वैद्दनाथ की यात्रा

waiddnath ki yatra

भारतेंदु हरिश्चंद्र

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वैद्दनाथ की यात्रा

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    श्रीमन्महाराज काशी-नरेश के साथ वैद्दनाथ की यात्रा को चले। दो बजे दिन के पैसेंजर ट्रेन में सवार हुए। चारों ओर हरी-हरी घास का फ़र्श। ऊपर रंग-रंग के बादल। गड़हों में पानी भरा हुआ। सब कुछ सुंदर। मार्ग में श्री महाराज के मुख से अनेक प्रकार के अमृतमय उपदेश सुनते हुए चले जाते थे। साँझ को बक्सर पहुँचे। बक्सर के आगे बड़ा भारी मैदान पर सब्ज़ काशाँनी मख़मल से मढ़ा हुआ। साँझ होने से बादल के छोटे टुकड़े लाल-पीले-नीले बड़े सुहाने मालूम पड़ते थे। बनारस कालिज की रंगीन शीशो की खिड़कियों का सा सामान था। क्रम से अंधकार होने लगा। ठंढी-ठंढी हवा से निद्रादेवी अलग नेत्रों से लिपटी जाती थी। मैं महाराज के पास से इठ कर सोने के वास्ते दूसरी गाड़ी में चला गया। झपकी का आना था कि बौछरों ने छेड़-छाड़ करनी शुरु की। पटने पहुँचते-पहुँचते तो घेर घार कर चारों ओर से पानी बरसने ही लगा। बस पृथ्वी आकाश सब नीर ब्रहामय हो गया। इस धूम-धाम में भी रेल कृष्णाभिप्तारिका सी अपनी धुन में चली ही जाती थी। सच है सावन की नदी और दृढ़प्रतिज्ञ उद्योगी और जिन के मन प्रीतम के पास हैं वे कहीं रुकते है। राह मे बाज़ पेड़ों में इतने जुगनू लिपटे हुए थे कि पेड़ सचमुच ‘सर्वे चिराग़ा’ बन रहे थे। जहाँ रेल ठहरती थी स्टेशन मास्टर और सिपाही बिचारे टुटरुँ-टुँ छाता लालटैन लिए रोज़ी जगाते भींगते हुए पहिने अप्रतिहत गति से घूमते थे। उसके घुर घिसने से गर्म होकर शिथिल हो गए वह गाड़ी छोड़ देनी पड़ी जैसे धूम-धाम की अँधेरी वैसे ही जोर-शोर का पानी। इधर तो यह आफ़त उधर फरजन बे सामान फरजन के बाबाजान रेलवालों की जल्दी। गाड़ी कभी आगे हटै कभी पीछे। ख़ैर किसी तरह सब ठीक हुआ। इस पर भी बहुत सा असबाब और कुछ लोग पीछे छूट गए। अब आगे बढ़ते-बढ़ते तो सवेरा ही होने लगा। निद्रावधू का संयोग भाग्य में लिखा था हुआ। एक तो सेकेंड क्लास की एक ही गाड़ी उस में भी लेडीज कम्पार्टमेंट निकल गया। बाकी जो कुछ बची उस में बारह आदमी। गाड़ी भी ऐसी टूटी फूटी जैसे हिंदुओं की क़िस्मत और हिम्मत। इस कम्बख़्त गाड़ी से तीसरे दर्जे की गाड़ियों से कोई फ़र्क़ नही सिर्फ़ एक-एक धोखे की टंट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था। चौड़े बेंच गद्दा बाथरुम। जो लोग मामूली से तिगुना रुपया दें उन को ऐसी मनहूस गाड़ी पर बिठलाना जिस में कोई बात भी आराम की हो रेलवे कंपनी आग लगा कर जला देती या कलकत्ते मे नीलाम कर देती। अगर मारे मोह के ने छोड़ी जाए तो उस से तीसरे दर्जे का काम ले। नाहक अपने ग्राहकों को बेवक़ूफ़ बनाने से क्या हासिल। लेड़ीज कम्पार्टमेंट खाली था मैं ने गार्ड से कितना कहा कि इस में सोने दो माना। दानापुर से दो चार नीम अंग्रेज़ (लेडी नही सिर्फ़ लैड) मिले उन को बेतकल्लुफ़ बैठा दिया। फर्स्ट क्लास की सिर्फ़ दो गाड़ी एक मैं महाराज दूसरी में आधी लेडीज़ आधी मे अंग्रेज़ अब कहाँ सोवैं कि नींद आवैं। सचमुच अब तो तपस्या कर के गोरी-गोरी कोख से जन्म ले तब संसार में सुख मिले। मैं तो ज्यों ही फर्स्ट क्लास में अंग्रेज़ कम हुए कि सोने की लालच से उस में घुसा। हाथ पैर चलाना था कि गाड़ी टूटने वाला विघ्न हुआ। महाराज के इस गाड़ी में आने से मैं फिर वही का वहीं। ख़ैर इसी सात-पाँच में रात कट गई। बादल के पर्दो को फाड़-फाड़ कर उषा देवी ने ताक झाँक आरंभ कर दी परलोक गत सजनों की कीर्ति की भांति सूर्य नारायण का प्रकाश पिशुन मेघों के बागाडम्बर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा। प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ। ठंडी-ठंडी हवा मन की कली खिलाती हुई बहने लगी। दूर से धानी और काही रंग के पर्वतो पर सुनहरापन चला। कहीं आधे पर्वत बादलो से घिरे हुए कहीं एक साथ वाष्प निकलने से उनकी चोटियाँ छिपी हुई और कहीं चारों ओर से उन पर जलधारा पांत से बुक्के की होली खेलते हुए बड़े ही सुहाने मालूम पड़ते थे। पास से देखने से भी पहाड़ बहुत ही भले दिखलाई पड़ते थे। काले पत्थरों पर हरी-हरी घास और जहाँ-तहाँ छोटे बड़े पेड़ बीच-बीच मे मोटे-पतले झरने नदियों की लक़ीरे, कही चारों ओर से सघन हरियाली, कही चट्टानों पर ऊँचे-नीचे अनगढ़ ढ़ोके और कहीं जलपूर्ण हरित तराई विचित्र शोभा देती थी। अच्छी तरह प्रकाश होते होते तो वैद्दनाथ के स्टेशन पर पहुँच गए। स्टेशन से वैद्दनाथ जी कोई तीन कोस है। बीच में एक नदी उतरनी पड़ती है जो आज कल बरसात में कभी घटती कभी बढ़ती है। रास्ता पहाड़ के ऊपर ही ऊपर बड़ा सुहाना हो रहा है। पालकी पर हिलते-हिलते चले। श्री महाराज के सोंचने के अनुसार कहारों की गति ध्वनि में भी परमेश्वर ही का चर्चा है। पहले कोहं कोहं’ की ध्वनि सुन पड़ती है फिर ‘सोहं सोहं’ ‘हंसस्मोहं’ की एकाकार पुकार मार्ग में भी उस से तन्मय किए देती थी।

    मुसाफ़िरो को अनुभव होगा कि रेल पर सोने से नाक थर्राती है और वही दशा कभी-कभी और सवारियों पर भी होती है इसी से मुझे पालकी पर नींद नहीं आई और जैसे तैसे बैजनाथ जी पहुँच ही गए।

    बैजनाथ जी एक गाँव है जो अच्छी तरह आबाद है मजिस्ट्रेट-मुनसिफ़ वगैरह हाक़िम और ज़रुरी आफ़िस है। नीचा और तर होने से देस बातुल गंदा और द्वारा है। लोग काले काले हतोत्साह मूर्ख ग़रीब है यहाँ सौंथल एक जंगली जाति होती है। ये लोग अब तक निरे बहशी है। खाने पीने की ज़रुरी चीज़ें यहाँ मिल जाती है। सर्प विशेष हैष राम जी की घोड़ी जिसको कुछ लोग ग्वालिन भी कहते हैं एक बालिशत लंबी और दो-दो उंगल मोटी देखने में आई।

    मंदिर बैजनाथ जी का टोप की तरह बहुत ऊँचा शिखरदार है चारो ओर देवताओं के मंदिर और बीच में फ़र्श है। मंदिर भीतर से अंधेरा है। क्योंकि सिर्फ़ एक दरवाज़ा है। बैजनाथ जी की पिंडी जलधरी से तीन चार उंगल ऊँची बीच में से चिपटी है। कहते हैं कि रावन ने मुक्का मारा है इस से यह गड़हा पड़ गया है। वैद्दनाथ, बैजनाथ, रावणोश्वर यह तीन नाम महादेव जी के है। यह सिद्धपीठ और ज्योतिर्लिंग स्थान है। हरिद्वार पीठ इसका नाम है। और सती का ह्रदय देश यहाँ गिरा है। जो पार्वती अरोगा दुर्गा नाम की सामने एक देवी हैं वही यहाँ की मुख्य शक्ति हैं। इनके मंदिर और महादेव जी के मंदिर से गाँठ जोड़ी रहती है। रात को महादेव जी के पर बेल पत्र का बहुत लंबा चौड़ा एक ढेर कर के ऊपर से कमखाब या ताश का खोल चढ़ा कर श्रृंगार करते हैं या बेल पत्र के ऊपर से बहुत सी माला पहना देते हैं। सिर के गड़हे में भी रात को चंदन भर देते हैं। वैद्दनाथ की कथा यह है कि एक बेर पार्वती जी ने मान किया था और रावण के शोर करने से वह मान छूट गया। इस पर महादेव जी ने प्रसन्न हो कर वर दिया कि हम लंका चलेंगे और लिंग रुप से उस के साथ चले। राह में जब वैद्दनाथ जी पहुँचे तो ब्राह्म्ण रुपी विष्णु के हाथ में वह लिंग देकर रावण पेशाब करने लगा। कई घड़ी तक माया मोहित हो कर वह मूतता ही रह गया और घबड़ा कर विष्णु ने उस लिंग को वही रख दिया। रावण से महादेव जी से क़रार था कि जहाँ रख दोगे वहाँ से आगे चलेंगे इस से महादेव जी वहीं रह गए वरंज इसी पर ख़फ़ा होकर रावण ने उन को मुक्का भी मार दिया।

    वैद्दनाथ जी का मंदिर राजा पूरणमल का बनवाया हुआ है। लोग कहते हैं कि रघुनाथ ओझा नामक एक तपस्वी इसी वन में रहते थे। उनको स्वपन हुआ कि हमारी एक छोटी सी मढ़ी झाड़ियों में छिपी है तुम उस का एक बड़ा मंदिर बनाओ। उसी स्वपन के अनुसार किसी वृक्ष के नीचे उन को तीन लाख रुपया मिला। उन्हों ने राजा पूरणमल को वह रुपया दिया कि वे अपने प्रबंध में मंदिर बनवा दें। वे बादशाह के काम से कहीं चले गए और कई बरस तक लौटे। तब रघुनाथ ओझा ने दुखित हो कर अपने व्यय से मंदिर बनवाया। जब पूरणमल लौट कर आए और मंदिर बना देखा तो सभा मंडप बनवा कर मंदिर के ऊपर अपनी प्रशसित लिख कर चले गए। यह देख कर रघुनाथ ओझा ने इस बात से दुखित होकर की रुपया भी गया किर्ति भी एक नई प्रशसित बनाई और बाहर के दरवाज़े पर खुदवा कर लगा दी। वैद्दनाथ महात्म्य भी मालूम होता है कि इन्ही महात्मा का बनाया है क्योंकि उस मे छिपाकर रघुनाथ ओझा को रामचंद्र का अवतार लिखा है। प्रशस्ति का काव्य भी उत्तम नहीं हैं जिस से बोध होता है कि ओझा जी श्रद्धालु थे किंतु उद्धत पंडित नहीं थे। गिरद्धौर के महाराज सर जगमंगल सिंह के.सी.एस.आई कहते हैं कि पूरणमल उन के पुरखा थे एक विचित्र बात यहाँ और भी लिखने के योग्य है। गोबर्धन पर्वत पर श्री नाथ जी का मंदिर सं. 1556 में एक राजा पूरणमल ने बनाया और यहाँ सं. 1652(1564 ई.) में एक पूरणमल ने वैद्दनाथ जी का मंदिर बनाया। क्या यह मंदिरों का काम पूरणामल ही को परमेश्वर ने सौंपा है।

    (इसके बाद संस्कृत में निज मंदिर का लेख और सभा मंडप का लेख है)

    मंदिर के चारों ओर और देवताओं के मंदिर हैं। कहीं दो प्राचीन जैन मूर्तियाँ हिंदू मूर्ति बन कर पुजती हैं। एक पद्मावती देवी की मूर्ति बड़ी सुंदर है जो सूर्य नारायण के नाम से पुजती है। यह मूर्ति पद्म पर बैठा है इस पर अत्यंत प्राचीन पाली अक्षरों में कुछ लिखा है जो मैंने श्रीबाबू राजेंद्रलाल मित्र के पास पढ़ने को भेजा है। दो भैरव की मूर्ति जिसमें एक तो किसी जैन सिद्ध की और एक जैन क्षेत्रपाल की है बड़ी ही सुंदर है। लोग कहते हैं की भागलपुर के जिले में किसी तालाब में से निकली थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतेंदु के निबंध (पृष्ठ 71)
    • संपादक : केसरीनारायण शुक्ल
    • रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
    • प्रकाशन : सरस्वती मंदिर जतनबर,बनारस
    • संस्करण : 1900

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