जर्मनी की सैर

jarmni ki sair

राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन

जर्मनी की सैर

राहुल सांकृत्यायन

और अधिकराहुल सांकृत्यायन

    सत्ताइस जुलाई, 1932 ई० को मैं लंदन पहुँचा था। तबसे 14 नवंबर तक इंग्लैंड में ही रहा। वहाँ के निवास के बारे में फिर लिखूँगा। 14 नवंबर को मैं पेरिस नगरी के लिए रवाना हुआ और 26 नवंबर तक वहाँ रहा। दो व्याख्यान होने के अतिरिक्त मेरे तिब्बत से लाए चित्रपटों की वहाँ—मुजीग्विमे में प्रदर्शनी भी हुई। 26 नवंबर को चित्रों को मैंने रेलवे पार्सल से भेज दिया और स्वयं फ्रांकफुर्त (जर्मनी) के लिए रवाना हुआ।

    सवा नौ बजे रात को (प्रायः) पाँच घंटे रात बीते हमारी ट्रेन परी स्टेशन से रवाना हुई। रास्ते में जिस वक़्त गाड़ी फ़्रांस की सीमा पार कर जर्मनी में घुसी, जकात (Custums) वाले ने आकर पूछ-ताछ की। सिगरेट के लिए विशेष तौर से पूछा! फिर पासपोर्ट देखने वाला आया। अँग्रेज़ी प्रजा के लिए फ़्रांस और जर्मनी में वीसे (Visas) की आवश्यकता नहीं होती। हमारे खाने की दोनों बेंचों पर अकेले हमी थे, इसलिए सोने का आराम रहा। गाड़ी फ्रांकफुर्त, 10 बजे सबेरे या घंटा दिन चढ़े, पहुँचने वाली थी। आठ बजे पह (प्रभा) फटने लगा और फिर ड्वाश-लान्ट (जर्मनी) की सुहावनी भूमि दिखलाई देने लगी। भूमि ऊँची नीची तथा पहाड़ों से घिरी थी। लंबे-लंबे जुते हुए खेत और पत्रहीन नंगे वृक्षों की भरमार बतला रही थी कि जर्मनी सिर्फ़ कारख़ानों का ही देश नहीं है। जगह-जगह, क़स्बों में भी, बड़ी-बड़ी चिमनियों वाले कारख़ाने हैं। रेल में मिलने वाले दीर्घकाय हृष्ट-पुष्ट ऑफ़िसर फ़्रांस के नफ़ासत-पसंद दुबले-पतले शिक्षितों से पृथक हो रहे थे।

    परी से ही मित्रों ने, सबेरे के कलेवे के लिए, दो सेब और सैंडविच के दो-तीन टुकड़े रख दिए थे। सैंडविच को सत्तू की तरह बहुगुणा भोजन समझिए। पतली पावरोटी बीच से फाड़कर और उसमें मक्खन लगाकर एक पतली तह बैकन (सूअर के माँस) की रख दी जाती है, बस यही सैंडविच है। इसके ऐसा नाम पड़ने का कारण यह बतलाया जाता है कि इंग्लैंड मे लार्ड सैंडविच नामक सामंत हर वक़्त जूए और पासे के खेल में लगा रहता था। वह अपने खेल को छोड़कर खाने के लिए भी अधिक समय नही लगाना चाहता था, इसलिए नौकर खेल पर ही उसे उक्त प्रकार का भोजन रख देते थे। वह खेलते-खेलते उसे खाता जाता था! लार्ड सैंडविच का खाना होने से उसका नाम ही सैंडविच पड़ गया।

    मैं सेब और सैंडविच खाकर तैयार था कि 10 बजे हमारी ट्रेन फ्रांकफुर्त आम माइन स्टेशन पर पहुँची। श्रीयुत इंद्रबहादुर सिंह को अपने आने की सूचना पहले से ही दे रखी थी—और साथ ही इस बात की भी कि मेरे नारंगी रंग के कपड़े दूर से ही मालूम पड़ जाएँगे! सचमुच ही, प्लेटफ़ार्म पर उतरते ही देखा, चश्मा दिए ,भेंड़के खाल की सफ़ेद गाँधी टोपी लगाए एक हृष्ट-पुष्ट नौजवान सामने खड़े हुए हैं। उनके साथ एक दूसरे सज्जन थे, जिनका परिचय इंद्रजी ने जापान-निवासी प्रोफ़ेसर डाक्टर कितायामा कहकर दिया। टैक्सी करके हम लोग शूमान-स्ट्रासे गए। डाक्टर कितायामा जापान के जो दो संप्रदाय के बौद्ध भिक्षु हैं। 10 वर्ष पूर्व, उन्हें जर्मनी में संस्कृत और आधुनिक अन्वेषण की विद्या सीखने के लिए उनके मठ ने भेजा था। डाक्टर (Ph.D.) होने के बाद, कितने ही वर्षों से वह मारबुर्ग और फ्रांकफुर्त के विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म तथा चीनी भाषा के अध्यापक हैं। डा० रुदाल्फ़ ओतोने उन्हें ख़ास तौर से, मुझे मारबुर्ग लाने के लिए भेजा था।

    श्रीयुत इंद्रबहादुर के अतिरिक्त श्रीयुत ए० वसु और डाक्टर देवीलाल, दो और भारतीय यहाँ रहते हैं। तीनों ही बड़े देशप्रेमी सज्जन हैं। वसु महाशय की जर्मन स्त्री स्वयं Ph.D. तथा कई बड़ी कंपनियों के डाइरेक्टर तथा एक सम्भ्रांत पिता की एकलौती लड़की हैं। विदेश में विवाह करने वाले भारतीयों में अक्सर देखा जाता है कि वह सुसंस्कृत, सुशिक्षित संभ्रांत कुलों में शादी नहीं करते। श्रीयुत वसुका विवाह इसका अपवाद है। इंद्र की भाँति वसु भी खाल की गाँधी टोपी पहनते है। इसके लिए उन्हें एक-एक टोपी पर तीस-तीस मार्क (30 रुपए) ख़र्च करने पड़े। थोड़ी देर के ही वार्तालाप से फ्रांकफुर्त भी घर बन गया। इंद्रजी से ही मालूम हुआ कि सत्यनारायण आजकल स्कन्धनाभीय देशों में गया हुआ है। भारी घुमक्कड़ है। निबंध समाप्त होते ही निकल गया।

    आचार्य ओतो से मेरा परिचय 1927-28 में, लंका में हुआ था। उस समय यद्यपि हमारा वार्तालाप दो ही घंटे हो पाया था; किंतु तभी से हमारी बहुत घनिष्ठता हो गई थी। पत्र-व्यवहार ही जारी नहीं था, बल्कि एक बार तो (जब कि, मैं ल्हासा में था) उन्होंने अपना पत्र जर्मनी में लिखकर, साथ ही ह्युगोका 'जर्मन स्वयंशिक्षक' और 'जर्मन इंगलिश कोश'—यह कहकर भेज दिया कि, ''अब वादा करने का काम नहीं, आपको मेरे पत्रों के लिए जर्मन सीखनी ही पड़ेगी।'' मैंने इस प्रेम के बलात्कार को स्वीकार तो किया, किंतु अधिक समय तक लगा रहा। वस्तुतः फ़्रेंच की भाँति कितनी ही जर्मन पुस्तकों को भी अपने काम के लिए पढ़ने की यदि मजबूरी हुई होती, तो उसमें भी काम चलने लगता। आचार्य ओतो सत्तर वर्ष से ऊपर के है। संस्कृत के नामी विद्वानों में है, तो भी संस्कृत-साहित्य के बहिरंग विषयों की अपेक्षा अंतरंग विपयोपर ही उनके अधिकांश ग्रंथ और लेख है; इसी लिए थोड़े ही भारतीय उन्हें प्राच्य-तत्त्व-विशारद जानते है। मारवुर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी में) धर्मशास्त्र के लिए सबसे प्रसिद्ध विश्व विद्यालय है। कई वर्षों तक उसके यह चांसलर रह चुके हैं। विचारों में यह श्रीयुत एण्ड जकी तरह अत्यंत उदार ईसाई है। योग के प्रेमी और अभ्यासी हैं।

    दूसरे दिन डाक्टर कितायामा ने आकर कहा कि, “आचार्य ओतो फ़ेफड़े के रोग के कारण शीघ्र ही इटली के समुद्रतट पर चले जानेवाले हैं; इसलिए आप शीघ्र ही चलिए। इस प्रकार 1 दिसंबर को, डा० किता के साथ, दोपहर की गाड़ी से मैं मारबुर्ग के लिए चल पड़ा। आज दिन था; इसलिए खेत, गाँव, पहाड़, सभी ख़ूब दिखाई पड़े। आज, एक जगह खेतों में बैलों को हल जोतते देखा! फ़्राँस और इंग्लैंड में सिर्फ़ घोड़ों का ही हल जोतते देखा था। दो घंटे की यात्रा समाप्त कर मारबुर्ग पहुँच गए।

    मारबुर्ग 40-50 हज़ार का एक छोटा-सा शहर है। शहर का पुराना सामंतशाही महल और कितने ही घर तथा गिर्जे, पहाड़ के ढलाव पर बसे हुए हैं। पहाड़ और उसके नीचे सर्वत्र वृक्षों और वनस्पतियो की अधिकता है। इस जाड़े में देवदार को छोड़ कर बाक़ी सभी वृक्ष पत्तो से शून्य हैं। नगर की स्वच्छता और सफ़ाई के बारे में तो क्या कहना! शहर की ओर बढ़ते ही यह बात मालूम हुई कि यहाँ अनेक स्त्रियाँ लंबे-लंबे सुनहले केश रखती है। आज कल इंग्लैंड, फ़्रांस (और जर्मनी के अधिकांश स्थानों) में स्त्रियों ने बालों को कटा डाला है। किसी भी स्त्री के सारे बाल देखने में आश्चर्य मालूम होता है! पता लगाने से मालूम हुआ, मारबुर्ग के आसपास, देहातों में अभी सनातनी स्त्रियाँ मिलती हैं! यह अपने केशों को चाँदपर जूड़े की शक्ल में वैसे ही बाँधती है, जैसे चंपारण की देहाती पुरानी चाल की स्त्रियाँ! जहाँ मैं इन्हें अचंभे-से देख रहा था, वहाँ यह भी जहाँ-तहाँ पचीसों की संख्या में खड़ी मेरे पीले वस्त्रों को देख रही थी।

    होटल में थोड़ी देर विश्राम करने के बाद मैं, कितायामा के साथ आचार्य ओतो के घर पर गया, जो थोड़ा चढ़कर पहाड़ पर था। छः बज गए थे; दो घंटे रात बीत चुकी थी, सर्दी भी ख़ूब थी; तो भी यूरोप में घरों को गर्म रखने का रिवाज़ है; जिसके कारण बाहर सर्दी के मारे ठिठुरते हुए को भी घर में कोट-टोपी उतारनी पड़ती है। घंटी बजाते ही नौकरानी आई। डा० किताने मेरे आने की ख़बर भेजी। थोड़ी ही देर में दीर्व-काय श्वेतश्मश्रुकेशधारी तुंग आर्य-नास प्राचार्य ओतो सीढ़ियों पर सामने थे। देखा, शरीर कुछ दुर्बल था। मालूम हुआ, इधर स्वास्थ्य ठीक नहीं था। सत्तर के ऊपर का शरीर था, तो भी कमर झुकी नहीं थी! स्वागत के बाद उनकी बैठक में गया। वार्तालाप आरंभ हुआ तो पूर पाँच घंटे तक होता रहा! समय समाप्त होता जाता था किंतु हमारी बात नहीं समाप्त होती थी! मैंने भी इधर के कुछ अपने कामों का ब्यौरा सुनाया। आचार्य ने यामुनाचार्य के सिद्धित्रय के अपने जर्मन अनुवाद की भी चर्चा की। पूछा—आपको हमारा देश कैसा दीख पड़ता है? मैंने उत्तर दिया—यद्यपि जाड़े से पतझड़ के कारण देश का पूरा सौंदर्य मेरी आँखों से ओझल है; लेकिन मैं हिमालय जैसे स्थानों से परिचित हूँ इसलिए यह समझने में मुझे ज़रा भी दिक़्क़त नहीं कि गर्मियों में यह देश विशेषकर मारबुर्ग तो नंदन-कानन रहता होगा। उन्होंने कहा—कवि रवीन्द्र गर्मियों में यहाँ आए थे; उन्होंने भी मारबुर्ग के सौंदर्य की प्रशंसा की थी।

    मैंने वहाँ की ग्रामीण स्त्रियों के जूड़ों और बैल के हलों का ज़िक्र करते कहा कि, इनमें मुझे ऋग्वेद-कालीन आर्यों के उष्णीष और हलों की समानता मालूम होती है। उन्होंने बतलाया कि, मेरे बचपन में, जर्मनी में, सभी हल बैलों से ही चलते थे; उस समय घोड़ों के हल कुछ धनिकों के शौक़ में शामिल थे। ग्रामीण जनता पुरानेपन की बड़ी भक्त होती है, इसलिए उसके रीति-रिवाज़ो में कुछ ऐसी बातों का मिलना आश्चर्यकर नहीं, जो यूरोपीय और भारतीय आर्यों के सम्मिलित पूर्वजों में प्रचलित थी। आर्यों की बात चलते ही वह और मैं दोनों ही अनुभव कर रहे थे मानों हज़ारों वर्ष के बिछुड़े बंधुओं का प्रेमालाप चल रहा हो! उन्होंने ऋग्वेद के दधिक्रा और नासत्या शब्दोंपर बात करते हुए कहा—दधिक्रा घोड़े का नाम है, किंतु “दधत् क्रामतीति—की व्युत्पत्ति से नहीं। प्रारंभ में आर्यों का, सवारी के लिए, घोड़ा पालना बहुत संदिग्ध है। मालूम होता है, आजकल के दक्षिणी रूस के बाशिंदों की भाँति (जो घोड़ियों को विशेषकर कूमिस् (दही से बना एक प्रकार का पेय पदार्थ के लिए पालते हैं) वह भी, दही के लिए, घोड़ों को पालते थे और 'दधिक्रा' में दधि शब्द दही के लिए ही है।

    मुझे तो दोपहर के 'बाद खाना ही नहीं था; इसलिए उनके भोजन के समय बैठे-बैठे बात-चीत होती रही। वहीं उन्होंने अपनी वृद्धा बहन से परिचय कराया। दूसरे दिन के मध्याह्न- भोजन का निमंत्रण भी मिला। आधी रात को मैं अपने स्थान पर चला गया।

    3 दिसंबर को आचार्य ओतो, अपने शिष्यों से समुद्रतट पर जाने के लिए बिदाई लेनेवाले थे। उस दिन वह महात्मा गाँधी पर बोले। मैं भी निमंत्रित किया गया था। चार-पाँच सौ छात्र छात्राएँ बड़ी व्याख्यान-शाला में बैठे थे। आचार्य ने महात्मा गाँधी पर बहुत सुंदर भाषण दिया। मेरे विषय में भी कुछ कहा। मेरे व्याख्यान की आशा भी दिलाई, किंतु जल्दी के कारण मैं दूसरे ही दिन वहाँ से चल पड़ा और समयाभाव से फिर मारबुर्ग लौटकर जा सका। वहाँ से हम मारबुर्ग के धार्मिक संग्रहालय में गए। बौद्ध, ब्राह्मण, यहूदी, ईसाई, इस्लाम सभी धर्मों के ग्रंथों, मूर्तियों, पूजाभांडों, चित्रों आदि का यहाँ सुंदर संग्रह है और इन संग्रहों को उन-उन धर्मावलंबियों की श्रद्धा का ख़याल करके सजाया गया है।

    3 दिसंबर को मारबुर्ग विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफ़ेसर डाक्टर नोबल से मिलने गया। वह 'सुवर्णप्रभाससून' (एक बौद्ध ग्रंथ) का अनेक पाठ-भेदों के साथ सुंदर संस्करण निकालने जा रहे हैं।

    उसी दिन फ्रांकफुर्त से टेलीफ़ोन आया और मुझे फ्रांकफुर्त लौट आना पड़ा। आज वसु महाशय का 'भारतमित्रसभा' में भाषण था। मुझे भी कुछ शब्द कहने को कहा गया।

    यहीं महाबोधि के ट्रस्टियों का पत्र मिला। उन्होंने मेरे शीघ्र लौटने के इरादे पर खेद प्रकट किया था; और, लिखा था कि आप जाड़े भर यूरोप में रहकर फिर अमेरिका होते हुए लौटे।” मैंने अस्वीकृति का पत्र लिख दिया।

    फ्रांकफुर्त का विश्वविद्यालय जर्मनी के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में है। अर्थशास्त्र और समाज-शास्त्र में विशेष ख्याति रखता है। यहाँ चार हज़ार से अधिक विद्यार्थी पढ़ते हैं! जर्मनी में आठ वर्ष की शिक्षा सभी लड़के-लड़कियों के लिए अनिवार्य है। चार वर्ष वह प्राथमिक श्रेणी में पढ़ते हैं फिर माध्यमिक श्रेणी में, ऊपर की पाँच वर्ष की पढ़ाई ऐच्छिक है। इस प्रकार 13 वर्ष में माध्यमिक शिक्षा या मैट्रिक्युलेशन परीक्षा समाप्त होती है, जिसमें 6 वर्ष से 16 वर्ष की उम्र तक का समय लगता है। फिर तीन वर्ष तक विश्वविद्यालय में अधिकारी के तौर पर पढ़ना होता है। इसके बाद दो वर्ष Ph.D. में लगता है। हमारे यहाँ की भाँति वहाँ बी० ए०, एम० ए० की डिग्रियाँ नहीं हैं। भारत के किसी विश्वविद्यालय की डिग्री वहाँ अत्यावश्यक नहीं है। विद्यार्थी को एक छोटा-सा निबंध लिखने को कहा जाता है, जिसमें उसके उस विषय साधारण ज्ञान का परिचय मिल जाता है। फिर वह तीन या चार सेमेस्टर या डेढ़-दो वर्ष में अपने PH.D. का निबंध दे सकता है। निबंध को प्रोफ़ेसर लोग एक दो बार कुछ और संशोधन करने के लिए लौटाते हैं, फिर स्वीकृत हो जाने पर भी तबतक उपाधि नहीं मिल सकती, जब तक कि निबंध को छपवाकर उसकी ढाई सौ कापियाँ अपने विश्वविद्यालय को नहीं दिया जाता। निबंध के छपवाने का ऐसा ही कड़ा नियम फ़्रांस में भी है। अच्छे योग्य आदमी के लिए निबंध के समय को यदि प्रोफ़ेसर चाहे तो और भी कम कर सकते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरी यूरोप यात्रा (पृष्ठ 142)
    • रचनाकार : राहुल सांकृत्यायन
    • प्रकाशन : साहित्य-सेवक-संघ, छपरा
    • संस्करण : 1935

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