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अंधेर-नगरी

andher nagri chaupatt raja take ser bhaji take ser khaja

भारतेंदु हरिश्चंद्र

अन्य

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भारतेंदु हरिश्चंद्र

अंधेर-नगरी

भारतेंदु हरिश्चंद्र

और अधिकभारतेंदु हरिश्चंद्र

    रोचक तथ्य

    यह प्रहसन भारतेंदु जी एक दिन में सन् 1981 में लिखा था।

     

                        समर्पण

    मान्य योग्य नहिं होत कोऊ, कोरो पद पाए।
    मान्य योग्य नर ते, जे केवल पर हित जाए॥
    जे स्वारथ रत धूर्त, हंस से काक-चरित-रत।
    ते औरन हति बंचि, प्रभु नित होहि समुन्नत॥
    जदपि लोक की रीति यही, पे अंत धर्म जय।
    जौ नाहीं यह लोक तदपि, लछियन अति जम भय॥
    नर शरीर में रत्न वही, जो परमुख साथी।
    खात पियत अरू श्वसत श्वान, मंदुक अरू भाथी॥
    तासो अब लौं, करो सो, पै अब जागिय।
    गौ श्रुति भारत देस, समुन्नति में नित लागिय॥
    साँच नाम निज करिय, कपट तजि अंत बनाइय।
    नृप तारक हरि पद भजि, साँच बढ़ाई पाइय॥
    छेदश्चन्दनचूतचंपकवने रक्षा करीरद्रुमे,
    हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारति:।
    मांतगेन खरक्रय: समतुला कर्पूरकार्पासयो:
    एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नम:॥
     
    प्रथम दृश्य
    (बाह्य प्रांत)

    (महंत जी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)

    सब— राम भजो राम भजो राम भजो भाई।
    राम के भजे से गनिका तर गई, राम के भजे से गीध गति पाई।
    राम के नाम से काम बनै सब, राम के भजन बिनु सबहि नसाई॥
    राम के नाम से दोनों नयन बिनु सूरदास भए कबि-कुल राई।
    राम के नाम से घास जंगल की, तुलसी दास भए भजि रघुराई॥

    महंत—बच्चा नारायण दास! यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है! देख, कुछ भिच्छा-उच्छा मिलै तो ठाकुर जी को भोग लगै।

    नारायण दास—गुरु जी महाराज! नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुंदर है जो है सो, पर भिच्छा सुंदर मिलै तो बड़ा आनंद होय।

    महंत—बच्चा गोवर्धनदास! तू पश्चिम की ओर से जा और नारायण दास पूरब की ओर जाएगा। देख, जो कुछ सीधा सामग्री मिलै तो श्री शालग्राम जी का बालभोग सिद्ध हो।

    गोवर्धनदास—गुरु जी! मैं बहुत-सी भिच्छा लाता हूँ। यहाँ लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिंता मत कीजिए।

    महंत—बच्चा बहुत लोभ मत करना। देखना, हाँ—
    लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान।
    लोभ कभी नहीं कीजिए, यामें नरक निदान॥

    (गाते हुए सब जाते हैं)

    दूसरा दृश्य
    (बाज़ार)

    कबाबवाला—कबाब गरमागरम मसालेदार। चैरासी मसाला बहत्तर आँच का। कबाब गरमागरम मसालेदार। खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै। कबाब लो, कबाब का ढेर, बेचा टके सेर।

    घासीराम—चने जोर गरम—
    चने बनावैं घासीराम। जिनकी झोली में दुकान॥
    चना चुरमुर चुरमुर बौलै। बाबू खाने कर मुँह खोलै॥
    चना खावै तौकी मैना। बोलै अच्छा बना चबैना॥
    चना खायँ गफूरन मुन्ना। और नहीं कुछ सुनना॥ 
    चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली ढाली॥ 
    चना खाते मियाँ जुलाहे। डाढ़ी हिलती गाह बगाहे॥
    चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते॥
    चने जोर गरम-टके सेर।

    नरंगीवाली—नरंगी ले नरंगी, सिलहट की नरंगी, बुटवल की नरंगी, रामबाग की नरंगी, आनंदबाग की नरंगी। भई नीबू से नरंगी। मैं तो पिय के रंग न रंगी। मैं तो भूली लेकर संगी। नरंगी ले नरंगी। कवंला नीबू, मीठा नीबू, रंगतरा, संगतरा। दोनों हाथों लो, नहीं पीछे हाथ ही मलते रहोगे। नरंगी ले नरंगी। टके सेर नरंगी।

    हलवाई—जलेबियाँ गरमा-गरम। ले सेब, इमरती लड्डू गुलाबजामुन, खुरमा बुँदिया, बरफी, समोसा, पेड़ा, कचौड़ी, दालमोट, पकौड़ी, घेवर, गुपचुप। हलुआ ले हलुआ मोहनभोग। मोयनदार कचौड़ी कचाका हलुआ नरम चभाका। घी में गरक चीनी में तरातर, चासनी में चभाचभ। ले भूरे का लड्डू। जो खाए सो भी पछताए जो न खाए सो भी पछताए। रेवडी कड़ाका। पापड़ पड़ाका। ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तीस क़ौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विलसन, मंदिर के भितरिए, वैसे अंधेर नगर के हम। सब समान ताज़ा। खाजा ले खाजा। टके सेर खाजा।

    कुँजड़िन—ले धनिया मेथी, सोआ, पालक, चौराई, बथुआ करेमूँ, नोनियाँ, कुलफा, कसारी, चना, सरसों का साग। मरसा ले मरसा। ले बैंगन, लौआ, कोहड़ा, आलू, अरूई, बंडा, नेनुआँ, सूरन रामतरोई, तोरई, मुरई ले आदी, मिर्चा, लहसुन, पियाज टिकोरा। ले फालसा, खिरनी, आम अमरूद, निबुआ, मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी। ले हिंदुस्तान का मेवा फूट और बैर।

    मुग़ल—बादाम, पिस्ते, अखरोट, अनार, बिहीदाना, मुनक्का, किशमिश, अंजीर, आबजोश, आलूबोखारा, चिलगोजा, सेव, नाशपाती, बिही, सरदा, अँगूर का पिटारी। आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अँग्रेज़ का भी दाँत खट्टा हो गया। नाहक को रुपया ख़राब किया। हिंदोस्तान का आदमी लक लक, हमारे यहाँ का आदमी बुंबुक-बुंबुक, लो सब मेवा टके सेर।

    पाचकवाला—चूरन अमल वेद का भारी। जिस को खाते कृष्ण मुरारी॥
    मेरा पाचक है पचलोना। जिसको खाता श्याम सलोना॥
    चूरन बना मसालेदार। जिसमें खट्टे की बहार॥
    मेरा चूरन जो कोई खाए। मुझको छोड़ कहीं नहीं जाए॥
    हिंदू चूरन इस का नाम। बिलायत पूरन इसका काम॥
    चूरन जब से हिंदू में आया॥ इसका धन बल सभी घटाया।
    चूरन ऐसा हट्टा कट्टा॥ चूरन चला डाल की मंडी।
    इसको खाएँगी सब रंडी॥ चूरन अमले सब जो खावैं।
    दूनी रुशवत तुरंत पचावैं॥ चूरन नाटक वाले खाते।
    इसकी नकल पचाकर लाते॥ चूरन सभी महाजन खाते।
    जिससे जमा हजम कर जाते॥ चूरन खाते लाला लोग।
    जिसको अकिल अजीरन रोग॥ चूरन खावै एडिटर जात।
    जिसके पेट पचै नहिं बात॥ चूरन साहेब लोग जो खाता।
    सारा हिंद हजम कर जाता॥ चूरन पूलिसवाले खाते।
    सब कानून हजम कर जाते॥ ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर॥

    मछलीवाली—मछरी ले मछरी।
    मछरिया एक टके कै बिकाय।
    लाख टका के बाला जोबन, गाहक सब ललचाय।
    नैन मछरिया रूप जाल में, देखत ही फँसि जाय।
    बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिले बिना अकुलाय।

    जातवाला (ब्राह्मण)—जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहमण से धोबी हो जायँ और धोबी को ब्राह्मण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहीं वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचैं, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानें, बेचें, टके वास्ते नीच को भी पितामह बनावें। वेद धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।

    बनिया—आटा, दाल, लकड़ी, नमक, घी, चीनी, मसाला, चावल ले टके सेर।

    (बाबा जी का चेला गोवर्धनदास आता है और सब बेचनेवालों की आवाज़ सुन-सुनकर खाने के आनंद में बड़ा प्रसन्न होता है।)

    गोवर्धनदास—क्यों भाई बणिये, आटा कितने सेर?
    बनियाँ—टके सेर।
    गोवर्धनदास—और चावल?
    बनियाँ—टके सेर।
    गोवर्धनदास—और चीनी?
    बनियाँ—टके सेर।
    गोवर्धनदास—और घी?
    बनियाँ—टके सेर।
    गोवर्धनदास—सब टके सेर। सचमुच।
    बनियाँ—हाँ महाराज, क्या झूठ बोलूँगा।

    गोवर्धनदास—(कुंजड़िन के पास जाकर) क्यों भाई, भाजी क्या भाव?
    कुंजड़िन—बाबा जी, टके सेर। निबुआ, मुरई, धनिया, मिरचा, साग, सब टके सेर।

    गोवर्धनदास—सब भाजी टके सेर। वाह! वाह!! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीज़ टके सेर। (हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई हलवाई? मिठाई कितने सेर?
    हलवाई—बाबा जी! लडुआ, जलेबी, गुलाबजामुन, खाजा सब टके सरे।
    गोवर्धनदास—वाह! वाह!! बड़ा आनंद है? क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर?
    हलवाई—हाँ बाबा जी, सचमुच सब टके सेर? इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज़ टके सेर बिकती है।
    गोवर्धनदास—क्यों बच्चा! इस नगर का नाम क्या है?
    हलवाई—अंधेरनगरी।
    गोवर्धनदास—और राजा का क्या नाम है?
    हलवाई—चौपट राजा?
    गोवर्धनदास—वाह! वाह! अंधेरनगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा (यही गाता है और आनंद से बिगुल बजाता है)।
    हलवाई—तो बाबा जी, कुछ लेना देना हो तो लो दो।
    गोवर्धनदास—बच्चा, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरु चेले सब आनंदपूर्वक इतने में छक जाएँगे।
    (हलवाई मिठाई तौलता है—बाबा जी मिठाई लेकर खाते हुए और अंधेर नगरी गाते हुए जाते हैं।)

    (पटाक्षेप)

    तीसरा दृश्य
    (स्थान जंगल)

    (महंत जी और नारायणदास एक ओर से राम भजो इत्यादि गीत गाते हुए आते हैं और एक ओर से गोवर्धनदास अंधेरनगरी गाते हुए आते हैं)

    महंत—बच्चा गोवर्धनदास! कह क्या भिच्छा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।

    गोवर्धनदास—बाबा जी महाराज! बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।

    महंत—देखूँ बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोलकर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?

    गोवर्धनदास—गुरूजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।

    महंत—बच्चा! नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज़ टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, वह कौन-सी नगरी है और इसका कौन-सा राजा है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है?

    गोवर्धनदास—अंधेरनगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।

    महंत—तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हो।

    दोहा—सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
    ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै बास॥
    कोकिला बायस एक सम, पंडित मूरख एक।
    इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु॥
    बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
    रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय॥

    सो बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अंधेरनगरी में हज़ार मन मिठाई मुफ़्त की मिले तो किस काम की? यहाँ एक छन नहीं रहना।

    गोवर्धनदास—गुरू जी, ऐसा तो संसार भर में कोई देश ही नहीं हैं। दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर माँगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे-बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यही रहूँगा।

    महंत—देख बच्चा, पीछे पछताएगा।

    गोवर्धनदास—आपकी कृपा से कोई दुःख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

    महंत—मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूँगा। देख मेरी बात मान नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो हमारा स्मरण करना।

    गोवर्धनदास—प्रणाम गुरु जी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

    (महंत जी नारायणदास के साथ जाते हैं; गोवर्धनदास बैठकर मिठाई खाता है।)

    (पटाक्षेप)
     
    चौथा दृश्य
    (राजसभा)

    (राजा, मंत्री और नौकर लोग यथास्थान स्थित हैं)

    सेवक—(चिल्लाकर) पान खाइए महाराज!

    राजा—(पीनक से चैंक घबड़ाकर उठता है) क्या कहा? सुपनखा आई ए महाराज! (भागता है)।

    मंत्री—(राजा का हाथ पकड़कर) नहीं नहीं, यह कहता है कि पान खाइए महाराज!

    राजा—दुष्ट लुच्चा पाजी! नाहक हमको डरा दिया। मंत्री इसको सौ कोड़े लगैं।

    मंत्री—महाराज! इसका क्या दोष है? न तमोली पान लगाकर देता, न यह पुकारता।

    राजा—अच्छा, तमोली को दो सौ कोड़े लगैं।

    मंत्री—पर महाराज, आप पान खाइए सुनकर थोड़े ही डरे हैं, आप तो सुपनखा के नाम से डरे हैं, सुपनखा को सज़ा हो।

    राजा—(घबड़ाकर) फिर वही नाम? मंत्री तुम बड़े ख़राब आदमी हो। हम रानी से कह देंगे कि मंत्री बेर-बेर तुमको सौत बुलाना चाहता है। नौकर! नौकर! शराब।

    नौकर—(एक सुराही में से एक गिलास में शराब उझलकर देता है।) लीजिए महाराज! पीजिए महाराज!

    राजा—(मुँह बनाकर पीता है) और दे। (नेपथ्य में—‘दुहाई है दुहाई’—का शब्द होता है।) कौन चिल्लाता है, पकड़ लाओ।

    (दो नौकर एक फरियादी को पकड़ लाते हैं)

    फरियादी—दोहाई है महाराज दोहाई है! हमारा न्याय होय।

    राजा—चुप रहो। तुम्हारा न्याव यहाँ ऐसा होगा कि जैसा जम के यहाँ भी न होगा। बोलो—क्या हुआ?

    फरियादी—महाराजा कल्लू बनिया की दीवार गिर पड़ी, सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। दोहाई है महाराज! न्याय हो।

    राजा—(नौकर से) कल्लू बनिया की दीवार को अभी पकड़ लाओ।

    मंत्री—महाराज, दीवार नहीं लाई जा सकती।

    राजा—अच्छा, उसका भाई, लड़का, दोस्त, आशना जो हो उसको पकड़ लाओ।

    मंत्री—महाराज! दीवार ईंट चूने की होती है, उसको भाई बेटा नहीं होता।

    राजा—अच्छा कल्लू बनिये को पकड़ लाओ। (नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाते हैं) क्यों बे बनिए! इसकी लरकी, नहीं बरकी क्यों दबकर मर गई?

    मंत्री—बरकी नहीं महाराज, बकरी।

    राजा—हाँ हाँ, बकरी क्यों मर गई? बोल, नहीं अभी फाँसी देता हूँ।

    कल्लू—महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाई कि गिर पड़ी।

    राजा—अच्छा, इस कल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ। (कल्लू जाता है, लोग कारीगर को पकड़ लाते हैं) क्यों बे कारीगर! इसकी बकरी किस तरह मर गई?

    कारीगर—महाराज, मेरा कुछ कसूर नहीं, चूनेवाले ने ऐसा बोदा बनाया कि दीवार गिर पड़ी।

    राजा—अच्छा, इस कारीगर को बुलाओ, नहीं नहीं, निकालो! उस चूनेवाले को बुलाओ। (कारीगर निकाला जाता है, चूनेवाला पकड़कर लाया जाता है) क्यों बे खैर-सुपाड़ी चूनेवाले? इसकी कुबरी कैसे मर गई?

    चूनेवाला—महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं, भिश्ती ने चूने में पानी ढेर दे दिया, इसी से चूना कमज़ोर हो गया होगा।

    राजा—अच्छा चुन्नीलाल को निकालो, भिश्ती को पकड़ो। (चूनेवाला निकाला जाता है भिश्ती, भिश्ती लाया जाता है) क्यों वे भिश्ती! गंगा जमुना की किश्ती! इतना पानी क्यों दिया कि इसकी बकरी गिर पड़ी और दीवार दब गई।

    भिश्ती—महाराज! गुलाम का कोई कसूर नहीं, कसाई ने मसक इतनी बड़ी बना दिया कि उसमें पानी ज़्यादा आ गया।

    राजा—अच्छा, कसाई को लाओ, भिश्ती निकालो। (लोग भिश्ती को निकालते हैं और कसाई को लाते हैं) क्यों बे कसाई मशक ऐसी क्यों बनाई कि दीवार लगाई बकरी दबाई?

    कसाई—महाराज! गड़ेरिया ने टके पर ऐसी बड़ी भेड़ मेरे हाथ बेची कि उसकी मशक बड़ी बन गई।

    राजा—अच्छा कसाई को निकालो, गड़ेरिये को लाओ। (कसाई निकाला जाता है गड़ेरिया आता है) क्यों बे ऊखपौंडे के गड़ेरिया। ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेचा कि बकरी मर गई?

    गड़ेरिया—महाराज! उधर से कोतवाल साहब की सवारी आई, सो उसके देखने में मैंने छोटी बड़ी भेड़ का ख़्याल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं।

    राजा—अच्छा, इसको निकालो, कोतवाल को अभी सरबमुहर पकड़ लाओ। (गड़ेरिया निकाला जाता है, कोतवाल पकड़ा जाता है) क्यों बे—कोतवाल! तैंने सवारी ऐसी धूम से क्यों निकाली कि गड़ेरिये ने घबराकर बड़ी भेड़ बेची, जिस से बकरी गिरकर कल्लू बनियाँ दब गया?

    कोतवाल—महाराज-महाराज! मैंने तो कोई कसूर नहीं किया, मैं तो शहर के इंतज़ाम के वास्ते जाता था।

    मंत्री—(आप ही आप) यह तो बड़ा गज़ब हुआ, ऐसा न हो कि बेवक़ूफ़ इस बात पर सारे नगर को फूँक दे या फाँसी दे। (कोतवाल से) यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यों निकाली?

    राजा—हाँ हाँ, यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यों निकाली कि उसकी बकरी दबी।

    कोतवाल—महाराज महाराज—

    राजा—कुछ नहीं, महाराज महाराज ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दो। दरबार बरख़ास्त।

    (लोग एक तरफ़ से कोतवाल को पकड़कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मंत्री को पकड़कर राजा जाते हैं)

    (पटाक्षेप)

    पाँचवाँ दृश्य
    (अरण्य)

    (गोवर्धनदास गाते हुए आते हैं)

    (राग क़ाफ़ी)

    अँधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
    नीच-ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भडुए पंडित तैसे॥
    कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
    जात पात पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
    वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
    सांचे मारे-मारे डालैं। छली दुष्ट सिर चढ़ि-चढ़ि बोलैं॥
    प्रगट सभ्य अंतर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी॥
    सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावैं॥
    छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहिं लागे॥
    भीतर होइ मलिन की कारो। चहिए बाहर रंग चटकारो॥
    धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई॥
    भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे॥
    अँधाधुँध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा॥
    गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई॥
    ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा॥
    अँधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥

    (बैठकर मिठाई खाता है)

    गुरुजी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है। पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनंद से राम-भजन करना।

    (मिठाई खाता है।) 

    (चार प्यादे चार ओर से आकर उस को पकड़ लेते हैं)

    पहला प्यादा—चल बे चल, बहुत मिठाई खाकर मुटाया है। आज पूरी हो गई।
    दूसरा प्यादा—बाबा जी चलिए, नमोनारायण कीजिए।
    गोवर्धनदास—(घबराकर) हैं! यह आफ़त कहाँ से आई! अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हो।
    पहला प्यादा—आप ने बिगाड़ा है या बनाया है इससे क्या मतलब, अब चलिए। फाँसी चढ़िए।
    गोवर्धनदास—फाँसी। अरे बाप रे बाप फाँसी!! मैंने किस की जमा लूटी है कि मुझ को फाँसी! मैंने किस के प्राण मारे कि मुझको फाँसी!
    दूसरा प्यादा—आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फाँसी होती है।
    गोवर्धनदास—मोटे होने से फाँसी? यह कहाँ का न्याय है! अरे, हँसी फक़ीरों से नहीं करनी होती।
    पहला प्यादा—जब सूली चढ़ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हँसी है कि सच। सीधी राह से चलते हो कि घसीटकर ले चलें?
    गोवर्धनदास—अरे बाबा, क्यों बेकसूर का प्राण मारते हो? भगवान के यहाँ क्या जवाब दोगे?
    पहला प्यादा—भगवान् को जवाब राजा देगा। हमको क्या मतलब। हम तो हुक्मी बंदे हैं।
    गोवर्धनदास—तब भी बाबा बात क्या है कि हम फक़ीर आदमी को नाहक फाँसी देते हो?
    पहला प्यादा—बात है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुकुम हुआ था। जब फाँसी देने को उसको ले गए, तो फाँसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज़ किया, इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी की सज़ा होनी ज़रूर है, नहीं तो न्याय न होगा। इसी वास्ते तुमको ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें।
    गोवर्धनदास—तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता जो मुझ अनाथ फक़ीर को फाँसी देते हैं!
    पहला प्यादा—इस में दो बात है—एक तो नगर भर में राजा के न्याय के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ें तो वह न जानें क्या बात बनावें कि हमी लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की तो दुर्दशा है, इससे तुम्हीं को फाँसी देंगे।
    गोवर्धनदास—दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ! अरे यहाँ बड़ा ही अंधेर है, अरे गुरु जी महाराज का कहा मैंने न माना उसका फल मुझ को भोगना पड़ा। गुरु जी कहाँ हो! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरु जी गुरु जी—

    (गोवर्धनदास चिल्लाता है, प्यादे लोग उसको पकड़कर ले जाते हैं)

    (पटाक्षेप)

    छठा दृश्य
    (स्थान श्मशान)

    (गोवर्धनदास को पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)

    गोवर्धनदास—हाय बाप रे! मुझे बेकसूर ही फाँसी देते हैं। अरे भाइयो, कुछ तो धरम विचारो! अरे मुझ गरीब को फाँसी देकर तुम लोगों को क्या लाभ होगा? अरे मुझे छोड़ दो। हाय! हाय!
     
    (रोता है और छुड़ाने का यत्न करता है)

    पहला सिपाही—अबे, चुप रह—राजा का हुकुम भला नहीं टल सकता है? यह तेरा आखिरी दम है, राम का नाम ले—बेफाइदा क्यों शोर करता है? चुप रह—

    गोवर्धनदास—हाय! मैंने गुरु जी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरु जी ने कहा था कि ऐसे—नगर में न रहना चाहिए, यह मैंने न सुना! अरे! इस नगर का नाम ही अंधेरनगरी और राजा का नाम चौपट है, तब बचने की कौन आशा है। अरे! इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है जो फक़ीर को बचावे। गुरु जी! कहाँ हो? बचाओ—गुरुजी—गुरुजी—(रोता है, सिपाही लोग उसे घसीटते हुए ले चलते हैं) 

    (गुरु जी और नारायणदास आते हैं)

    गुरु—अरे बच्चा गोवर्धनदास! तेरी यह क्या दशा है?

    गोवर्धनदास—(गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी! दीवार के नीचे बकरी दब गई, सो इसके लिए मुझे फाँसी देते हैं, गुरु जी बचाओ।

    गुरु—अरे बच्चा! मैंने तो पहिले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, तूने मेरा कहना नहीं सुना।

    गोवर्धनदास—मैंने आपका कहा नहीं माना, उसी का यह फल मिला। आपके सिवा अब ऐसा कोई नहीं है जो रक्षा करे। मैं आप ही का हूँ, आपके सिवा और कोई नहीं (पैर पकड़कर रोता है)।

    महंत—कोई चिंता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (भौं चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझको अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देने दो, तुम लोग तनिक किनारे हो जाओ, देखो मेरा कहना न मानोगे तो तुम्हारा भला न होगा।

    सिपाही—नहीं महाराज, हम लोग हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश कीजिए।

    (सिपाही हट जाते हैं। गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं)

    गोवर्धनदास—(प्रगट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।

    महंत—नहीं बच्चा, मुझको चढ़ने दे।

    गोवर्धनदास—नहीं गुरु जी, हम फाँसी पड़ेंगे।

    महंत—नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।

    गोवर्धनदास—स्वर्ग जाने में बूढ़ा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या? मैं फाँसी चढ़ूँगा।

    (इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं—सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)

    पहला सिपाही—भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ में नहीं पड़ता।

    दूसरा सिपाही—हम भी नहीं समझ सकते हैं कि यह कैसा गबड़ा है।

    (राजा, मंत्री कोतवाल आते हैं)

    राजा—यह क्या गोलमाल है?

    पहला सिपाही—महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी चढ़ूँगा, गुरु कहता है मैं चढ़ूँगा; कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?

    राजा—(गुरु से) बाबा जी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?

    महंत—राजा! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जाएगा।

    मंत्री—तब तो हमी फाँसी चढ़ेंगे।

    गोवर्धनदास—हम हम। हमको तो हुक्म है।

    कोतवाल—हम लटकेंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।

    राजा—चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुंठ जा सकता है। हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी जल्दी।

    महंत—जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
    ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥

    (राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)

    (पटाक्षेप)

    ॥ इति॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतेंदु ग्रंथावली खंड-2 (पृष्ठ 400)
    • संपादक : मिथिलेश पांडेय
    • रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
    • प्रकाशन : नमन प्रकाशन

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