महातीर्थ

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प्रेमचंद

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और अधिकप्रेमचंद

    एक

    मुंशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई रखने का ख़र्च उठा सकते थे, लेकिन एक तो बच्चे की सेवा-सुश्रुषा की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों में हेठे बनकर रहने का अपमान इस ख़र्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसके गले का हार बना रहता था, इसलिए दाई और भी ज़रूरी मालूम होती थी। पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह मुरौवत के वश दाई को जवाब देने का साहस नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उसके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। अपना काम बड़ी मुस्तैदी और परिश्रम से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और व्यर्थ खुचड़ निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के विरुद्ध था। पर सुखदा इस संबंध में पति से सहमत थी, उसे संदेह था की दाई हमें लूट लेती है। जब दाई बाज़ार से लौटती तो वह दालान में छिपी रहती कि देखूँ आटा कहीं छिपाकर तो नहीं रख देती, लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लाई हुई चीज़ों को घंटों देखती, पूछताछ करती, बार-बार पूछती—इतना ही क्यों? क्या भाव है? क्या इतना महँगा हो गया? दाई कभी तो इन संदेहात्मक प्रश्नों का उत्तर नम्रतापूर्वक देती, किंतु जब कभी बहु जी ज़्यादा तेज़ हो जाती, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। शपतें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। वाद-विवाद में घंटों लग जाते थे। प्रायः नित्य ही यही दशा रहती और प्रतिदिन यह नाटक दाई के अश्रुपात के साथ समाप्त होता था। दाई का इतनी सख़्तियाँ झेलकर पड़े रहना सुखदा के संदेह को और भी पुष्ट करता था। उसे कभी विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया केवल बच्चे के प्रेमवश पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतनी बाल-प्रेमशीला नहीं समझती थी।

    दो

    संयोग से एक दिन दाई को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गई। वहाँ दो कुँजड़िनों में देवासुर संग्राम रचा था। उनका चित्रमय हाव-भाव, उनका आग्नेय तर्क-वितर्क, उनके कटाक्ष और व्यंग्य सब अनुपम थे। विष के दो नद थे या ज्वाला के दो पर्वत, जो दोनों तरफ़ से उमड़कर आपस में टकरा गए! वाक्य का क्या प्रवाह था, कैसी विचित्र विवेचना! उनका शब्द बाहुल्य, उनकी मार्मिक विचारशीलता, उनके अलंकृत शब्द-विन्यास और उपमाओं की नवीनता पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति विस्मयजनक थी। दर्शकों की एक ख़ासी भीड़ लगी थी। वे लाज को लज्जित करने वाले इशारे, वे अश्लील शब्द जिनसे मलिनता के भी कान खड़े होते, सेकड़ों रसिकजनों के लिए मनोरंजन की सामग्री बने हुए थे।

    दाई भी खड़ी हो गई कि देखूँ क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान रहा। एकाएक जब नौ के घंटे की आवाज़ कान में आई तो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली।

    सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही त्योरी बदलकर बोली—क्या बाज़ार में खो गई थी?

    दाई विनयपूर्ण भाव से बोली—एक जान-पहचान की महरी से भेंट हो गई। वह बातें करने लगी।

    सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़कर बोली—यहाँ दफ़्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है।

    परंतु दाई ने इस समय दबने में ही कुशल समझी, बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़ककर कहा—रहने दो, तुम्हारे बिना वह व्याकुल नहीं हुआ जाता।

    दाई ने इस आज्ञा का मानना आवश्यक नहीं समझा। बहूजी का क्रोध ठंडा करने के लिए इससे उपयोगी और कोई और उपाय सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाए लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाज़े की तरफ़ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोदी से छीन कर बोली—तुम्हारी ये धूर्तता बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइए! यहाँ जी भर गया।

    दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच ऐसा मज़बूत संबंध था, जिसे साधारण झटके तोड़ सकते थे। यही कारण था कि सुखदा के कटु वचनों को सुनकर भी उसे यह विश्वास होता था कि मुझे निकालने पर प्रस्तुत है, पर सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कही और रुद्र को ऐसी निर्दयता से छीन लिया कि दाई से सहन हो सका। बोली—बहूजी मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घंटे की देरी हुई होगी। इसी पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ़ क्यों नहीं कह देती कि दूसरा दरवाज़ा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। मज़दूरी का अकाल थोड़े ही है!

    सुखदा ने कहा—तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है। तुम्हारे-जैसी लौंडियें गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं!

    दाई ने जवाब दिया—हाँ, नारायण आपको कुशल से रक्खे। लौंडियें और दाइयाँ आपको बहुत मिलेंगी। मुझ से जो कुछ अपराध हुआ हो, क्षमा कीजिएगा। मैं जाती हूँ।

    सुखदा—जाकर मरदाने में अपना हिसाब कर लो।

    दाई—मेरी तरफ़ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मँगवा दीजिएगा।

    इतने में इंद्रमणि भी बाहर गए। पूछा—क्या है क्या?

    दाई ने कहा—कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दे दिया है, घर जाती हूँ।

    इंद्रमणि गृहस्थी के जंजाल से इस तरह बचते थे, जैसे कोई नंगे पैरवाला मनुष्य काँटों से बचे। उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों में पैर रखने की हिम्मत थी। खिन्न होकर बोले—बात क्या हुई?

    सुखदा ने कहा—कुछ नहीं। अपनी इच्छा। नहीं जी चाहता, नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गए।

    इंद्रमणि ने झुँझलाकर कहा—तुम्हें बैठे-बैठाए एक-न-एक खुचड़ सूझती रहती है।

    सुखदा ने तिनक कर कहा, मुझे तो इसका रोग है क्या करूँ स्वाभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे पास यहाँ ज़रूरत नहीं।

    तीन

    दाई घर से निकली तो आँखें डबडबाई हुई थीं। हृदय रुद्रमणि के लिए तड़प रहा था। जी चाहता था कि बालक को लेकर प्यार से चूम लूँ; पर यह अभिलाषा लिए ही उसे घर से बाहर निकलना था।

    रुद्रमणि दाई के पीछे-पीछे दरवाज़े तक आया; पर दाई ने जब दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया, तो वह मचल कर ज़मीन पर लेट गया और अन्ना-अन्ना कहकर रोने लगा। सुखदा ने पुचकारा, प्यार किया, गोद में लेने की कोशिश की, मिठाई देने का लालच दिया, मेला दिखाने का वादा किया, इससे जब काम चला तो बंदर, सिपाही, लूलू, और हौआ की धमकी दी। पर रुद्र ने वह रौद्र भाव धारण किया, कि किसी तरह चुप हुआ। यहाँ तक कि सुखदा को क्रोध गया, बच्चे को वहीं छोड़ दिया और घर के धंधे में लग गई। रोते-रोते रुद्र का मुँह और गाल लाल हो गए, आँखें सूज गई। निदान वह वहीं ज़मीन पर सिसकते-सिसकते सो गया।

    सुखदा ने समझा था कि बच्चा थोड़ी देर में रो-धोकर चुप हो जाएगा; पर रुद्र ने जागते ही अन्ना की रट लगाई। तीन बजे इंद्रमणि दफ़्तर से आए और बच्चे की यह दशा देखी तो स्त्री की तरफ़ पर कुपित नेत्रों से देखकर उसे गोद में उठा लिया और बहलाने लगे। जब अंत में रुद्र को यह विश्वास हो गया कि दाई मिठाई लेने गई है तो उसे संतोष हुआ।

    परंतु शाम होते ही उसने फिर चीख़ना शुरू किया—अन्ना मिठाई ला।

    इस तरह दो-तीन दिन बीत गए। रुद्र का अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम था। वह शांत प्रकृति कुत्ता जो उसकी गोद से एक क्षण के लिए भी उतरता था, वह मौन व्रतधारी बिल्ली जिसे ताख पर देखकर वह ख़ुशी से फूला समाता था, वह पंखहीन चिड़िया जिस पर वह जान देता था, सब उसके चित्त से उतर गए। वह उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखता। अन्ना जैसी जीती जागती, प्यार करने वाली, गोद में लेकर घुमाने वाली, थपक-थपक कर सुलाने वाली, गा-गाकर ख़ुश करने वाली चीज़ का स्थान इन निर्जीव चीज़ों से पूरा हो सकता था। वह अकसर सोते-सोते चौंक पड़ता और अन्ना-अन्ना पुकार कर हाथों से इशारा करता, मानों उसे बुला रहा है। अन्ना की ख़ाली कोठरी में घंटों बैठा रहता। उसे आशा होती कि अन्ना यहाँ आती होगी। इस कोठारी का दरवाज़ा खुलते सुनता तो “अन्ना! अन्ना” कह कर दौड़ता। समझता की अन्ना गई। उसका भरा हुआ शरीर घुल गया, गुलाब-जैसा चेहरा सूख गया माँ और बाप उसकी मोहनी हँसी के लिए तरस कर रह जाते थे। यदि बहुत गुदगुदाने या छेड़ने से हँसता, केवल दिल रखने लिए हँस रहा है। उसे अब दूध से प्रेम नहीं था, मिश्री से, मेवे से, मीठे बिस्कुट से, ताज़ी इमरतियाँ में से। उनमे मज़ा तब था, जब अन्ना अपने हाथों से खिलाती थी। अब उनमें मज़ा नहीं था। दो साल का लहलहाता हुआ सुंदर पौधा मुर्झा गया। वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गर्मी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूखकर काँटा हो गया। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ती, अपनी मूर्खता पर पछताती। इंद्रमणि जो शांत प्रिय आदमी थे, अब बालक को गोद से अलग करते थे, उसे रोज़ हवा खिलाने ले जाते थे। नित्य नए खिलौने लाते थे। पर मुर्झाया हुआ पौधा किसी तरह भी पनपता था। दाई उसके लिए संसार का सूर्य थी उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाश से वंचित रहकर हरियाली की बाहर कैसे दिखता? दाई के बिना उसे अब चारों ओर अँधेरा और सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गई थी; पर रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुँह छिपा लेता था मानों वह कोई डाईन या चुड़ैल है।

    प्रत्यक्ष रूप में दाई को देखकर वह रुद्र अब उसकी कल्पना में मग्न रहता था। वहाँ उसकी अन्ना चलती फिरती दिखाई देती थी। उसकी वही गोद थी, वही स्नेह, वही प्यारी- प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मज़ेदार मिठाईयाँ, वही सुहावना-संसार, वही आनंदमय जीवन। अकेले बैठकर कल्पित अन्ना से बातें करता—अन्ना कुत्ता भूंके। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना उजला-उजला घोड़ा दौड़े। सवेरा होते ही लोटा लेकर दाई की कोठरी में जाता और कहता—अन्ना, पानी। दूध का गिलास लेकर कोठरी में रख आता और कहता—अन्ना दूध पिला। अपनी चारपाई पर तकिया रखकर चादर से ढाँक देता और कहता—अन्ना सोती है। सुखदा जब खाने बैठती तो कटोरे उठा-उठाकर अन्ना की कोठरी में ले जाता और कहता अन्ना खाना खाएगी। अन्ना अब उसके लिए एक स्वर्ग की वस्तु थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा थी। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बालकों की चपलता और सजीवता की जगह एक निराशाजनक, धैर्य का आनंद-विहीन शिथिलता दिखाई देने लगी। इस तरह तीन हफ़्ते गुज़र गए। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठंडे झोंके। बुख़ार और ज़ुकाम का ज़ोर था। रुद्र की दुर्बलता इस ऋतु-परिवर्तन को बर्दाश्त कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुर्ता पहनाए रखती थी। उसे पानी के पास नहीं जाने देती। नंगे पैर एक क़दम नहीं चलने देती; पर सर्दी लग ही गई। रुद्र को खाँसी और बुख़ार आने लगा।

    चार

    प्रभात का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बंद किए पड़ा था। डॉक्टरों का इलाज निष्फल हुआ। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल की मालिश कर रही थी और इंद्रमणि विषाद-मूर्ति बने हुए करुणापूर्ण आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत कम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरह से चिड़-सी हो गई थी। वह रुद्र की बीमारी का एकमात्र कारण उसी को समझते थे। वह उनकी दृष्टि में बहुत नीच स्वभाव की स्त्री थी। सुखदा ने डरते-डरते कहा, आज बड़े हकीम साहब को बुला लेते। शायद उसकी दवा से फ़ायदा हो।

    इंद्रमणि ने काली घटाओं की ओर देखकर रुखाई से जवाब दिया—बड़े हकीम नहीं, धन्वन्तरि भी आवें, तो भी उसे कोई फ़ायदा होगा।

    सुखदा ने कहा—तो क्या अब किसी की दवा होगी?

    इंद्रमणि—बस इसकी एक ही दवा है और अलभ्य है।

    सुखदा—तुम्हें तो बस, एक ही धुन सवार है। क्या बुढ़िया आकर अमृत पिला देगी?

    इंद्रमणि—यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझी, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा।

    सुखदा—चुप भी रहो, क्या अशुभ मुँह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनानी है तो, बाहर चले जाओ।

    इंद्रमणि—मैं तो जाता हूँ। पर याद रखो यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उनसे विनती और प्रार्थना करो, क्षमा माँगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसकी दया के आधीन है।

    सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू जारी थे।

    इंद्रमणि ने पूछा—क्या मर्ज़ी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ?

    सुखदा—तुम क्यों जाओगे, मैं आप ही चली जाऊँगी।

    इंद्रमणि—नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। जाने तुम्हारी ज़बान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी हो, तो आवे।

    सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली—हाँ,और क्या मुझे बच्चे की बीमारी का शौक़ थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुम से कहा नहीं, पर मेरे हृदय में यह बात बार-बार उठी है। यदि मुझे दाई के मकान का पूरा पता मालूम होता, तो मैं कभी की उसे मना लाई होती। वह मुझसे कितनी भी नाराज़ हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उसके पैरों पड़ने को तैयार हूँ। उसके पैरों को आँसूओं से भिगोऊँगी और जिस तरह राज़ी हो राज़ी करूँगी।

    सुखदा ने बहुत धैर्य धर कर यह बातें कही, परंतु उमड़ते हुए आँसू अब रुक सके। इंद्रमणि ने स्त्री की ओर सहानुभूतिपूर्वक देखा और लज्जित हो बोले—मैं तुम्हारा जाना उचित नहीं समझता। मैं ख़ुद ही जाता हूँ।

    पाँच

    कैलासी संसार में अकेली थी, किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था, परंतु धीरे-धीरे सब पंक्तियाँ गिर गई। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गई और अब वही एक सूखी हुई टहनी, उस हरे-भरे पेड़ का चिह्न रह गई थी।

    परंतु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी-भरी पत्तियाँ निकल आई थी। वह जीवन, जो अब तक निरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी थी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था।

    कैलासी रुद्र-की-भोली बातों पर निछावर हो गई, पर स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के हृदय पर द्वेष हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिपाकर मिठाइयाँ लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती की बच्चा ख़ूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज़ नहीं खिलाती कि उसे नज़र लग जाएगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नज़र से बचाने के लिए तावीज़ और गड़े लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमे स्वार्थ की गंध भी थी।

    इस घर से निकल कर कैलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में एकाएक बिजली के लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूँज रही थी। उसे अपना घर काटे खाता था उस काल कोठरी में दम घुट जाता था।

    रात ज्यों-त्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। एकाएक बाहर ताज़े हलुवे की आवाज़ सुनकर बड़ी फुर्ती से निकल आई। तब तक याद गया, आज हलुवा कौन खाएगा? आज गोद में बैठकर कौन चहकेगा? मान सुनने के लिए जो हलुवा खाते समय रुद्र की होठों से, और शरीर के एक-एक अंग से बरसता था—हृदय तड़प उठा। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चलूँ, रुद्र को देख आऊँ, पर आधे रास्ते से लौट गई।

    रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण-भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पड़ता, रुद्र डंडे का घोड़ा दबाए चला आता है, पड़ोसिनों के पास जाती, तो रुद्र की ही चर्चा करती। रुद्र उस के दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण कुव्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज़ इरादा करती थी कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाज़ार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती। घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी भी दो-चार क़दम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौनसा मुँह लेकर जाऊँ? जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुँह दिखाऊँ? कभी सोचती, यदि रुद्र हमें पहचाने तो? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या? नहीं दाई से हिल-मिल गया होगा। यह ख़्याल उसके पैरों पर ज़ंजीर का काम कर जाता था।

    इस तरह दो हफ़्ते बीत गए। कैलासी का जी उचाट रहता, जैसे उसे कोई लंबी यात्रा करनी हो। घर की चीज़ें जहाँ की तहाँ पड़ी रहती, खाने की सुधि थी, पहनने की। रात-दिन रुद्र ही के ध्यान में डूबी रहती थी। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियाँ करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी जो पिंजड़े से निकलकर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया, यात्रा के लिए तैयार हो गई।

    छह

    आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं और हल्की-हलकी फुहारें पड़ रही थी। देहली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों में बैठे थे, कुछ अपने घर वालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ हलचल-सी मची थी। संसार माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी। कोई स्त्री को सावधान कर रहा था कि धान कट जावे तो ताल वाले खेत में मटर बो देना और बाग़ के पास गेहूँ। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था—असामियों पर बक़ाया लगान की नालिश में देर करना और दो रुपए सैंकड़ा सूद ज़रूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देरी हो, तो ख़ुद चले जाइएगा और चलतू माल लीजिएगा, नहीं तो रुपया फँस जाएगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु मनुष्य भी थे जो ध्यानमग्न दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप आसमान की ओर निहार रहे थे, या माला फेरने में तलीन थे। कैलासी भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी—इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिंता नहीं छोड़ती। वही बनिज-व्यापार लेन-देन की चर्चा। रुद्र इस समय यहाँ होता, तो बहुत रोता मेरी गोद से कभी उतरता। लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊँगी। है ईश्वर! किसी तरह गाड़ी चले। गर्मी के मारे जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई है किंतु बरसने का नाम नहीं लेती। मालूम नहीं, यह रेल वाले क्यों देर कर रहे हैं। झूठमूठ इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान में जान आए। एकाएक उसने इंद्रमणि को बाइसिकिल लिए प्लेटफ़ार्म पर आते देखा। उनका चेहरा उतरा हुआ था और कपड़े पसीनों से तर थे। वह गाड़ियों में झाँकने लगे। कैलासी केवल यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूँ, गाड़ी से बाहर निकल आई। इंद्रमणि उसे देखते ही लपककर क़रीब गए और बोले—क्यों कैलासी; तुम भी यात्रा को चलीं?

    कैलासी ने सगर्व दीनता से उत्तर दिया—हाँ, यहाँ क्या करूँ, ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं, मालूम नहीं कब आँखें बंद हो जाएँ। परमात्मा के यहाँ मुँह दिखाने का कोई उपाय होना चाहिए। रुद्र बाबू अच्छी तरह हैं?

    इंद्रमणि—अब जा रही हो। रुद्र का हाल पूछकर क्या करोगी? उसे आशीर्वाद देती रहना।

    कैलासी की छाती धड़कने लगी। घबरा कर बोली—उनका जी अच्छा नहीं है क्या?

    इंद्रमणि—वह तो उसी दिन से बीमार है, जिस दिन तुम वहाँ से निकलीं। दो हफ़्ते तक अन्ना-अन्ना की रट लगाई। अब एक हफ़्ते से खाँसी और बुख़ार में पड़ा है। सारी दवाइयाँ करके हार गया, कुछ फ़ायदा हुआ। मैंने सोचा था कि चलकर तुम्हारी अनुनय-विनय करके लिवा लाऊँगा। क्या जानें तुम्हें देखकर उसकी तबियत संभल जाए; पर तुम्हारे घर गया, तो मालूम हुआ कि तुम यात्रा करने जा रही हो। अब किस मुँह से चलने को कहूँ? तुम्हारे साथ सलूक ही कौन-सा अच्छा किया, जो इतना साहस करूँ। फिर पुण्य-कार्य में विघ्न डालने का भी डर है। जाओ, उसका ईश्वर मालिक है। आयु शेष है तो बच ही जाएगा। अन्यथा ईश्वरीय गति में किसी का क्या वश!

    कैलासी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सामने की चीज़ें तैरती हुई मालूम होने लगीं। हृदयभावी अशुभ की आशंका से दहल गया। हृदय से निकल पड़ा—हे ईश्वर, मेरे रुद्र का बाल बाँका हो। प्रेम से गला भर आया। विचार किया मैं कैसी कठोरहृदया हूँ। प्यार बच्चा रो-रोकर हलकान हो गया और मैं उसे देखने तक नहीं गई। सुखदा का स्वभाव अच्छा नहीं, सही; किंतु रुद्र ने मेरा क्या बिगाड़ा था कि मैंने माँ का बदला बेटे से लिया! ईश्वर मेरा अपराध क्षमा करे। प्यारा रुद्र मेरे लिए हुड़क रहा है। (इस ख़्याल से कैलासी का कलेजा मसोस उठा था और आँखों से आँसू बह निकले थे) मुझे क्या मालूम था कि उसे मुझसे इतना प्रेम है। नहीं मालूम बच्चे की क्या दशा है? भयातुर हो बोली—दूध तो पीते हैं न?

    इंद्रमणि—तुम दूध पीने को कहती हो, उसने दो दिन से आँख नहीं खोलीं।

    कैलासी—हे मेरे परमात्मा! अरे कुली! कुली! बेटा, आकर मेरा सामान गाड़ी से उतार दे। अब मुझे तीर्थ जाना नहीं सूझता। हाँ बेटा, जल्दी कर; बाबू जी, देखो कोई इक्का हो तो ठीक कर लो।

    इक्का रवाना हुआ। सामने सड़क पर बग्घियाँ खड़ीं थीं। घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। कैलासी बार-बार झुँझलाती थी और इक्कावान से कहती थी—बेटा! जल्दी कर, मैं तुझे कुछ ज़्यादा दे दूँगी। रास्ते में मुसाफ़िरों की भीड़ देखकर उसे क्रोध आता था। उसका जी चाहता था कि घोड़ों के पर लग जाते; लेकिन इंद्रमणि का मकान क़रीब गया था तो कैलासी का हृदय उछलने लगा। बार-बार हृदय से रुद्र के लिए आशीर्वाद निकलने लगा, ईश्वर करे सब कुछ कुशल-मंगल हो। इक्का इंद्रमणि की गली की ओर मुड़ा। अकस्मात् कैलासी के मकान में रोने की ध्वनि पड़ी। कलेजा मुँह को गया। सिर में चक्कर गया। मालूम हुआ नदी में डूब जाती हूँ। जी चाहा कि इक्के पर से कूद पडूँ; पर थोड़ी देर में मालूम हुआ कि कोई स्त्री मैके से विदा हो रही है संतोष हुआ। अंत में इंद्रमणि का मकान पहुँचा। कैलासी ने डरते-डरते दरवाज़े की तरफ़ ताका। जैसे कोई घर से भागा हुआ अनाथ लड़का शाम को भूखा-प्यासा घर आए, दरवाज़े की ओर सटकी हुई आँखों से देखे कि कोई बैठा तो नहीं। दरवाज़े पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैठा सुरती मल रहा था। कैलासी को ज़रा ढारस हुआ। घर में बैठी, तो देखा कि नहीं, दाई पुलटिस पका रही है? हृदय में बल का संचार हुआ। सुखदा के कमरे में गई, तो उसका हृदय गर्मी के मध्याह्नकाल के सदृश काँप रहा था। सुखदा रुद्र को गोद में लिए दरवाज़े की ओर एकटक ताक रही थी। शोक और करुणा की मूर्ती बनी थी।

    कैलासी ने सुखदा से कुछ नहीं पूछा। रुद्र को उसकी गोद से लिया और उसकी तरफ़ सजल नयनों से देखकर कहा—बेटा रुद्र! आँखें खोलो।

    रुद्र ने आँखें खोली। क्षणभर दाई को चुपचाप देखता रहा और तब एकाएक दाई के गले से लिपट कर बोला—अन्ना आई! अन्ना आई!!

    रुद्र का पीला मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, जैसे बुझते हुए दीपक में तेल पड़ जाए। ऐसा मालूम हुआ मानो वह कुछ बढ़ गया है। एक हफ़्ता बीत गया। प्रातः काल का समय था। रुद्र आँगन में खेल रहा था। इंद्रमणि ने बाहर आकर उसे गोद में उठा लिया और प्यार से बोले—तुम्हारी अन्ना को मारकर भगा दें।

    रुद्र ने मुँह बनाकर कहा—नहीं रोएगी।

    कैलासी बोली—क्यों बेटा, तुमने तो मुझे बद्रीनाथ नहीं जाने दिया। मेरी यात्रा का पुण्य कौन देगा।

    इंद्रमणि ने मुस्कराकर कहा—तुम्हें उससे कहीं अधिक पुण्य मिल गया। यह तीर्थ—महातीर्थ है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस, लाहौर

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