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ग्रीष्म पर दोहे

ग्रीष्मकाल के रूप में

ऋतु-परिवर्तन और जमा अनुभूतियों-अनुभवों पर लिखी कविताएँ का संग्रह।

बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।

देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौं चाहति छाँह

बिहारी ने प्रत्यक्ष रूप से तो जेठ की दुपहरी की भयंकरता का वर्णन किया है, किंतु एक दूसरा संकेत भी है। जेठ की भीषण दुपहरी को देखकर एक नायिका नायक से कह रही है कि तुम इस भयानक गर्मी में कहीं मत जाओ। घर में ही रहो। वह कहती है कि देखो न, जेठ के महीने में इतनी गर्मी पड़ रही है कि छाया भी छाया चाह रही है अर्थात् छाया कहीं है ही नहीं मानों वह भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए किसी दूसरी छाया के नीचे छिप जाना चाहती है। यह एकांत-मिलन का सुंदर अवसर है। ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता है। नायिका यह कहकर व्यंजित कर रही है कि इस अवसर का सदुपयोग कर लो अन्यथा पश्चाताप होगा।

बिहारी

गर्मी की ऋतु में सखी

मेघ घिरे आकाश।

घर में बैठा खोजता

कहाँ गया उल्लास॥

जीवन सिंह

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