समकालीन साहित्य-विधाओं में उपन्यास शायद सबसे अधिक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण है। यह भी इसकी विशेषता का अंग है कि इसकी परिभाषा इतनी कठिन है। इतना ही नहीं, इसका उपयुक्त नाम भी नहीं है। 'उपन्यास' से केवल फैलाव की सूचना होती है, 'आख्यान' में बतकही की ध्वनि मुख्य है। अँग्रेज़ी नॉवेल (और उसी से उत्पन्न मराठी ‘नवलिका') में नएपन पर बल है। और 'फिक्शन' से मनगढ़ंत की ध्वनि होती है। ये सभी नाम न केवल अनुपयुक्त हैं बल्कि आधुनिक उपन्यासकार की भावना और प्रवृत्ति के प्रतिकूल भी जाते हैं।
किसी ने कहा है कि “उपन्यास की सबसे अच्छी परिभाषा उपन्यास का इतिहास है।” इस उक्ति में गहरा सत्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो उपन्यास मानव के अपनी परिस्थितियों के साथ संबंध की भी अभिव्यक्ति के उत्तरोत्तर विकास का प्रतिनिधित्व करता है। मानव का मानसिक विकास जैसे-जैसे इस संबंध की अभिव्यक्ति होती गई है। इसलिए कहा जा सकता है कि उपन्यास में दृष्टिकोण या जीवन-दर्शन का महत्त्व उपन्यास की परिभाषा में ही निहित है।
उपन्यास सबसे पहले कहानी के रूप में आरंभ हुआ। वह घटनाओं अथवा कर्मों का वृत्तांत था, जिन घटनाओं में परस्पर संबंध आवश्यक था। अर्थात् उपन्यास सबसे पहले इतिवृत्त था। लेकिन इतिवृत्त में भी घटना-वस्तु का चुनाव और आकलन आवश्यक होता है; और घटनाओं का परस्पर संबंध विभिन्न दृष्टियों से देखा जाने पर विभिन्न महत्त्व रख सकता है, इसलिए यहाँ भी इतिवृत्त-लेखक की दृष्टि महत्त्व रखती है।
दृष्टि का महत्त्व प्रत्येक साहित्य-विधा में है, लेकिन काव्य में इसकी अपेक्षया अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है। क्योंकि काव्य स्पष्टतया एक 'सब्जेक्टिव' अभिव्यक्ति है। लेकिन उपन्यास-कला को अधिक वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिव) माना जाता है; इसलिए औपन्यासिक की दृष्टि की प्रासंगिकता इतनी आसानी से स्वीकार नहीं कर ली जाती। लेकिन वास्तव में उपन्यास में भी दृष्टि का महत्त्व कम नहीं है।
उपन्यास में समाज की प्रगति का हर पहलू प्रतिबिंबित होता है। अभिजात या सामंतिक समाज का विघटन और आधुनिक युग का आरंभ, आधुनिक युग के आंतरिक संघर्ष की बढ़ती हुई तीव्रता और पूँजीवाद के विकास से संयुक्त परिवार-प्रथा का ह्रास इत्यादि, सभी का प्रतिनिधित्व उपन्यास में मिलेगा। लेकिन उनके वर्णन में भी उपन्यासकार की दृष्टि क्रमशः व्यक्ति पर केंद्रित होती गई है। आरंभ में वृत्तांत में एक नायक होता था जिसपर या जिसके द्वारा घटनाएँ घटित होती थीं, लेकिन उपन्यासकार यहाँ से निरंतर बढ़ता हुआ नायक के व्यक्तित्व और चरित्र को प्रधानता देता गया और अंत में चरित-नायक व्यक्ति-प्रकार ('टाइप') होकर विशिष्ट व्यक्ति होने लगे। पुरानी घटनाओं के नायकों की भाँति आधुनिक उपन्यास के नायक को 'धीर', 'धीरोदात्त', या 'शांत' आदि वर्गों में रख देना पर्याप्त नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति का एक विशेष और अद्वितीय चरित्र होता है।
व्यक्ति और परिस्थिति के संघर्ष के अध्ययन ने चरित्र (मानव-चरित्र) के उपन्यासों को जन्म दिया। थॉमस हार्डी के उपन्यास व्यक्ति और परिस्थिति (या नियति) के संघर्ष के उपन्यास हैं। उनका संघर्ष विश्व-संघर्ष है, जिस अर्थ में ग्रीक दुःखांत नाटक का संघर्ष-विश्व संघर्ष। इस मूल संघर्ष के अलावा अनेक प्रकार के संधर्ष भी उभरकर हमारे सामने न आए होते तो उपन्यास का विकास यहीं तक आकर रुक जाता। लेकिन समाज के भीतर वर्ग और वर्ग का संघर्ष, फिर वर्ग के भीतर कुल और कुल का, कुल में परिवार और परिवार का, और अंततोगत्वा परिवार के भीतर व्यक्ति और व्यक्ति का संघर्ष इन सब पर टिककर उपन्यास की दृष्टि विकसित होती रही और उपन्यास में सामाजिक वस्तु का अनुपात बढ़ता गया। इस विकास की चरम परिणति व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास में हुई। यहाँ 'व्यक्तित्व' के या ‘व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास' और 'चरित्र के अथवा मानव-चरित्र के उपन्यास' का अंतर समझ लेना उचित होगा। मानव-चरित्र और व्यक्ति-चरित्र में यह अंतर है कि मानव-चरित्र मंर केवल उस एक और अद्वितीय व्यक्ति पर ध्यान केंद्रित होता है जिसे हम दूसरे मानवों से पृथक करके उसकी मानवता को परिस्थिति के परिपार्श्व में देखते हैं; दूसरे में हम एक व्यक्ति मानव को इतर मानव-व्यक्तियों से पृथक करके उसके व्यक्तित्व को मानव-समाज के परिपार्श्व में देखते हैं।
उपन्यास का यह विकास डार्विन और मार्क्स के आविर्भाव और प्रचार के साथ-साथ हुआ। नए वैज्ञानिक अनुसंधान और ज्ञान ने उपन्यास की दृष्टि बदल दी। उसका लिखना ही बदल गया क्योंकि उसकी दृष्टि बदल गई। उसके बाद एक बहुत बड़ा परिवर्तन फ्रायड के साथ आया। उसकी मनोविश्लेषण-पद्धति ने व्यक्ति-मानव और व्यक्ति-चेतना की गहनताओं पर नया और तीखा प्रकाश डाला। इससे उपन्यासकार को व्यक्ति-मानस को समझने में बड़ी सहायता मिली, बल्कि एक नई दृष्टि और पैठ मिली जिसके सहारे वह विशेष व्यक्ति के मन के भीतर होने वाले संघर्ष को पहचान सका। चेतना-प्रवाह ('स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्शसनेस') अथवा स्वगत-भाषण ('इंटर्नल मोनोलॉग') के उपन्यास इस दृष्टि के परिणाम हैं। और आधुनिक उपन्यास में मानसिक संघर्ष का विश्लेषण विशिष्ट महत्त्व रखता है।
मानव-चरित्र से व्यक्ति-चरित्र की ओर बढ़कर भी उपन्यास रुक नहीं गया है। आधुनिक सामाजिक परिस्थिति में यह प्रश्न भी अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होता है कि मानव-व्यक्ति का व्यष्टि-रूप में क्या स्थान है, वह सामाजिक इकाई के रूप में बचा भी है और बचा रह भी सकता है या नहीं? यह प्रश्न व्यक्ति के भीतर के संघर्ष के नए आयाम हमारे सामने लाता है। संघर्ष की चरम परिणतियों के चित्रण में स्वाभाविक है कि विघटन के चित्र भी आएँ, न केवल खंडित व्यक्तित्वों के बल्कि ऐसी इकाइयों के भी जिनका अपने इकाई होने में विश्वास भी डगमगा गया हो। व्यक्तित्व की, अस्तित्व की, अपनेपन की, 'आईडेंटिटी' की, खोज की पुकार इसी का मुखर रूप है।
उपन्यासकार की दृष्टि की गहराई और उसकी परिकल्पना के साथ-साथ स्वाभाविक था कि 'संघर्ष' अथवा 'घटना' की उसकी परिकल्पना भी बदल जाए। और संघर्ष क्या है? अथवा घटना किसे कहते हैं? इसकी नई परिभाषा के साथ संघर्ष के चित्रण और घटना के वर्णन का रूप भी बिल्कुल बदल गया। बाह्य परिस्थिति से संघर्ष मानव और नियति का संघर्ष इतना महत्त्वपूर्ण न रहा क्योंकि व्यक्ति-मानस स्वयं सदैव एक तनाव की स्थिति में रहता है और वह तनाव ही संघर्ष है। व्यक्ति-मानस बनाम परिस्थिति, इस विरोध का कोई अर्थ नहीं रहा क्योंकि मानस स्वयं ही एक परिस्थिति हो गया। इसी प्रकार बाह्य घटना का इतना महत्त्व नहीं रहा क्योंकि जिस प्रकार संघर्ष भीतर-ही-भीतर उभरता और निर्वासित होता रहता है, उसी प्रकार भीतर-ही-भीतर घटना भी घटित होती रहती और रह सकती है।
इस प्रकार कलाकार की दृष्टि का विकास क्रमशः जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण का महत्त्व बढ़ता चलता है। और विकास के साथ-साथ उपन्यास भी उत्तरोत्तर अधिक स्पष्टता से दृष्टिकोण का उपन्यास होता जाता है। उपन्यास का रूपाकार के परिवर्तन भी इसी से संबद्ध है। आधुनिक उपन्यास स्पष्ट रूपाकार और वर्णन, घटना-वृत्तांत की स्पष्टता और सहजता को खो रहा है; उसमें वक्रता और व्यंजना बढ़ती जाती है और उसका रूपाकार भी धुँधला और उलझा हुआ होता जा रहा है।
इस नई दृष्टि अथवा दृष्टिकोण के महत्त्व का एक उदाहरण आधुनिक उपन्यास में काम-जीवन अथवा सेक्स का वर्णन है। आधुनिक उपन्यास में सेक्स पहले से अधिक महत्त्व भी रखता है और कम भी। अधिक इसलिए कि अब हम पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी तरह उसके प्रभाव की गहराई और विस्तार को समझते हैं और यह भी जानते हैं कि आधुनिक युग में काम-जीवन का असामंजस्य और विषमता आधुनिक समाज में बहुत दूर तक फैला हुआ एक रोग है। उन्नीसवीं शती से पहले न तो उपन्यासकार यह बात अच्छी तरह जानता था कि काम-प्रेरणाएँ न केवल स्त्री-पुरुषों की दैहिक प्रवृत्तियों से संबंध रखती हैं बल्कि उनके सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करती हैं और उनकी धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक और कला-संबंधी मान्यताओं और विश्वासों का रूप निश्चित करती है; न वह यही जानता या मानता था कि समकालीन सामाजिक परिस्थिति में काम-संबंधों में कितनी विषमता आ गई है। प्राचीनकाल में राजकुमार और राजकुमारी का मिलन और प्रेम होता था, फिर विवाह हो जाता था और वे शेष जीवन सुख से काट देते थे। आज ऐसा लगभग कभी नहीं होता और दांपत्य जीवन अगर सुखी होता है तो बड़ी साधना और परस्पर समझौते के आधार पर ही होता है। इन सब कारणों का ज्ञान होने से आधुनिक उपन्यासकार की दृष्टि में सेक्स का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। दूसरी ओर नई परिस्थितियों में उसका महत्त्व कम भी हो गया है क्योंकि उसका अस्तित्व सहज भाव से स्वीकार किया जा रहा है; साथ ही काम-जीवन में 'पवित्रता' का वह अर्थ या महत्त्व नहीं रहा जो पहले था। आज का उपन्यासकार (या साधारण समाज) यह नहीं मानता की दांपत्य जीवन के सुखी होने के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि पुरुष और स्त्री को इससे पहले कोई कामज अनुभूति न हुई हो या वे वासना से अपरिचित रहे हों। बल्कि कोई पूर्वग्रह लेकर वह चलता है तो इससे उलटा ही। न आज विवाह-पूर्व ऐसी अनुभूति या संसर्ग जीवन का अभिशाप बन जाता है, जैसा कि पश्चिम में उन्नीसवीं शती के उत्तराकाल तक होता था। थॉमस हार्डी की 'टेस' जिसका एक ज्वलंत उदाहरण है या कि भारतीय साहित्य में पहले महायुद्ध के समय तक होता था। आज यह माना जाता है कि स्त्री एक बार भूल करके भी संभल सकती है, नागरिक जीवन में स्थान पा सकती है, समाज की उपयोगी सदस्य हो सकती है और जीवन के साथ काम-चलाऊ समझौता करके सुखी भी हो सकती है। आज पहले की अपेक्षा ऐसे व्यक्ति बहुत अधिक हैं जिन्हें सेक्स-जीवन में विषमता हो; लेकिन अपेक्षया बहुत कम जिनका जीवन सेक्स के कारण नष्ट हो जाता है। इसका कारण सेक्स संबंध में समाज का नया दृष्टिकोण है, और आधुनिक उपन्यास में यह दृष्टिकोण संपूर्ण रूप से प्रतिबिंबित होता है।
अभी तक हम दृष्टिकोण के महत्त्व की बात करते आए हैं लेकिन दृष्टिकोण की एक समस्या भी खड़ी हो जाती है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण आत्म-रक्षा की एक शर्त बन जा सकता है। हमारी अस्तित्व रक्षा हो सकती है या नहीं, इसका उत्तर इसी पर निर्भर कर सकता है कि जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है। पश्चिम की सभी सभ्यताओं का विकास अंततोगत्वा इसी प्रश्न पर आकर अटका है, और आधुनिक (पाश्चात्य) सभ्यता के सामने भी आज यही प्रश्न है; जीवन को हम कैसे देखें कि उसका दबाव हम सह सकें, जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या हो, जिससे हम आज की कठिनाइयों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रह सकें? यह प्रश्न नया तो नहीं है और प्रत्येक सभ्यता एक प्रकार से इसी प्रश्न का संगठित और सामूहिक उत्तर होती है; लेकिन इस समस्या का पूरा दबाव, इसी की पूरी तीव्रता आधुनिक युग का व्यक्ति ही समझ सकता है। इसका कारण केवल यही नहीं है कि इसकी सबसे नई और आशावादी सभ्यता की पूर्ववर्ती सभ्यताओं की तरह एक प्रश्न-विराम के सामने आ खड़ी हुई है। एक कारण यह भी है कि वैज्ञानिक विश्वस्तता और स्पष्टता की ओर इधर जो वेगवती प्रगति हो रही और जिससे उसे आशा हो चली थी कि वह जीवन के सत्य को हस्तगत कर लेगी, वह प्रगति भी मानों रुद्ध हो गई है और अनुसंधान एक सूनी दीवार से टकरा कर रह गया है। सापेक्षवाद की चोट ने यों ही हमारी बुद्धि को ही धक्का पहुँचाया और हमारी वैचारिक भूमि को कँपा दिया, लेकिन हमारे भौतिक सामाजिक जीवन की जड़ों को भी उसने बुरी तरह हिला दिया। मानव अभी नए वैज्ञानिक यथार्थ को सही ढंग से स्वीकार नहीं कर सका है और नए वैज्ञानिक अनिश्चिय को संपूर्णतया अपना सका है, नए वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर अपने विश्वास और मान्यताओं का पुनः परीक्षण और समन्वय वह अभी नहीं कर सका है। परिस्थिति इसलिए और भी शोचनीय है कि बहुत-से लोग अब मानने लगे हैं कि किसी भी वस्तु में विश्वास करना या किसी भी विश्वास से आशा केंद्रित करना विपज्जनक है। दूध कर जला छाछ फूंक कर पीता है, पुरानी निश्चयात्मकता खोकर मानव सभी चीजों के बारे में शंकित हो उठे तो क्या आश्चर्य? इस प्रकार एक ओर निश्चयात्मकता की माँग सबसे अधिक प्रबल (विश्वासों का होना ही पर्याप्त नहीं है, विश्वास भी होना चाहिए)।' तो दूसरी ओर भूतपूर्व निश्चयात्मकता और विश्वास से निराश भी चरम बिंदु पर है ( ‘मैं समुझे झुलसे अतीत से मुँह मोड़ लेना चाहता हूँ। काश कि समय की दिशा में कोई नई आँधी उठे और मुझे बहा जाए!' )
ओ फ़ॉर ए विड टु ब्लो इन वि डायरेक्शन ऑफ़ टाइम एंड कैरी मी अवे।
डी.एच. लॉरेंस
इस अनिश्चय, उलझन और अव्यवस्था में, जिसे एक व्यक्ति के भीतर अनेक या बहुमुखी व्यक्तित्व का उभार और भी जटिल बना देता है, अस्तित्व-रक्षा का एक मात्र साधन जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही हो जाता है। वह दृष्टिकोण क्या हो, उसके बारे में अनेक मत हैं। एक मत यह भी है कि दृष्टिकोण क्या है, इसका महत्त्व उतना नहीं है जितना इसका कि दृष्टिकोण है क्योंकि दृष्टिकोण होना ही सूचित करता है कि उपन्यासकार एक ऐसे सुविधापूर्ण स्थल पर है जहाँ से वह विश्व की व्यापक अव्यवस्था के परिदृश्य का अवलोकन कर सकता है।
इस नए युग की इस नई अवस्थिति का वाहन, उसकी अभिव्यंजना का माध्यम उपन्यास ही क्यों है, कविता, नाटक या निरे दार्शनिक प्रबंध क्यों नहीं? क्योंकि परिस्थितियों के आधुनिक निरूपण का एक अंग यह भी है कि इस स्थिति को जीवित विस्तार में (इन द फ़ील्ड) ही दिखना चाहिए। ये सब समस्याएँ और परिस्थितियाँ किस प्रकार जीवन-व्यापार को प्रभावित या निरूपित करती हैं, इसी का अध्ययन होना है और जीवन-व्यापार तो उपन्यास का विषय है ही। उपन्यास साहित्याभिव्यंजना का सर्वश्रेष्ठ आधुनिक माध्यम है। क्योंकि एक मिश्रित या संगठित माध्यम है, न तो काव्य की भाँति 'शुद्ध' और न नाटक की भाँति सीमित। कवि मूलतः अपने लिए लिखता है, नाटककार मूलतः सामाजिक या दर्शक के लिए। लेकिन उपन्यासकार एक साथ ही कलाभिव्यंजना के कई स्तरों पर विचरण कर सकता है। वह एक साथ ही सबके लिए लिख सकता है: जन-साधारण के लिए ( 'अमुक घटित हुआ या हो रहा है' ), दूसरे लेखकों के लिए ( 'अमुक विषय-वस्तु को मैंने तो ऐसे ही लिया है, आप क्या करते, या शेक्सपियर का तुर्गनेव क्या करता?' ) या स्वयं अपने लिए ( 'हाँ यह तो दृष्टिकोण हुआ, समस्या का हल क्या है?' ) एक साथ कई स्तरों पर अभिव्यक्ति आधुनिक उपन्यास का एक लक्षण है। आंद्रे जीद का 'जालसाज' (ले फो मॉनेयस) इस प्रकार के उपन्यास का बहुत रोचक उदाहरण है। रूप-विधान की दृष्टि से यह इधर की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों में स्थान रखता है। एक साहित्यिक माध्यम के रूप में उपन्यास जो विशिष्ट और अद्वितीय अवसर देता है, उसका इसमें भरपूर उपयोग किया गया है। एल्डस हक्सले, जॉन डोस पैसोस, चार्ल्स मॉर्गन पश्चिमी साहित्यों से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक साथ एकाधिक स्तर पर अभिव्यंजना और दो-तीन अलग-अलग कालों के निर्वाह के हिंदी से एक उदाहरण के रूप में 'शेखर' का नाम लिया जा सकता है। उपन्यास की अच्छाई-बुराई का प्रश्न यहाँ प्रश्न नहीं है, केवल रूप-विधान के एक आधुनिक प्रयोग की बात हो रही है।
यह कदाचित् ‘दृष्टिकोण' और 'ढंग' में भेद करना उचित होगा। ऑस्कर वाइल्ड का एक ढंग (पोज़) था जिसे जीवन के प्रति दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता। कहा जा सकता है कि एक ढंग एक 'बनावटी दृष्टिकोण' होता है। और उपन्यासकार उसे तभी ग्रहण करता है जब वह जीवन को सतही नजर से देखकर उसे लुभावने रूप में प्रस्तुत करके संतुष्ट हो जाने वाला हो। लेकिन आधुनिक उपन्यासकार वास्तविक जगत से कहीं अधिक गहरा संपर्क रखता है। उसके लिए दृष्टिकोण मनोरंजन या रोचकता का साधन नहीं बल्कि जीने के लिए एक व्यावहारिक दार्शनिक आधार है। जीवन के लिए ऐसा आधार खोजने को वह एक समस्या और कर्त्तव्य के रूप में लेता है और गंभीरतापूर्वक उस समस्या और कर्तव्य का सामना करता है। यही उसकी आधुनिक कसौटी है।
('सर्जना और संदर्भ' नामक पुस्तक से)
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is prakar kalakar ki drishti ka wikas krmashः jiwan ke prati uske drishtikon ka mahattw baDhta chalta hai aur wikas ke sath sath upanyas bhi uttarottar adhik spashtata se drishtikon ka upanyas hota jata hai upanyas ka rupakar ke pariwartan bhi isi se sambaddh hai adhunik upanyas aspasht rupakar aur warnan, ghatna writtant ki spashtata aur sahajta ko kho raha hai; usmen wakrata aur wyanjna baDhti jati hai aur uska rupakar bhi dhundhla aur uljha hua hota ja raha hai
is nai drishti athwa drishtikon ke mahattw ka ek udaharn adhunik upanyas mein kaam jiwan athwa sex ka warnan hai adhunik upanyas mein sex pahle se adhik mahattw bhi rakhta hai aur kam bhi adhik isliye ki ab hum pahle ki apeksha kahin adhik achchhi tarah uske prabhaw ki gahrai aur wistar ko samajhte hain aur ye bhi jante hain ki adhunik yug mein kaam jiwan ka asamanjasya aur wishamata adhunik samaj mein bahut door tak phaila hua ek rog hai unniswin shati se pahle na to upanyasakar ye baat achchhi tarah janta tha ki kaam prernayen na kewal istri purushon ki daihik prwrittiyon se sambandh rakhti hain balki unke samajik jiwan ke sabhi pahaluon ko prabhawit karti hain aur unki dharmik, adhyatmik, naitik, sanskritik aur kala sambandhi manytaon aur wishwason ka roop nishchit karti hai; na wo yahi janta ya manata tha ki samkalin samajik paristhiti mein kaam sambandhon mein kitni wishamata aa gai hai prachinkal mein rajakumar aur rajakumari ka milan aur prem hota tha, phir wiwah ho jata tha aur we shesh jiwan sukh se kat dete the aaj aisa lagbhag kabhi nahin hota aur dampatya jiwan agar sukhi hota hai to baDi sadhana aur paraspar samjhaute ke adhar par hi hota hai in sab karnon ka gyan hone se adhunik upanyasakar ki drishti mein sex ka mahattw bahut adhik baDh gaya hai dusri or nai paristhitiyon mein uska mahattw kam bhi ho gaya hai kyonki uska astitw sahj bhaw se swikar kiya ja raha hai; sath hi kaam jiwan mein pawitarta ka wo arth ya mahattw nahin raha jo pahle tha aaj ka upanyasakar (ya sadharan samaj) ye nahin manata ki dampatya jiwan ke sukhi hone ke liye ye aniwary shart hai ki purush aur istri ko isse pahle koi kamaj anubhuti na hui ho ya we wasana se aprichit rahe hon balki koi purwagrah lekar wo chalta hai to isse ulta hi na aaj wiwah poorw aisi anubhuti ya sansarg jiwan ka abhishap ban jata hai, jaisa ki pashchim mein unniswin shati ke uttrakal tak hota tha thaumas harDi ki tes jiska ek jwlant udaharn hai ya ki bharatiy sahity mein pahle mahayuddh ke samay tak hota tha aaj ye mana jata hai ki istri ek bar bhool karke bhi sambhal sakti hai, nagarik jiwan mein sthan pa sakti hai, samaj ki upyogi sadasy ho sakti hai aur jiwan ke sath kaam chalau samjhauta karke sukhi bhi ho sakti hai aaj pahle ki apeksha aise wekti bahut adhik hain jinhen sex jiwan mein wishamata ho; lekin apekshaya bahut kam jinka jiwan sex ke karan nasht ho jata hai iska karan sex sambandh mein samaj ka naya drishtikon hai, aur adhunik upanyas mein ye drishtikon sampurn roop se pratibimbit hota hai
abhi tak hum drishtikon ke mahattw ki baat karte aaye hain lekin drishtikon ki ek samasya bhi khaDi ho jati hai jiwan ke prati drishtikon aatm rakhsha ki ek shart ban ja sakta hai hamari astitw rakhsha ho sakti hai ya nahin, iska uttar isi par nirbhar kar sakta hai ki jiwan ke prati hamara drishtikon kya hai pashchim ki sabhi sabhytaon ka wikas anttogatwa isi parashn par aakar atka hai, aur adhunik (pashchaty) sabhyata ke samne bhi aaj yahi parashn hai; jiwan ko hum kaise dekhen ki uska dabaw hum sah saken, jiwan ke prati hamara drishtikon kya ho, jisse hum aaj ki kathinaiyon ke bawjud apna astitw banaye rah saken? ye parashn naya to nahin hai aur pratyek sabhyata ek prakar se isi parashn ka sangthit aur samuhik uttar hoti hai; lekin is samasya ka pura dabaw, isi ki puri tiwrata adhunik yug ka wekti hi samajh sakta hai iska karan kewal yahi nahin hai ki iski sabse nai aur ashawadi sabhyata ki purwawarti sabhytaon ki tarah ek parashn wiram ke samne aa khaDi hui hai ek karan ye bhi hai ki waigyanik wishwastta aur spashtata ki or idhar jo wegawti pragti ho rahi aur jisse use aasha ho chali thi ki wo jiwan ke saty ko hastagat kar legi, wo pragti bhi manon ruddh ho gai hai aur anusandhan ek suni diwar se takra kar rah gaya hai sapekshawad ki chot ne yon hi hamari buddhi ko hi dhakka pahunchaya aur hamari waicharik bhumi ko kanpa diya, lekin hamare bhautik samajik jiwan ki jaDon ko bhi usne buri tarah hila diya manaw abhi nae waigyanik yatharth ko sahi Dhang se swikar nahin kar saka hai aur nae waigyanik anishchiy ko sampurnatya apna saka hai, nae waigyanik gyan ke adhar par apne wishwas aur manytaon ka punः parikshan aur samanway wo abhi nahin kar saka hai paristhiti isliye aur bhi shochaniy hai ki bahut se log ab manne lage hain ki kisi bhi wastu mein wishwas karna ya kisi bhi wishwas se aasha kendrit karna wipajjanak hai doodh kar jala chhachh phoonk kar pita hai, purani nishchyatmakta khokar manaw sabhi chijon ke bare mein shankit ho uthe to kya ashchary? is prakar ek or nishchyatmakta ki mang sabse adhik prabal (wishwason ka hona hi paryapt nahin hai, wishwas bhi hona chahiye) to dusri or bhutapurw nishchyatmakta aur wishwas se nirash bhi charam bindu par hai ( ‘main samujhe jhulse atit se munh moD lena chahta hoon kash ki samay ki disha mein koi nai andhi uthe aur mujhe baha jaye! )
futaprint – it iz not enaf tu haiw kanwikshan, wan mast aulso haiw kanwikshan
e s em hachinsan, if wintar kams
ai waunt tu turn mai baik on d hol blasteD past
d ech laurens
o faur e wiD tu blo in wi Dayrekshan off time enD kairi mi away
d ech laurens
is anishchay, uljhan aur awyawastha mein, jise ek wekti ke bhitar anek ya bahumukhi wyaktitw ka ubhaar aur bhi jatil bana deta hai, astitw rakhsha ka ek matr sadhan jiwan ke prati drishtikon hi ho jata hai wo drishtikon kya ho, uske bare mein anek mat hain ek mat ye bhi hai ki drishtikon kya hai, iska mahattw utna nahin hai jitna iska ki drishtikon hai kyonki drishtikon hona hi suchit karta hai ki upanyasakar ek aise suwidhapurn sthal par hai jahan se wo wishw ki wyapak awyawastha ke paridrshy ka awlokan kar sakta hai
is nae yug ki is nai awasthiti ka wahan, uski abhiwyanjna ka madhyam upanyas hi kyon hai, kawita, natk ya nire darshanik prbandh kyon nahin? kyonki paristhitiyon ke adhunik nirupan ka ek ang ye bhi hai ki is sthiti ko jiwit wistar mein (in d field) hi dikhna chahiye ye sab samasyayen aur paristhitiyan kis prakar jiwan wyapar ko prabhawit ya nirupit karti hain, isi ka adhyayan hona hai aur jiwan wyapar to upanyas ka wishay hai hi upanyas sahityabhiwyanjna ka sarwashreshth adhunik madhyam hai kyonki ek mishrit ya sangthit madhyam hai, na to kawy ki bhanti shuddh aur na natk ki bhanti simit kawi mulatः apne liye likhta hai, natakkar mulatः samajik ya darshak ke liye lekin upanyasakar ek sath hi kalabhiwyanjna ke kai stron par wicharn kar sakta hai wo ek sath hi sabke liye likh sakta haih jan sadharan ke liye ( amuk ghatit hua ya ho raha hai ), dusre lekhkon ke liye ( amuk wishay wastu ko mainne to aise hi liya hai, aap kya karte, ya shakespeare ka turgnew kya karta? ) ya swayan apne liye ( han ye to drishtikon hua, samasya ka hal kya hai? ) ek sath kai stron par abhiwyakti adhunik upanyas ka ek lachchhan hai andre jeed ka jalasaj (le pho mauneyas) is prakar ke upanyas ka bahut rochak udaharn hai roop widhan ki drishti se ye idhar ki mahattwapurn sahityik kritiyon mein sthan rakhta hai ek sahityik madhyam ke roop mein upanyas jo wishisht aur adwitiy awsar deta hai, uska ismen bharpur upyog kiya gaya hai elDas haksle, john Dos paisos, chaarls maurgan pashchimi sahityon se anek udaharn diye ja sakte hain ek sath ekadhik star par abhiwyanjna aur do teen alag alag kalon ke nirwah ke hindi se ek udaharn ke roop mein shekhar ka nam liya ja sakta hai upanyas ki achchhai burai ka parashn yahan parashn nahin hai, kewal roop widhan ke ek adhunik prayog ki baat ho rahi hai
ye kadachit ‘drishtikon aur Dhang mein bhed karna uchit hoga oscar wailD ka ek Dhang (poz) tha jise jiwan ke prati drishtikon nahin kaha ja sakta kaha ja sakta hai ki ek Dhang ek banawati drishtikon hota hai aur upanyasakar use tabhi grahn karta hai jab wo jiwan ko sathi najar se dekhkar use lubhawne roop mein prastut karke santusht ho jane wala ho lekin adhunik upanyasakar wastawik jagat se kahin adhik gahra sampark rakhta hai uske liye drishtikon manoranjan ya rochakta ka sadhan nahin balki jine ke liye ek wyawaharik darshanik adhar hai jiwan ke liye aisa adhar khojne ko wo ek samasya aur karttawya ke roop mein leta hai aur gambhirtapurwak us samasya aur kartawya ka samna karta hai yahi uski adhunik kasauti hai
(sarjana aur sandarbh namak pustak se)
samkalin sahity widhaon mein upanyas shayad sabse adhik wishisht aur mahattwapurn hai ye bhi iski wisheshata ka ang hai ki iski paribhasha itni kathin hai itna hi nahin, iska upyukt nam bhi nahin hai upanyas se kewal phailaw ki suchana hoti hai, akhyan mein batakhi ki dhwani mukhy hai angrezi nowel (aur usi se utpann marathi ‘nawalika) mein nepan par bal hai aur phikshan se managDhant ki dhwani hoti hai ye sabhi nam na kewal anupyukt hain balki adhunik upanyasakar ki bhawna aur prawrtti ke pratikul bhi jate hain
kisi ne kaha hai ki “upanyas ki sabse achchhi paribhasha upanyas ka itihas hai ” is ukti mein gahra saty hai aitihasik drishti se dekhen to upanyas manaw ke apni paristhitiyon ke sath sambandh ki bhi abhiwyakti ke uttarottar wikas ka pratinidhitw karta hai manaw ka manasik wikas jaise jaise is sambandh ki abhiwyakti hoti gai hai isliye kaha ja sakta hai ki upanyas mein drishtikon ya jiwan darshan ka mahattw upanyas ki paribhasha mein hi nihit hai
upanyas sabse pahle kahani ke roop mein arambh hua wo ghatnaon athwa karmon ka writtant tha, jin ghatnaon mein paraspar sambandh awashyak tha arthat upanyas sabse pahle itiwrtt tha lekin itiwrtt mein bhi ghatna wastu ka chunaw aur akalan awashyak hota hai; aur ghatnaon ka paraspar sambandh wibhinn drishtiyon se dekha jane par wibhinn mahattw rakh sakta hai, isliye yahan bhi itiwrtt lekhak ki drishti mahattw rakhti hai
drishti ka mahattw pratyek sahity widha mein hai, lekin kawy mein iski apekshaya adhik asani se swikar kar liya jata hai kyonki kawy spashtatya ek sabjektiw abhiwyakti hai lekin upanyas kala ko adhik wastuprak (aubjektiw) mana jata hai; isliye aupanyasik ki drishti ki prasangikta itni asani se swikar nahin kar li jati lekin wastaw mein upanyas mein bhi drishti ka mahattw kam nahin hai
upanyas mein samaj ki pragti ka har pahlu pratibimbit hota hai abhijat ya samantik samaj ka wighatan aur adhunik yug ka arambh, adhunik yug ke antrik sangharsh ki baDhti hui tiwrata aur punjiwad ke wikas se sanyukt pariwar pratha ka hras ityadi, sabhi ka pratinidhitw upanyas mein milega lekin unke warnan mein bhi upanyasakar ki drishti krmashः wekti par kendrit hoti gai hai arambh mein writtant mein ek nayak hota tha jispar ya jiske dwara ghatnayen ghatit hoti theen, lekin upanyasakar yahan se nirantar baDhta hua nayak ke wyaktitw aur charitr ko pradhanta deta gaya aur ant mein charit nayak wekti prakar (type) hokar wishisht wekti hone lage purani ghatnaon ke naykon ki bhanti adhunik upanyas ke nayak ko dheer, dhirodatt, ya shant aadi wargon mein rakh dena paryapt nahin hai, pratyek wekti ka ek wishesh aur adwitiy charitr hota hai
wekti aur paristhiti ke sangharsh ke adhyayan ne charitr (manaw charitr) ke upanyason ko janm diya thaumas harDi ke upanyas wekti aur paristhiti (ya niyti) ke sangharsh ke upanyas hain unka sangharsh wishw sangharsh hai, jis arth mein greek duःkhant natk ka sangharsh wishw sangharsh is mool sangharsh ke alawa anek prakar ke sandharsh bhi ubharkar hamare samne na aaye hote to upanyas ka wikas yahin tak aakar ruk jata lekin samaj ke bhitar warg aur warg ka sangharsh, phir warg ke bhitar kul aur kul ka, kul mein pariwar aur pariwar ka, aur anttogatwa pariwar ke bhitar wekti aur wekti ka sangharsh in sab par tikkar upanyas ki drishti wiksit hoti rahi aur upanyas mein samajik wastu ka anupat baDhta gaya is wikas ki charam parinati wekti charitr ke upanyas mein hui yahan wyaktitw ke ya ‘wekti charitr ke upanyas aur charitr ke athwa manaw charitr ke upanyas ka antar samajh lena uchit hoga manaw charitr aur wekti charitr mein ye antar hai ki manaw charitr manr kewal us ek aur adwitiy wekti par dhyan kendrit hota hai jise hum dusre manwon se prithak karke uski manawta ko paristhiti ke pariparshw mein dekhte hain; dusre mein hum ek wekti manaw ko itar manaw wyaktiyon se prithak karke uske wyaktitw ko manaw samaj ke pariparshw mein dekhte hain
upanyas ka ye wikas Darwin aur marx ke awirbhaw aur parchar ke sath sath hua nae waigyanik anusandhan aur gyan ne upanyas ki drishti badal di uska likhna hi badal gaya kyonki uski drishti badal gai uske baad ek bahut baDa pariwartan phrayaD ke sath aaya uski manowishleshan paddhati ne wekti manaw aur wekti chetna ki gahantaon par naya aur tikha parkash Dala isse upanyasakar ko wekti manas ko samajhne mein baDi sahayata mili, balki ek nai drishti aur paith mili jiske sahare wo wishesh wekti ke man ke bhitar hone wale sangharsh ko pahchan saka chetna prawah (streem off kaunshasnes) athwa swagat bhashan (intarnal monolog) ke upanyas is drishti ke parinam hain aur adhunik upanyas mein manasik sangharsh ka wishleshan wishisht mahattw rakhta hai
manaw charitr se wekti charitr ki or baDhkar bhi upanyas ruk nahin gaya hai adhunik samajik paristhiti mein ye parashn bhi adhikadhik mahattwapurn hota hai ki manaw wekti ka wyashti roop mein kya sthan hai, wo samajik ikai ke roop mein bacha bhi hai aur bacha rah bhi sakta hai ya nahin? ye parashn wekti ke bhitar ke sangharsh ke nae ayam hamare samne lata hai sangharsh ki charam parinatiyon ke chitran mein swabhawik hai ki wighatan ke chitr bhi ayen, na kewal khanDit wyaktitwon ke balki aisi ikaiyon ke bhi jinka apne ikai hone mein wishwas bhi Dagmaga gaya ho wyaktitw ki, astitw ki, apnepan ki, aiDentiti ki, khoj ki pukar isi ka mukhar roop hai
upanyasakar ki drishti ki gahrai aur uski parikalpana ke sath sath swabhawik tha ki sangharsh athwa ghatna ki uski parikalpana bhi badal jaye aur sangharsh kya hai? athwa ghatna kise kahte hain? iski nai paribhasha ke sath sangharsh ke chitran aur ghatna ke warnan ka roop bhi bilkul badal gaya bahy paristhiti se sangharsh manaw aur niyti ka sangharsh itna mahattwapurn na raha kyonki wekti manas swayan sadaiw ek tanaw ki sthiti mein rahta hai aur wo tanaw hi sangharsh hai wekti manas banam paristhiti, is wirodh ka koi arth nahin raha kyonki manas swayan hi ek paristhiti ho gaya isi prakar bahy ghatna ka itna mahattw nahin raha kyonki jis prakar sangharsh bhitar hi bhitar ubharta aur nirwasit hota rahta hai, usi prakar bhitar hi bhitar ghatna bhi ghatit hoti rahti aur rah sakti hai
is prakar kalakar ki drishti ka wikas krmashः jiwan ke prati uske drishtikon ka mahattw baDhta chalta hai aur wikas ke sath sath upanyas bhi uttarottar adhik spashtata se drishtikon ka upanyas hota jata hai upanyas ka rupakar ke pariwartan bhi isi se sambaddh hai adhunik upanyas aspasht rupakar aur warnan, ghatna writtant ki spashtata aur sahajta ko kho raha hai; usmen wakrata aur wyanjna baDhti jati hai aur uska rupakar bhi dhundhla aur uljha hua hota ja raha hai
is nai drishti athwa drishtikon ke mahattw ka ek udaharn adhunik upanyas mein kaam jiwan athwa sex ka warnan hai adhunik upanyas mein sex pahle se adhik mahattw bhi rakhta hai aur kam bhi adhik isliye ki ab hum pahle ki apeksha kahin adhik achchhi tarah uske prabhaw ki gahrai aur wistar ko samajhte hain aur ye bhi jante hain ki adhunik yug mein kaam jiwan ka asamanjasya aur wishamata adhunik samaj mein bahut door tak phaila hua ek rog hai unniswin shati se pahle na to upanyasakar ye baat achchhi tarah janta tha ki kaam prernayen na kewal istri purushon ki daihik prwrittiyon se sambandh rakhti hain balki unke samajik jiwan ke sabhi pahaluon ko prabhawit karti hain aur unki dharmik, adhyatmik, naitik, sanskritik aur kala sambandhi manytaon aur wishwason ka roop nishchit karti hai; na wo yahi janta ya manata tha ki samkalin samajik paristhiti mein kaam sambandhon mein kitni wishamata aa gai hai prachinkal mein rajakumar aur rajakumari ka milan aur prem hota tha, phir wiwah ho jata tha aur we shesh jiwan sukh se kat dete the aaj aisa lagbhag kabhi nahin hota aur dampatya jiwan agar sukhi hota hai to baDi sadhana aur paraspar samjhaute ke adhar par hi hota hai in sab karnon ka gyan hone se adhunik upanyasakar ki drishti mein sex ka mahattw bahut adhik baDh gaya hai dusri or nai paristhitiyon mein uska mahattw kam bhi ho gaya hai kyonki uska astitw sahj bhaw se swikar kiya ja raha hai; sath hi kaam jiwan mein pawitarta ka wo arth ya mahattw nahin raha jo pahle tha aaj ka upanyasakar (ya sadharan samaj) ye nahin manata ki dampatya jiwan ke sukhi hone ke liye ye aniwary shart hai ki purush aur istri ko isse pahle koi kamaj anubhuti na hui ho ya we wasana se aprichit rahe hon balki koi purwagrah lekar wo chalta hai to isse ulta hi na aaj wiwah poorw aisi anubhuti ya sansarg jiwan ka abhishap ban jata hai, jaisa ki pashchim mein unniswin shati ke uttrakal tak hota tha thaumas harDi ki tes jiska ek jwlant udaharn hai ya ki bharatiy sahity mein pahle mahayuddh ke samay tak hota tha aaj ye mana jata hai ki istri ek bar bhool karke bhi sambhal sakti hai, nagarik jiwan mein sthan pa sakti hai, samaj ki upyogi sadasy ho sakti hai aur jiwan ke sath kaam chalau samjhauta karke sukhi bhi ho sakti hai aaj pahle ki apeksha aise wekti bahut adhik hain jinhen sex jiwan mein wishamata ho; lekin apekshaya bahut kam jinka jiwan sex ke karan nasht ho jata hai iska karan sex sambandh mein samaj ka naya drishtikon hai, aur adhunik upanyas mein ye drishtikon sampurn roop se pratibimbit hota hai
abhi tak hum drishtikon ke mahattw ki baat karte aaye hain lekin drishtikon ki ek samasya bhi khaDi ho jati hai jiwan ke prati drishtikon aatm rakhsha ki ek shart ban ja sakta hai hamari astitw rakhsha ho sakti hai ya nahin, iska uttar isi par nirbhar kar sakta hai ki jiwan ke prati hamara drishtikon kya hai pashchim ki sabhi sabhytaon ka wikas anttogatwa isi parashn par aakar atka hai, aur adhunik (pashchaty) sabhyata ke samne bhi aaj yahi parashn hai; jiwan ko hum kaise dekhen ki uska dabaw hum sah saken, jiwan ke prati hamara drishtikon kya ho, jisse hum aaj ki kathinaiyon ke bawjud apna astitw banaye rah saken? ye parashn naya to nahin hai aur pratyek sabhyata ek prakar se isi parashn ka sangthit aur samuhik uttar hoti hai; lekin is samasya ka pura dabaw, isi ki puri tiwrata adhunik yug ka wekti hi samajh sakta hai iska karan kewal yahi nahin hai ki iski sabse nai aur ashawadi sabhyata ki purwawarti sabhytaon ki tarah ek parashn wiram ke samne aa khaDi hui hai ek karan ye bhi hai ki waigyanik wishwastta aur spashtata ki or idhar jo wegawti pragti ho rahi aur jisse use aasha ho chali thi ki wo jiwan ke saty ko hastagat kar legi, wo pragti bhi manon ruddh ho gai hai aur anusandhan ek suni diwar se takra kar rah gaya hai sapekshawad ki chot ne yon hi hamari buddhi ko hi dhakka pahunchaya aur hamari waicharik bhumi ko kanpa diya, lekin hamare bhautik samajik jiwan ki jaDon ko bhi usne buri tarah hila diya manaw abhi nae waigyanik yatharth ko sahi Dhang se swikar nahin kar saka hai aur nae waigyanik anishchiy ko sampurnatya apna saka hai, nae waigyanik gyan ke adhar par apne wishwas aur manytaon ka punः parikshan aur samanway wo abhi nahin kar saka hai paristhiti isliye aur bhi shochaniy hai ki bahut se log ab manne lage hain ki kisi bhi wastu mein wishwas karna ya kisi bhi wishwas se aasha kendrit karna wipajjanak hai doodh kar jala chhachh phoonk kar pita hai, purani nishchyatmakta khokar manaw sabhi chijon ke bare mein shankit ho uthe to kya ashchary? is prakar ek or nishchyatmakta ki mang sabse adhik prabal (wishwason ka hona hi paryapt nahin hai, wishwas bhi hona chahiye) to dusri or bhutapurw nishchyatmakta aur wishwas se nirash bhi charam bindu par hai ( ‘main samujhe jhulse atit se munh moD lena chahta hoon kash ki samay ki disha mein koi nai andhi uthe aur mujhe baha jaye! )
futaprint – it iz not enaf tu haiw kanwikshan, wan mast aulso haiw kanwikshan
e s em hachinsan, if wintar kams
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o faur e wiD tu blo in wi Dayrekshan off time enD kairi mi away
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is anishchay, uljhan aur awyawastha mein, jise ek wekti ke bhitar anek ya bahumukhi wyaktitw ka ubhaar aur bhi jatil bana deta hai, astitw rakhsha ka ek matr sadhan jiwan ke prati drishtikon hi ho jata hai wo drishtikon kya ho, uske bare mein anek mat hain ek mat ye bhi hai ki drishtikon kya hai, iska mahattw utna nahin hai jitna iska ki drishtikon hai kyonki drishtikon hona hi suchit karta hai ki upanyasakar ek aise suwidhapurn sthal par hai jahan se wo wishw ki wyapak awyawastha ke paridrshy ka awlokan kar sakta hai
is nae yug ki is nai awasthiti ka wahan, uski abhiwyanjna ka madhyam upanyas hi kyon hai, kawita, natk ya nire darshanik prbandh kyon nahin? kyonki paristhitiyon ke adhunik nirupan ka ek ang ye bhi hai ki is sthiti ko jiwit wistar mein (in d field) hi dikhna chahiye ye sab samasyayen aur paristhitiyan kis prakar jiwan wyapar ko prabhawit ya nirupit karti hain, isi ka adhyayan hona hai aur jiwan wyapar to upanyas ka wishay hai hi upanyas sahityabhiwyanjna ka sarwashreshth adhunik madhyam hai kyonki ek mishrit ya sangthit madhyam hai, na to kawy ki bhanti shuddh aur na natk ki bhanti simit kawi mulatः apne liye likhta hai, natakkar mulatः samajik ya darshak ke liye lekin upanyasakar ek sath hi kalabhiwyanjna ke kai stron par wicharn kar sakta hai wo ek sath hi sabke liye likh sakta haih jan sadharan ke liye ( amuk ghatit hua ya ho raha hai ), dusre lekhkon ke liye ( amuk wishay wastu ko mainne to aise hi liya hai, aap kya karte, ya shakespeare ka turgnew kya karta? ) ya swayan apne liye ( han ye to drishtikon hua, samasya ka hal kya hai? ) ek sath kai stron par abhiwyakti adhunik upanyas ka ek lachchhan hai andre jeed ka jalasaj (le pho mauneyas) is prakar ke upanyas ka bahut rochak udaharn hai roop widhan ki drishti se ye idhar ki mahattwapurn sahityik kritiyon mein sthan rakhta hai ek sahityik madhyam ke roop mein upanyas jo wishisht aur adwitiy awsar deta hai, uska ismen bharpur upyog kiya gaya hai elDas haksle, john Dos paisos, chaarls maurgan pashchimi sahityon se anek udaharn diye ja sakte hain ek sath ekadhik star par abhiwyanjna aur do teen alag alag kalon ke nirwah ke hindi se ek udaharn ke roop mein shekhar ka nam liya ja sakta hai upanyas ki achchhai burai ka parashn yahan parashn nahin hai, kewal roop widhan ke ek adhunik prayog ki baat ho rahi hai
ye kadachit ‘drishtikon aur Dhang mein bhed karna uchit hoga oscar wailD ka ek Dhang (poz) tha jise jiwan ke prati drishtikon nahin kaha ja sakta kaha ja sakta hai ki ek Dhang ek banawati drishtikon hota hai aur upanyasakar use tabhi grahn karta hai jab wo jiwan ko sathi najar se dekhkar use lubhawne roop mein prastut karke santusht ho jane wala ho lekin adhunik upanyasakar wastawik jagat se kahin adhik gahra sampark rakhta hai uske liye drishtikon manoranjan ya rochakta ka sadhan nahin balki jine ke liye ek wyawaharik darshanik adhar hai jiwan ke liye aisa adhar khojne ko wo ek samasya aur karttawya ke roop mein leta hai aur gambhirtapurwak us samasya aur kartawya ka samna karta hai yahi uski adhunik kasauti hai
(sarjana aur sandarbh namak pustak se)
स्रोत :
पुस्तक : सर्जना और संदर्भ (पृष्ठ 119)
रचनाकार : अज्ञेय
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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