यंग, प्रसिद्ध नायक और नायिकाएँ आदि का होना आवश्यक होता है। भावप्रकाशम् के इन सभी लक्षणों को साहित्यदर्पणकार ने भी मान्यता दी है।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'भावप्रकाशम्' पृष्ठ 234।4-14

    2. वही

    3. 'भावप्रकाशम्' पृष्ठ 269

    4. अभिनवगुप्त को नाट्य-शास्त्र की टीका देखिए 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा' पृष्ठ 105

    5. 'टाइम्स ऑफ़ संस्कृत ड्रामा', पृष्ठ 108

    6. वही पृष्ठ 109

    7. वही पष्ठ 109

    8. 'भावप्रकाशम्' पृष्ठ 265

    नाट्यरासक की कुछ अपनी अलग विशेषताएँ होती हैं। साहित्यदर्पण के अनुसार उसमें एक अंक, बहुताल-लय-स्थिति, उदात्त नायक, उपनायक, श्रृंगार और हास्य रसों, वासकसज्जा नायिका और लास्यागो का नियोजन रहता है।

    ऊपर हम सट्टक, भाण, भाणिका, डोंबी, रासक, नाट्यरासक आदि प्रसिद्ध उपरूपकों का स्पष्टीकरण कर आए हैं। संस्कृत नाट्य-शास्त्र में इनके अतिरिक्त गोष्ठी, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षण, श्रीगदितम्, विलासिका नामक कुछ अप्रसिद्ध एकांकी रूपकों का उल्लेख भी पाया जाता है। गोष्ठी में नौ-दस सामान्य पुरुषों और पाँच-छह सामान्य स्त्रियों की भाव-भगिमाएँ चित्रित की जाती हैं। उल्लाप्य युद्ध-प्रधान होता है। पृष्ठभूमिक संगीत इसका प्रमुख लक्षण माना जाता है। काव्य हास्यरस प्रधान होता है। द्विपादिका, भग्नताल आदि विविध प्रकार की संगीत-विधाओं का इसमें विधान रहता है। प्रेक्षण में सूत्रधार नहीं रहता। नांदी और प्ररोचना नेपथ्य के पीछे से विहित की जाती है। श्रीगदित की कथा में सर्वत्र श्री शब्द का प्रयोग रहता है। कुछ लोगों के अनुसार उसमें श्री को गाते हुए भी प्रदर्शित किया जाता है। हल्लीश कैशिकी वृत्ति तथा नृत्य और संगीत से संपन्न होता है।

    प्रस्थानक दो अंकों का उपरूपक होता है। धनिक के अनुसार यह नुत्य का एक प्रकार मात्र है। इसका नायक कोई दास या हीन व्यक्ति होता है। सलापक में एक से लेकर चार अंक तक होते हैं। शिल्पक रस-प्रधान चार अंकों का उपरूपक होता है। दुर्मल्लिका में भी चार ही अंक होते हैं। इन अकों का विधान एक विशेष क्रम से किया जाता है। पहला अंक तीन नाडियों का, दूसरा पाँच नाडियों का, तीसरा छह नाडियों का और चौथा दस नाडियों का होता है। प्रसिद्ध उपरूपक इतने ही हैं। शेष उपरूपक तो बहुत प्रसिद्ध ही हैं और संस्कृत साहित्य में उनके उदाहरण ही मिलते हैं। इस कारण से हम यहाँ पर उन सब के स्वरूप को व्याख्या नहीं कर रहे हैं।

    फ़ुटप्रिंट-

    1. 'साहित्यदर्पण' जीवानंद विद्यासागर द्वारा संपादित, 6।556

    2. 'साहित्यदर्पण' 6।559

    3. 'साहित्यदर्पण' 6।563

    4. 'साहित्यदर्पण' 6।564

    5. 'साहित्यदर्पण' 6।565

    6. 'साहित्यदर्पण' 6।568, 569

    7. 'साहित्यदर्पण' 6।574

    8. 'साहित्यदर्पण' 6।562

    9. 'साहित्यदर्पण' 6।57

    10. 'साहित्यदर्पण' 6।572

    इस प्रकार हम देखतें हैं कि संस्कृत नाट्य-शास्त्र में रूपक तथा उनके भेद-प्रभेदों का बड़े विस्तार से विवेचन किया गया है। उपर्युक्त भेद-प्रभेदों को देखने के पश्चात् स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय नाट्य-कला एकांगी नहीं है। वह तो केवल आदर्श-प्रधान ही है और केवल यथार्थ-मूलक ही। आदर्श और यथार्थ का सुंदर समन्वय जितने रमणीय रूप में हमें यहाँ दिखाई पड़ता है उतना शायद ही किसी अन्य कला में दिखाई पड़े। उसमें हमें संपूर्ण जीवन की, संपूर्ण मानवों की हृदय-गाथा प्रतिबिंबित मिलती है। सच तो यह है कि समृद्धता, स्वाभाविकता, सजीवता आदि सभी दृष्टियों से विश्व में वह बेजोड़ है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : गोविंद त्रिगुणायत

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