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यूरोप में भारत की चर्चा

yorap mein bharat ki charcha

रामनारायण मिश्र

रामनारायण मिश्र

यूरोप में भारत की चर्चा

रामनारायण मिश्र

और अधिकरामनारायण मिश्र

    भारतवर्ष के संबंध में यूरोप में, विशेषकर इंग्लैंड में, विलक्षण विचार हैं। हम लोग एक दिन कई सज्जनों और देवियों से बातचीत कर रहे थे, उसी बीच में हिंदुस्तानी मित्रों को आपस में वार्तालाप करने की आवश्यकता पड़ी और हम लोग हिंदी बोले। एक स्त्री ने आश्चर्य प्रकट किया और पूछा—Have you a language of your own? अर्थात् क्या तुम्हारी अपनी भाषा भी है? उस स्त्री ने हिंदुस्तानियों को आपस में अँग्रेज़ी ही बोलते सुना था, उसने समझा था कि 'सर्वव्यापिनी' अँग्रेज़ी भाषा ही भारतवासियों की बोली है। जब हमने उसे बतलाया कि हमारे देश में 100 में केवल 8 ही साक्षर हैं और उनमें से भी अँग्रेज़ी जाननेवालों की संख्या बहुत ही कम है, तब उस बेचारी के अभिमान को बड़ा धक्का पहुँचा। सच्ची बात तो यह है कि हमारे हृदय में अपनी भाषा के प्रति प्रेम अभी पूरी तरह से नहीं पैदा हुआ है। अँग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोग आपस में मातृ-भाषा बोलते हुए भी अँग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करते हैं। आसाम में खसिया भाषा की कोई लिपि नहीं है, सैकड़ों बरस मारवाड़ी और बंगाली उनके संसर्ग में आए, परंतु उनको अपनी लिपि प्रदान कर सके। अँग्रेज़ों ने थोड़े ही दिनों में वहाँ रोमन अक्षरों का प्रचार कर डाला। प्राइमरी स्कूलों में खसिया बालक अपनी मातृ-भाषा का ज्ञान रोमन अक्षरों द्वारा प्राप्त करते हैं।

    दूसरा विचार हिंदुस्तान के संबंध में यह है कि अँग्रेज़ों ने यहाँ के लोगों को सभ्य बनाया, पढ़ना-लिखना सिखलाया, और भारत की बुरी रस्मों को दूर किया। बहुत जगह लोग पूछते थे कि क्या भारतवर्ष में पहले विधवाएँ जलाई जाती थीं और बच्चे नदियों में मगर के सामने फेंक दिए जाते थे? एक स्त्री ने हम लोगों से पूछा कि क्या यह सच है कि एक विशेष त्योहार पर भले घर की स्त्रियाँ पाँच-छः रोज़ तक घर से बाहर नहीं निकलती, क्योंकि उन दिनों लोग उनको गालियाँ देते हैं और उनसे छेड़-छाड़ करते हैं? वहाँ के लोग समझते हैं कि यहाँ की स्त्रियाँ पिंजरे में बंद रहती हैं। जब एक सज्जन से मैंने कहा कि बंबई, मद्रास, मध्यप्रदेश और बरमा में बिल्कुल पर्दा नहीं है और पंजाब में बहुत कम है, सिर्फ़ दो-एक प्रांतों में कुछ अधिक है, वह भी मुसलमानों में, अर्थात् हिंदुस्तान के ज़्यादा हिस्से में पर्दा नहीं है, तो उसको इस बात के मानने में संकोच हुआ।

    अनेक स्थानों में लोगों को यह कहते सुना कि भारतवर्ष साँपों की, अनेक प्रकार के बुखार की, खटमल और मच्छरों की भूमि है। हमारे एक अँग्रेज़ मित्र बनारस के एक होटल में ठहरे। सोने से पहले उन्होंने नौकर से पूछा कि इस होटल में रात को कहीं साँप तो आकर नहीं काट लेगा और यह भी पूछा कि होटल में ठहरने वाले कितने हर साल साँप के काटने से मरते हैं। एक साहब से मैंने पूछा कि क्या कभी हिंदुस्तान में आपने हिंदुस्तानी खाना खाया है? उन्होंने कहा नहीं, क्योंकि हिंदुस्तान के लोग उबालकर पानी नहीं इस्तेमाल करते, इसलिए बुखार का डर रहता है। मच्छर की बात तो ठीक ही है। यूरोप में इटली देश के केवल वेनिस (Venice) नगर में (जहाँ प्रायः प्रत्येक घर के बाहर नाला है) हमको मच्छर मिले, परंतु पहले इटली देश में बहुत मच्छर थे। वहाँ की सरकार के बलशाली प्रयत्नों से ऐसे दलदल के स्थान, जहाँ मच्छर पैदा हुआ करते थे, सुधारे जा रहे हैं।

    इंग्लैंड के लोगों की यह बँधी हुई धारणा है कि भारत में प्रजा को राज्य में कभी भी कुछ अधिकार नहीं दिया जाता था और यहाँ के लोग अपने प्रतिनिधियों द्वारा शासन करने की योग्यता अब भी नहीं रखते। जब हम उन्हें बतलाते कि इस देश में पहले गाँवों में पंचायतें थीं और अनेक प्रांतों में प्रजातंत्र राज्य थे, तब वे कहते कि यदि ऐसा होता तो इस समय इन पुरानी बातों के कुछ चिह्न मिलते।

    एक दिन हम लोग ब्रिटिश म्यूज़ियम (लंडन का प्रसिद्ध संग्रहालय) देख रहे थे। उसी समय स्कूल के बहुत से बालक अपने अध्यापकों के साथ आए। मैंने उन लोगों से जान-पहचान कर ली; लड़कों से पूछा कि क्या वे हिंदुस्तान के बारे में कुछ जानते हैं? उन्होंने कहा—हाँ, वहाँ हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ा करते हैं। हम लोगों से अनेक स्थानों में इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते थे—क्या यह सच है कि हिंदुस्तान में (क) हिंदू मुसलमान आपस में लड़ा करते हैं और मुसलमान हिंदुओं का गला काट लेते हैं (Cut their throats)? (ख) बहुत से लोग ऐसे हैं जो अछूत समझे जाते हैं और जिनका ब्राह्मण लोग गला काटते हैं? (ग) ज़ात-पात का भेद एक दूसरे को अलग करता है? (घ) बहुत से लोग अपनी दौलत गाड़कर रखते हैं और सर्वसाधारण पर प्रकट नहीं करते कि उनके पास कितना रुपया है? (ङ) सास पतोहू को मारती है? मर्द अपनी स्त्री को मारते और कई विवाह करते हैं? एक प्रसिद्ध हिंदू महिला ने, जो हमें यूरोप में मिली थी, हम लोगों से कहा कि एक दिन कुछ हिंदू स्त्रियाँ बर्लिन में भिन्न-भिन्न प्रांतों की यूरोपियन स्त्रियों के साथ बैठी थी, जब कि एक गोरी स्त्री ने, एक सीधी-सादी शांत स्वभाव की, कम बोलनेवाली भारतीय कुमारी से पूछा—क्या आप इस कारण उदास हैं कि आपके पति ने दूसरा विवाह कर लिया है?

    जिन दिनों हम लंडन में थे और हम लोगों से बाल-विवाह संबंधी प्रश्न किए जाते थे, उन्हीं दिनों हिंदुस्तान में बाल-विवाह रोकने के लिए शारडा-क़ानून पेश था। वहाँ के अख़बारों और सिनेमा-द्वारा यह ख़बर फैलाई जाती थी कि हिंदुस्तान के लोग इस क़ानून का घोर विरोध कर रहे हैं।

    इंग्लैंड में बहुत से भारतीय डॉक्टर चिकित्सा करते हैं और वे वहीं बस गए हैं। उनके संबंध में लोगों का यह विचार है कि वे कुछ जादू (Black magic) जानते हैं, जिसके कारण उनके द्वारा रोगी जल्दी अच्छे होते हैं।

    ऊपर लिखी हुई बातों से यह जान लेना चाहिए कि यूरोप के सभी लोग भारतवर्ष को बुरा समझते हैं। बहुत से लोग भारतवर्ष की पुरानी सभ्यता और संस्कृति के प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं—विशेषकर जर्मनी के अनेक पुस्तकालयों में संस्कृत के ग्रंथ मिलते हैं और जहाँ ये ग्रंथ हैं वहाँ कुर्सियाँ ख़ाली नहीं पड़ी रहतीं, बल्कि अनेक सज्जन वहाँ पुस्तकों को पढ़ते हुए और कुछ लिखते हुए दिखलाई देते हैं। लंडन, पेरिस और बर्लिन का तो कहना ही क्या है, दक्षिण जर्मनी में डैन्यूब नदी के किनारे बोयरों (Beuron) नाम के ईसाइयों के एकांत मठ में भी हमें संस्कृत ग्रंथ और संस्कृत जाननेवाले मिले। अनेक भारतीय विद्यार्थी संस्कृत भाषा और साहित्य को आलोचनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टि से पढ़ने जर्मनी जाते हैं। विख्यात संस्कृतज्ञ मैक्समूलर, बुहलर, जॉली, जैकोबी इत्यादि सब जर्मन थे। जर्मन संस्कृतज्ञों ने वेद, शास्त्र, पुराण आदि पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं। जिनेवा विश्वविद्यालय के पास हम क्यूओ वैडिस (Quo Vadis) नाम के पुस्तकालय में गए, वहाँ मिस जोजफाइन स्टोरी (Storey) नाम की एक महिला मिली। उन्होंने यह पुस्तकालय खोल रखा है। उनके यहाँ स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि पर अनेक ग्रंथ देखे। उनको भारत के प्राचीन दर्शन-शास्त्र पर बड़ी श्रद्धा है।

    यह साधु सुंदरसिंह के नाम से प्रसिद्ध थे। ईसाई होने पर भी के भारतीय सभ्यता के बड़े पोषक थे, हिमालय-प्रवास के बड़े प्रेमी थे।

    हम लोगों से अनेक ऐंग्लो-इंडियन लोगों से भेंट हुई। ऐंग्लो इंडियन वे अँग्रेज़ हैं जो हिंदुस्तान में रह चुके हैं। उनमें से बहुत से जब किसी हिंदुस्तानी को यूरोप में देखते हैं तो हिंदी में बातचीत शुरू करते हैं। जहाज़ में, यूरोप जाते हुए बर्मा से लौटता हुआ, एक अँग्रेज़ मिला, जो अच्छी हिंदी बोलता था। उसी जहाज़ में आस्ट्रेलिया से लौटता हुआ एक अँग्रेज़ मिला, जिसे हमने अपने छोटे बच्चे को मारते देखा। हमें इस पर आश्चर्य हुआ। मालूम हुआ कि वह पहले संयुक्त-प्रांत में फ़ौजी अफ़सर था। लड़ाई में बेकाम होने के कारण उसकी नौकरी छूट गई। एक दिन उसने हम लोगों से कहा कि हिंदुस्तान में रहकर अँग्रेज़ों का नैतिक पतन हो जाता है, क्योंकि अँग्रेज़ अफ़सरों को यहाँ मुफ़्त में या सस्ते में बहुत से नौकर मिलते हैं जो उनके इशारे पर छोटे से छोटा काम करने को दौड़ते हैं जो काम उनको अपने देश में अपने हाथ से करना पड़ता है। इंग्लैंड में हमसे अनेक ऐंग्लो-इंडियन लोगों से भेंट हुई। लंडन में 16 जून को हमसे पादरी लेनवुड (Lenwood) से भेंट हुई, जो पहले बनारस में थे। यह और इनकी धर्मपत्नी अपने देश की ख़ूब सेवा कर रही हैं। ये दोनों बड़े सुशिक्षित हैं। इनकी धर्मपत्नी पार्लियामेंट के एक मेंबर की लड़की हैं। दोनों चीन, जापान आदि देशों में भ्रमण कर चुके हैं। इनकी संस्थाओं को देखकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। 20 जून को मालबर्न में हम लोगों के पूर्व-परिचित मित्र पादरी ग्रीव्ज मिले, जो हिंदी के बड़े प्रेमी हैं और जिन्होंने वर्षों तक काशी नागरी-प्रचारिणी सभा की सच्ची सेवा की थी। उन्होंने और उनकी धर्मपत्नी ने हमारा बड़ा सत्कार किया। पादरी ग्रीव्ज का जन्म लंडन में 5 दिसंबर 1854 ई० में हुआ था। भारतवर्ष आकर वे दस बरस तक मिर्ज़ापुर रहे। उसके अनंतर उनका अधिक समय काशी ही में बीता। उन्होंने अँग्रेज़ी में हिंदी भाषा पर कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें हिंदी व्याकरण और हिंदी भाषा का इतिहास प्रसिद्ध हैं। 1919 में भारत से स्वदेश जाकर वे भारत पर व्याख्यान आदि देते रहे। उसी दिन आक्सफ़ोर्ड में संयुक्त प्रांत के प्रसिद्ध पेंशन-भोगी सिविलियन सर वर्नीलवेट, जो इस समय वहाँ भारतीय इतिहास के अध्यापक हैं, मिले। उन्होंने बड़े प्रेम से हमें आक्सफ़ोर्ड दिखलाया और हम लोगों के हिंदुस्तानी पोशाक में यूरोप-यात्रा करने की बहुत प्रशंसा की। 23 जून को सनब्रिज स्थान में हम लोग मिस्टर स्ट्रेटफील्ड (Streatfeild) से मिले, जो किसी समय बनारस के बड़े शिक्षा-प्रेमी कलक्टर थे और इस समय इंग्लैंड में पादरी हैं। इनकी कुमारी कन्या केंब्रिज की ग्रेजुएट होने पर भी एक देहाती स्कूल में निस्वार्थ सेवा करती हैं। 24 जून को लंडन के केक्सटन हॉल में हिंदुस्तान की रेलों पर हम लोग एक व्याख्यान सुनने गए। उसके सभापति थे भारत के भूतपूर्व वायसराय लार्ड रेडिंग। इसमें बड़े-बड़े खुर्रांट ऐंग्लो इंडियन देखने में आए। हमारे मित्र बाबू गौरीशंकर प्रसाद इस मीटिंग में पगड़ी बाँधकर गए थे। सभा की समाप्ति पर लार्ड रेडिंग ने उनसे हाथ मिलाया। शायद उनको यह भ्रम हुआ कि यह भी कहीं के राजा, महाराजा या तालुकेदार हैं। 25 जून को ईटन का प्रसिद्ध स्कूल देखकर जब हम 'बस' में बैठे तब हमसे एक चेचक के दाग़वाले अँग्रेज़ ने कहा कि वह पूर्वीय बंगाल में पहले कलेक्टर था और अब ईटन में मास्टर है। जब हम 4 जुलाई को हैडले स्थान में ली-आन-सी के निकट मुक्ति सेना की एक कृषि-संस्था को देखने गए तो वहाँ बहुत से लोग मिले जो वर्षों हिंदुस्तान में रह चुके थे और जिन्होंने 'दयालसिंह' आदि हिंदुस्तानी नाम रख लिए हैं। 6 जुलाई को 'मुक्ति-सेना' के जन्मदाता जेनरल बूथ की शताब्दी हम लोग क्रिस्टल पैलेस में देखने गए। वहाँ लगभग 80 हज़ार मर्द और औरतों की भीड़ थी, जिनमें बहुत से गेरुआ-वस्त्रधारी पादरी थे। एक दिन हम लोग लंडन के विक्टोरिया स्टेशन से रहे थे कि एक अँग्रेज़ ने हिंदुस्तानी भाषा में हम लोगों को गाली देना शुरू किया, वह शराब के नशे में चूर था। उसके साथ एक स्त्री थी। वह उसकी करतूत पर लजित हो रही थी। पेरिस में टामस कुक की दूकान पर एक दिन एक अँग्रेज़ मिला, जो यात्रियों की सेवा कर रहा था। वह हम लोगों से हिंदी में बोला। मालूम हुआ कि पहले वह हिंदुस्तान में डिप्टी कमिश्नर था और अब उसने टामस कुक की दुकान में नौकरी कर ली है। इस प्रकार हम लोगों को बहुत से एंग्लो-इंडियन मिले। भीड़-भाड़ में कभी-कभी 'चलो, आगे चली' अथवा कुछ और कहता हुआ कोई-कोई हमारे बग़ल से निकल जाता था। हम लोगों के पहनावे से वे जान लेते कि हम भारतीय हैं।

    लंडन के हाइड पार्क में, खुले मैदान, प्रति रविवार को सैकड़ों व्याख्यान होते हैं, कहीं मादक वस्तुओं के निषेध पर, कहीं रोमन कैथोलिक धर्म पर, कहीं पार्लियामेंट के किसी कानून पर। हिंदुस्तान पर भी ख़ूब ज़ोरदार लेक्चर हुआ करते हैं। जब हम लोग लंडन में थे तो भारतवर्ष को स्वराज्य देने पर हिंदुस्तानियों, अँग्रेज़ों और देवियों के लेक्चर होते थे। उन देशों में श्रीतागण प्रश्न बहुत करते हैं। यदि वक्ता उन प्रश्नों का तुरंत और करारा जवाब दे तो उसकी हवाई उड़ जाती है। हाइड पार्क के व्याख्यान गंभीर नहीं हो सकते।

    लंडन के वेलसाइज़ पार्क में सेठ घनश्यामदास बिड़लाजी और अन्य सज्जनों ने 'आर्य-भवन' खोलकर देश का बड़ा उपकार किया है। 24 जून को हम उसे देखने गए और वहीं हमने भोजन किया। इस भवन में शौचादि का प्रबंध हिंदुस्तानी ढंग का है, शौच-गृह में पानी की कलें हैं। यहाँ हिंदुस्तानी भोजन भी मिलता है। भोजनालय के भीतर शुद्ध पवित्र घी की सुगंध जैसी हमें यहाँ मिली, 6 महीने की यात्रा में कहीं भी मिली। इस भवन के भीतर मातृभूमि के प्रायः सब सुख मिलते हैं। 'आर्य-भवन' के दरवाज़े पर हमें एक मशीन रखी हुई मिली, जिसमें सिक्का छोड़ने से सिगरेट बाहर निकल आता है। इसको देखकर हमें दुःख हुआ, क्योंकि भारतीय वातावरण में ऐसी चीज़ के रहने से अँग्रेज़ों को इस भ्रम के हो जाने की आशंका है कि हिंदुस्तानी इसे जीवन की एक आवश्यक सामग्री समझते हैं। यह बात हमने वहाँ की पुस्तक में भी लिख दी।

    यूरोप में मुर्दा जलाने की प्रथा चल निकली है। जर्मनी और आस्ट्रिया में म्युनिसिपैलिटी की ओर से श्मशान-गृह (क्रेमिटोरियम) बन गए हैं। इनमें बिजली द्वारा मुर्दे जलाए जाते हैं जिसमें समय बहुत ही कम लगता है। इन देशों में यूरोप के अन्य देशों से मुर्दे अधिक जलते हैं। अभी थोड़े दिन हुए, एडिन बरा नगर में Federation of Cremation Authorities की वार्षिक महासभा हुई थी, जिसमें इस बात पर विचार किया गया था कि मुर्दा जलाने में ख़र्च कैसे कम हो सकता है। 1929 में 4353 मुर्दे जलाए गए। इस विषय पर बहुत से ईसाइयों से हम लोगों की बातचीत हुई। वे सब इस बात को स्वीकार करते हैं कि मुर्दा गाड़ने से जलाने में संसार की अधिक भलाई है, परंतु पुरानी लकीर के फ़क़ीर होने के कारण पादरी जलाने का विरोध करते हैं। हम लोगों का विश्वास है कि यदि भारतवर्ष के दो एक विद्वान् यूरोप के प्रधान नगरों में घूमकर डॉक्टरों और अन्य वैज्ञानिक लोगों की सम्मतियाँ जमा करें और म्युनिसिपैलिटियों द्वारा नए श्मशान-गृह बनवाने का आयोजन कर दें, तो मुर्दा जलाने की प्रथा चल निकले।

    संगठित रूप से अब तक कोई आयोजन ऐसा नहीं हुआ जिसके द्वारा भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रति यूरोप के लोगों में श्रद्धा पैदा हो। इस संबंध में बहुत कुछ कार्य थियासाफिकल सोसायटी ने अवश्य किया है। इस सोसायटी की शाख़ा-सभाएँ यूरोप के प्रायः हर एक नगर में मिलती हैं, जिनमें भारतीय यात्रियों का स्वागत होता है। निरामिषभोजियों की संख्या भी इसी सोसायटी के द्वारा बढ़ी है। योग और अन्य आध्यात्मिक विषयों पर स्वाध्याय करने वाले लोग भी इसके सदस्यों में मिलते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : योरप यात्रा में छः मास (पृष्ठ 50)
    • रचनाकार : रामनारायण मिश्र, गौरीशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1932

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