झुटपुटे का-सा समय था। डॉक्टर फिलिप्स ने झटके से घुमाकर झोला कंधे पर लादा और बाढ़ के पानी से भर जाने वाली पोखर जैसी जगह से चल पड़ा। पहले पत्थर के ढोके पर चढ़कर कुछ रास्ता पार किया और फिर रबर के बूटों से छप-छप करता सड़क पर निकल आया। मोंटेरी की मछलियों और दूसरी खाद्य सामग्री को टिन के डिब्बों में भरने वाली सड़क पर उसकी अपनी छोटी-सी पेशेवर प्रयोगशाला थी। वहाँ तक आते-आते सड़क की बत्तियाँ जल चुकी थीं। दबा-भिंचा-सा छोटा-सा मकान था—इसका कुछ हिस्सा खाड़ी के पानी के ऊपर लट्ठों के खंभे और पुल लगाकर बना था और कुछ ज़मीन पर था। बड़े-बड़े लहरदार, लोहे की चादरों के बने मछलीवाले, गंधाते गोदामों ने इसे दोनों ओर से बुरी तरह घेर और भींच रखा था।

काठ की सीढ़ियाँ चढ़कर डॉ० फिलिप्स ने दरवाज़ा खोला। सफ़ेद चूहे अपने पिंजरे में तार के ऊपर-नीचे ज़ोर-ज़ोर से उछल-कूद मचाने लगे और छोटे-छोटे बाड़ों में बंद क़ैदी बिल्लियाँ दूध के लिए म्याऊँ-म्याऊँ करने लगीं। डॉक्टर फिलिप्स ने अपनी चीर-फाड़ की मेज़ पर तेज़ चौंधिया देने वाली रोशनी जला दी और उस लिसलिसे झोले को धम्म से धरती पर पटक दिया। फिर वह खिड़की के पास रखे शीशे के पिंजरों के पास आया और झुककर भीतर देखने लगा। इसमें अमेरिकन साँप बंद थे।

साँप एक-दूसरे में गुँथे हुए कोनों में आराम कर रहे थे, लेकिन सबके सिर अलग-अलग साफ़ दिखाई देते थे। धूमिल आँखें किसी ओर भी देखती नहीं लगती थीं, लेकिन जैसे ही नौजवान डॉक्टर पिंजरे पर झुका कि सिरे पर काली और पीछे से सुर्ख़ दुहरी जीभें बाहर लपलपा उठीं और धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलने लगीं। जब साँपों ने उस व्यक्ति को पहचान लिया तो जीभें भीतर कर लीं।

डॉ० फिलिप्स ने चमड़े का कोट एक तरफ़ फेंका और टीन की अँगीठी पर पानी की केतली चढ़ाई, फिर गिलास-भर मटर उसमें छोड़ दी। अब वह फ़र्श पर पड़े उस झोले को खड़ा-खड़ा घूरता रहा। डॉक्टर दुबला-पतला नौजवान था। उसकी आँखें चुंधियायी, छोटी और खोई-खोई थीं, जैसा अकसर अन्वीक्षण-यंत्र के द्वारा बहुत अधिक देखते रहने वालों की हो जाती हैं। उसकी छोटी ख़ूबसूरत-सी दाढ़ी थी। गहरी-गहरी साँसों-सी सिसकारी भरती हुई भाप की धारी चिमनी में जा रही थी और अँगीठी से गरमाहट का भभका रहा था। मकान के नीचे छोटी-छोटी लहरें हौले-हौले खंभों को सहला रही थीं। कमरे में चारों ओर लकड़ी के ख़ानों में एक के ऊपर एक अजीबोग़रीब इमर्तबान सजे थे। इनमें समुद्री वस्तुओं और जीवों के नमूने ढके रखे थे। यह प्रयोगशाला भी थी इन्हीं सबके लिए।

डॉ० फिलिप्स ने बग़ल का दरवाज़ा खोलकर सोने वाले कमरे में प्रवेश किया। इसमें चारों ओर किताबों की लाइनें लगी थीं। एक फ़ौजी खाट पड़ी थी। पढ़ने के लिए रोशनी और एक ग़ैरआरामदेह क़िस्म की लकड़ी की कुर्सी रखी थी। उसने अपने रबर के बूट खींच-खींचकर उतारे और भेड़ की खालों के स्लीपर पहन लिए। जब वह बग़ल वाले कमरे में वापस लौटा तो केतली का पानी सनसनाने लगा था।

उसने झोला उठाकर मेज़ पर सफ़ेद रोशनी के नीचे रखा और उसमें से दो दर्ज़न साधारण तारक-मछलियाँ उलटकर बाहर निकालीं। इन्हें उसने मेज़ पर फैला दिया। फिर उसकी खोई-खोई आँखें पिंजरों में बंद उछलकूद मचाते चूहों की ओर मुड़ीं। क़ागज़ के एक थैले से अनाज के दाने निकालकर उसने खाने वाले तसलों में डाले। चूहे फ़ौरन ही एक-दूसरे को खूँदते तारों से नीचे की ओर दौड़े और खाने पर टूट पड़े। काँच की एक अलमारी पर केकड़े और जेली मछली के बीच दूध की बोतल रखी थी। डॉक्टर फिलिप्स ने झुककर दूध उठाया और बिल्लियों के पिंजरे की ओर बढ़ा। लेकिन डिब्बों को दूध से भरने से पहले ही उसने हाथ बढ़ाकर आहिस्ता से एक बड़ी, लंबे-लंबे हाथ-पाँवों वाली मरगिल्ली-सी चितकबरी बिल्ली को पकड़कर बाहर निकाल लिया। पल-भर उसे हाथ से थपथपाया और फिर उसे काले पुते हुए बक्से में डाल दिया। ढक्कन बंद करके कुंडी चढ़ा दी। इसके बाद एक हैंडिल घुमा दिया। अब उस मारने वाले डिब्बे में गैस भरने लगी। काले डिब्बे में हल्की-हल्की उछलकूद होती रही और वह तसलों को दूध से भरता रहा। एक बिल्ली उसके हाथ से सटकर कमान जैसी दुहरी हो गई तो वह मुस्करा पड़ा। उसने उसकी गर्दन प्यार से सहला दी।

डिब्बे में अब शांति हो गई थी। उसने हैंडिल को उलटा घुमा दिया। ज़रूर उस रंध्रहीन डिब्बे में डटकर गैस भरी होगी।

अँगीठी पर मटर से भरे गिलास के चारों ओर पानी बुरी तरह खौल रहा था। डॉ० फिलिप्स ने एक संडासी से पकड़कर गिलास बाहर निकाला और उसे खोलकर मटर काँच की एक तश्तरी में उलट दिए। खाते-खाते वह मेज़ पर रखी उन तारक मछलियों को देखता रहा। किरणों के बीच में दूधिया द्रव की छोटी-छोटी बूँदें पसीज-पसीजकर निकल आई थीं। उसने फटकने की तरह बची हुई मटर एक तरफ़ फेंक दी और जब सब फैल गईं तो तश्तरी धोने वाले नाँद में रखकर अपनी औजारों वाली अलमारी की ओर बढ़ा। यहाँ से उसने एक अन्वीक्षण-यंत्र और काँच की तश्तरियों की एक गड्डी निकाली। नल द्वारा एक-एक करके इन सारी तश्तरियों को समुद्री पानी से भरा और तारक-मछलियों के पास एक लाइन में उन्हें सजा दिया। अपनी घड़ी निकाली और घनी उमड़ती सफ़ेद रोशनी के नीचे मेज़ पर रख दिया। फ़र्श के नीचे लहरें उसमें भरती हुई-सी खंभों को सहला रही थीं। उसने एक दराज़ से आँख में दवा डालने वाली काँच की एक पिचकारी निकाली और एक तारक मछली के ऊपर झुक गया।

ठीक उसी समय लकड़ी की सीढ़ियों पर लपकती, दबे क़दमों की आवाज़ के साथ-साथ दरवाज़े पर एक तेज़ दस्तक सुनाई दी। दरवाज़ा खोलने जाते हुए नौजवान के चेहरे पर झुँझलाहट की हल्की तल्ख़ी झलक उठी। दरवाज़े में एक पतली-दुबली लंबी-सी स्त्री खड़ी थी। वह भँवर-काला सूट पहने थी। और उसके सीधे-सीधे बाल काले चपटे माथे पर नीचे तक उग आए थे। अब इस तरह अस्त-व्यस्त थे, मानो आँधी में उड़ते रहे हों। तेज़ रोशनी में उसकी काली काली आँखें चमक रही थीं।

उसने मुलायम, रुँधी-सी आवाज़ में पूछा, “मैं भीतर जाऊँ न? आपसे कुछ बातें करना चाहती हूँ।

इस समय तो मैं बहुत व्यस्त हूँ, उसने बेमन से कहा, मुझे तो सारे काम वक़्त पर ही करने पड़ते हैं। लेकिन वह दरवाज़े से हटकर खड़ा हो गया था। लंबी स्त्री तिरछी होकर भीतर गई।

“आपको जब तक मुझसे बात करने की फ़ुरसत नहीं मिलेगी, मैं चुपचाप बैठी रहूँगी।

उसने दरवाज़ा बंद कर लिया और सोने के कमरे से उस ग़ैर-आरामदेह कुर्सी को उठा लाया। “देखिए”, उसने माफ़ी माँगते हुए कहा, कार्य की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मुझे उसमें लगना है। जाने कितने आदमी यों ही चले आते हैं और दुनिया भर के सवाल पूछते हैं। साधारण नासमझ लोगों को सारी कार्य-प्रणाली समझाने के लिए उसके पास अलग से कोई साधन या सुविधा नहीं है। उनसे तो वह बिना सोचे बोल देता है कि “आप यहाँ बैठिए, दो मिनट बाद मैं आपकी बातें सुनूँगा।

वह लंबी स्त्री मेज़ पर ऊपर झुक आई। आँख में दवा डालने की पिचकारी से डॉक्टर ने तारक मछलियों की किरणों के बीचोबीच में द्रव इकट्ठा किया और पिच्च से पानी के प्याले में छोड़ दिया। इसके बाद उसने कुछ दूधिया द्रव सूँता और फिर पिचकारी से पानी को धीरे-धीरे हिलाया। अब उसने अपना वही व्याख्यान-भाषण जल्दी-जल्दी बोलना शुरू किया :

“जब ये तारक मछलियाँ अपने पूर्ण विकसित यौवन पर चुकती हैं तो हल्के ज्वार का खुला विस्तार पाकर इनके शरीर से वीर्य-कीटाणु और डिंब निकलने लगते हैं। कुछ पूर्ण यौवन वाली तारक मछलियों के नमूने चुनकर और उन्हें पानी से बाहर निकालकर मैं उन्हें हलके ज्वर की सारी अवस्था और वातावरण में यहाँ रखता हूँ। अब मैंने वीर्य और डिंबों को मिला दिया है। इस घोल में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अब मैं इन सब परीक्षण-गिलासों में रखूँगा। दस मिनट बाद पहले गिलास वालों को सफ़ेद कपूर डालकर मार डालूँगा, फिर बीस मिनट बाद दूसरे वर्ग को मारूँगा। और फिर इसी तरह हर बीस मिनट बाद नए वर्ग को मारता जाऊँगा। इससे मैं सारी प्रक्रिया को अलग-अलग अवस्थाओं में पकड़ सकूँगा और इस सारी प्रक्रिया-माला को माइक्रोस्कोप की काँच की स्लाइडों पर जमाकर जैविक अध्ययन के लिए तैयार कर लूँगा।” वह रुक गया, आप इस पहले वर्ग को अन्वीक्षण-यंत्र से देखेंगी?

नहीं, शुक्रिया।

तेज़ी से वह उसकी ओर घूमा। लोग तो हमेशा गिलासों में देखने को उधार खाए रहते हैं। वह मेज़ की तरफ़ बिलकुल देखकर—देख रही थी, ख़ुद उसकी तरफ़। उसकी काली-काली आँखें थीं तो उसकी दिशा में, लेकिन लगता था, उसे देख नहीं रहीं। उसने महसूस किया, अरे! इस स्त्री की आँखों के तारे तो शेष पुतलियों की तरह ही काले-काले हैं—पुतलियों और तारों के बीच में किसी भी रंग की कोई लाइन नहीं है। डॉक्टर फिलिप्स उसके इस जवाब से झल्ला उठा। यों उसे सवालों का जवाब देने से बड़ी ऊब होती थी—क्योंकि इससे हाथ के काम में दिलचस्पी कम हो जाती थी और इसी से उसे हमेशा बड़ी कोफ़्त होती। अब उसके मन में हुआ कि किसी तरह इस स्त्री को उकसाया जाए।

पहले दस मिनट राह देखने के दौरान ही मुझे एक काम और भी करना है। कुछ लोग इसे देखना पसंद नहीं करते। अच्छा हो, जब तक मैं इसे ख़त्म करूँ, आप कुछ देर के लिए उस कमरे में चली जाएँ।

नहीं, उसने अपने उसी मुलायम और सपाट लहज़े में कहा, आपकी जो इच्छा हो सो कीजिए। मैंने कहा न, आपको मुझसे बात करने की फ़ुरसत होने तक मैं राह देखूँगी। उसके हाथ पास-पास उसकी गोद में रखे थे। वह बड़े आराम और इत्मीनान से बैठी थी। उसकी आँखें ज़रूर चमकीली थीं, लेकिन बाक़ी सब कुछ ऐसा था, मानो बेजान हो। डॉक्टर ने मन ही मन कहा, 'देखने से लगता है कि बहुत ही धीमी रफ़्तार से मांसपेशियाँ परिवर्तन की स्थिति में हैं-इतनी धीमी जितनी मेढक की होती है।' स्त्री को उसकी इस मुर्दनी से झँझोड़ने की प्रबल इच्छा ने उसे फिर आविष्ट कर लिया।

उसने लकड़ी का एक पालना-जैसा लाकर मेज़ पर रखा, चीर-फाड़ करने का चाकू और कैंची, पिचकने वाली नली में लगी पोली सुई सँवारकर रखी, फिर मारने वाले डिब्बे से उसने उस बेजान मुर्दा बिल्ली को निकाला और पालने पर रखकर उसकी टाँगों को इधर-उधर लगे हुकों से बाँध दिया। कनखियों से उसने स्त्री को देखा। उसमें क़तई कोई हरकत नहीं थी। वह उसी तरह अब भी आराम से बैठी थी।

रोशनी में बिल्ली मानो दाँत निकालकर चिढ़ा रही थी। उसकी सुर्ख़ जीभ नुकीले दाँतों के बीच दबी थी। सधे हुए कुशल हाथों से डॉक्टर फिलिप्स ने गले के पास से उसकी खाल काट डाली। चाकू से चीरफाड़ी करते हुए उसने हृदय से और भागों तक रक्त ले जाने वाली नली को बाहर निकाल लिया। अपने अचूक और बेझिझक हाथों से फुसफुस में सुई रखकर आँतों से कसकर बाँध दिया। यह मसालेदार है,” उसने समझाया, बाद में मैं इंजेक्शन की सहायता से इसके सारे स्नायुमंडल में पीला द्रव पहुँचाऊँगा, लाल द्रव हृदय की धमनियों में दूँगा। इससे रक्त प्रवाह का विश्लेषण किया जा सकेगा, जैसा कि प्राणिशास्त्र की कक्षाओं में...

उसने फिर उस स्त्री की तरफ़ घूमकर देखा। उसकी आँखों पर जैसे धूल की एक परत फैली थी। वह भावनाहीन निगाहों से बिल्ली के कटे हुए गले की तरफ़ देखे जा रही थी। ख़ून एक बूँद भी नहीं गिरा, कटाई बहुत ही साफ़ हुई थी। डॉक्टर फिलिप्स ने घड़ी देखी : 'पहले वर्ग का समय पूरा हो गया।’ उसने सफ़ेद कपूर के कुछ चौकोर चिकने टुकड़े पहले वाले परीक्षण-गिलास में डालकर हिलाए।

स्त्री की उपस्थिति उसके मन में तनाव पैदा कर रही थी। अपने पिंजरे में चूहे फिर तार पर जा चढ़े थे और धीरे-धीरे चूँ-चूँ कर रहे थे। मकान के नीचे की लहरें खंभों पर हलके-हलके थपेड़े मार रही थीं।

नौजवान डॉक्टर के शरीर में शीत की एक झुरझुरी-सी आई। उसने अँगीठी में कुछ कोयले डाले और आकर बैठ गया। उसने कहा, अब बीस मिनट तक मुझे कुछ नहीं करना।'' उसने देखा, स्त्री के निचले होंठ और चिबुक के सिरे के बीच की ठोड़ी कितनी ज़रा-सी है। लगा, जैसे वह धीरे-धीरे जागी हो—मानो चेतना के किसी गहरे कुएँ से निकलकर बाहर रही हो। सिर ऊँचा उठा, काली-काली धूसर आँखें एक बार कमरे में चारों ओर घूमीं, फिर डॉक्टर पर आकर टिक गईं।

“मैं तो राह देख रही थी,” वह बोली। हाथ यों ही गोद में पास-पास रखे रहे, आपके पास साँप होंगे?

“किसलिए? जी हाँ, हैं तो। उसने अपेक्षाकृत ऊँचे स्वर में कहा, मेरे पास क़रीब दो दर्जन अमेरिकन साँप हैं। उनका ज़हर सूँतकर मैं विषनाशक प्रयोगशालाओं में भेज देता हूँ।

वह लगातार उसे देखे जा रही थी; लेकिन उसकी आँखें जैसे उस पर केंद्रित नहीं हो पा रही थीं। लगता था, जैसे वे उसके चारों ओर एक बड़े दायरे में देख रही हैं—इस तरह उसे चारों ओर से घेरे हुए हैं, “आपके पास नर-साँप होगा? मेरा मतलब अमेरिकन नर-साँप?''

“देखिए, इत्तफाक ही है। मेरा ख़याल है मेरे पास होगा। एक दिन सुबह-सुबह आया तो देखा कि एक बड़ा-सा साँप एक छोटी नागिन के साथ ऊँ-ऊँ...के साथ सहवास कर रहा था। देखिए, मुझे ठीक पता है कि मेरे पास नर-साँप है।

है कहाँ वह?

देखिए, उस खिड़की के पास काँच के पिंजरे के ठीक नीचे।

उसका सिर धीमे से उधर घूम गया, लेकिन उसके दोनों शांत हाथ यों ही निश्चल पड़े रहे। वह फिर उसकी ओर घूमी, “देख सकती हूँ न?

उठकर वह खिड़की के पास रखे काँच के केस के पास गया। रेतीले तले पर एक-दूसरे में गुँथा साँपों का गुट्ठल पड़ा था, लेकिन उनके सिर अलग-अलग साफ़ दिखते थे। जीभें बाहर निकल आईं और एक क्षण लपलपाती रहीं। फिर कंपन के लिए हवा को टटोलती हुई-सी ऊपर-नीचे लहराती रहीं। डॉक्टर फिलिप्स ने घबराकर सिर घुमाया। स्त्री उसके पास ही खड़ी थी। वह कुर्सी से कब उठ आई, डॉक्टर को पता ही नहीं लगा। उसे तो सिर्फ़ खंभों के बीच में पानी की छपक्-छपक् सुनाई दी थी या तारों की जाली पर चूहों का दौड़ना सुनाई दिया था।

स्त्री ने धीरे से पूछा, जिस नर-साँप के बारे में आप बता रहे थे, वह कौन-सा है?

उसने एक पिंजरे के एक कोने में अकेले पड़े मोटे से भूरे-भूरे नाग की ओर इशारा किया, वो वाला। होगा क़रीब पाँच फीट लंबा। टैक्सास प्रांत का है। हमारे प्रशांत सागर के किनारों वाले साँप अकसर छोटे होते हैं। ये सारे चूहे हड़प जाते हैं। जब मुझे दूसरे साँपों को खिलाना होता है तो बाहर निकाल लेता हूँ।

स्त्री झुककर उस भोंडे सूखे-सूखे भोंथरे सिर को घूरती रही। दुहरी जीभ निकल आई और काफ़ी देर तक थरथराती हुई झूलती रही, अच्छा, आपको यक़ीन है कि यह साँप ही है, साँपिन नहीं?

ये अमेरिकन साँप होते बड़े मज़ेदार हैं,” वह स्निग्ध स्वर में बोला, इसके बारे में जो सामान्य सिद्धांत निकालिए ग़लत निकलता है। अमेरिकन साँपों के बारे में निश्चयपूर्वक तो मैं भी नहीं बता पाऊँगा, लेकिन, जी हाँ, यह विश्वास दिलाता हूँ कि है यह नर-साँप ही।

उसकी निगाहें उस चपटे-से सिर से नहीं हिलीं, आप इसे मेरे हाथ बेचेंगे?

बेचूँगा? वह चीख़-सा पड़ा, आपके हाथों बेचूँगा?

“आप तो नमूने की चीज़ बेचते हैं। क्यों, बेचते हैं न?”

ओह हाँ, जी हाँ बेचता हूँ, बेचता तो हूँ।

कितने का है? पाँच डालर का? दस?

अरे, पाँच से ज़्यादा का नहीं है। लेकिन—आपको क्या इन अमेरिकन साँपों के बारे में जानकारी है? कहीं आपको काट-वाट ले!

पल-भर वह उसे देखती रही, मैं इसे साथ नहीं ले जाना चाहती, मैं तो इसे यहीं रहने दूँगी। लेकिन चाहती हूँ, यह मेरा होकर रहे। चाहती हूँ कि मैं यहाँ आकर इसे देखूँ, खिलाऊँ और मानूँ कि यह मेरा है। उसने एक छोटा-सा बटुआ खोलकर पाँच डालर का नोट निकाल लिया, लीजिए यह, अब यह मेरा हुआ।

डॉक्टर फिलिप्स को अब डर लगने लगा, उसे देखने तो आप बिना इसे ख़रीदे भी सकती हैं!

“मैं चाहती हूँ यह मेरा हो।

ओह गॉड! डॉक्टर चिल्ला उठा, बातों में मुझे तो समय का भी ख़याल नहीं रहा,” वह मेज़ की ओर लपका, “तीन मीनट पूरे हो चुके। ख़ैर, कोई ख़ास नुक़सान नहीं हुआ होगा।'' उसने सफ़ेद कपूर के टुकड़े दूसरे परीक्षण-गिलास में घोले और फिर जैसे वह ख़ुद-ब-ख़ुद वापस साँपों के पिंजरे के पास खिंच गया। स्त्री अभी भी उसी साँप को घूरे जा रही थी।

“स्त्री ने पूछा, “खाता क्या है यह?

मैं तो इसे सफ़ेद चूहे खिलाता हूँ। उस तरफ़ वाले पिंजरे के चूहे।

इसे आप दूसरे पिंजरे में रखेंगे? मैं इसे खिलाना चाहती हूँ।

लेकिन इस समय इसे खाने की ज़रूरत ही नहीं है। अपने इस हफ़्ते का चूहा यह हज़रत पहले ही खा चुके हैं। कभी-कभी तो ये लोग तीन-तीन, चार-चार महीनों तक कुछ नहीं खाते। मेरे पास एक साँप था, उसने एक साल से ऊपर तक कुछ भी नहीं खाया।

अपने उसी धीमे उतार-चढ़ावविहीन लहज़े में स्त्री ने पूछा, “आप मुझे चूहा बेचेंगे?

डॉक्टर ने कंधे झटके, “आप अपने साँप को खाते देखना चाहती हैं? अच्छी बात है। मैं खिलाता हूँ। एक चूहे का दाम पच्चीस सेंट होगा। एक तरफ़ से देखें तो साँप का चूहे को खाना साँड़ों की लड़ाई से भी ज़्यादा मज़ेदार दृश्य है और दूसरी तरफ़ से देखें तो यह सिर्फ़ साँप के भोज करने का एक तरीक़ा है। उसके लहज़े में कड़वाहट गई थी। प्राकृतिक कार्यकलाप को जो लोग खेल और क्रीड़ा बना डालते हैं—उनसे उसे नफ़रत थी। वह खिलाड़ी नहीं, जीव-शास्त्री था। ज्ञान के लिए वह हज़ारों जीवों की हत्या कर सकता है, लेकिन आनंद के लिए एक कीड़ा मारना भी उसके लिए मुश्किल है—यह उसके दिमाग़ में पहले से ही एकदम साफ़ था।

स्त्री ने धीरे-धीरे अपना सिर उसकी ओर घुमाया और उसके पतले-पतले होंठों पर मुस्कराहट झलक उठी, मैं अपने साँप को खिलाना चाहती हूँ, वह बोली, मैं इसे दूसरे पिंजरे में रखूँगी। उसने पिंजरे के ऊपर का ढक्कन खोल लिया था। इससे पहले कि डॉक्टर जाने कि वह क्या कर रही है, उसने अपना हाथ भीतर डाल दिया। डॉक्टर एकदम छलाँग लगाकर उसके पास पहुँचा और झट उसे पीछे खींच लिया। ढक्कन धड़ से गिरकर बंद हो गया।

“आपको अक़्ल है या नहीं? उसने ग़ुस्से से पूछा, “हो सकता है, वह आपको जान से मारता; लेकिन आपकी तबीयत ज़रूर अच्छी तरह दुरुस्त कर देता, फिर मेरी लाख कोशिशों के बाद भी आपको तारे नज़र आते रहते।

वह निरुद्विग्न शांत भाव से बोली, तो फिर आप ही इसे दूसरे पिंजरे में रख दीजिए।

डॉ० फिलिप्स को जैसे किसी ने झकझोर डाला। उसे महसूस हुआ कि जो आँखें किसी को भी देखती नहीं लग रही हैं—वह उन्हें सीधे देखने से क़तरा रहा है। उसे लगा कि पिंजरे में चूहा डालना निहायत ही ग़लत है—जैसे इसमें कोई घोर पाप है। लेकिन ऐसा सब उसे क्यों लगा, वह ख़ुद नहीं जान पाया। जब भी किसी ऐरे-ग़ैरे ने चाहा है, उसने पिंजरे में चूहे डाले हैं; लेकिन आज रात, इस विशेष इच्छा ने उसे इतना अस्वस्थ और असंतुलित बना डाला है कि मन ख़राब हो गया है। वह ख़ुद अपने लिए इस सारी बात को समझने की कोशिश करता रहा।

“यों इसे देखना है तो बड़ा अच्छा,” वह बोला, इससे आपको पता चलेगा कि साँप कैसे अपना काम करता है? इससे यह भी लगता है कि आपके दिल में अमेरिकन साँपों के लिए इज़्ज़त है, लेकिन एक बात और भी है, साँप किस तरह अपने शिकार को मारता है, इसे लेकर हज़ारों लोगों के अजब-अजब ख़ौफ़नाक ख़यालात होते हैं। मुझे लगता है, इसका कारण चूहे के साथ अपना तादात्म्य कर लेना है। उस समय चूहा व्यक्ति का अपना प्रतिबिंब हो जाता है। लेकिन एक बार आप इसे अपनी आँखों से देख लें, तो सारी चीज़ बड़ी ही निरपेक्ष और तटस्थ लगेगी। चूहा केवल शुद्ध चूहा रह जाता है और सारा ख़ौफ़ हवा हो जाता है।

उसने दीवार पर लगी एक लंबी-सी छड़ी उठा ली, इसमें एक सरकने वाला चमड़े का फंदा लगा था। जाल खोलकर उसने फंदा बड़े साँप के सिर पर डालकर खींचा और गाँठ को कस दिया। एक कर्णभेदी खड़खड़ाहट सारे कमरे में भर गई। जब उसने साँप को उठाकर खाने वाले पिंजरे में डाला तो छड़ी की मूठ पर साँप का मोटा-सा शरीर बुरी तरह लिपट गया था। कुछ देर तो उस पिंजरे में वह हमला करने को तैयार तना खड़ा रहा, लेकिन फिर धीरे-धीरे उसकी फुफकारें बंद हो गईं। साँप रेंगता हुआ कोने में सरक गया और अपने शरीर को हिंदी के अंक चार की शक्ल में डालकर चुपचाप लेट गया।

‘‘देखा आपने!'' नौजवान डॉक्टर ने समझाया, ये साँप काफ़ी पालतू हैं। मेरे पास तो ये काफ़ी दिनों से हैं। मेरा ख़याल है कि अगर मैं चाहूँ तो इन्हें ही अपना कार्यक्षेत्र बना सकता हूँ, लेकिन जो भी इन अमेरिकन साँपों को अपना कार्यक्षेत्र बनाता है, देर-सबेर इनके दाँतों का शिकार हो जाता है और इस तरह तक़दीर के साथ खिलवाड़ करने का मेरा क़तई इरादा नहीं है। उसने स्त्री को नज़र भरकर देखा। पिंजरे में चूहा डालना उसे अच्छा नहीं लग रहा था—जैसे बड़ी वितृष्णा हो रही हो। स्त्री अब नए पिंजरे के सामने जा पहुँची थी। उसकी काली-काली आँखें फिर साँप के पथरीले सिर को टकटकी लगाए देखे जा रही थीं।

बोली, चूहा डालिए भीतर!

बड़े बेमन से वह चूहों के पिंजरे की ओर बढ़ा। जाने क्यों, उसे चूहे पर बड़ा तरस रहा था। इस तरह तो उसने पहले कभी भी महसूस नहीं किया। तार की जाली के पीछे अपनी ओर उलछते सफ़ेद-सफ़ेद शरीरों वाले चूहों के खचपच-खचपच करते ढेर को उसकी आँखें टटोलती-सी देखती रहीं। 'कौन-सा हो?' उसने मन ही मन कहा, 'इनमें से कौन-सा चूहा हो?' अचानक ग़ुस्से से वह स्त्री की तरफ़ घूम पड़ा, आप से कहें तो चूहे की बजाय एक बिल्ली रख दूँ भीतर? तब आप देखेंगी कि सचमुच की लड़ाई क्या होती है? बिल्ली, हो सकता है जीत भी जाए, लेकिन अगर वह जीत गई तो हो सकता है साँप का काम तमाम कर डाले। आप चाहें तो मैं आपके हाथ एक बिल्ली बेच सकता हूँ।

स्त्री ने उसकी ओर मुड़कर देखा तक नहीं, एक चूहा रख दीजिए भीतर,” वह बोली, ‘‘मैं तो इसे खाना खिलाना चाहती हूँ।

डॉक्टर ने चूहों का पिंज़रा खोला और अपना हाथ भीतर ठूँस दिया। उँगलियों की पकड़ में पूँछ गई तो उसने एक लाल-लाल आँखों वाले गोल-मटोल चूहे को खींचकर ऊपर उठा लिया। पहले तो वह उसकी उँगलियों को काटने की कोशिश में छटपटाया, पर फिर हारकर चारों हाथ-पाँव फैलाकर चुपचाप बेजान की तरह पूँछ से लटका रहा। डॉक्टर तेज़ी से कमरा पार करके आया, खाने वाले पिंजरे का ढक्कन खोला और चूहे को फ़र्श पर साँप के ऊपर फेंक दिया।

लीजिए, देखिए अब। उसने लगभग चीख़कर कहा।

चूहा पाँवों के बल गिरा, चारों तरफ़ घूमा और अपनी सुर्ख़ नंगी पूँछ की तरफ़ सूँ-सूँ करता रहा। फिर नथुने फुलाकर सूँघते हुए वह निहायत तटस्थ भाव से रेत पर दौड़ लगाने लगा। कमरे में एकदम स्तब्धता छाई थी। डॉक्टर फिलिप्स की समझ में नहीं आया कि नीचे के खंभों में पानी ही उसाँसें ले रहा है या स्त्री की साँसें गहरी-गहरी चलने लगी हैं। एक कनखी से उसने देखा, स्त्री का शरीर ऐंठ और तन-सा गया है।

बहुत ही आहिस्ता और धीरे-धीरे साँप आगे सरका। जीभ बाहर और भीतर लपलपाने लगी। सारी हरकत इतनी नामालूम, आहिस्ता और धीरे-धीरे हो रही थी कि लगता ही नहीं था कि साँप के भीतर कोई हरकत हो भी रही है। पिंजरे के दूसरे सिरे पर चूहा आत्माभिमान से तना हुआ-सा बैठ गया था और सिर झुकाकर अपनी छाती के मुलायम, महीन-महीन बालों को चाटने लगा था। अपनी गर्दन को दृढ़तापूर्वक रोमन अक्षर 'एस' की शक्ल में रखे हुए साँप आगे सरक रहा था।

चुप्पी नौजवान के सिर पर मानो धक-धक बज रही थी। उसे लगा, जैसे ख़ून उसके शरीर में सन्नाने लगा है। उसने ऊँचे स्वर में कहा, देखिए, साँप हमला करने के लिए सिर के मरोड़ को हमेशा तैयार रखता है। ये अमेरिकन साँप बड़े ही चौकन्ने होते हैं। कहना चाहिए बड़े ही डरपोक जीव होते हैं। यह सारी कार्यवाही बेहद नाज़ुक होती है। जैसी कुशलता और चतुराई से सर्जन अपना काम करता है, ठीक उसी तरह साँप का भोजन भी बड़ी कुशलता और सावधानी से होता है। सर्जन जानता है कि किस जगह कौन औजार काम आएगा—वहाँ वह इस या उस औजार को प्रयोग करने का जोख़िम नहीं उठा सकता।

अब तक साँप पिंजरे के बीचोबीच सरक आया था। चूहे ने सिर उठाया, साँप को देखा और फिर उसी तटस्थता और इत्मीनान से अपनी छाती को चाटने लगा।

दुनिया की यह सबसे ख़ूबसूरत और आकर्षक चीज़ है,” नौजवान ने बताया। ख़ून उसकी नसों में बजने लगा था, साथ ही यह दुनिया की सबसे ख़ौफ़नाक चीज़ भी है।

साँप अब पास गया था। अब उसका सिर रेत से कुछ इंच ऊँचा उठ आया था। दूरी का अंदाज़ लगाता हुआ सिर घात लगाए हुए आगे-पीछे झूम रहा था। डॉक्टर फिलिप्स ने फिर स्त्री की ओर निगाहें घुमाईं। उत्तेजना और भय से वह सिहर उठा। वह अब भी झूम रही थी...ज़्यादा नहीं, लेकिन बहुत ही हलके-हलके बेमालूम-सी, सिर्फ़ लगती थी।

चूहे ने फिर सिर उठाया और साँप को देखा। वह चारों पाँवों के बल गिरा और यों ही सिर साँप की तरफ़ किए-किए पीछे सरका—कि तभी खट...एक बिजली-सी कौंधी। कुछ भी देख पाना असंभव था। जैसे किसी अदृश्य झपाटे के नीचे गया हो, चूहा इस तरह चिंचिया उठा। साँप तेज़ी से फिर अपने उसी पहले वाले कोने में लौट आया और फिर वहीं लेट गया—हाँ, उसकी जीभ अभी भी लगातार लपलपा रही थी।

कमाल है! डॉक्टर फिलिप्स चिल्ला उठा, ठीक कंधों की हड्डियों के बीचोबीच चोट की है। दाँत क़रीब-क़रीब दिल तक पहुँच गए होंगे।

छोटी-सफ़ेद धौंकनी की तरह चूहा अभी भी खड़ा-खड़ा हाँफ रहा था। सहसा वह एकदम ऊपर उछला और करवट के बल गिर पड़ा। एक सेकेंड उसके पाँव ऐंठने से हवा में छटपटाते रहे और फिर प्राण-पखेरू उड़ गए।

स्त्री ने मुक्ति की साँस छोड़कर बदन ढीला किया, जैसे नींद में शरीर ढीला छोड़ दिया हो।

क्यों? इस बार नौजवान डॉक्टर ने पूछा, यह मानसिक उद्वेग के सागर में गहरे स्नान करने जैसा ही लगता है न?

स्त्री ने अपनी धुँधली-धुँधली आँखें उसकी ओर घुमाईं, अब क्या यह इसे खा जाएगा? उसने सवाल किया।

बिलकुल खाएगा। केवल खिलवाड़ के लिए तो इसने इसे नहीं मारा। मारा इसलिए है कि भूखा था। स्त्री के मुँह के सिरों पर फिर हल्की-सी ऐंठन आई। वह फिर साँप को देखने लगी, मैं इसे खाते हुए देखना चाहती हूँ।

साँप फिर अपना कोना छोड़कर बाहर निकल आया। अब उसकी गर्दन में वह हमला करने वाली मरोड़न नहीं थी। लेकिन वह जैसे फूँक-फूँककर उधर सरक रहा था—मान लो, अगर चूहा हमला कर भी दे तो वह उछलकर पीछे जाएगा। अपनी भोंथरी नाक से उसने चूहे को कोंधा और फिर पीछे सिमट आया। उसे संतोष हो गया कि चूहा मर गया है। फिर सिर से लेकर पूँछ तक साँप ने उसके शरीर को अपनी ठोड़ी से सहलाया। लगा जैसे वह शरीर का जायज़ा लेता हुआ प्यार से उसे चूम रहा हो। आख़िरकार उसने अपना मुँह खोला और अपने जबड़ों के सिरों पर जीभ फिराई।

डॉ० फिलिप्स अपनी सारी इच्छाशक्ति लगाकर उस स्त्री की ओर जाने से अपने ध्यान को रोके था। उसने मन ही मन कहा, 'अगर यह भी अपना मुँह खोले होगी तो मेरा भी दिमाग़ ख़राब हो जाएगा। मुझे डर लगने लगेगा’ अपनी निगाहें उधर से हटाए रखने में उसे कैसे सफलता मिली, यह वही जानता था।

साँप ने अपना जबड़ा चूहे के सिर पर अड़ाया और रुक-रुककर धीरे-धीरे लकवे के झटकों की तरह चूहे को निगलने लगा। जबड़े फँसे तो सारा गला आगे सिमट आया। जबड़ों ने फिर दुबारा अपनी पकड़ ठीक की।

घूमकर डॉक्टर फिलिप्स अपनी काम करने की मेज़ पर लौट आया। तल्ख़ी से बोला, आपके कारण मेरी प्रक्रिया-माला की एक कड़ी यों ही निकल गई न? अब यह सारा सैट कभी पूरा नहीं होगा। एक परीक्षण गिलास को उसने कम शक्ति वाले अन्वीक्षण-यंत्र के नीचे रखकर उसे देखा। फिर झल्लाकर उसने सारी तश्तरियों के पदार्थ को बर्तन धोने की नाँद में उलट दिया। लहरें अब कम हो गई थीं, इसलिए अब फ़र्श के पार से सीला-सीला भभका ही पा रहा था। नौजवान डॉक्टर ने अपने पाँवों के पास ही एक कमानी वाले दरवाज़े का पल्ला उठाया और सारी तारक मछलियाँ नीचे समुद्र के काले-काले पानी में उलट दीं। पालने की सूली पर बढ़ी रोशनी में उपहास से मुँह बिराती, दाँत चमकाती हुई बिल्ली के पास आकर वह कुछ देर रुका। नली द्वारा प्रविष्ट होने वाले द्रव के कारण उसका शरीर फूलकर कुप्पा हो गया था। उसने नली बंद की, सुई निकाली और नस को कसकर बाँध दिया।

“आप थोड़ी-सी कॉफ़ी पिएँगी क्या? उसने पूछा।

नहीं धन्यवाद! मुझे अभी जल्दी ही चले जाना है।

साँप के पिंजरे के पास वह खड़ी थी। डॉक्टर उसके पास गया। चूहा निगला जा चुका था—बस, साँप के मुँह के बाहर उसकी एक इंच लाल-लाल पूँछ इस तरह निकली हुई थी, मानो किसी को चिढ़ाने को जीभ निकाल रखी हो। गले ने फिर भीतर की तरफ़ साँस खींची और पूँछ भी ग़ायब हो गई। जबड़े अपने-अपने ख़ानों में सटकर बैठ गए और वह बड़ा साँप अलसाया-सा रेंगकर कोने में गया। बड़ा-सा चार का अंक बनाया और रेत पर अपना सिर डालकर सो गया।

इसे तो अब नींद गई,” स्त्री ने कहा, अब मैं जा रही हूँ। लेकिन मैं थोड़े-थोड़े समय बाद आकर अपने साँप को खाना खिलाया करूँगी। चूहों के पैसे दे दूँगी, लेकिन इसे जी भरकर खिलाना चाहती हूँ और फिर किसी समय अपने साथ ले जाऊँगी। एक क्षण को अपने धूसर-धूमिल सपनों से उसकी आँखें पार निकल आईं, याद रखिए, यह मेरा है। इसका ज़हर मत निकालिएगा। मेरी इच्छा है, ज़हर इसमें ही रहे। अच्छा नमस्कार! तेज़ी से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और बाहर चली गई। डॉक्टर ने उसके जाते क़दमों की आवाज़ को सीढ़ियों पर सुना, लेकिन फिर नीचे के फ़र्श पर उसके चलने की आवाज़ सुनाई नहीं दी।

डॉक्टर फिलिप्स ने एक कुर्सी घुमाकर अपनी ओर की और साँप के पिंजरे के सामने ही बैठ गया। उस निश्चल साँप की ओर निगाहें टिकाए हुए वह अपने विचारों की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करता रहा। मन ही मन बोला-'मनोवैज्ञानिक यौन-प्रतीकों के बारे में मैंने इतना कुछ पढ़ा है; लेकिन वह सब इसे समझने में मदद करता नहीं लगता। शायद मैं सबसे बहुत ज़्यादा अलग पड़ गया हूँ। हो सकता है, मैं इस साँप को मार डालूँ। काश, मैं जान पाता! लेकिन इस सबको जानने के लिए मैं प्रार्थना करने किसी भगवान् के पास नहीं जाऊँगा।'

हफ़्तों वह उसके लौटने की राह देखता रहा। उसने निश्चय किया, इस बार जब वह आएगी तो मैं उसे अकेला छोड़ बाहर चला जाऊँगा। उस कमबख़्त को दुबारा देखूँगा ही नहीं।

मगर वह फिर कभी वापस नहीं आई। वह जब भी बस्ती में बाहर घूमने जाता तो महीनों उसे तलाश करता। कई बार तो किसी भी लंबी-सी स्त्री को वही समझकर उसके पीछे हो लेता, लेकिन वह स्त्री उसे फिर कभी दिखाई नहीं दी।

स्रोत :
  • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 220-232)
  • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
  • रचनाकार : जॉन अर्नेस्ट स्टैनबेक
  • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
  • संस्करण : 2008

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