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ज्ञानरंजन

1936 | अकोला, महाराष्ट्र

सातवें दशक की प्रगतिशील धारा के प्रमुख कथाकार। ‘पहल’ पत्रिका के संपादक के रूप में समादृत।

सातवें दशक की प्रगतिशील धारा के प्रमुख कथाकार। ‘पहल’ पत्रिका के संपादक के रूप में समादृत।

ज्ञानरंजन की संपूर्ण रचनाएँ

संस्मरण 1

 

कहानी 3

 

उद्धरण 24

आकाश हम छू रहे हैं, ज़मीन खो रहे हैं।

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...लिखते समय जितना भी अकेलापन हो, वह काफ़ी अकेलापन नहीं है, कितनी ही ख़ामोशी हो वह पर्याप्त ख़ामोशी नहीं है, कितनी ही रात हो वह काफ़ी रात नहीं है।

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कभी ऐसा दिन भी होता है और ऐसी ऋतु जब आकाश पर सुबह तक चाँद एक वाटरमार्क की तरह उपस्थित रहता है और दूसरी तरफ़ सूर्योदय भी हो रहा होता है। मेरे जीवन का प्रारंभ कुछ ऐसा ही था।

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आप किसी के प्रभाव में कुछ दिन तक तो रह सकते हैं, लेकिन आजीवन नहीं रह सकते।

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हमें मार्ग पर चलना भी है, मार्ग बनाना भी है।

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