'राम की शक्ति-पूजा'
raam ki shakti puja
[भारत-चीन सीमा संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में]
भगवती महाशक्ति के तेजोमान कवि-पुत्र निराला ने अपने अमर काव्य 'राम की शक्ति-पूजा' में जगन्माता सीता के अपहरण पर, राम-रावण युद्ध की भूमिका में, शक्ति के आह्वान और अवतरण का जो काव्यायोजन किया है, वह वर्तमान भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में, हमारी नसों के भीतर अमोघ शक्ति मंत्र का संचार करता है।
केवल अक्षांश-देशांतरों का अंतर; किंतु कितना आश्चर्यजनक है कि शताब्दियों बाद काल देवता ने दिक्कालिक विलोम के साथ वही इतिहास फिर दुहराया है, जो दाशरथि राम के संदर्भ में विघटित हुआ था। अपनी समस्त मान्यताओं के साथ उपलब्धियों की सहायता में विरत लोकतंत्र की पावन आस्था से संचालित राम का वनयोगी वेश... सर्वजाति की एकसूत्रता का सम्मोहन, आदिवासी, वन-खंडी निवासियों को स्नेह-सिक्त करती मर्यादा पुरुषोत्तम की प्रेम माधुरी...और सहसा 'भूमिजा' का अपहरण...। लोकनायक की एकमात्र आस्था—भूमिजा का संलोप। सीता का यह अपहरण शांति-दूत राम के लिए युद्ध की चुनौती बन गया और फिर राम का वानर जाति की विशाल वाहिनी संयोजित कर विस्तारवादी रावण का प्रतिरोध और उस पर प्रत्याक्रमण। सारी घटना लगातार चित्र-पट पर चालित चित्र-क्रम में स्पष्ट हो जाती है और मैं सोचने लगता हूँ, नगाधिराज की अंकशायिनी घाटियों में चीन का बर्बर आक्रमण। अपनी आस्थावान शांति चेतना को लेकर विश्व-चक्र में चलते हुए देश पर चीन की विस्तारवादी दृष्टि का पड़ना और फिर दुर्दांत कठिनाइयों को पार करते हुए प्रगतिशीलता के प्रयाण में अग्रसर भारत पर अमानुषिक आक्रमण। विश्वास को चूर्ण-विचूर्ण करने वाली संहारक प्रक्रियाएँ, भ्रातृत्व की नींव हिला देनेवाली विषाक्त घोषणाएँ। भारतीय चौकियों का सामरिक पतन और सहसा एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा।
...आसेतु हिमालय लोकवाणी का अप्रतिम जागरित उद्घोष और शक्ति की अर्चना का कार्यकलाप, सब कुछ वैसा ही लगा, जैसा उस दिन राम के साथ हुआ था। अमर प्राण महाकवि निराला की 'राम की शक्ति-पूजा' पढ़ रहा हूँ और देश की एक-एक स्थिति अतीत का वर्तमान बनकर उभरती जा रही है :
सांध्यकाल
दिनभर के विकट संग्राम के अनंतर भी राम-रावण का युद्ध अपराजेय है। उफ! वंदिनी भूमिजा...। अप्रतिम युद्ध-कौशल के बाद :
'रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर'
किंतु इस अपराजेय समर के परिपार्श्व में साम्राज्यवादी भूमिजा-लोलुप रावण की विजय और राम के प्रत्याक्रमण की सामयिक शक्ति-विफलता सन्निहित थी क्योंकि :
'रावण प्रहार दुर्वार विकल बानर दल-बल
लौटे युग दल। राक्षस पद तल पृथ्वी टलमल
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल'
और :
'वानर वाहिनी खिन्न लख निज पति चरण चिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविर दल ज्यों विभिन्न'
प्रारंभिक प्रतिरोध में सहसा विशाल वानरवाहिनी का शौर्य संस्खलन और दुर्दांत रावण की राक्षसी सेना का विध्वंसात्मक शक्ति संतुलन। कितना साम्य है, भारत भू-खंडों पर चीनी सैनिकों का सहसा आक्रमण और फिर भीषण प्रतिरोध के बाद भी एक-एक कर कई भारतीय चौकियों का पतन... उद्धृत चीनी सैनिकों का विजयोल्लास और स्वतंत्रता की मान-रक्षा में आहुति देते भारतीय वीर पुत्रों के कालजयी मरण-पर्व का उल्लसित समारोह-रात्रि के आगमन पर युद्धविराम की घोषणा होती है और लोकनायक की सारी चिंताधारा संकट की विपन्न स्थिति का पर्यालोचन करती है। दिग्दिगंत-व्यापी अन्धकार हवाओं की सहसा चुप्पी और परिश्रांत वातावरण में राम की संपूर्ण क्रियाशक्ति विगत युद्ध की आसन्न विभीषिका का विश्लेषण कर रही है :
'है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल
भू धर ज्यों ध्यान मग्न केवल जलती मशाल
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जगजीवन में रावण जय भय'
राम के हृदय में मथता हुआ विचारों का संवेग, सीता हरण की चिंता मात्र ही नहीं, बल्कि विश्व में शांति के निराश्रित होने का भय राम को झकझोर रहा है। 'भूमिजा' की अप्राप्ति का दुख नहीं, बल्कि संसार में स्वतंत्रता और लोकजीवन की समृद्धि के विनाश का भय और रावण की विस्तारवादी घृणास्पद प्रवृत्ति के विजय का भय बार-बार राघवेंद्र को कँपा देता है और उसी मानसिक आंदोलन में रावण का बर्बर अट्टहास गूँज-गूँज जाता है :
'फिर सुना, हँस रहा अट्टहास रावण खल-खल'
कोमल हृदय-तंतु आघात से काँप उठते और नियति की इस विडंबना पर राम के नेत्र छलक पड़ते हैं :
'अन्याय जिधर है उधर शक्ति कहते छल-छल
हो गए नयन कुछ बूँद पुन: ढलके दृग जल'
लोकनायक की पीड़ा आँखों में अश्रु-बिंदु बन छलक पड़ी और संपूर्ण जाति का वीरभाव उद्विग्न हो उठा। पवन पुत्र हनुमान की उष्ण रक्तवाहिनी शिराएँ तन गई और तत्काल शक्ति का यह अतुल प्रतीक विश्वास का अनन्यदूत शक्ति के निवास स्थल महाकाश को निगल जाने के लिए विकराल रुद्रवेश में अट्टहास करता हुआ ऊपर उछला। उसके वेग से :
'शत घूर्णावर्त तरंग मग उड़ते पहाड़
जलराशि राशि जल पर बढ़ता खाता पछाड़
तोड़ता बंध प्रतिसंघ धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष'
किंतु महाकाश को ग्रहण करने के पूर्व ही शिव की आज्ञा से स्वयं शक्ति का निरोध और माता की आज्ञा मान रुद्र की शांति संस्थिति में फिर सोचने लगा हूँ—प्रारंभिक पराजय के क्षोभ से देश के कण-कण में उफान खाता हुआ वीर-भाव तत्काल आक्रमणकारी के शक्ति उद्गम को निगल जाने के लिए उत्तेजित है। किंतु इस उत्तेजना में मातृ-भाव का वीरोचित संयम और क्षमा का अपूर्व संयोजन है। आबाल-वृद्ध अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बद्ध परिकर है। साक्षी है इतिहास कि विस्तारवाद के प्रतिरोध में किसी भी सभ्य जाति ने इतनी बड़ी संख्या में एकसूत्र होकर अपनी स्वत्व-रक्षा के लिए ऐसा उत्सर्ग नहीं किया है। उत्तेजना और उत्सर्ग-संयम और शौर्य-शांति का यह असिधारा व्रत भारत की उसी मर्यादा पुरुषोत्तम की परम्परा की एक कड़ी है, जिसकी शीलता में वीर भाव स्वयं हनुमान के रूप में प्रस्थित-प्रशमित है। मैं आगे पढ़ता हूँ :
जांबवान की वृद्ध जनोचित मंत्रणा पर शक्ति का प्रत्युत्तर शक्ति से देने का संकल्प-शक्ति संतुलन के लिए आराधना और राम की शक्ति-पूजा प्रारंभ होती है। मंत्र जाप के बाद यथारूप इंदीवर अर्पण और यही समायोजित क्रम चलता है। आराधनालीन राम का संयम शक्ति केंद्रों को हिला रहा है :
'संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी पद पर
जय के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अंबर'
और अंत में प्रमुदित शक्ति द्वारा राम की अग्नि-परीक्षा द्वारा अंतिम पूजा का इंदीवर हरण होता है। उसकी प्रतिक्रियास्वरूप राम कुंठित हो उठते हैं और कंपित वाणी वातावरण में कराह उठती है :
'धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध'
किंतु निराशा कुहाच्छादित मनोदेश में पुन: एक विचार कौंध जाता है :
'वह है उपाय कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन
कहती थीं माता सदा मुझे राजीव नयन
दो नील कमल हैं शेष अभी यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात: एक नयन'
और मेरे आगे एक चित्र है—दक्षिण कर में नयन और वाम कर में लक-लक करता महाफलक लिए दृग-वेध को उत्सुक राम और उनका हाथ थामती भगवती महाशक्ति। इसी चित्र के सहपार्श्व में एक चित्र और है—अन्न-वस्त्र और रक्त, दान करते हुए बाल, युवा, वृद्ध—आकृतियाँ—जिन पर एक ऊर्जस्वित आलोक है। शक्ति-आराधना में प्राणार्पण करते हुए देश के नौनिहाल, सुहाग की चूड़ियाँ तोड़कर माँग के सिंदूर से स्वतंत्रता का पथ प्रतिभासित करती ललनाएँ। मंगलसूत्रों को सौंपती सुहागिनें, दुधमुँहों को देश पर बलि होने की लोरियाँ सुनाती माताएँ और मिट्टी की शिरा-शिरा से उद्गीरित जननी जन्मभूमि की विजय कामना भरी गीतिकाएँ अनुगूंजित करती कुमारिकाएँ और मेरी अश्रुपूरित आँखों में राम का हाथ थामती हुई देवी की मंगलमूर्ति है और श्रवण कुहरों में गूँजता हुआ उद्घोष :
'होगी जय होगी जय
हे पुरुषोत्तम नवीन—
होगी जय—होगी जय—होगी जय।'
- पुस्तक : भारती (पृष्ठ 242)
- रचनाकार : धूमिल
- संस्करण : 1963
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.