कथा : रचना या मनोरंजन

katha ha rachna ya manoranjan

सुरेंद्र चौधरी

सुरेंद्र चौधरी

कथा : रचना या मनोरंजन

सुरेंद्र चौधरी

और अधिकसुरेंद्र चौधरी

     

    सामान्यतः पाठकों और आलोचकों के एक समुदाय के बीच इस बात को लेकर मतैक्य है कि कथा हमारा मनोरंजन करती है। इस मनोरंजन को लेकर अभिजात रचि यावर कथा-कहानियों को हेय दृष्टि से देखती आई है। कुछ बुजुर्गों का ख़्याल आज भी कथा-साहित्य को लेकर बदला हो, ऐसा देखने में नहीं आता। हिंदी का 'मनोरंजन' चाहे आज अपनी मूल ध्वनि खो चुका हो. फिर भी उसे हम अँग्रेज़ी 'एंटरटेनमेंट' का एकमात्र पर्याय तो नहीं ही मानेंगे। मनोरंजन बहुत बड़ा गुण है और उस अर्थ मे बहुत ही कम तथाकथित मनोरंजक कहानियाँ मनोरंजन करती हैं। एक अँग्रेज़ी आलोचक का तो कहना है कि मनोरंजक और गंभीर जैसे विशेषण कथा के चारित्र्य को स्पष्ट करने के लिए नाकाफ़ी है या कुछ अर्थों में भ्रामक भी है। हम सामान्यतः ऐसा मान लेते हैं कि मनोरंजन करनेवाला कथाकार किसी 'गहरे सन्य' का पायन नहीं कर सकता और गंभीर साहित्यकार (चाहे वह कथाकार ही क्यों न हो!) मनोरंजन नहीं कर सकता। पता नहीं यह ग़लत धारणा हमारे अंदर कहाँ से और कब से पैदा हो गई है। यह ठीक है कि आज कथा-साहित्य में 'एंटरटेनर' का एक बहुत बड़ा समुदाय पैदा हो गया है किंतु उससे मनोरंजन का गुण दूषित हो जाए, यह बात नहीं। बहुत-से ऐसे समर्थ कथाकार हैं जो गहरे से गहरे सय को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया में भी मनोरंजन का गुण नहीं छोड़ते और बहुत-से ऐसे भी कथाकार हैं जो गंभीरता का यहाँ से वहाँ तक स्वाँग करने पर भी 'एंटरटेनरों' के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाते।

    मैं रचनात्मक और मनोरंजक साहित्य1 के बीच प्रतिमा का भेद कृत्रिम मानता हूँ। चूँकि कोई रचना जन समुदाय के बीच प्रचलन पाती है इसीलिए वह रचनात्मक नहीं है; ऐसी धारणा ‘मिडिल मो' हो सकती है, यथार्थ नहीं। वस्तुतः जो लोग आज मनोरंजन को हेय दृष्टि से देखते हैं वे इस बात पर शायद विचार नहीं करते कि विश्व के अधिकांश समर्थ और प्रतिभावान साहित्यकार यथेत रूप से इस गुण से मंडित हैं। इसके विपरीत लेखकों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज क्रियाशील है जो मनोरंजन के नाम पर मात्र दूषित भावनाओं और गंदगियों को उभारकर 'पॉपुलर' होता है। 'मनोरंजन’ के अंतर्गत मैं ऐसे 'पॉपुलर' लोगों के साहित्य की चर्चा नहीं करने जा रहा हूँ। एल. ए. जी. स्ट्रॉन्ग ने ऐसे लोगों के लिए ठीक ही 'कार्टरर' (Carterer) शब्द का प्रयोग किया है। मेरी दृष्टि में हर रचनात्मक साहित्यकार हमारे मन का रंजन या प्रसादन करता है।
    निश्चय है कि हमारे समूहवादी समाज (मास सोसाइटी) में मनोरंजन का अर्थ थोड़ा दूसरा हो गया है, पर इस नए अर्थ को ग्रहण करने से एक भारी खतरा पैदा हो जाने की आशंका है।

    रचनाधर्मी कथाकार का मनोरंजन से कोई अनिवार्य विरोध नहीं होता। हाँ, जिनका अंतःकरण दूषित हो गया हो, उनका रंजन यदि वह नहीं कर पाता तो उसका कोई दोष नहीं। मेरी तो अपनी यह धारणा है कि समर्थ रचनाधर्मी साहित्यकार दूषित अंतःकरण का भी परिष्कार करता हुआ उनका प्रसादन कर देता है। प्रेमचंद्र का उदाहरण यहाँ भी हमारे सामने है। उनकी बहुत-सी कहानियाँ ऐसी हैं जिनसे दूषित अंतःकरण का भी रेचन हो जाता है, जिनका अंतःकरण पूर्वाग्रह दूषित नहीं है उनका प्रसादन तो ये कहानियाँ करती ही हैं।

    यहाँ हमारे सम्मुख मुख्य प्रश्न यह है कि रचनाधर्म क्या है और उसे हम किन अर्थों में व्यापारधर्म से अलग कर सकते हैं। इस संबंध में सबसे पहली बात जीवन-सत्य के चयन का है। 'जीवन सत्य' एक प्रकार की व्यापक धारणा है और उसके बहुत सारे विभाजन हमारे दिमाग में हैं, इसलिए इस शब्द का प्रयोग करते हुए यह आवश्यक है कि हम उसके व्यक्त गुणों की चर्चा ही पहले कर लें। सत्य की परिभाषा देते हुए लेनिन ने लिखा था Truth is the totality of all the aspects of a phenomenon of reality and their mutual relationship” इससे वस्तुतःत्व की अवस्था और संबंध की पूर्णता का ज्ञान हमें होता है। क्योंकि वस्तुतःत्व गतिशीत... the most part good, the trade of catering for, and by creating, taste at a low level had not been invented.

    कथा-साहित्य के बीच आज रचना और व्यापर का भेद बहुत स्पष्ट हो गया है। व्यापारी लेखक सिर्फ़ सत्य के प्रक्षण की दृष्टि से ही कमज़ोर नहीं होता क्योंकि यह वस्तु-सत्य की पूर्णता को ग्रहण ही नहीं कर पाता, बल्कि वह व्यक्तित्वहीन और रुचिहीन भी होता है। उसका वस्तु-संबंधों के प्रति और सामान्यत: विश्व के प्रति कोई नैतिक दृष्टिकोण (मोरल आउटलुक) नहीं होता। आज हिंदी कथा-साहित्य में एक बहुत बड़ा समुदाय आधुनिक भाव-बोध के नाम पर समसामयिकता का पीछा करता हुआ दिशाहारा बन गया है। भाव-बोध क्या अपने-आप में कोई पूर्ण चीज़ है? इस भाव-बोध का यदि जीवन के प्रसार में कोई क्रियात्मक उपयोग नहीं हो तो उसका अर्थ क्या है? आधुनिक भाव-बोध के नाम पर क्या आज नैतिक चेतना से हीन पतनशील साहित्य का व्यापार नहीं किया जा रहा? प्रश्न बेमाना नहीं है और सिर्फ़ कथा-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ही उसकी अहमियत नहीं है। चूँकि कथा-साहित्य आज सबसे व्यापक और ‘पॉपुलर' विधाओं में है इसलिए यह खतरा अगर सर्वाधिक रूप से यहाँ दिखता हो तो आश्चर्य क्या है।

    आज जब कथा-साहित्य बहुत तेज़ी से विकसित हो रहा है, इस बात की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है कि हम रचनाधर्म और व्यापार धर्म के बीच भेद करें क्योंकि यहाँ प्रतिभा का भेद वास्तविक भेद है। 'दि इनमोस्ट लीफ़' के लेखक अलफ़्रेड काज़िंन (Alfred Kazin) के अनुसार रचनात्मक प्रक्रिया के मूलभूत तत्व 'अनुभव' और 'कल्पना' हैं। वे बौद्धिक प्रतिकृतियों का अपक्षादक लेखक का वैयक्तिक अंतर्दृष्टि के कायल हैं। लेखक का यह वैयक्तिक अंतर्दृष्टि विचारधाराओं, सामाजिक महत्वों और व्यक्तिगत पृष्ठभूमि की सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक भाव-संबंधों के क्षेत्र में प्रवेश करती है। रचनाधर्मी साहित्यकार का यह अतिक्रमण एक विशेष सार्थक प्रयास है। 

    रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता की बात डॉ. नामवर सिंह ने बहुत साफ़ ढंग से कही है। उसे दुहराकर समय नष्ट करना उचित नहीं होगा। यह संश्लिष्टता रचनाधर्मी कहानी की आत्मपूर्णता का रहस्य है जिसे व्यापारधर्मी कहानीकार पैदा नहीं कर सकता। 'शरणदाता' (अज्ञेय) की कथा दुहराइए, आप ख़ुद महसूस करेंगे कि जैसे उस कहानी के बजाए आपने कोई अत्यंत तिरस्कृत ग्रंथावाली कहानी गढ़कर सुना दी हो। 'शरणदाता' की कथा में ऐसा क्या है जिसे मोरिस बोदी के शब्दों में 'मक्षित’ नहीं किया जा सकता! यानी जिसके मक्षेपण में व्यंग्य वाच्य हो जाता है, सो भी अत्यंत तिरस्कृत! शायद यह संश्लिष्टता आत्मपूर्ण 'अनुभव' के कारण संपन्न हुई हो। इसके विपरीत आए दिन निकलने वाली कहानियों को देखा जाए तो उनकी भंगिमा का सारा रहस्य कुछ फॉर्मूलों तक में सीमित दिख जाएगा। पूरी कहानी चंद घिसी-पिटी शब्दावलियों में उतर आएगी। ऐसी कहानियों में क्या एक पूरी जीवन-प्रकिया के महत्व का आत्मपूर्ण बोध हो पाएगा2 ?

    वस्तु की सूक्ष्मता या उसके विस्तार के आधार पर रचनाधर्मी कहानियों की सफलता-असकलता का निर्णय लेना एक प्रकार का दुराग्रह है। वस्तु की सूक्ष्मता यदि एक संपूर्ण जीवन-पक्रिया का आत्मपूर्ण ‘अनुभव’ प्रस्तुत कर दे तो क्या उसे हम कहानीकार की सफलता नहीं कहेंगे? क्या कहानी के अंदर आनुपगिक रूप से कहानी गढ़कर ही 'कहानी-उग' सिद्ध की जा सकती है? मेरी दृष्टि में तो ऐसी विपर्यम्नना कहानी की संश्लिष्टता को, उसके आत्मपूर्ण ढाँचे को बरबाद ही करती है। आज की अधिकांश कहानियों से 'प्रेम' की आनुपगिक कथा निकाल लीजिए, पूरा ढाँचा चरमराकर बैठ जाएगा। एच. जी. वेल्स के शब्दों में ऐसी कहानियाँ  गुम' हैं जो माँग के अनुसार अपने फ़ॉर्मूले बदलती रहती है।

    दिया जा रहा है, एक नायक से संबद्ध अनेक नायिकाएँ कुछ अतीत, कुछ वर्तमान और कुछ जिनको लेकर समाचनाएं निम्सीम हो।

    स्थितियों का सरलीकरण व्यापारधर्मी कहानियों का दूसरा प्रचलित फ़ॉर्मूला है। कुछ लोग बड़ी आसानी से इस फ़ॉर्मूले का प्रयोग कर 'प्रेमचंद्र की परंपरा' में आने लगे है। स्थितियों का सरलीकरण करते हुए ये लेखक भूल जाते हैं कि प्रेमचंद्र का गुण औदात्य था, उनकी सरलतम कथाओं में भी एक प्रकार का धैर्य (काम्) था। इधर शुक्ल-बंधुओं (प्रयाग शुक्ल और राम नारायण शुक्ल) ने बहुत-सी कहानियाँ इसी फ़ॉर्मले के प्रयोग से लिखा है; प्रेमचंद्र से अंतर स्पष्टतः देखा जा सकता है। इनमें प्रेमचंद्र की आस्था तो नहीं है; हाँ, आस्था को लेकर एक अत्यंत मोड़ी गति ज़रूर है। बसों ने ठीक ही कहा था कि हम गति के भ्रम में स्थिर बिंदुओं का ही माप करते है।” मुझे तो ऐसा लगता है जैसे युद्ध के काल में जिस तरह आर्थिक गति का भ्रम होता है उसी तरह ये व्यापारधर्मी कहानियाँ ‘गति का भ्रम’ ही उपस्थित करती हैं।

    गति के भ्रम के प्रसंग में कुछ कहानीकारों की चर्चा आवश्यक-सी हो जाती है। इधर कहानी की बहुत-सी पत्रिकाएँ बाज़ार में आ गई हैं, जो 'कहानी मासिक' नहीं भी हैं उनमें भी कहानियाँ आती हैं। किंतु आए दिन प्रकाशित इस कथा-समूह के चारित्र्य को समझने की चेष्टा करते हुए ऐसा लगता है जैसे इनमें लेखक के पास ऐसा कुछ नहीं है जो हमारे अनुभव क्षेत्र को बढ़ा सके, जो अपने अर्थ के प्रति पाठक को विवश करे या पढ़ने की प्रक्रिया में उसे जीवन में वास्तविक गति दे। जीवन में जटिलताएँ हैं, बस कहानी में बोध के धरातल पर जटिलता होनी चाहिए, चाहे उसके लिए किसी प्रकार की भी वस्तुस्थिति कहानी में ढँढने पर भी प्राप्त न हो। ऐसी व्यापारधर्मी कहानियों का पूरा अंबार पढ़कर चुका दीजिए, कहीं भी आपको नैतिक प्रतिरोध के क्षण नहीं मिलेंगे। एक् शब्द-स्पीत, नैतिक असमंजस शब्दहीन!

    आजकल मानवतावादी मूल्यों का बाज़ार मँहगा है। मानवतावादी मूल्यों का करियर जितनी आमानी से किया जा सकता है, अस्तित्ववादी मूल्यों का उतनी आसानी से नहीं। इस प्रसंग 3 में  प्रेमचंद्र की कहानी 'घासवाली' और चंद्रगुप्त विद्यालंकार की कहानी 'ज्वार और भाटा' की तुलना स्वतः दिमाग में उठ खड़ी हुई है। 'घासवाली' का चैना सिंह क्षणिक आवेग (इंपल्स) में आकर मुलिया की बाँह थाम लेता है और मुलिया की फटकार पर विवश होकर कहता कि इस आवेग के पीछे उसकी संपूर्ण आत्मिक प्रेरणा की विवशता है। मुलिया का वेग उसे पीछे ज़रूर ठेलता है पर इससे उसकी आत्मिक प्रेरणा नहीं टूटती, वह अपनी संपूर्ण विवशता के साथ मुलिया को प्यार करता रह जाता है। 'ज्वार और भाटा' का नायक मात्र शारीरिक प्रेरणा के वश मालिन के पीछे भागता है और उसकी बात मातबन्सलता के हाथों अनायास पराजित होकर लौट आता है। यह है मानवतावादी मूल्यों का फ़ॉर्मूला। 'ज्वार और भाटा' की तुलना में तो राजकमल चौधरी की 'सती धनुकाइन' (कहानी इलाहाबाद) कहाँ अधिक सशक्त रचना है। प्रेमचंद्र की बात तो ख़ैर बहुत दूर की होगी। 'सती धनुकाइन' में सती का चरित्र जिस शक्ति के साथ खिलता है वह हमारे लिए एक नैतिक परिणाम है। इसके विपरीत 'ज्वार और भाटा’ की प्रत्युक्त संवेदना हमारे लिए भावुकता के अतिरिक्त कोई मूल्य नहीं रखती। ऐसी भावुकता कभी-कभी अपने 'सोपो-रिफ़िक' (Soporific) अभाव से भी वंचित रह जाती है।

    बात कहानी के रचनात्मक धर्म को लेकर ही शुरू हुई थी और उसी पर ख़त्म भी होनी थी, किंतु उसकी विकृति व्यापारधर्म के संदर्भ में ही हो सकती थी। मेरे कथन का शायद यह आश्य ग्रहण किया जा सकता है कि प्रेमचंद्र के बाद हिंदी में रचनाधर्मी कहानीकार हैं ही नहीं, बम व्यापारीमा है। किंतु ऐसा मानना मेरे अभिप्राय को ग़लत समझना होगा। रचनाधर्मी कहानीकार कथा-साहित्य के विकास के प्रकार रहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे व्यापारधर्मी रहे हैं और रहेंगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुरेंद्र चौधरी

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