बोधि गया

bodhi gaya

काका कालेलकर

काका कालेलकर

बोधि गया

काका कालेलकर

और अधिककाका कालेलकर

     

    बोधिगया कोई ऐसा-वैसा तीर्थ नहीं है। बोधिगया का नाम सुनते ही माथा भक्ति से झुक जाता है। पुराने ज़माने में जिस स्थान को 'उस्वेला' कहते थे। आज से ढाई हज़ार वर्ष पहले नेरंजरा नदी के तीर पर इस वन में एक पीपल के पेड़ के नीचे एक युवक बैठा था। उसका शरीर सूखकर काँटा हो गया था। दोनों आँखें दो आलोकि समान गहरी हो गई थीं। परंतु उनसे दया, तप और तेज़का अमृत टपकता था। छाती की एक-एक पसली गिनी जा सकती थी। दाढ़ी, मूँछ और बाल बढ़े हुए थे। लंबे-लंबे नख दीर्घ उपवास के कारण सफ़ेद पड़ गए थे। बाहर से वह युवक विलकुल शांत दिखाई देता था। परंतु असके अभ्यंतर में महायुद्ध चल रहा था। भारतीय युद्ध तो दिन डूबते ही बंद हो जाता था, पर इसका युद्ध अहोरात्र चलता था। भारतीय युद्ध अठारह दिन में समाप्त हो गया। इसका युद्ध तो अठारह दिन बाद रंग लाया। यह युद्ध किसी व्यक्ति के विरुद्ध नहीं, मनुष्य के सनातन शत्रु मार (काम) के विरुद्ध था। जिस युद्ध में मनुष्य-जाति के हित के लिए लड़ने वाला वह एकाकी वीर दृढ़ निश्चय करके बैठा था। मनुष्य-जाति का दुःख अब मुझ से देखा नहीं जाता। क्या मनुष्य अनंत काल तक इस तरह दुःख सहन के लिए ही पैदा किया गया है? इस दुःख की दवा कहीं न कहीं तो होनी ही चाहिए। अगर हो, तो इस जीवन की इससे अधिक सार्थकता और क्या हो सकती है, कि यह उस औषधि की शोध में बिताया जाए? और, अगर उस औषधि का मिलना ही असंभव हो, तो फिर इस जीने में ही क्या धरा है? 

    वहाँ वह नौजवान ही नहीं बैठा था, बल्कि भारत की सनातन श्रद्धा सजीव होकर बैठी थी। नवयुवकों के कुलगुरु, आस्तिकता के सागर, निर्भयता की मूर्ति, भगवान् नचिकेता का वह अवतार था। अक्षय्य धाम माँगने वाले राजपुत्र ध्रुव की परंपरा का वह अनुयाई था; कारण उसकी निष्ठा भी उतनी ही ध्रुव थी। युवक ने यह प्रण कर लिया था कि चाहे इसी आसनपर शरीर सूखकर काठ हो जाए, हाड, माँस और चमड़ी हवा में मिल जाएँ, परंतु जबतक इस भवरोग की पीड़ा का नाशक बहुकल्प—दुलभ बोधि (ज्ञान) नहीं मिलेगा, तबतक यह शरीर यहाँ से टस-से-मस न होगा। 
    आजतक ऐसा एक भी अदाहरण देखने में नहीं आया, जिसमें सत्य सकल्य विफल हुआ हो। युवक को संतोष हुआ। सिद्धार्थ का नाम सार्थक हुआ। राजपुत्र गौतम, गौतम के बदले अब बुद्ध हो गया। उसी क्षण एक श्रद्धावान साध्वी थाली में पायस (खीर) लेकर वहाँ आई, और उसने वह वरान्न उस वन-देव को अर्पण किया। 

    यही स्थान बोधिगया है। जिस पुरातन अश्वत्थ-वृक्ष के नीचे भगवान् बुद्ध ने यह अंतिम साधना की, उसके सामने आज एक भव्य मंदिर खड़ा है। बग़ल में चक्रमण1 का स्थान है। आसपास प्राचीन ऋषियों के समान बड़े-बड़े वृक्ष हैं। इन वृक्षों ने कितनी ऋतुएँ सही होंगी, कितने प्राणियों की सहायता की होगी और कितने साधकों की श्रद्धा-भक्ति के ये साक्षी रहे होंगे! 

    हम पहले एक पेड़ के नीचे बैठे। कुओं से पानी निकालकर हाथ पैर धोए। पानी पिया। फिर प्रसन्न अंत करण से मंदिर में दर्शन करने गए। मंदिर के भीतर बुद्ध भगवान की भव्य मूर्ति थी। उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम कर हम मंदिर पर चढ़े और गुंबद के आस-पास घूमे। कारीगरी में भव्यता है, लेकिन मादेव या नवीनता नहीं। नीचे उतर कर मंदिर की परिक्रमा की। ज्यूँ-ज्यूँ मैं परिक्रमा करता था, त्यूँ-त्यूँ मेरा भाव बदलता था। सारा जीवन दृष्टि के सामने खड़ा हो गया। और तुरंत दृष्टि शून्य हो गई। पानी में तैरने वाला तैराक डुबकी लगाकर जब गहरा और गहरा पैठता जाता है, तब जिस प्रकार निर्भय होते हुए भी वह भयभीत-सा हो जाता है, कुछ वैसी ही इस क्षण मेरी स्थिति हुई। जीवन के पृष्ठभाग (सतह) पर तो मैंने ख़ूब विचरण किया था। ख़ूब तैरा था। परंतु इस बार मैं गहराई में अतरा। ऐसी स्थिति पहले एक ही बार ध्यान में हुई थी। परंतु इसकी तुलना में वह स्पर्शमात्र थी। मेरी परिक्रमाएँ पूरी होने पर मैं पिछवाड़े के अश्वत्थको वंदन करने गया। घर का त्यागकर मैं हिमालय की ओर जा रहा था। भविष्य मेरे सामने अज्ञात था। मैंने अपनी नाव की सारी रस्सियाँ काट डाली थीं। सारी पतवार चढ़ा दी थीं। मेरी नौका फिरसे अपने पुराने बंदरगाह में लौटेगी, यह धारणा उस समय नहीं थी। उस समय की मनोवृत्तिका वर्णन कैसे हो सकता है? मैं बाहर से शांत था। लेकिन भीतर मनो ज्वालामुखी धधक रहा था। मुझे यह भान था कि मैं कोई त्याग कर रहा हूँ। मैं जानता था कि यह भान आध्यात्मिक उन्नत्ति में बाधक होता है। परंतु फिर भी, वह मिटता नहीं था। इतने में अंदर से एक आवाज़ आई त्याग करना सहज है। लेकिन किए हुए त्याग के योग्य बनने में ही पुरुषार्थ है। अहंकार के लिए इतनी फटकार बस थी। मैं उठ और पास वाले तालावब के किनारे जा बैठा।

    तालाब में असंख्य कमल खिले थे। लेकिन उनकी तरफ़ मेरा चित्त—हमेशा का कला-रसिक चित्त—आकर्षित नहीं हुआ। वहाँ से उठकर पास की एक गढ़ी को देखने चला गया। उसमें कभी साधु रहते थे। वह किसी महंत के अखाड़े-जैसी दीख पड़ी। लेकिन उसके विषय में पूछ-ताछ करने का मन न हुआ। मैं ख़ूब धूमा, हिमालय में रहकर साधना की, और समाधान प्राप्त किया; परंतु बोधिगया का उस दिन का अनुभव कुछ और ही था।

     
    स्रोत :
    • पुस्तक : काका कालेलकर के यात्रा-संस्मरण (पृष्ठ 26)
    • रचनाकार : काका कालेलकर
    • प्रकाशन : नवजीवन मुद्रणालय
    • संस्करण : 1948

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए