हिंदी कहानीः रचना की प्रक्रिया

hindi kahaniः rachna ki prakriya

सुरेंद्र चौधरी

सुरेंद्र चौधरी

हिंदी कहानीः रचना की प्रक्रिया

सुरेंद्र चौधरी

और अधिकसुरेंद्र चौधरी

    पिछले दस वर्षों में हिंदी कहानी जिस तेज़ी से विकसित हुई है, उसकी सामान्य रचना-प्रक्रिया में जो गति आई है उसके कारणों पर विचार करना यहाँ उद्दिष्ट नहीं। यहाँ सिर्फ़ इतना भर कहना काफ़ी होगा कि 1645 ई. के उपरांत कहानी एक साथ ही अनेक दिशाओं में विकसित होने की संभावना बना लेती है। रचना-प्रक्रिया से चूँकि इस प्रश्न का सीधा संबंध है, इसलिए यहाँ सामयिक कहानी की विकास-दिशाओं पर ध्यान रखते हुए उसके उस सामान्य रूप की चर्चा करूँगा जो इस प्रक्रिया को विशिष्ट और तात्विक रूप प्रदान करता है। सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव इस युग में रचनात्मक मानस पर दो रूपों में पड़ता है : एक रूप उसका शुद्ध मानसिक है और दूसरा बोधात्मक। सामयिक कहानी की रचना-प्रक्रिया पर ध्यान देने से ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि उसके ये दोनों ही रूप समानांतर ढंग से विकसित हो रहे हैं और उनकी संभावनाएँ अक्षय हैं।

    अज्ञेय, जैनेंद्र, पहाड़ी, इलाचंद्र जोशी इत्यादि ने अपनी कहानियों के द्वारा उस प्रक्रिया को यथेष्ट रूप दे दिया था जो शुद्ध मानसिक सत्यों को लेकर कथा के निर्माण में प्रवृत्त थी। बोध-प्रधान कहानियों के लिए प्रेमचंद और यशपाल ने एक निर्दिष्ट परंपरा ही निर्मित कर दी थी। परिणाम यह है कि सामयिक हिंदी कहानी किसी एक ही प्रक्रिया का विकास नहीं है। जो लोग सामयिक हिंदी कहानी को किसी एकात्मक रचना-प्रक्रिया का विकास मानते हैं उनके लिए आज दो धाराओं के उस मूल स्रोत को स्पष्ट करना मुश्किल हो रहा है जिसके आधार पर वे उसकी एकतानता सिद्ध कर सकें।

    रचना-प्रक्रिया को इस समानांतरता को स्वीकार कर आज की हिंदी कहानी पर विचार करना उतना कष्टकर प्रतीत नहीं होगा। आज की हिंदी कहानी की एक धारा ऐसी है जो अपनी आंतरिक चेतना से वह रूप गढ़ती है जो प्रत्यक्ष सामाजिक शक्तियों की अंतक्रिया से निर्मित नहीं है। दूसरी ओर, एक दूसरी धारा है जो शुद्ध बोध के आधार पर सामाजिक शक्तियों, संबंधों और जीवन-रूपों की व्याख्या करती है। इन अलग-अलग रचना-प्रक्रियाओं पर स्वतंत्र रूप से आज विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा करने के उपरांत ही हम आधुनिक कहानियों के स्वरूप को समझ सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

    चूँकि कहानी की रचना-प्रक्रिया जीवन के व्यवहारों से ही संबद्ध है, इसलिए उसकी विधाओं के संबंध में आत्यंतिक रूप से और झटके से कुछ कहना उचित नहीं है। आवश्यकता यहाँ इस बात की है कि कहानी की रचना-प्रक्रिया को समझने की चेष्टा में हम अधिक-से-अधिक व्यवस्थित रूप में जीवन के, व्यवहारों के आंतरिक और क्रियात्मक ढाँचे का परिज्ञान करें। रचनात्मक मानस इन समस्त जीवन-व्यवहारों को एक ही रूप में ग्रहण नहीं करता, वह कुछ को स्वीकार करता है और कुछ को अस्वीकार। ये दोनों ही प्रक्रिया रचयिता के अवधान और सामान्य जीवन-परिस्थितियों से उसके संबंध का परिणाम है।

    यहाँ सबसे पहले मैं हिंदी कहानी की उस रचना-प्रक्रिया की चर्चा करूँ जो जीवन-सत्य का अवधान मानसिक आयाम में करती है। इस रचना-प्रक्रिया के उत्थापन के विशेष कारण थे। प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों में विषय (थीम) की एक ऐसी विधि का विकास हुआ था जो समस्त सत्य को शुद्ध रूप से बहिर्गत संबंध के रूप में ही देखती-मानती थी। यशपाल की कहानियों में यद्यपि थोड़ा विषयांतर मिलता है, किंतु इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। प्रेमचंद ने सारे मानवीय संबंधों को आंकड़ों (मेज़ेरेबल डाटा) के स्तर तक सरल कर रखा था। परिणाम यह हो रहा था कि मानव-व्यवहार के उन रूपों को कहानियों में जगह नहीं मिल पाती थी जिन्हें हम सामाजिक आंकड़ों तक सरलीकृत करने में समर्थ नहीं थे। जैनेंद्र आदि को कहानियों में इसके लिए चेष्टा हुई, किंतु संकेतों में। वस्तुतः जैनेंद्र आदि कहानीकारों ने भी मानवीय व्यवहार के इस मानसिक रूप को किसी विशिष्ट जीवन-प्रक्रिया के रूप में नहीं उभारा।

    सामयिक हिंदी कहानी में इस ओर कुछ अधिक सचेष्टता बरती जा रही है। नलिन विलोचन शर्मा, विष्णु प्रभाकर, मिक्खु, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा और राजकमल चौधरी की कहानियों की रचना-प्रक्रिया पर विचार करने से हमें इस बात का पुछ सही अंदाज लग सकता है। नलिन विलोचन शर्मा की अधिकांश कहानियों में एक केंद्रीय परिस्थिति का उत्थापनकारक आवेगों (मोटिवेशन) से होता है जो मुख्य पात्र के अचेतन संस्कारों से कार्य करते हैं। इन कारक आवेगों को पात्रों की परिस्थिति के अंतर्विरोध में ढूँढना उनकी कहानियों के अर्थ को विकृत करना होगा। जो लोग प्रत्येक व्यापार का कारण परिस्थिति में ढूँढने के आदी हैं उन्हें ये कहानियाँ काफ़ी परेशान करती हैं। हमारी सामयिक जीवन परिस्थिति अपने प्रस्तार में जितनी जटिल है शायद उससे अधिक जटिल वह अपने आंतरिक रूप में है। व्यक्ति के भोग के धरातल पर उसकी जटिलता का अदाल मोहन राकेश की कहानी मिस पाल' के पाठकों को होगा ही। 'जहाँ लक्ष्मी क़ैद है', 'परिंदे, 'ख़ामोश घाटियों के साँप' इत्यादि रचनाएँ भी इसी कोटि के अंतर्गत आती हैं। इन सभी कहानियों में उस जीवन परिस्थिति का चित्रण है जो मनुष्य को निरंतर वैयक्तिकता में उलझती जा रही है, जो व्यक्ति के सामाजिक व्यक्तित्व का संतुलन नष्ट कर रही है और इस प्रकार निरंतर जीवन को क्षयमस्त करती चल रही है। मगर इन सभी कहानियों में इस परिस्थिति के प्रति लेखकों की प्रतिक्रियाएँ एक जैसी नहीं हैं, उनके अनेक धरातल हैं। सामान्यतः जीवन परिस्थितियों के दो ही रूप होते हैं, एक वह जहाँ घटनाएँ सार्वभौम रूप से एक ही प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। ऐसी घटनाओं को लेकर चलनेवाली रचना-पक्रिया अनुभव की दृष्टि से प्रत्यक्ष और विस्तृत रहती है। इसके विपरीत कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो व्यक्ति-मानस पर अलग-अलग गहराइयों में प्रभाव उत्पन्न करती हैं। किंतु दोनों में कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं है जिससे लेखक तटस्थ रहकर काम चता सके। एक काल में यदि एक प्रकार के अनुभव रचना की प्रक्रिया में उभरते हैं, तो दूसरे काल में ठीक उससे दूसरे प्रकार के अनुभवों का उभार होता है।

    ऊपर मैंने रचना की मानसिक और बोधात्मक प्रक्रियाओं की चर्चा की है। यहाँ मुझे उनके प्रथम रूप की व्याख्या करना अभिप्रेत है। इस संबंध में ऑडेन की कुछ एक पक्तियाँ उद्धृत करूँ man is a history-making creature for whom the future is always open, human nature is a nature continually in quest of itself, obliged at every moment to transcend what it was a moment before. For man the present is not real but valuable. he can neither repeat the past exactly. every moment is unique- nor leave it behind- at every moment he adds to and thereby modifies all that has previously happened to him.”

    सामान्य रूप से प्रत्येक आधुनिक युगजीवी की और विशेष रूप से रचयिता साहित्यकार की यह दृष्टि, किसी एक निश्चित बिंब या रूप के माध्यम से अपने अस्तित्व को उदाहृत करने की विधि को आज असंभव बना रही है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि आज का बुद्धिजीवी व्यक्ति वर्तमान में नहीं रहता, वह या तो उस अतीत में रहता है जिसमें शारीरिक रूप से मृत भी उसी प्रकार क्रियाशील है जिस प्रकार जीवित व्यक्ति रहता है, या फिर उस भविष्य को लेकर जीवित है जो अपनी सारी अस्पष्टता के बावजूद हमें आकर्षित करता है। इस अतीत या भविष्य को लेकर जीवित रहनेवाले व्यक्ति का भावात्मक अनुभव निरंतर, भोक्ता के रूप में वस्तुओं और अवस्थायों के बीच चुनाव करता रहता है। यही उसकी जीवन-प्रक्रिया का सूत्र है। कहानी पर इस जीवन-प्रक्रिया की छाया पड़े यही आश्चर्य की बात होगी; कभी 'हाई सीरियसनेस' के साथ, कभी मात्र एक भंगिमा (गेस्चर) के रूप में और कभी घटना की जटिलता के रूप में इस जीवन-प्रक्रिया को कहानीकार बार-बार दुहराता हुआ मालूम पड़ता है। यह स्थिति सिर्फ़ हिंदी कहानियों की नहीं है, हिंदी कहानी के बाहर भी है और यूरोप के कथा-साहित्य में तो जैसे चुकने लगी है। फिर भी इनका एक स्वस्थ प्रभाव जो हिंदी कहानियों पर पड़ा है वह है, जीवन-व्यापारों के अर्थ की खोज पर बल। सामयिक कहानी-लेखक व्यक्ति-व्यापारों को केवल घटना के साथ जोड़कर कथावस्तु का निर्माण नहीं करता, वह एक ऐसा संतुलन बनाने की चेष्टा करता है जिसमें व्यापार कहानी की परविपि (टेलॉस) की ओर सहज गति से बढ़ते हुए जीवन-प्रवाह का संकेत दे सकें। श्री राजेंद्र यादव ने अपने एक लेख में आधुनिक कहानी की रचना-प्रक्रिया के संबंध में बातें करते हुए इस तथ्य की ओर इशारा किया था।

    फ़ुट प्रिंट -

    1. दि फेस्ट हियरो- ऑडेन, टेक्सस काटर्ली, अंक 4, 1761

    आधुनिक कहानीकार इस ओर से सचेत हैं कि जीवन समय की दिशा में एक अव्यहित प्रक्रिया है, देश के संयोग से यह प्रक्रिया एक भ्रमण बन जाती है। आधुनिक कहानीकार अपनी वैयक्तिकता और असामान्यता (Uniqueness) की ओर से भी उतना ही सचेष्ट है। फलतः उसका लक्ष्य नितांत व्यक्तिक अथवा अनिश्चित भविष्य के हाथों रहता है क्योंकि वह अपने प्रयत्नों के विस्तार में सफल या असफल रहेगा, इसका निश्चय उसे नहीं है। इसके अतिरिक्त वह अपने अंदर की विरोधी शक्तियों के विषय में भी कम सचेत नहीं है जो निरंतर उसकी इच्छा को प्रभावित करना चाहती हैं। इनमें कुछ अच्छी और कुछ बुरी हैं। इन शक्तियों की स्थिति निश्चित है, व्यक्ति इनके प्रति समर्पण या प्रतिरोध का निश्चय तो कर सकता है, किंतु वह इच्छा ही नहीं करे ; इसके लिए स्वतंत्र नहीं है।

    ऑडेन ने ठोक ही लिखा है इस अनुभव का कोई भी चित्र आवश्यक रूप से द्विरूप (डुअलिस्टिक) होगा, दो स्थितियों के बीच का संघर्ष।

    इस आवश्यक धारणा को ग्रहण किए बिना सामयिक कहानियों की रचना-प्रक्रिया पर विचार नहीं किया जा सकता और उसके मानसिक रूप पर तो शायद और भी नहीं। ऐसी स्थिति में आज रहस्य-रोमांच की कहानियों के लिए बहुत कम गुंजाइश रह जाती है क्योंकि वैसी कहानियों में कथा का लक्ष्य कोई व्यक्ति या संस्था है, किंतु जिसका उत्तर स्वयं एक प्रश्न है; किसने हत्या की? स्पष्ट है कि ऐसी कहानियों में जीवन परिवर्तन की प्रक्रिया, उसका प्रवाह नितांत अनावश्यक चीज़ है। जो कहानी जितने सीमित व्यापार-क्षेत्र में चलेगी, जितने सघन और जटिल वातावरण में लिखी जाएगी उतनी ही सफल होगी। एडविन म्यूर जिसे 'सोनिक डिस्क्रिप्शन' कहता है, वही ऐसी कहानियों की आत्मा है, विस्तार या प्रवाह नहीं।

    आज का लेखक घटना-वैचित्र्य को लेकर भी कहानी के निर्माण को उद्यत नहीं होता क्योंकि वैसी कहानियों में लक्ष्य और प्रवाह में (गोल एंड जर्नी) में अभेद रहता है। यहाँ एक घटना से दूसरी घटना का तारतम्य मात्र रहस्य या रोमांच के लिए स्थापित किया जाता है, जीवन-प्रवाह की अनिवार्यता से नहीं। राजकमल चौधरी की कहानी 'सामुद्रिक' के नायक की खोज कभी समाप्त नहीं होगी क्योंकि ऐसी स्त्रियाँ हमेशा रह जाएँगी, जिन्हें उनके नायक ने समर्पण का सुख दिया हो। रोमांच या रोमांस की यह अशेष खोज जीवन से भटककर मात्र एक निरर्थकता बन जाती है, एक जिज्ञासायुक्त भंगिमा! कहानियों में यह जीवन-शोध 'ट्रैजिक' परिस्थितियाँ भर उत्पन्न कर पाता है।

    निर्मल वर्मा की कहानी 'परिंदे' में जीवन-प्रवाह की एक दूसरी ही मुद्रा है। लतिका अतीत में लौट नहीं सकती, मगर अतीत उसे प्रिय है क्योंकि इस अतीत के साथ अक्षय स्मृतियाँ हैं, जीवन की सार्थकता है। वह अपने जीवन लक्ष्य को नहीं पाएगी क्योंकि वह स्वयं अतीत है, व्यतीत है मगर फिर भी जिजीविषा उसे प्रेरित करती है। वह अपने चारों ओर फैली विश्व-शक्तियों से अपरिचित नहीं है, मगर इस भयावह परिचय के बावजूद वह अपने व्यतीत की रक्षा के लिए सचेष्ट है। इससे गहरी सचेष्टता हमें मोहन राकेश की कहानी 'मिस पाल' में मिल जाती है। लेखक ने वस्तुतः यहाँ एक सर्वथा नए प्रकार के चरित्र की सृष्टि कर ली है। ऐसे चरित्रों की काल्पनिक सृष्टि करते हुए लेखक को जीवन की निरंतर विकासशील संवेदनाओं से परिचय रखने की नितांत आवश्यकता होती है। नई-नई परिस्थितियाँ जीवन का सर्वथा नया रूप ही खड़ा कर देती हैं, इन रूपों से आंतरिक रूप से परिचित होकर भी हम इन्हें स्वीकार करने को तत्पर नहीं होते। किंतु कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जहाँ इनको स्वीकार करना हमारी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता, हमारी विवशता बन जाता है। ‘मिस पाल' का विरोध (कॉनट्राडिक्शन) भी इसी विवशता की अभिव्यक्ति है। कहानी की रचना-प्रक्रिया में इसी विरोध का दिग्दर्शन मुख्य विषय है और लेखक को इसमें निश्चित रूप से सफलता मिली है। 'मिस पाल' का परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) इस दृष्टि से नितांत नवीन है और इसी परिप्रेक्ष्य के उत्थापन में 'मिस पाल' की संवेदनीयता का मूल्य भी छिपा है, उसके विरोधों का वास्तविक आधार भी।

    सामयिक कहानी की रचना-प्रक्रिया के इस रूप-विशेष पर बहुत विस्तार से कुछ लिखकर यहाँ इतना भर स्पष्ट कर देना अभीष्ट है कि कहानी के निर्माण में आज चरित्र की मूल संवेदना को उभारने का प्रयत्न ही मुख्य हो गया है, घटनाओं और परिस्थितियों की नाटकीयता का चित्रण गौण। लेकिन इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कोई कहानी बिना किसी सिद्ध परिस्थिति के, केवल पात्र का भावनात्मक रूप खड़ाकर अच्छी कहानी बन सकती है। इस संबंध में शास्त्रीय पद्धति के अनुसार शर्मोकों के निर्माण की चर्चा की जा सकती है। पाठक या भावक या स्रोता अनुभव-सामान्य संवेदनाओं का मर्म ही तात्कालिक रूप से ग्रहण करता है। इस तथ्य के ऊपर हेफ़ोर्ड एवं विन्सेंट नामक विद्वानों ने अपनी पुस्तक 'रीडर एंड राइटर' में बहुत विस्तार से विचार किया है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षेप में उपस्थित कर दूँ। उन लोगों ने लिखा है

    All these pieces relate experience to which none of us can be indifferent. You will find that reading them will heighten your interest in and your awareness of similar experiences you have already known or heard about. Seeing into other peopel's lives increases your understanding of your own.''

    स्पष्ट है कि अनुभव का सामान्य वृत्त (आर्क टाइप) परिस्थिति के सिद्ध रूपों से ही निसुत है। आधुनिक कहानी की रचना-प्रक्रिया में जो एक बहुत बड़ा दोष मुझे दिखाई पड़ता है उसका कारण भावनात्मक विधान की एकांगिता है। सामयिक कहानीकार पात्र के जीवन के मर्म-विशेष को उद्घाटित करने के लिए ऐसी विचित्र परिस्थितियाँ खड़ी करता है, जिससे हमारे सामान्य अनुभव का संबंध बड़ा नगण्य होता है। ऐसी विचित्र परिस्थितियाँ खड़ी करने के लिए कहानीकार को ऐसे गर्मीक-समूहों की योजना करनी पड़ती है जो पात्र के विकास के अनुकूल अवस्थाएँ निर्मित कर सकें। परिणाम यह होता है कि आज की अधिकांश कहानियाँ परिस्थिति के धानेहन से निर्मित होती हैं। अधिकांश भावनात्मक-प्रक्रिया वाली कहानियों में लेखक अपनो कल्पना से सामान्य परिस्थितियों की योजना तो कर लेता है, किंतु जहाँ उसका कथा-विधान अपनी सहजता के द्वारा पाठक को उन परिस्थितियों के अतरंग में ले जाने में समर्थ नहीं होना वहाँ कहानी का पूरा ढाँचा ही बर्बाद हो जाता है। निर्मल वर्मा की सीमा, राजकमल चौधरी की अधिकांश कहानियाँ केवल रोमांस गढ़कर चुक जाती हैं, उनमें अनुभव का 'आर्क टाइप' निर्मित ही नहीं हो पाता; कहानी का मर्म खुल ही नहीं पाता। इन लेखकों की तुलना में राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की रचना-प्रक्रिया अधिक प्रौढ़ और अनुभव-सामान्य है। राजेंद्र यादव की 'यहाँ लक्ष्मी क़ैद है', 'रोशनी कहाँ है’, मोहन राकेश की 'मिस पाल' एवं ‘आर्श’, मन्नू भंडारी की ‘यह भी सच है' इत्यादि को लीजिए। यहाँ लेखक का सपना का विश्व हमारे अनुभव के विश्व से पृथक् नहीं है, फलतः उसमें किसी पात्र ही अवस्था या प्रत्यवस्था का अथवा संतुलन का मर्म हम सहज ही ग्रहण कर लेते हैं। इन सभी कहानियों में गर्मीक-समूहों के बग़ैर लेखकों ने परिस्थिति और चरित्र का अंतरावलंबन निर्मित कर लिया है। उनमें परिस्थितियों से टूटकर कोई पात्र मार्मिक हो उठता है, कोई परिस्थितियों के प्रवाह में अपने प्रतिरोध को प्रमाणित करता हुआ सहसा उद्मासित हो उठता है। दोनों ही प्रक्रियाएँ अपने संदर्भ में सार्थक हैं। 'रोशनी कहाँ है' के किस्सों को ही लीजिए, उसके जीवन में आर्थिक सोमान्य अनेक तनाव हैं, उसे उनका पर्याप्त ज्ञान भी है, मगर उसका मर्म घुलता है एक विशेष परिस्थिति में मा निम्न और समूह किशोरी की चादर के 'दस रुपए एकार' गाने की चेष्टा में लगे हैं। दूसरों की मुश्किल आसान करने वाला क़िस्सों अपनी मुश्किलों के लिए कोई राहत ढूँढ नहीं देता दो पापों से रपये निकलवा लेने की सारी गिरायगे धारुर सहायता करने का सारा बड़प्पन जैसे कहीं झटके में लड़ गया! सिमो बार कदम एम्त हो गया। कक्षा के प्रति बाग समार! परिस्थितियों के भीतर तनाव की यह सहज मर्म क्या को मारना के सरपर मार मौ भनुप अनुभव सामान्य नहीं हुआ? कहानी में क्योंकि समूह नहीं है इस परम परिणति कर एक ही बिंदु है, अनुभवपूर्ण, संपूर्ण। पनामा सानो गेम पूरला पर पुसमा नामवर सिंह नहीं की वही दुश्मनी है।

    रचना-प्रक्रिया का दूसरा रूप है बोध-प्रधान कहानियों वाला। ऐसी कहानियाँ प्रेमचंद से ही शुरू होती हैं, किंतु कालांतर में उनमें आवश्यक परिवर्तन, परिष्कार हुए हैं। इस प्रक्रिया का महत्व अनुभव-सामान्य परिस्थितियों की नियोजना और तद्रुप पात्रों के उत्थापन में है। यहाँ एक बार फिर प्रेमचंद की रचना-प्रक्रिया पर कुछ बातें दुहरा दूँ। प्रेमचंद ने अधिकांश कहानियों में अनुभव-

    सामान्य और तात्कालिक परिस्थिति-गर्भत्ता का बड़ा ही वृहद रूप अपनी कहानियों में खड़ा किया है, किंतु उनके अनुरूप पात्रों की सृष्टि नहीं कर पाने के कारण पात्रों को अधिकाधिक 'इंस्ट्रुमेंटल' बना देने के कारण कहानियाँ कमज़ोर हो गई हैं। जहाँ उन्होंने अपने को इस दोष से बचा लिया है वहाँ उनकी कहानियाँ रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से पूर्ण और मार्मिक हो गई है। 'बड़े भाई साहब', 'रामलीला', 'मुक्तिमार्ग', 'कफ़न', 'पूस की रात' इत्यादि उदाहरण के रूप में उपस्थित की जा चुकी है। 'जुलूस', 'नशा', 'घास वाली' इत्यादि कहानियाँ इनकी तुलना में इसलिए कमज़ोर पड़ जाती है कि इनमें परिस्थितियाँ बड़ी सगर्म हैं, किंतु पात्र उनसे बलातु जोड़े गए हैं। शायद उनके टूटने से कहानी का आंतरिक रूप खुल पाता| सामयिक कहानी लेखकों में भैरव प्रसाद गुप्त, राजेंद्र यादव, अमरकांत, कमलेश्वर, शेखर जोशी, हर्षनाथ, मार्कण्डेय, रेणु, शानी इत्यादि इसी प्रक्रिया को स्वीकार करने वाले कथाकार हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि कहानी में विकास के स्थल को ये सभी कहानीकार एक ही प्रकार से तोड़ या मोड़कर उभारते हैं, मगर उस विकास के निर्माण में वातावरण या परिस्थितियों का जो स्वरूप ये गढ़ते हैं उसमें आधारभूत साम्य है। इस प्रक्रियात्मक साम्य के कारण इनकी कहानियों में 'बोध' की स्पष्टता रहती है, ये सभी कहानीकार अनुभव-सामान्य बोधों के कहानीकार हैं। इन कथाकारों का बोध व्यक्ति के अनुभव-वैचित्र्य का परिणाम नहीं है और जीवन की असामान्य परिस्थितियों का ही, फिर भी उसमें 'भावना' का एक सहज-सप्रेष्य रूप अंतर्मुक्त है। ये कहानीकार पात्रों का 'जेनोटाइप नहीं गढ़ते, अद्भुत परिस्थितियों को लेकर ही कहानी खड़ी करने की चेष्टा करते हैं। अनुभव के सय के रूप में गृहीत कोई घटना, कोई संबंध, कोई व्यक्ति, कोई भावना कहानी का कथ्य बन सकती है यदि इसे संवेदनशील और कल्पना-समृद्ध रचयिता मिल जाए। कहानी में कथ्य और कथ्य का विधान दोनों ही महत्त्वपूर्ण है।

    रेणुजी ने कुछ बहुत लंबी कहानियाँ लिखी हैं, जैसे 'मारे गए गुलफ़ाम'। ऐसी कहानियों में उन्होंने किसी बोध को रोमांस के स्तर तक उछालकर भावनात्मक बनाने की चेष्टा में केवल उनको विषयातरग्रस्त किया है, बल्कि बहुत हद तक कहानी के 'बोध' को भी उन्होंने आहत हो जाने के लिए असहाय छोड़ दिया है। रचना के प्रवाह में उनका विषय बोध भावना के कुहासे के स्तरों से दबकर नष्ट हो जाता है। कहानी में निर्माण की प्रक्रिया में यह दोष मार्कण्डेय की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसका बहुत बड़ा कारण विचार का स्तर है। इस संबंध में कहा गया है Thinking is a process exceedingly difficult to define, partly because it is subjective, partly because it is intangible and partly because it is not one activity but many and occurs in a variety of media, from words, mathematical symbols and images, to flashes of intuition and inner certitude. जिस प्रकार विचार की प्रक्रिया जटिल और सावयव होने के कारण सामान्यतः पकड़ में नहीं आती उसी तरह विचारों के स्तर का ओर से जब कहानीकार सचेष्ट नहीं होता है तो वैसी स्थिति में प्रवाह उसे दूर-दूर भटका देता है। रेणु को अपने कथ्य का संश्लिष्ट व्यवधान नहीं है, फलतः उनकी कहानियाँ प्रवाह में खो जाती हैं, उनको रचना-प्रक्रिया ‘कथानक' के वेग से नियंत्रित नहीं रह पाती। यह दोष रेणु की ही रचना-प्रक्रिया में नहीं है, शैलेश मटियानी की अधिकांश कहानियों में भी यही दोष है अन्यथा ये दोनों ही कहानीकार हिंदी कहानियों में ‘बोध' के दो नए धरातल से लेकर उभरे हैं।

    भैरव प्रसाद गुप्त, कमलेश्वर, रमेश बक्षी इत्यादि कहानीकारों को टूटते हुए व्यक्तियों का चित्रण प्रिय है। वे परिस्थिति की जटिलता का बड़ा ही सरल रूप खड़ाकर अपने पात्रों को उसमें डाल देते हैं। स्वाभाविक रूप से इन जटिल परिस्थितियों में पड़े पात्र टूट जाते हैं, किंतु उनके टूटने का सहज मर्म इनकी कहानियों को प्राणवान बना देता है।

    फ़ुट प्रिंट -

    1. रीडर एंड राइटर, पृ. २५॥ (बोस्टन, १५५)

    इन्हें अपने पात्रों को लेकर कोई अतिरिक्त मोह नहीं है। ऐसी कहानियों की रचना-प्रकिया में ऐसा सहज संभव है कि लेखक कुंठित व्यक्तियों को लेकर कहानी की रचना करना चाहे, किंतु इन लेखकों में बहुत कम ऐसे हैं जिनके पात्र कुंठाग्रस्त हों (रमेश बक्षी में यह दोष कहीं-कहीं उभरता है)।

    हिंदी के सामयिक कथाकारों में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनकी कहानियों में 'बोध' का बड़ा ही विकृत रूप मिलता है। इसका कारण यह है कि वे गतिशील जीवन को उसके बाहरी रूप में ही देखने-परखने की चेष्टा करते हैं। जीवन के अंतर्संबंधों में उन्हें वास्तविक गति हो नहीं है। फलतः उनका बोध शुद्ध चाक्षुप है। वे जो देखते हैं उसे ही सत्य मानकर कहानी की विषय-वस्तु गढ़ने की चेष्टा करते हैं। यह प्रक्रिया विकृत बोध को जन्म देती है। परिणाम यह है कि इन लेखकों का संपूर्ण साहित्य अभावात्मक तथ्यों, अतिरंजित घटनाओं और कुंठाग्रस्त भोगों से भरा-भरा है। इन प्रक्रियाओं का संकेत कर देना ही यहाँ काफ़ी होगा, इन्हें उदाहृत करना मुझे इष्ट नहीं।

    स्पष्ट है कि सामयिक हिंदी कहानी किसी एकांत रचना-प्रक्रिया का विकास नहीं है, आरंभ से ही इसके दो रूप रहे हैं (प्रसाद और प्रेमचंद्र)। अदावधि यह विश्वास हिंदी कहानियों में सुरक्षित है। इधर की कहानियों में जो एक बहुत महत्त्वपूर्ण रचनात्मक रूप उभरा है उसका कारण यह है कि ये कहानीकार मानवीय व्यापार को किसी भौतिक अर्थ में 'वातावरण' का परिणाम मानने के बजाए व्यक्ति के विशिष्ट वातावरण-बोध का परिणाम मानकर चित्रित करते हैं। कहानी की रचना-प्रक्रिया पर इस सत्य का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। सबसे पहले आज का कहानीकार अपने पात्रों के व्यापार को परिस्थितियों की सहज प्रतिक्रिया के रूप में चित्रित नहीं करता, यह परिस्थिति-बोध को बीच में डाल देता है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पात्रों के अंतरंग का निर्माण करने में वह बड़ी सूक्षमता बरतता है। कभी-कभी एक ही भौतिक परिस्थिति से उदोप्त दो परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तो उनके बीच वह सहसा कोई निर्णय नहीं ले पाता! मानव के निर्माण में इस 'तनाव’ का बहुत बड़ा हाथ रहता है।

    इस तनाव का मर्म कहानी में तभी खुल सकता है जब कहानीकार रचना की प्रक्रिया में इस विलक्षण संयोग के लिए कहानी में पर्याप्त भूमि बना लेता है या पात्र के अंतःकरण की द्रव-दशाओं का सूक्ष्मता से उत्थापन करने में समर्थ होता है। इन दोनों शर्तों के अभाव में इस द्विरूप प्रतिक्रिया को किसी मी प्रकार संश्लिष्ट नहीं किया जा सकता। मन्नू भंडारी की कहानी 'यह भी सच है' इस प्रक्रिया का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें मूल पात्र की मनः स्थितियों को बड़ी सूक्ष्मता से उपस्थित कर लेखक ने इस द्विरूप प्रतिक्रिया को संश्लिष्ट बना दिया है। ऐसी सूक्ष्म मनः स्थितियों की पकड़ से कहानी का रूप चमत्कृत हो उठता है। पात्र हमारी संवेदना को अनायास ही प्राप्त कर लेता है।

    अज्ञेय की रचना-प्रक्रिया पर विचार करते हुए मैंने जिस 'शोध' ही चर्चा की थी, उसका रूप इन परवर्त्ती कहानियों में बहुत खुलकर आता है। यों सामान्य रूप से इसका निर्वाह करने में सफल बहुत कम लेखक ही हुए हैं, किंतु यह विधा (जार) सर्वमान्य-सी हो गई है। वैसे इससे पृथक् और कथानक-मूलक प्रक्रियाएँ भी समानांतर रूप से विकसित हो रही हैं और कुछ लेखकों में तो उसका बड़ा ही स्पष्ट रूप देखा जा सकता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुरेंद्र चौधरी

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