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छायावादी काव्य-दृष्टि

chhayavadi kavya drishti

नंददुलारे वाजपेयी

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नंददुलारे वाजपेयी

छायावादी काव्य-दृष्टि

नंददुलारे वाजपेयी

और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    नई कविता की भाँति नई आलोचना भी द्विवेदी युग से छायावाद-युग में आकर नया रूप-रंग धारण कर चुकी है। उसकी वेश-भूषा में ही नहीं, आकृति प्रकृति में भी अंतर गया है। उसकी नई शैली और नवीन मान्यताएँ हो गई हैं। अपने नए व्यक्तित्व के अनुकूल वह अपना स्वतंत्र सैद्धांतिक अस्तित्व भी ढूँढ़ने लगी हैं। संक्षेप में नई समीक्षा पुरानी समीक्षा से भिन्न नए साँचे में ढल रही है।

    यह ठीक है कि नवीन समीक्षा अब तक अपनी निश्चित शास्त्रीय परि-पाटी नहीं बना सकी है, अभी वह निर्माणावस्था में है। अब तक उसकी कुछ प्रवृत्तियाँ ही प्रकाश में आई हैं, उन्हीं के आधार पर उसे परखा जा सकता है। यह भी ठीक है कि इस युग के विभिन्न आलोचकों की आलोचना-दृष्टि में भी पर्याप्त अंतर है। वे सभी अपनी-अपनी दृष्टियों से साहित्यिक तथ्यों का निरूपण कर रहे हैं। हिंदी-जैसे अभ्युदयशील साहित्य में यह दृष्टि-भेद स्वाभाविक है, किंतु अनेक दृष्टियों से की गई इस युग की आलोचनात्मक चेष्टाओं में बड़ी हद तक एक एकतानता भी है जिसकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए।

    साहित्य की परिभाषा को ही लीजिए। एक संस्कृतज्ञ समीक्षक जानकीवल्लभ शास्त्री लिखते हैं—“सत्य मौन है, वाणी मुखर। सत्य नित्य निर्मल है, वाणी संस्कार परिष्कार की अपेक्षा करने वाली...। सत्य संपूर्ण रूप से कभी भी वक्त नहीं किया जा सकता...। अधिक से अधिक सत्य को व्यक्त करने के लिए प्रयत्नशील महामनस्वियों की पवित्र तथा परिष्कृत वाणी ही का नाम साहित्य है।”

    साहित्य की इस व्याख्या में हमें वर्तमान युग की आदर्शवादी दार्शनिक चेतना की स्पष्ट झलक मिलती है। यही चेतना रचनात्मक साहित्य में व्याप्त हुई और आलोचनात्मक साहित्य में भी। साहित्य की इस व्याख्या में हम नवयुग की साहित्यिक प्रवृतियों का प्रतिबिंब पाते हैं। संक्षेप में यह व्याख्या सांस्कृतिक और प्रसरणशील साहित्य को माप-रेखा है। इस प्रकृति का आभास अवश्य मिल जाता है। यह व्याख्या अनिर्दिष्ट भले ही हो, संकीर्ण और असंयत नहीं है।

    'संकीर्ण, और 'असंयत' शब्दों से मेरा क्या आशय हैं, यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक हैं। जानकीवल्लभ जी की इस व्याख्या के साथ पंडित रामचंद्र शुक्ल की वह परिभाषा लीजिए जिसमें वे कहते हैं कि जगत ब्रह्म की (या सत्य की) अभिव्यक्ति है ओर साहित्य जगत के नाना भावों की अभिव्यक्ति है। शुक्ल जी ने सत्य और साहित्य के बीच में जगत और उसके नाना भावों का मध्यवर्ती तत्व ला रखा है जबकि जानकीवल्लभ साहित्य का सीधा संबंध सत्य या आध्यात्मिक तत्व से जोड़ देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि जानकीवल्लभ की अपेक्षा आचार्य शुक्ल की व्याख्या एक अर्थ में 'संकीर्ण' है।

    साहित्य का जगत् से संबंध जोड़ देने के कारण शुक्ल जी साहित्य के नैतिक और व्यावहारिक आदर्शों की ओर इतना अधिक झुक गए कि उसके विशुद्ध मानसिक और भावमूलक स्वरूप का स्वतंत्र आकलन हो पाया। नवीन आलोचना से ही इस कार्य का आरंभ होता है, इसलिए स्वभावतः अभी इसका स्वरूप सब लोगों को स्पष्ट नहीं हुआ। कुछ लोग इस नवीन साहित्य-युग को सौंदर्यवादी और नवीन समीक्षा को कलावादी समीक्षा कहते हैं। केवल सौंदर्य के लिए सौंदर्य अथवा कला के लिए कला का सिद्धांत आधुनिक हिंदी साहित्यिकों का नहीं है, यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है।

    जानकीवल्लभजी को उपर्युक्त व्याख्या इसके प्रमाण में उपस्थित की जा सकती है। यह व्याख्या साहित्य में बिना किसी मतवाद का आग्रह किए भी उसके मनोवैज्ञानिक सौष्ठव और परिष्कार का आग्रह करती है। स्पष्ट ही यह व्याख्या साहित्य के कल्पनात्मक और मानसिक उत्कर्ष को प्रधानता देती है और कला के लिए कला का समर्थन नहीं करती। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि यह व्याख्या असंयत नहीं है।

    कला के लिए कला और रस की अलौकिकता का सिद्धांत मानने वाले प्रायः साहित्य की असंयत व्याख्या करते हैं। नवीन आलोचकों ने ऐसा नहीं किया। रस को अलौकिक वस्तु मान लेने पर साहित्य की एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता हो जाती है जिस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं रह जाता। क्रमशः जीवन के लिए अल्प महत्त्व की बातें साहित्य में प्रधानता कलावाद और भारत में अलौकिक रसवाद, रीतिबद्ध और जीवन निरपेक्ष साहित्य के निर्माण में कारण बने। नए समीक्षक इस ख़तरे से अपरिचित नहीं हैं।

    यहीं हम साहित्य की इस व्याख्या के संबंध में उन साहित्यिकों, का आक्षेप भी उपस्थित कर देना चाहते हैं, जो मार्क्स-दर्शन के व्याख्याता और प्रगतिवादी हैं। ये लोग साहित्य के मनोवैज्ञानिक और कलात्मक सौष्ठव की अपेक्षा उसमें अभिव्यक्त वर्गवादी सिद्धांत को अधिक महत्त्व देते है और वर्गवाद के आधार पर ही साहित्य का नया मापदंड स्थिर करना चाहते हैं। यह मतवादी प्रवृत्ति पूर्व युगों में भी अनेक रूपों में दिखाई देती रही है, किंतु यह साहित्यिक सिद्धांत के रूप में कभी स्वीकार नहीं की गई।

    हम यह नहीं कहते कि साहित्य में नवीन जीवन का विन्यास नहीं होगा अथवा नवीन प्रेरणाएँ प्रवेश नहीं करेंगी। यदि साहित्य किसी पूर्व परंपरा में ही बँध जाए, तो वह साहित्यिक दृष्टि से भी अवनत ही होगा। किंतु नवीन जीवन धाराओं में निमज्जित होकर भी साहित्य अपना विशिष्ट स्वरूप-अपना मनोवैज्ञानिक और कलात्मक उत्कर्ष-कभी नहीं छोड़ सकता।

    यहाँ हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि कोई भी भारतीय साहित्यिक वाल्मीकि और व्यास, कालिदास और भवभूति, सूर और तुलसी, कबीर और जायसी अथवा किसी भी विशिष्ट कवि की अवहेलना यह कहकर नहीं कर सकता कि वे सामंतवादी या राजसत्तावादी युग के प्रतिनिधि थे और वह युग अब बीत गया। वास्तव में सभी महान् कवि जातीय भावों और संस्कृति के प्रतिनिधि होते हैं, किसी विशेष वाद के नहीं। सामाजिक जीवन में नए परिवर्तन होने पर भी महान् कवियों की भाव और कला विभूति अपना आकर्षण नहीं खोती। वह स्थायी साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाती है।

    अस्तु, जानकीवल्लभजी की उपर्युक्त व्याख्या स्थायी साहित्य का स्वरूप निर्देश करती है, वह साहित्य और जीवन के विकास पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती। नित्य नवीन भावधाराओं को ग्रहण करने में वह पश्चात्पद नहीं है।

    उदारता के कारण ही यह व्याख्या पूर्णतः स्वरूप-निर्देशात्मक भी नहीं बन सकी। यह केवल इंगित का काम देती है, बड़ी हद तक अनिर्दिष्ट भी है। इसमें साहित्य के उन तत्वों का निर्देश नहीं किया गया जो उसके स्वरूप के विधायक हैं और जिनके बिना साहित्य अपनी संज्ञा भी नहीं प्राप्त करता। यह एक प्रकार की त्रुटि भी है, किंतु इसका कारण ऊपर बताया जा चुका है।

    आरंभ में ही कहा जा चुका है कि नवीन आलोचना अभी पूर्णतः शास्त्रीय स्वरूप नहीं धारण कर सकी है, अब तक उसकी कुछ प्रवृत्तियाँ हो प्रत्यक्ष हुई हैं। इन प्रवृत्तियों के ही आधार पर हमें नवीन समीक्षा के स्वरूप का परिचय मिल सकता है। ऊपर मैंने इसके मूलभूत मनोवैज्ञानिक और भावात्मक स्वरूप का उल्लेख किया है। अब यहाँ हम उन सूत्रों को देखना चाहते हैं जिनके आधार पर समीक्षा का यह स्वरूप प्रतिष्ठित हो सका है।

    सबसे पहले यह बात दिखाई देती है कि नवीन समीक्षा रस और अलंकार की शैली को छोड़ स्वतंत्र मार्ग ग्रहण कर चली है। श्री रामचंद्र शुक्ल यद्यपि इस प्राचीन समीक्षा-परंपरा का यथेष्ट परिष्कार भी कर गए और उसकी संभावनाओं का उज्ज्वल चित्र भी दिखा गए, किंतु नवीन समीक्षकों ने इसका अधिक उपयोग नहीं किया। इसका कारण यह नहीं था कि नवीन समीक्षक उस परंपरा से अपरिचित थे, किंतु स्वच्छंद अनुभूति-प्रवाह और अभिव्यक्ति के स्वतंत्र सौंदर्य में रस और अलंकार-परंपरा के वर्गीकरणों को वे भूल ही गए। उनका ध्यान सांस्कृतिक मनोभावनाओं और उनकी मनोरम अभिव्यक्तियों ने इस प्रकार आकृष्ट कर लिया कि उनके स्थूल स्वरूप-निर्देश को वे अधिक महत्त्व दे सके। किंतु इतना निश्चय है कि साहित्य के कल्पना-पक्ष, उसकी अनुभूति और कला-विशिष्टता को परखने में यह युग पिछले युगों से पिछड़ा नहीं रहा।

    हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि यह नवयुग भारत में अभूतपूर्व राजनीतिक और सामूहिक हलचल का था। गांधी जी के सामूहिक सत्याग्रह आंदोलन ने एक अनोखे आत्मविश्वास का वातावरण उपस्थित कर दिया था। नूतन प्रेरणाओं के फलस्वरूप देश में जो अनुपम जागृति फैली, उससे केवल साहित्य में नवीन भावोद्रेक की धारा व्याप्त हुई, नई स्वच्छंद शैलियों का भी विन्यास और विकास हुआ।

    इन नवीन रचनाओं में बाहरी ढाँचे की अवहेलना भी थी। अलंकारों का आधिक्य नहीं था। नवीन स्वरलहरी का उल्लास था। प्राचीन शास्त्रीय मान्यताओं का तिरस्कार भी था। इन्हीं की ओर स्वभावतः समीक्षकों का ध्यान गया।

    विषय नवीन भी थे और प्राचीन भी, किंतु भावना सब में एक-सी ही स्वच्छंद और वेगवती थी। स्वच्छंदतावादी आंदोलन की प्रकृति के अनुसार यह साहित्य प्राचीन दर्शन, इतिहास और पुराण के क्षेत्र में भी नया अन्वषेण करने गया। संस्कृत भाषा के सौंदर्य पर मुग्ध होकर कवियों और लेखकों ने उसकी विशिष्टताएँ भी स्वतंत्र रूप से अपनी रचनाओं में ग्रहण कीं। इसी कारण इस काल की भाषा मे संस्कृत का प्राचुर्य था। भाषा की लाक्षणिकता और अभिव्यक्ति की कल्पना प्रचुर शैलियाँ इस युग के नए आविष्कार हैं। यह नवीन अलंकृत और रमणीक अभिव्यंजना-शैली अपनी स्वतंत्र विशेषता रखती है।

    कवियों ने नवीन शिक्षा-दीक्षा भी ग्रहण की। अँग्रेज़ी भाषा की अभिव्यक्तियों और प्रयोगों का भी अच्छा प्रभाव देख पड़ा। लेखकों की ग्राहिका बुद्धि ने और उनकी नव सांस्कृतिक रुचि ने अभिव्यंजना को पाश्चात्य शैली से भी सज्जित करने की चेष्टा की। जितने नए शब्द और प्रयोग संस्कृत और अँग्रेज़ी से इस युग में गृहीत और निर्मित हुए और जितने स्वतंत्र आविष्कार भाषा के क्षेत्र में किए गए, उतने इसके पूर्ववर्ती कदाचित् किसी युग में नहीं हुए थे। भाषा की समृद्धिशीलता भी साहित्य की ही समृद्धिशीलता का अंग है।

    काव्य से संगीत का संबंध दृढ़तर हो गया। गद्य और पद्य दोनों में नए स्वरों का संधान और नई शैलियों का निर्माण प्रचुर मात्रा में हुआ। लेखकों की शैलियाँ भी क्रमशः समुन्नत होती गई।

    कुछ कवि अन्यों की अपेक्षा अधिक भावुक और सौंदर्य प्रभावी हैं। उदाहरण के लिए चंडीप्रसाद 'हृदयेश' या स्वयं 'प्रसाद' जी। कुछ अन्य कवि अधिक सजग कौशल, पांडित्य और प्रयोग-बाहुल्य लिए हुए हैं। उदाहरण के लिए 'निराला' जी; कुछ कवि उत्कृष्ट कल्पना प्रतिभा लेकर आए, जैसे पंत जी; कुछ अन्य करुणा का ऐकान्तिक सौष्ठव लेकर चले, जैसे महादेवी जी; इसी प्रकार विभिन्न कवियों की विभिन्न व्यक्तिगत विशेषताएँ होते हुए भी इनकी युगगत प्रेरणाओं में बड़ी हद तक साम्य रहा है।

    साम्य और वैषम्य के इन सूत्रों को सुलझाने में नई समीक्षा को पर्याप्त समय लगाना पड़ा। पूर्ववर्ती साहित्यिक निर्णयों और विवेचनों का विरोध भी करना पड़ा, नई स्थापनाएँ भी करनी पड़ीं। द्विवेदी जी से आरंभ होने वाले नवीन साहित्य का नया विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया। प्रबंध और मुक्तक की काव्य-परिपाटियों पर भी विवाद चला। प्रगीत की नई परिपाटी हिंदी में आई। नवाविष्कृत मुक्त छंद पर भी बड़ी हलचल रही। इन व्यस्तताओं के कारण नई समीक्षा विस्तृत सैद्धांतिक विवेचनों में अब तक नहीं जा सकी।

    किंतु इसका यह मतलब नहीं कि नए समीक्षक सामयिक साहित्य की समीक्षा तक ही सीमित हैं। उन्होंने प्राचीन साहित्य का भी अध्ययन-अनुशीलन किया है, तथा साहित्य-सिद्धांतों पर भी निबंध लिखे हैं। पुराने कवियों में सूर, तुलसी, कबीर, मीरा, और विद्यापति आदि नए समीक्षकों को अधिक आकृष्ट कर सके हैं; क्योंकि वे भाव-प्रधान और वास्तविक कवि हैं। नए समीक्षकों की रुचि भी उनके अनुकूल है। यहाँ यह भी कह देना आवश्यक है कि इस क्षेत्र में भी नवीन समीक्षा ने बहुत कुछ नया कार्य किया है।

    जहाँ एक ओर नए समीक्षकों ने विशुद्ध प्रेम-प्रगीतों को प्रबंधमूलक रचनाओं और उनमें प्रदर्शित नीतिवाद से पृथक् और उच्चतर स्थान देने की चेष्टा की है, वहीं दूसरी ओर भक्ति के नाम पर रचित भाव-रहित शुष्क या अति शृंगारी काव्य को भी उन्होंने अलग कर दिया है। काव्य की परीक्षा काव्यात्मक और मनोवैज्ञानिक आधारों पर की गई। साथ ही नए समीक्षकों ने भक्ति की पुरानी, अतिवादी अथवा कोरी भावनात्मक उपपत्तियों को भी पहचाना और उनसे दूर रहे। उदाहरणार्थ शवरी, सुदामा, विदुर, द्रौपदी आदि के आख्यानों में भक्ति की अनन्यता के प्रदर्शन के लिए काव्य का भावात्मक और मनोवैज्ञानिक आधार निर्बल कर दिया गया है, इसे उन्होंने परखा। स्थान-स्थान पर भक्तों के आत्मविस्मरण आदि का जो दृश्य दिखाया गया है नवीन समीक्षक उसके समर्थन तक नहीं गए। गोपिकाओं की मानलीला में निहित रहस्यवाद की असामाजिकता का उन्होंने निर्देश किया। किंतु जहाँ विशुद्ध और भावमय चित्रण हैं, वहाँ केवल नीति और ऐकांतिकता के नाम पर उनका विरोध नहीं किया गया और उन चित्रणों को अनीतिवादी बताया गया है।

    इस प्रकार क्रमशः छायावादी समालोचना नए साहित्यिक तथ्यों पर पहुँचने लगी है। वह केवल प्रभाववादी नहीं है, विश्लेषण प्रधान और सैद्धांतिक भी है। कोरी प्रभाववादी आलोचना सैद्धांतिक नहीं हो सकती। विश्लेषण केवल भावों या काव्य के अंतरंग का ही नहीं किया गया है, काव्य के वस्तु-संघटन और रचना कौशल आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

    संक्षेप में यही कार्य है जो नवीन छायावादी समीक्षा ने किया है और अब भी करती जा रही है। ध्यान देने की बात यह है कि पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों ही समयों के लेखक इस समीक्षा का पृथक्-पृथक् कारणों से विरोध कर रहे हैं। किंतु अब यह समीक्षा अपनी शैली और अपनी मापरेखा का बहुत कुछ निर्माण कर चुकी है और अपने भविष्य के संबंध बहुत कुछ विश्वस्त है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक साहित्य (पृष्ठ 286)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारती भंडार लीडर प्रेस
    • संस्करण : 2007

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