हिंदी साहित्य का मध्यकाल

hindi sahity ka madhyakal

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

हिंदी साहित्य का मध्यकाल

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    हिंदी में कबीर और दादू के समान कितने ही संतों ने कविताएँ लिखी हैं। उनकी रचनाओं में कला का विशेष सौष्ठव होने पर भी सत्य की ज्योति है। कविता में कला और शक्ति का विलक्षण सम्मिश्रण तुलसीदास और सूरदास की रचनाओं में हुआ है। ये दोनों हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इसी समय हिंदी के प्रायः सभी कवियों ने राम और कृष्ण का यशोगान करने के लिए पद लिखे हैं। उनकी कविता में प्रेम और भक्ति ही का वर्णन है। परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इन भक्त कवियों की गणना शृंगार रस के आचार्यों में नहीं है। मध्ययुग में हिंदी-साहित्य का उद्गम भक्ति-रस की प्रेरणा से हुआ था और थोड़े ही समय में उसकी छाप समग्र भारतवर्ष पर पड़ गई थी। संवत् 1144 से 1680 तक हिंदी साहित्य इसी की तरंगों में आगे बढ़ता गया। जिन कवियों का उसे गर्व है, उनका आविर्भाव इसी काल में हुआ। मीराबाई इत्यादि की रचनाओं का आदर सभी समय होता रहेगा। राधा-कृष्ण की भक्ति से गद्गद होकर उन्होंने भी शृंगार रस की अवतारणा की थी; परंतु इन्होंने अपनी कल्पना को पवित्र, संयत और निर्मल रखा था। इनके बाद भी हिंदी-साहित्य की बराबर उन्नति होती गई, परंतु कवि का लक्ष्य बदल गया। वह धर्म की ओर जाकर केवल शृंगार रस का उपासक रह गया। तब हिंदी में शृंगार रस के काव्यों की वृद्धि होने लगी। शृंगार रस के आचार्य थे केशवदास। उनकी रसिक-प्रिया रसिकों के और कवि-प्रिया कवियों के गले का हार हो गई। सेनापति, मतिराम, बिहारी, देव, दास, पद्माकर आदि जितने कवि हुए, सभी शृंगार रस के आचार्य थे।

    इस भावोन्माद को भक्तिवाद से उत्तेजना अवश्य मिली थी। मनुष्य मात्र का यह स्वभाव है कि जब उसकी क्रिया-शक्ति निर्बल हो जाती है, तब उसकी भाव-शक्ति ख़ूब प्रबल रहती है। बाल्य-काल में क्रिया-शक्ति क्षीण रहती है। इसीलिए उस समय बालकों के हृदय में भिन्न-भिन्न कल्पनाओं और भावों की तरंगें उठा करती हैं। जब वृद्धावस्था आती है तब क्रिया-शक्ति फिर निर्बल हो जाती है। यही कारण है कि वृद्ध भावों के इतने वशीभूत होते हैं। मुसलमानों के राजत्व काल में हिंदू-राजनैतिक स्वत्वों से हीन थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पर पराधीनता ने उनको उत्साह शून्य और शक्तिहीन बना दिया था। मुसलमानों की प्रभुता उत्तर भारत पर अक्षुण्ण थी किंतु जहाँ उनकी प्रभुता अच्छी तरह नहीं स्थापित हो पाई थी, वहाँ हिंदू बिल्कुल क्षीण पराक्रम नहीं हो गए थे। यही कारण है कि रामदास ने भक्ति के साथ निष्काम कर्म का उपदेश देकर दक्षिण भारत में जो शक्ति उत्पन्न कर दी थी, उससे उत्तर भारत के हिंदू प्रायः वंचित से थे। दासत्व की शृंखलाओं में बद्ध उत्तर भारत के श्रीमान् सभी बातों में अपने सम्राटों का अनुकरण करने लगे थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 में हुआ था। उनके उपदेशों ने हिंदी साहित्य में अमृतवर्षा की और वैष्णव-साहित्य का उद्भव हुआ। वैष्णव-साहित्य और धर्म का विशेषत्व यह है कि वह मनुष्यों में भगवान के स्वरूप को उपलब्ध करना चाहता है। ईश्वर के विराट और अचिंत्य स्वरूप से वह दूर रहता है। प्रेम में भय नहीं रहता, इसलिए वैष्णव कवियों ने पिता, माता, स्वामी, सखा आदि पारिवारिक स्नेह में ही लीला-मय का लीला विकास देखा। जितने वैष्णव-कवि हुए वे सभी पार्थिव प्रलोभनों से दूर रहकर भगवद्-भक्ति में निरत रहते थे। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि कवियों की गणना वैष्णव कवियों में की जाती है।

    वैष्णव-साहित्य ख़ूब लोकप्रिय हुआ, क्योंकि वह सरस और सरल था। परंतु हिंदी में वही एक साहित्य नहीं था बौद्ध-धर्म के पतन के बाद भारत में जो नवीन संस्कृत-साहित्य प्रचलित हुआ था, उसके आधार पर भी हिंदी में एक दूसरा साहित्य बन रहा था। उसकी ओर भी हम एक दृष्टि डालना चाहते हैं।

    मुसलमानों के आने के पहले भी भारतवर्ष में धार्मिक विद्वेष था। बौद्ध और जैन-धर्मों ने हिंदू-धर्म पर कुठाराघात किए थे परंतु अंत में हिंदू-धर्म ने बौद्ध-धर्म का उच्छेद कर डाला और जैन धर्म की प्रभुता लुप्त कर दी। बौद्ध-धर्म के प्राबल्य काल में प्राकृत साहित्य का प्रचार बढ़ा था, पर हिंदू धर्म के अभ्युदय से नवीन संस्कृत-साहित्य का आविर्भाव हुआ। हिंदू-धर्म का यह संस्कृत साहित्य खंडन और मंडनात्मक ग्रंथों से ही पूर्ण था। दर्शन, धर्म, व्याकरण और काव्य की शास्त्रीय विवेचना में ही तत्कालीन हिंदू-विद्वानों ने ख़ूब परिश्रम किया था। भगवान शंकराचार्य के समय से कबीर की उत्पत्ति तक जितने ग्रंथ बने हैं, प्रायः सभी आलोचनात्मक हैं। उनमें तात्विक संश्लेषण और विश्लेषण ही है। श्री हर्ष इसी काल के कवि हैं। उनका पांडित्य इतना प्रखर है कि सर्व साधारण उनकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार यह साहित्य कुछ ही लोगों में सीमाबद्ध हो गया था। इसी समय में संस्कृत में शृंगार-रस का तूफ़ान गया। कितने ही काव्य, नाटक, प्रहसन आदि रचे गए, उनमें से कुछ तो अश्लीलता की सीमा तक पहुँच गए। पर इस साहित्य का प्रचार सर्व साधारण में नहीं था। काव्य-कला के निष्णात कवि और शास्त्रों के मर्मज्ञ पंडित सर्व साधारण से पृथक होकर राज-सभा के आभूषण हो गए थे राज-चिह्नों में उनकी गणना होने लगी थी। मुग़लकाल में जब विद्या रसिक मुग़ल बादशाहों ने विद्वानों को राज सभा में स्थान दिया तब छोटे-छोटे अधिपति भी कवियों का सम्मान करने लगे। इन कवियों ने नवीन संस्कृत का अनुकरण कर काव्य-रचना की। कालिदास के बाद संस्कृत कवियों में शब्दों का आडंबर और अलंकारों का प्रचार बढ़ने लगा था। साहित्य कला के मर्मज्ञों ने काव्य के लिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियम बनाए थे। इन राज-कवियों ने उन्हीं नियमों का अनुसरण किया। प्रायः सभी ने अलंकार-शास्त्र पर एकाध ग्रंथ लिखा है। इन कवियों ने जो साहित्य-निर्माण किया है, वह वैष्णव-साहित्य से सर्वथा पृथक है। पंडितराज जगन्नाथ जिस कोटि के कवि हैं, उसी में केशव, बिहारी, मतिराम और पद्माकर की गणना होनी चाहिए। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि जितने स्त्री-पुरुष भक्तों में आदरणीय माने गए हैं, उन सबने सांसारिक वैभव का परित्याग कर ऐहिक वासनाओं के दमन करने की चेष्टा की है। यही उनका प्रधान लक्ष्य रहा है, परंतु क्या यही बात बिहारी, मतिराम आदि शृंगार रस के आचार्यों के विषय में भी कही जा सकती है? क्या उन्होंने भक्ति के आवेश में आकर सांसारिक वैभव की कामना छोड़ी है? शृंगार रस के वर्णन में तो उन्होंने अपनी कृष्ण-भक्ति की पराकाष्ठा दिखलाई, परंतु क्या उन्होंने अपने जीवन में भी कभी भक्तिवाद प्रदर्शित किया था? उनके नख-शिख वर्णन में आध्यात्मवाद अथवा भक्तिवाद देखना अन्याय है।

    कविवर बिहारीलाल अथवा मतिराम राजसभा के रत्न थे। उनकी प्रतिभा उसी में अवरुद्ध थी। उन्हें कोई विश्व कवि नहीं कहेगा। उनकी कृति विद्वानों की शोभा हो सकती है, पर वह सर्व साधारण की संपत्ति नहीं है। वह विलास की सामग्री है, पर पूजा का पात्र नहीं है। उससे मस्तिष्क में उत्तेजना पैदा हो सकती है, पर हृदय में शांति नहीं हो सकती। उनके भावों में तल्लीन होकर रसिक आत्मविस्मृत हो सकते हैं, पर उनमें जाग्रति नहीं सकती। अस्तु।

    इतिहासज्ञों का कथन है कि मुग़लों का शासनकाल हिंदी-साहित्य के लिए सुवर्ण युग है। इसमें संदेह नहीं कि मुग़ल बादशाहों ने हिंदी साहित्य के प्रति जो अनुराग प्रदर्शित किया, उससे हिंदी साहित्य की अच्छी वृद्धि हुई। कहने की ज़रूरत नहीं कि मुग़ल सम्राटों का अनुकरण कर अन्य श्रीमानों ने भी हिंदी के कवियों का अच्छा सत्कार किया। इस समय हिंदी में जितने भी बड़े-बड़े कवि हुए, प्रायः सभी किसी-न-किसी राजा के आश्रित थे। श्रीमानों की संरक्षकता में हिंदी-साहित्य की वृद्धि तो हुई, परंतु कवि जनता के प्रतिनिधि नहीं रह सके। राजसभाओं में ही कवि सम्मानित हुए, उन्होंने जनता के हृदयगत भावों को व्यक्त करने की चेष्टा नहीं की। हिंदू समाज में जीवन की गति किधर है और उसको किस दिशा की ओर परिवर्तित कर देने से समाज का कल्याण होगा, यह कविप्रिया अथवा रसिक-प्रिया के समान ग्रंथों का उद्देश्य नहीं था। ऐसी रचनाएँ किसी-न-किसी महाराज की सेवा के उपलक्ष्य में लिखी गई थीं, अतएव उनमें कदाचित् उन्हीं के मनोविनोद की ओर कवियों का ध्यान था। अपना कला-नैपुण्य प्रदर्शित करने के लिए इन्होंने साहित्य-शास्त्र का मंथन कर डाला, पर जीवन का रहस्य ढूँढ़ने के लिए मनुष्य समाज की पर्यालोचना नहीं की।

    मुगलों का प्रभुत्व क्षीण होने पर लोग एक बार फिर भारतवर्ष में हिंदू राज्य का स्वप्न देखने लगे। उत्तर में सिक्खों ने और दक्षिण में मरहठों ने स्वाधीनता के लिए युद्ध किया। कहा जाता है कि मुग़लों के पतन का सबसे बड़ा कारण यह था कि औरंगजेब ने हिंदू-धर्म के विनाश के लिए प्रयास किया था। इसमें संदेह नहीं कि हिंदुओं पर धार्मिक अत्याचार हुए, पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस प्रांत पर सबसे अधिक अत्याचार हुए वहाँ मुग़लों के विरुद्ध वैसी उत्तेजना नहीं थी, जैसी सिक्खों अथवा मरहठों में थी। कुछ विद्वान महाकवि भूषण को जातीय कवि समझते हैं। पर भूषण की ओजस्विनी कविता उसी भाषा में लिखी गई थी, जिसके अधिकांश बोलने वाले अत्याचार सहकर भी अकर्मण्य बने हुए थे। मरहठों के प्रति उनकी सहानुभूति अवश्य थी, पर वह सहानुभूति क्रिया-हीन थी। चतुर मरहठों ने अपने राज्य-विस्तार के लिए उस सहानुभूति से पूरा लाभ उठाया। उन्होंने हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों पर अधिकार कर लिया। तो भी उन प्रांतों के अधिवासियों में जाग्रति का कोई लक्षण नहीं दिखाई दिया। मुग़लों का प्रभुत्व नष्ट हुआ और कुछ काल के लिए हिंदू महाराष्ट्र का आधिपत्य स्थापित भी हुआ तो देश की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उसी प्रकार पंजाब में हिंदू-सिक्खों का अधिकार हो जाने पर भी वहाँ हिंदी-साहित्य की कुछ भी श्रीवृद्धि नहीं हुई। हम जानना चाहते हैं कि लोगों में यह उदासीनता क्यों थी? सच बात यह है कि मरहठे, सिक्ख अथवा राजपूत मुग़लों के विरुद्ध अवश्य खड़े हुए, परंतु देश उनके साथ नहीं था। मुगलों के विरुद्ध जो युद्ध हुआ वह स्वाधीनता के लिए जनता का युद्ध नहीं था। जनता सर्वथा उदासीन थी। भूषण ने औरंगजेब के विरुद्ध अपने जो भाव प्रकट किए हैं, वे जनता के भाव नहीं हैं। भूषण ने अपने जिन आश्रयदाताओं का यशोगान किया है उन पर देश की अचल श्रद्धा नहीं थी। भूषण भले ही इस संशय में पड़े रहें कि वे साहू की प्रशंसा करें या छत्रसाल की, पर देश इन दोनों के प्रति उदासीन था। यदि यह बात होती, यदि सचमुच समग्र भारतवर्ष में स्वाधीनता के भाव जाग्रत हुए होते, तो देश में वह शक्ति उत्पन्न हुई होती जो अदम्य होती उस शक्ति के प्रभाव से तत्कालीन साहित्य का स्वरूप ही कुछ दूसरा हो जाता। उन भावों की पुष्टि के लिए सैकड़ों कवि उत्पन्न हुए होते। पर हम देखते हैं कि हिंदी में भूषण के समान दो ही कवि उधर आकृष्ट हुए और अन्य कवि शृंगार-रस में ही निमग्न रहे। यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी-भाषा-भाषी प्रांतों के अधिवासियों में शौर्य का अभाव है। सेनाओं में इन लोगों की संख्या उपेक्षणीय नहीं; समरभूमि में ये लोग अच्छा पराक्रम दिखलाते थे। इन्हीं लोगों की सहायता से ब्रिटिश साम्राज्य तक स्थापित हुआ। फिर भी इस जाति ने स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए कभी प्रबल चेष्टा नहीं की। इसका क्या कारण है? हमारी समझ में तो इसका कारण यही है कि इनके सामने स्वाधीनता के आदर्श कभी उपस्थित नहीं किए गए। तुलसीदास और सूरदास ने उन्हें धर्म-श्रेष्ठ आदर्श दिखलाए पर हिंदी में स्वाधीनता का आदर्श दिखलाने के लिए कोई भी तुलसीदास अथवा सूरदास उत्पन्न नहीं हुआ। राजसभा की शोभा बढ़ाने वाले और राजाओं से अपरिमित पुरस्कार पाने वाले कवि जनता के कवि नहीं हो सकते। इन कवियों ने धन और कीर्ति की आशा से जिस साहित्य की सृष्टि की है, वह जातीयता के भावों से सर्वथा शून्य है। इनकी रचनाओं में हम जिस वैभव का दर्शन करते हैं, वह उनके आश्रय दाताओं का वैभव नहीं।

    भारतवर्ष के इतिहास में सबसे विलक्षण बात यह हुई है कि जब देश में जातीयता के प्रचार के लिए किसी ने मतभेदों को दूर करने की चेष्टा की, तब वे तो दूर हुए नहीं, उलटे उनकी संख्या में और वृद्धि हो गई। गुरुनानक ने मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए ज्ञान की जो धारा प्रवाहित की थी, वह अंत में सिक्खों के संप्रदाय में ही अवरुद्ध हो गई। कबीर, दादू, चैतन्य आदि जितने धर्म गुरुओं ने प्रेम के आधार पर जातीयता की सृष्टि करनी चाही, उतने ही संप्रदायों की वृद्धि हुई तुकाराम, नामदेव आदि दक्षिण के धर्म प्रचारकों ने जिस महाराष्ट्र जाति को धर्म के बंधन से दृढ़कर प्रबल बना दिया था, वही जाति राजनैतिक स्पर्धा से स्वयं अपने पतन का कारण हुई। यही कारण है कि मध्ययुग के आरंभ में भारतीय साहित्य में जिन धार्मिक भावों ने एक नवीन शक्ति उत्पन्न कर दी थी, वे बिलकुल शिथिल हो गए। इधर भाव-स्रोत अवरुद्ध हुआ उधर हिंदी के सभा-कवियों ने कला-सौष्ठव के प्रदर्शन में अपनी शक्ति लगा दी। शायद ही किसी देश के साहित्य में कवियों ने कला के द्वारा अपने व्यक्तित्व को छिपाया हो जितना हिंदी के परवर्ती कवियों ने। कबीर, सूरदास, तुलसीदास के समान कवियों की रचनाओं में उनके हृदय के भाव फूट पड़ते हैं। पर बिहारी सतसई के समान काव्यों में हम कवि का यथार्थ दर्शन करते ही नहीं। उन्हें हम जब देखते हैं तब एक कल्पित राज्य में ही विहार करते पाते हैं। अपनी कल्पना के सौंदर्य में वे ऐसे डूब गए हैं कि दूसरी ओर उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। वर्षा ऋतु में मेघागम देखकर वे किसी कल्पित वियोगिनी के विरह-दुःख से विकल हो गए हैं। पर देश के हाहाकार से उनका चित्त विकृत नहीं हुआ। जब मुग़ल साम्राज्य की श्मशान भूमि में चितानल जल रहा था, तब हिंदी के कवि किसी कल्पित नायिका को तरह-तरह के उपदेश दे रहे थे। वे क्या सचमुच उनके हृदय के भाव थे? हमारी समझ में यहाँ कवि की कला मात्र है, उनका व्यक्तित्व नहीं। यही कारण है कि हमें उनकी कला प्राणहीन मालूम होती है। यथार्थ कवि का दर्शन हम तभी करते हैं, जब अंतर्वेदना से पीड़ित हो वे पुकार उठते हैं—'व्याध हू ते विहद असाधु हौं अजामिल लौं, ग्राह ते गुनाही कहो किन में गिनाओगे।' यहाँ कवि को तो राजसभा का ध्यान है और अपनी कला का। वह एक बार अपने अंतर्जगत की दृष्टि डालकर संसार से अपने को ऊँचा उठा ले जाता है—वहाँ, जहाँ स्वयं विश्वनाथ है।

    कृत्रिमता के इस युग में भारतीय समाज की रक्षा तुलसीदास के समान कवियों ने की। हिंदी-साहित्य के लिए तो तुलसीदास की कृति ही स्वर्ग-सोपान है। कार्लाइल ने ऐश्वर्य-मंडित ब्रिटिश साम्राज्य से अधिक मूल्यवान शेक्सपियर की रचना को समझा है। पर वैभवहीन भारत के लिए तो तुलसीदास का रामचरितमानस ही सर्वस्व है। विज्ञ लोग रसार्णव में डूबे रहें, परंतु अज्ञों ने रामचरितमानस को ही अपनाया। हिंदू-धर्म के आदर्शों की रक्षा तुलसीदास ने की। भिन्न-भिन्न संप्रदायों ने अपने-अपने सांप्रदायिक साहित्य से उपदेश ग्रहण किया, पर सांप्रदायिक साहित्य विहीन शिक्षा तुलसीदास जी देते रहे।

    ब्रिटिश साम्राज्य के स्थापित होने पर भारतवर्ष में सर्वत्र शांति स्थापित हुई। पर यह शांति अकर्मण्यता की थी। क्रमशः यह अकर्मण्यता दूर हुई। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारत में फिर चेतनता आई। पाश्चात्य विज्ञान के आलोक में वे आत्म-परीक्षा में व्यस्त हुए। उन्हें अपनी स्थिति से असंतोष हुआ। असंतोष का यह भाव अब प्रबल होने लगा है। इसने साहित्य में भी प्रवेश किया और साहित्य के स्वरूप को ही बदल दिया। नवीन साहित्य की सृष्टि होने लगी। जिन भारतीय प्रांतों में इस साहित्य ने उन्नति की है, वहाँ हम कविता का एक नया ही आदर्श देखते हैं। यह आदर्श है मनुष्यत्व की विजय, स्वाधीनता और प्रेम।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-4 (पृष्ठ 50)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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