ख़्वाजा, ओ मेरे पीर!
khvaja, o mere peer!
माधोपुर से शिवगढ़ तक सड़क पास हो गई। तो सरकार ने आख़िर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाक़ा भी हिंदुस्तान का ही हिस्सा है। पिछले पचास वरस में कितनी दरख़ास्तें दी गईं। दरख़ास्त देने वाले नौजवान बूढ़े हो चले तब जाकर...
चलो सुध तो आई, वरना छ:-सात कि.मी. लंबी इस पट्टी पर आबादी कहाँ है। एक भी गाँव अगर होता रास्ते में। विधायक को हज़ार दो हज़ार वोट का भी लालच होता। दो ज़िलों की सीमा होने के चलते भी यह हिस्सा उपेक्षित रह गया। मामा के घर से निकलते ही मामी के ज़िले की शुरूआत हो जाती है। मामा का घर एक ज़िले में और सामने के खेतों में से आधे दूसरे ज़िले में। लेकिन पक्की सड़क के लिए चिह्नित यह रास्ता पहले भी कभी राहगीरों से ख़ाली नहीं रहा। टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी के रूप में, नाले जंगल और ऊसर के बीच से गुज़रते इस रास्ते पर चलते पीढ़ियाँ गुज़र गईं। बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ इस रास्ते पर घटित हुईं। कभी गौना कराकर ले जाई जा रही दुल्हन जबरन छीन ली गई कभी कोईं सजीला घुड़सवार जंगल में ऐसा ग़ायब हुआ कि हवा तक नहीं लगी। घंटी टुनटुनाते जा रहे सवार की नई साइकिल नशे का बताशा खिलाकर ठगों ने लूट लिया। बचपन में सुने गए जाने कितने क़िस्से। अपने इलाक़े के बाहर की वारदात बताकर दोनों ही थानों की पुलिस रिपोर्ट लिखाने गए भुक्तभोगियों को भगाती रही।
मैं भी कईं बार गया हूँ इस रास्ते पर। मामा के गाँव माधोपुर से मामी के गाँव शिवगढ़ तक। इस राह को भी धूप लगती थी शायद। इसलिए यह ऊसर और जंगल की संधि पर होते हुए भी जंगल में सौ क़दम घुसकर चलती थी। नाले के किनारे-किनारे झरबेरियों का जंगल और उत्तर तरफ़ साधू की कुटी की ओर बढ़ने पर पीपल, पाकड़, बरगद और महुए के जहाज़ी पेड़ों का घटाटोप। कुटी के ठीक सामने का तालाब जिसका पानी अषाढ़-सावन को छोड़कर सालों-साल नीला रहता था। मछलियाँ मारने की मनाही के चलते डेढ़-डेढ़ हाथ की मछलियाँ मूँछें फरकाती किनारे तक तैरती थीं। जाड़ा शुरू होने के पहले तक लाल कमल और उसके गाढ़े हरे पत्ते आधे से ज़्यादा ताल को घेरे रहते थे। महुए के एक विशालकाय पेड़ की मोटी डाल के नीचे मधुमक्खियों के कई छत्ते लटकते थे। हवा में एक मीठी महक तैरती रहती थी। मुझे इस सड़क के निर्माण का सुपरविज़न मिला तो अतिरिक्त ख़ुशी हुई। अब मामा-मामी दोनों से मिलने का मौक़ा मिलेगा। ज़माना गुज़र गया दोनों से मिले हुए। मेरा वश चलता तो मैं इस सड़क का लोकार्पण मामी से करवाता। आख़िर मामी से ज़्यादा इस रास्ते पर कौन चला होगा। वह भी रात-बिरात, आँधी, तूफ़ान तक में।
नाना पाँच भाई थे और मामा सात। सारे नाना, मामा की संततियों से पूरा एक टोला बस गया था। यह टोला मुख्य गाँव से हटकर पूर्वी किनारे पर था। इसके आगे परती ज़मीन पर कुछ पेड़ थे जिनके नीचे खलिहान लगता था। उसके आगे खेत। फिर बाईं तरफ़ जंगल और दाहिनी तरफ़ ऊसर का विस्तार जो पूरब में कई कि.मी. तक चला गया था। मेरी गर्मी की छुटि्टयाँ मामा के घर गुज़रती थीं। बीच में भी कई बार स्कूल से भागकर पहुँच जाता था। तब यही मन करता था कि ज़्यादा से ज़्यादा नानी के पास रहें। नानी की आँखों से, उनकी आवाज़ और स्पर्श से मानो अमृत बरसता था। शाम को आठ नौ साल तक के बच्चे क़िस्सा सुनने के लिए नानी के गिर्द बैठ जाते। दालान के एक किनारे ज़मीन पर बिछे पुआल पर तीन चार कथरियाँ बिछी रहतीं। बच्चे एक-एक करके आते और कथरी पर लेटकर नानी का इंतज़ार करते। क़िस्सा चलता रहता और बच्चे एक-एक करके सोते-जाते। क़िस्से का अंत सुनने के लिए शायद ही कोई बच्चा जगा रहता। दूसरी शाम अक्सर वही क़िस्सा फिर शुरू से चलता।
सवेरे नानी मट्ठा मारने बैठती तो धीरे-धीरे सारे बच्चे कटोरा-कटोरी लेकर कमोरी के चारों तरफ़ इक्ट्ठा होने लगते। छोटे बच्चे, जिन्हें अंदाज़ा नही रहता कि मट्ठा मारने में कितना समय लगता है, उठते ही, एक हाथ से आँख मीजते या नीचे सरकती कच्छी ऊपर सरकाते दूसरे हाथ में कटोरी पकड़े चल पड़ते। नानी झक सफ़ेद बर्फ़ के गोले जैसा नरम नैनू (मक्खन) निकालकर बच्चों की कटोरी में डालतीं। नैनू के साथ–साथ आँखों से ढेर सारा स्नेह बरसातीं। इतना कि हर बच्चे का अंतरतम भीग जाता।
नानी बहुत सुंदर थीं। रंग गोरा और क़द काठी लंबी। बलिष्ठ। आँखे नीली। जब की मुझे याद है, विधवा होने के कारण वे मारकीन की सफ़ेद धोती पहनती थीं लेकिन उस धोती में भी उनकी सुंदरता और मधुरता अद्भुत दिखती थी। अब यूनानी लोगों की क़द काठी और नाक नक़्श से परिचित होने पर लगता है कि नानी यूनान से ही आई थीं। बड़के मामा का क़द नानी के बराबर था। आँखें छोटी थीं लेकिन उनका नीलापन नानी जैसा ही था। आवाज़ इतनी भारी कि फुसफुसाकर बोलना उनके लिए संभव नहीं था। एक बार गर्मी की छुटटी में मैं नानी के घर आया था। शाम को खा-पीकर पियारे मामा के साथ खलिहान में सोने पहुँचा। तब रबी की मँड़ाई बैलों से होती थी। गेहूँ की अधसीझी पयार पर हम लोग कथरी बिछाकर लेटे थे। टहटह चाँदनी रात थी। पेड़ की पत्तियों से छनकर हम लोगों के ऊपर चाँदनी के घेरे हिलडुल रहे थे। पियारे मामा भाइयों में सबसे छोटे थे। ननिहाल आने पर मैं ज़्यादातर उन्हीं के साथ-साथ रहता था। अचानक मामा बोले—मैं ‘मैदान’ होकर आता हूँ। तुम लेटो। अकेले डरोगे तो नही?
तब मैं यह समझने के लिए बहुत छोटा था कि पियारे मामा अपनी नवव्याहता उतराहा मामी से मिलने उनकी कोठरी में जा रहे हैं।
मैं चित लेटा चाँदनी का जादू देखता रहा। पुरवा बह रही थी। थोड़ी देर में पुरवा पर उड़कर टूट-टूट कर आती पुरूष कंठ की ध्वनि कानों में पड़ी। बीच-बीच में पतला नारी स्वर। कुछ डरकर और कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियावश मैं चिल्लाया—कौ...न?
पता नहीं पुरवा के विपरीत चलकर मेरी आवाज़ का कितना हिस्सा वहाँ पहुँचा—लेकिन आवाज़ पहले बंद हुई फिर धीमी होकर आने लगी।
मुझे नींद आ गई। पियारे मामा कब लौटकर मेरे बग़ल में सो गए पता नहीं। सबेरे उन्हें आवाज़ के बारे में बताया तो बोले—बड़के भइया-भौजी होंगे। भौजी कभी-कभी रात में भइया से मिलने आती हैं।
फिर पूछा—तुम टोके तो नहीं?
पिछली बार मामा से तब भेंट हुई थी जब वे आँख खोलाने मेरे पास शहर आए थे।
मामा के साथ बचपन की स्मृतियाँ जुड़ी थीं। गाँव जाता तो उधर से आने वालों से मामा की हाल ख़बर पूछता। मामा के गाँव के लोग भी सौदा सुलुफ लेने मेरे घर के पास वाली बाज़ार में आते थे। मेरा घर रास्ते पड़ता था इसलिए अक्सर छँहाने या पानी पीने के लिए औरतें बच्चे मेरे दरवाज़े पर रूकते थे। ऐसे ही एक बार रिश्ते में मामी लगने वाली मामा की पड़ोसन ने कहा—दूर से ही मामा का हाल चाल पूछते हैं। यह नहीं कि कभी चलकर भेंट कर आवें। आपको बहुत याद करते हैं। अब तो मोतियाबिंद भी बिल्कुल पक गया है। दिखाए नहीं देता।
—दिखाई नहीं देता तो आँखें क्यों नहीं खोलवा लेते?
—कौन खोलावे?
—उनका बेटा।
—बेटा क्यों खोलावेगा? बेटे को इन्होंने पूछा जो बेटा इनको पूछेगा? आप को तो सारी बात पता है।
—तो भतीजे खोलावें! दर्जन भर हैं।
—कोई नहीं खोलावेगा। आप ही को खोलाना होगा। एक बार उन्होंने आपके पास ख़बर भेजी थी। आपने पलटकर कोई जवाब नहीं दिया। इधर बहुत दिनों से आप गाँव भी नहीं आए। जब भी कोई बाज़ार से लौटकर जाता है, पूछते हैं खूँटी आए थे कि नहीं?
—खूँटी मेरा बचपन का नाम था। बहुत दिनों तक मेरी बाढ़ रूकी हुई थी तो लोगों ने नाम रख दिया था—खूँटी।
मैं बेचैन हो गया। याद आया, एक बार मामा का संदेश लेकर मँझले मामा के बेटे बैजनाथ भइया गाँव आए थे। माँ ने दस-पंद्रह दिन बाद किसी से मेरे पास मामा का संदेश भेजा था। मैं कैसे भूल गया? बड़के मामा मुझसे बहुत उम्मीद रखते थे। बचपन में पढ़ने और कुश्ती लड़ने के लिए ललकारते रहते थे। एक बार गर्मी की दुपहरी में कंधे पर बैठाकर मील भर दूर नाच दिखाने ले गए थे। इसलिए कि गर्म रेत में मेरे पाँव न जल जाएँ। जब भी उनके माचे पर जाता, खाने-पीने की कोई न कोई चीज़ ज़रूर देते। मैंने उसी औरत को दो लोगों का शहर तक का किराया देकर कहा—मामा से कहना किसी को साथ लेकर जब भी चाहें मेरे पास आ जाएँ।
और तीसरे दिन शाम को ऑफ़िस से लौटा तो देखा, मामा बरामदे में बिछी चौकी पर लेटे हैं। पता चला कि बैजनाथ भइया दुपहर में पहुँचा गए। आहट सुनकर मामा उठ बैठे। देखा, सत्तर की उम्र में भी मामा की देह की कसावट काफ़ी कुछ बरकार थी। बस गोरा रंग ताँबे का हो गया था और आँखें धोखा दे रही थीं। मैंने मामा की जवानी देखी है। गठी हुई गोलमटोल बलिष्ठ काया। चमकती त्वचा। गोरा रंग। नीली आँखें। जैसे गेंद उछल-उछलकर लुढ़कती है वैसे ही मामा दौड़ने के साथ-साथ बीच-बीच में उछलते थे। दौड़ना शुरू करते तो उड़ने लगते। फरी खेलते तो बिना रूके आठ-दस पलटइयाँ खाते। वक़्त ने उनके चिकने चमकते माथे पर तीन क्षैतिज लकीरें खींच दी थीं। लेकिन बातचीत करते हुए देखा कि आवाज़ का जादू और गूँज बरक़रार थी।
मामा को बचपन से गाते गुनगुनाते देखा था। खेत में रहते तो बीच-बीच में कान में उँगली डालकर दूर राह जाती युवती अथवा कल्पना की नायिका को संबोधित करके प्रणय निवदेन करते। घर में होते तो हाथ का काम निबटाते हुए गुनगुनाते रहते। नवसिखुआ गायकों की भूली हुई बिरहा की कड़ी जोड़ देते। मामा की रातें पूरे वर्ष उनके माचे पर ही कटती। माचा, चलायमान था। जाड़े और गर्मी में यह पेड़ के नीचे आ जाता और वर्षा में, जब मक्का और फूट (ककड़ी) खाने का मौसम होता तो ऊचास के खेतों के बीच चला जाता। माचे पर दैनिक ज़रूरत की सारी चीज़ों की व्यवस्था रहती। छप्पर में और माचे की मोटी थूनियों के सहारे, चबेना का झोला, मट्ठा और पानी वाले मिट्टी के बर्तन लटके होते। सुगंधित तंबाकू की मटकी और हुक्का लटका होता। नीचे बोरसी में आग जिया कर ढंग से ढकी होती। मामी की अनुपस्थिति के चलते मामा ने अपनी गृहस्थी को माचे पर इस तरह व्यवस्थित कर लिया था कि बार-बार घरनी की ज़रूरत महसूस न हो।
मामी मायके में रहती थीं।
बड़के मामा सत्रह-अठारह साल के ही थे जब नानी विधवा हो गईं। नाना इलाक़े के नामी लठैत थे। किसी ज़मीन की बेदखली के लिए ज़मींदार की ओर से लाठी चलाने गए थे। लाठियों की तड़तड़ाहट के दौरान अपना पक्ष कमज़ोर जानकर बाक़ी साथी भाग खडे़ हुए। नाना घिर गए। कई लाठियाँ पड़ीं। डोली खटोली पर लादकर लाए गए। अँग्रेज़ का राज था। अस्पताल वग़ैरह जाने का रिवाज नहीं था। पाँच दिन तक ओसारे में कराहने और हल्दी, माठा पीने के बाद मर गए। मरते समय बड़के मामा का हाथ पकड़कर कहा—सबको तुम्हारे भरोसे छोड़कर जा रहा हूँ। पार घाट लगाना।
मामा ने अपने सीने पर नाना का दाहिना हाथ रखकर उन्हे आश्वस्त किया था और उनके बहते आँसुओं को अँगोछे के कोने से धीरे-धीरे पोछा था। तब सबसे छोटे पियारे मामा नानी के गर्भ में थे।
मामा ने नाना की हर ज़िम्मेदारी सँभाली। नाना की तरह मामा की लाठी भी सरनाम हुई। जिस भी मेले में जाते, वहाँ से लाठी ख़रीदकर लाते। आस-पास कहीं कटवासी बाँस की कोठ होती तो वहाँ जाकर लाठी लायक पक्का बाँस खोजते। फिर कोठ के मालिक से माँग कर या ख़रीद कर उससे लाठी बनाते। घंटों आग में सेंक-सेंक कर उसे पकाते। महीने में एक बार लाठियों की सफ़ाई करते। उन्हें तेल पिलाते। ऊपर और नीचे की गाँठ के पास लोहार से उन पर लोहे की मुँदरी चढ़वाते। लाल कपड़े में लपेटकर रखते। नाग पंचमी के त्योहार पर गाँव में हर साल आने वाले नट से लाठी का मार्शल आर्ट ‘बिनवट’ सीखते।
बड़के मामा की प्रसिद्धि आस-पास के गाँवों में ‘पदी’ अर्थात पद या न्याय करने वाले के रूप में फैली। जिस पंचायत में वे पंच होकर जाते उसमें भरसक अन्याय न होने देते। अपने निर्णय को लागू कराने में वे लाठी का सहारा लेने से भी नही हिचकते थे। लेकिन ऐसे न्यायी आदमी को भारी अन्याय झेलना पड़ा। जिस ज़मींदार की ओर से लाठी चलाने के दौरान नाना की मृत्यु हुई थी वही ज़मींदारी उन्मूलन के बाद मामा द्वारा जोते-बोये जा रहे खेतों से उन्हे बेदख़ल करने लगा।
अषाढ़ के एक दिन सबेरे-सबेरे मामा को पता लगा—उनके खेतों में दलपतसिंह लंबरदार के हल चल रहे हैं। सुनकर यक़ीन नहीं हुआ। दौड़कर गए। देखा, चार जोड़ी बैल उनके खेतों को जोत रहे हैं। दलपत लंबरदार सात-आठ लट्ठबंद लोगों के साथ मेड़ पर खड़े हैं।
—यह क्या है ठाकुर? हमारे खेत क्यों जुतवा रहे हैं?
—तेरे थे कल तक। आज से मेरे हैं।
—ऐसा अन्याय? मेरे बाप ने आप की आन के लिए अपने दुधमुँहे बच्चों को अनाथ कर दिया था। आप उन्हीं बच्चों का पेट काटने आए हैं? इतनी जल्दी भूल गए?
—भाग सारे। दलपत सिंह दहाड़े—बड़ा पदी बना फिरता है। आज से इस खेत में पैर रखा तो पैर कटवा लेंगे।
—लंबरदार, हम सात भाई हैं। आप पैर नहीं, दो चार के मूंड भी कटवा लेंगे तो दो चार बचे रह जाएँगें। लेकिन आप तो अकेले हैं।...
—अबे, मुझे धमकाता है? तेरी यह हिम्मत? पकड़ो साले को। उन्होंने अपने आदमियों को ललकारा।
—ऐसा है लंबरदार, हम सातों भाई जान छोड़कर लड़ेंगे तो उन्हें रोकने लिए चौदह लठैत चाहिए। आप के साथ अभी आठ ही हैं और उस तरह जान पर खेलकर दूसरे के लिए मार करने वाले बावले अब नहीं पैदा होते जैसे हमारे बाप थे। आज तो हम निहत्थे हैं इसलिए जा रहे हैं लेकिन दुबारा आने के पहले एक बार फिर सोच लीजिएगा। जाना सबको है। हमको भी आप को भी। खेत यहीं रह जाएगा।
ज़मींदार समझ गया। ज़मींदारी उन्मूलन के साथ-साथ उससे जुड़े रोब रूतबे का भी काफ़ी कुछ उन्मूलन हो चुका था। इसलिए फिर डराने धमकाने या जबरन कब्ज़ा करने का प्रयास तो नहीं किया लेकिन मुक़दमा दायर कर दिया। मुक़दमेबाज़ी का अखाड़ा मामा के लिए बिल्कुल अनजाना था। यहाँ के दाँवपेंच, पैतरे, पिचाल के बारे में कभी सुना ही नहीं था। बार-बार पटकनी लगी। गाना-बजाना, राग-रंग पहलवानी, अखाड़ा सब भूल गया। उन खेतों को बचाने के लिए मामा बारह बरस मुक़दमा लड़े।
मामा नौ साल के ही थे जब नाना ने उनका विवाह कर दिया था। लेकिन गौना आने को हुआ तो एक पेंच फँस गया। मामी अपने माँ-बाप की अकेली संतान थी। शादी के समय उनके पिता ने शर्त लगाई थी की दूल्हे को ससुराल में आकर रहना पडे़गा। नाना ने इस शर्त को मान लिया था क्योंकि उस समय तक मामा चार भाई हो चुके थे। खेत कम थे। नाना यह सोचकर ख़ुश हुए थे कि एक बेटे का गुज़ारा ससुराल में हो जाएगा और मामी के माँ बाप के लिए बुढ़ौती में सहारा भी हो जाएगा। लेकिन नाना के असमय चले जाने के चलते यह समीकरण प्रभावित हो गया।
मामा का तर्क था—मैंने मृत्यु सेज पर लेटे पिता को बचन दिया है, माँ और छोटे भाइयों के भरण पोषण का। इनको असहाय छोड़कर ससुराल जाकर बसना अब कैसे हो सकता है?
मामी का तर्क था—इसी शर्त पर विवाह हुआ है कि जमाई ससुराल आकर बसेंगे। यदि वे अपनी माँ और भाइयों को छोड़कर नहीं आ सकते तो मैं अपने माँ-बाप को बेसहरा छोड़कर ससुराल कैसे चली जाऊँ?
आँख पर हरी पट्टी लगाए मामा अस्पताल से लौटे तो मैं शाम को उनके पास बैठने लगा। उनके पास दुनिया जहान की ख़बरें और क़िस्से थे। हज़ारों गीत थे। उनसे बातें करना अच्छा लगता था। मामा की भी शुरू से आदत थी, घर गृहस्थी का काम निबटाने के बाद घंटे दो घंटे अलाव के पास या माचे पर बैठकर दूसरों की सुनने और अपनी सुनाने की। इसलिए शाम को वे मेरे आने का इंतज़ार करते।
परिवार बढ़ने के साथ-साथ खाने पीने की दिक़्क़ते बढ़ीं। कई दिशाओं से आई बहुओं में खींचतान और कौआरोर बढ़ा। दो मामा के परदेश चले जाने के बाद भी दिक़्क़तें कम नहीं हुई तो मामा ख़ुद भी दो-तीन बार परदेश कमाने गए। शाम को साथ बैठकर उन दिनों की चर्चा छेड़ने पर मामा कलकत्ता के साथ अमरनेर की चर्चा करते थे। अमरनेर में आमिना नाम की एक स्त्री थी जो रेल इंजन के नीचे गिरा हुआ अधजला कोयला बीनकर बेचती थी। अकेली थी। उसने तीन महीने तक मामा के लिए रोटी सेंकी थी। मामा पास के पेड़ के नीचे सोते थे और अपना आटे, चावल का कनस्तर आमिना की झोपड़ी में रखते थे। वह मामा के कनस्तर से आटा निकाल कर रोटियाँ सेंक कर रख जाती थी। गैंग का मेट मज़दूरी मार कर भाग गया तो आमिना ने वापसी का किराया जुटाने में भी मदद की थी। मामा ने उसका गाया एक गीत सुनाया—
केथुआ से छाया मक्का मदीना,
केथुआ से छाया अजमेर।
ख़्वाजा ओ मेरे पीर।
सुनाते-सुनाते उनकी आवाज़ भर्रा गई। आँखे सजल हो गई। आँखों को ढकने वाली हरी पट्टी को उठाकर उन्होंने आँखों का पानी पोछा और शून्य में ताकने लगे।
बड़ी देर बाद बोले—बड़ी अच्छी मेहरारू रही भैने। दुखियारी थी। आदमी खलासी था। कई साल पहले इंज़न के नीचे कट गया था। आने लगा तो बहुत रो रही थी...
एक शाम मैंने कहा—मामा, आप दो साल कलकत्ता थे। कैसा था कलकत्ता?
—कलकत्ता शहर का हाल! अच्छा सुनिए।
मामा ने कलकत्ता शहर का लंबा और प्रभावी वर्णन सुनाया जिसमें मटियाबुर्ज और बड़े-बड़े जहाज़ों का भी उल्लेख था। तुरंत न लिखने के चलते अब दो चार पंक्तियाँ ही याद हैं। एक पंक्ति थी—
—जहाँ दूनों जूनी आवत है जुआर।
—इसका मतलब?
मतलब, दोनों टाइम दरियाव का पानी बढ़ जाता है।
—ओ…ज्वार! समझ गए।
कलकत्ता शहर की एक और ख़ासियत सुनाया—
—यहाँ की रंड़ी बड़ी बेशरमी, उनके बस्तर ना देखा।
—बस्तर?
—माने कपड़ा।
—ओ… वस्त्र।
—हाँ, पीठ भी खुली पेट भी खुला।
मैं थोड़ी देर तक हिम्मत जुटाता रहा फिर बिना आँख मिलाए पूछा—अच्छा मामा, आप कभी वहाँ कोठे पर गए थे?
मामा थोड़ी देर चुप रहे। आँख उठाकर मुझे देखा। फिर बोले—एक बार गया था भैने! लेकिन कपड़ा उतारने पर देखा, कितना फोड़ा फुँसी। नीचे देह एकदम सड़ गई थी। मै भाग खड़ा हुआ। रुपया पहले ही दे चुका था।
—कितना?
—डेढ़ रुपया। दो माँग रही थी लेकिन हम डेढ़ ही दिए।
कितने निर्लिप्त भाव से मामा ने बताया। फिर प्रसंग बदलने के लिए अनाजों के बारे में सुनाने लगे। मकरा की सहनशीलता के संबंध में बताया—
—केतनौ कूटा केतनौ पीटा हम खुलुरी मा रहब परा।
—मकरा कैसा होता था मामा? मैंने कभी मकरा नहीं खाया।
मकरा सरसों से एक चौथाई छोटा काले रंग का गोल अन्न होता है भैने। अब गेहूँ धान इतना पैदा हो जाता है कि मकरा बोने की ज़रूरत नहीं रही। पहले जब अन्न की कमी रहती थी तो जल्दी पकने वाले कोदो, काकुन, साँवा आदि भुखमरी में जीवनदाता बनते थे। मकरा दो ढाई महीने में भादों में पक जाता और इसके चलते आधा गाँव उपवास करने से बच जाता था। इसे चाहे जितना कूटिये, पीटिये नम मौसम के कारण इसकी बाली में अन्न के कुछ दाने बचे ही रह जाते थे। फिर इनमें छिपे दानों को वे औरतें निकालती थीं जिनके पास मज़दूरी के अलावा जीविका का कोई आधार नहीं होता था। भादों में कोई मज़दूरी न मिलने के कारण इनके घर अक्सर उपवास होता था। इन्हें कोई रोकता नहीं था और सेर आध सेर मकरा दो-चार घंटे मेहनत करके ये भी निकाल लेती थीं।
एक दिन मैंने मामा को याद दिलाया—आपका एक प्रिय ‘फगुआ’ था। हर होली पर गाते थे। उसकी एक पंक्ति याद रह गई है—
गोरी तोहरी नज़रिया मा भा...ला...
दिल जानिया जान जिनि मा...रा...
न देशवा उजा...रा...
—इसको सुनाइए।
—छोड़ो भैने! तब नौजवानी का रंग था। अब ऐसे गीत गाने की उमर थोड़े रह गई है।
—अच्छा एक बिरहा जिसे आप अक्सर उदास होकर गाते थे—रतिया आया बिरतिया भाग्या...
मामा मेरी ओर देखते रहे। कुछ बोले नहीं।
—याद नहीं आ रहा?
—याद है लेकिन अब हम इसे गाते नहीं।
—क्यों?
—बस, चित्त से उतर गया।
मैं चुप हो गया। मन ही मन उस बिरहे को याद करने लगा—
रतिया आया बिरतिया भाग्या
कोरवा ना सोया हमार
एक दिन आवा खड़ी दुपहरिया
देखी सुरतिया तोहार
(रात आए और रात बीतने के पहले भाग गए। मेरी गोद में सिर रखकर सो तक न सके। एक दिन खड़ी दुपहरी में आओ ताकि तुम्हारी सूरत देख सकूँ।)
मामा के चित्त से यह बिरहा उतरा क्यों? तब नहीं समझ पाया।
एक दिन बोले—अब तो आँख भी गई समझिए, नहीं तो बड़ा मन था कि देह में ज़ोर रहते एक बार पूरी दुनिया घूम आवें। इस कोने से उस कोने तक। मैंने बताया—देह में ज़ोर हो तब भी यह इतना आसान नहीं है मामा। यह धरती सौ डेढ़ सौ देशों में बँटी हुई है। हर देश की सीमा पर फ़ौज डटी है। घुसने के लिए परमिट चाहिए। वीज़ा, पासपोर्ट। उसके पीछे हज़ार झमेले।
वे चुप होकर मेरा मुँह देखने लगे। फिर बोले—इसका मतलब बिना पूरी दुनिया देखे ही आँखें बंद हो जाएँगी? चारों धाम भी नहीं जा पाए।
—चारों धाम क्यों नहीं गए?
—तीन सौ रुपए कम पड़ गए। अर्जुनपुर के जगन्नाथ दोनों परानी जा रहे थे। बोले—भगत तुम भी चलो। आधा ख़र्चा हम उठा लेंगे। लेकिन हम आधा भी नही जुटा पाए।
—मुझसे क्यों नही कहा?
—चाहे तो बहुत लेकिन तुम्हारे पास भेजने के लिए कोई संदेसिया ही नहीं मिल पाया।
सेक्सटेंट के व्यू-फाइंडर में देखता हूँ तो निर्माणाधीन सड़क पर मुझे तेज़ क़दमों से चलकर आती मामी का चेहरा दिखाई देता है। जट काली मामी के चेहरे पर जड़ी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। लंबी पतली काठी। महीन धीमी आवाज़। शीतल पवित्र और पतली मुस्कुराहट। मैं उन्हे देखकर सोचता कि माँ ऐसी ही होनी चाहिए। शायद ही इन्हें कभी ग़ुस्सा आता होगा।
अपने दांपत्य को भी धैर्य और मुस्कान से सँभाल लिया मामी ने। माँ-बाप की सेवा भी ज़रूरी थी और पति का सानिध्य तथा संतति वृद्धि भी। मामी न किसी ज़िम्मेदारी से भागना चाहती थीं न किसी ज़रूरत से वंचित रहना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने अलग राह खोजी। शाम को गाय बैलों को चारा-पानी देकर, माँ-बाप को खिला-पिलाकर पहर रात बीते लाठी लेकर निकलतीं मामी। साँप-बिच्छू और सियार-भेड़ियों को धता बताती आधी रात के पहले-पहले जा पहुँचतीं मामा के माचे पर। पहर डेढ़ पहर का अभिसार और चौथे पहर मायके के लिए वापसी। अँधेरी रात हो या चाँदनी, जाड़े की ठिठुरन हो या बरसात के गरजते-बरसते बादल। मामी के लिए पति की सेज हमेशा डेढ़ दो घंटे की दूरी पर रही। सोचता हूँ, पहली बार पति मिलन के लिए अँधेरी रात के सन्नाटे में अकेले निकलने के पहले कितने ऊहापोह से गुज़री होंगी मामी। क्या उन्होंने पहली बार अपने आने की पूर्व सूचना मामा को दी होगी। यदि नहीं तो पहली बार मामा के माचे पर चढ़कर फों-फों करके सोते मामा की नाक दबाकर जगाया होगा तो मामा की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? ज़रूर उनका हाथ सबसे पहले अपनी लाठी पर गया होगा।
मामी की जो भावमूर्ति उभर कर मेरे मन में आ रही है वह पैंतीस-चालीस साल पुरानी है। मैं गारापुर से लौट रहा था। गुरू बाबा की कुटी से। मामी का मायका शिवगढ़ बीच रास्ते में पड़ता था। चैत का महीना था। धूप चढ़ गई थी। सोचा मामी का हाल चाल लेते चलें। दूध या मट्ठा भी पीने को मिल जाएगा क्योंकि मामी के घर कोई न कोई गाय भैंस बारहोंमास लगती थी।
मामी बेटी के साथ गड़ही से गीली मिट्टी ढो रही थीं। पुरानी दालान गिर गई थी। उसी की जगह नई दालान खड़ी हो रही थी। एक मिस्त्री दीवार के ऊपर बैठा ताज़ी रखी गई मिट्टी की कटाई-चिनाई कर रहा था। मेरी पैलगी के उत्तर में आशीष देती हुई मामी घर के अंदर गईं और मउनी में लाई, गुड़ तथा लोटे में मट्ठा लेकर लौटीं। हालचाल पूछा, फिर बोलीं—दुपहर तक सारी गीली मिट्टी ढो लेना है नहीं तो सूख जाएगी। तुम आराम करो। खाना खाकर दोपहर बाद जाना।
—छोटे कहाँ हैं?
—जानवरों को चराने ले गए हैं।
—तो चलिए, पलरी में मिट्टी मैं भर देता हूँ। काम जल्दी ख़त्म हो जाएगा।
—नहीं-नहीं! भैने से कहीं काम कराया जाता है। तुम थक गए होगे। आराम करो।
—तब मामा को क्यों नहीं बुलवा लिया। अकेले खट रहीं हैं।
—तुम्हारे मामा को अपने भाई भतीजों से फ़ुर्सत मिले तब न।
उनके बड़े बेटे स्वामीनाथ डेढ साल पहले एक दिन ग़ायब हो गए। पता नहीं कहाँ हैं? स्वामीनाथ मेरे समौरी (हमउम्र) थे। पिता का नियंत्रण न होने के चलते वे कभी माँ के पास अपनी ननिहाल में रहते। कभी पिता के पास माधोपुर में। एक जगह ज़्यादा दिन नहीं टिकते थे। मामा के घर ही उनसे मुलाक़ात हुई थी। दो चार दिन में ही हम दोस्त बने और जल्दी ही मैं उनका शागिर्द बन गया। इसी के चलते दर्जा दो की पढ़ाई हमने पाँच स्कूलों से की। कभी मामी के घर से शिवगढ़ या पतीपुर के स्कूल में। कभी मामा के घर से कैभे या केनौरा के स्कूल में। कभी मेरे घर से दुर्गापुर के स्कूल में। जिस भी स्कूल में जाते दोनों लोग साथ-साथ जाते। चार छ: दिन जाते फिर अचानक मास्टर की डाँट या थप्पड़ खा जाते तो बस भागो। कहते—ई सरवा तो बड़ा कसाई है। किसी दिन चढ़ बैठा तो हाथ-गोड़ तोड़ देगा। और उस दिन से वह स्कूल महीने दो महीने के लिए ‘ब्लैक लिस्टेड’ हो जाता। दूसरे स्कूल की राह पकड़ते। सबेरे खाना खाकर तख़्ती बस्ता ले कर समय से निकलते लेकिन स्कूल पहुँचने के लिए समय की पाबंदी न रह पाती। खेत, बाग़, जंगल होते, नाले या तालाब में नहाते, मटर, बेर, गोंद, गन्ना, बेल का स्वाद लेते दुपहर तक पहुँचते। इंटरवल में चबेना चबाते और मन ऊबते ही ऊँघते मास्टर की नज़र बचाकर निकल लेते। किसी शाम दोनों लोग मेरे घर, किसी शाम मामा के घर, किसी शाम मामी के घर। क्या पढ़ रहे हैं? कहाँ पढ़ रहे हैं? कोई देखने वाला नहीं। जब तक पिताजी को हमारी सुधि आई हम दोनों पाँचों स्कूलों में पढ़कर फेल हो चुके थे।
उसी उम्र में स्वामीनाथ मान चुके थे कि वे ख़ुद मुख़्तार हैं। जब जहाँ चाहें जाएँ और जो चाहें करें। पिता की सरपरस्ती उनके अंदर पैदा ही नहीं हुई। उस उम्र में ही वे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने नतीजे निकालते, अपने फ़ैसले सुनाते।
एक बार बोले—भगत की बड़ी दुर्गति होगी।
—क्यो—?
—बुढ़ापे में कोई पूँछेगा नहीं।
मामी मामा को भगत कहती थीं। माँ की देखादेखी उनके बेटे बेटियाँ भी उन्हें भगत कहने लगे। जैसे—भगत आए हैं। भगत बुलाए हैं। बप्पा या बाबूजी जैसे संबोधन जैसे जानते ही नहीं थे। संबोधित करने का मौक़ा ही कहाँ मिला था। मामी मामा को बुलाने के लिए स्वामीनाथ को भेजतीं। स्वामीनाथ आकर कहते—भगत! अम्मा बुलाई हैं। मामा कहते—चलो! फ़ुर्सत मिली तो आएँगे।
स्वामीनाथ लौटते हुए रास्ते में कहते—इनकी अक़्ल पर पर्दा पड़ा है। खटिया पर पड़े-पड़े हगना बदा है।
एक बार बोले—मझली काकी जादूगरनी है। पान सुपारी खिलाकर भेंड़ा बना लेती है। उनके हाथ का कभी कुछ मत खाना।
उस दिन बातचीत करते हुए मैंने पाया कि पति की उदासीनता से प्रभावित न होने वाली मामी जवान हो रहे बेटे के ग़ायब होने से अंदर ही अंदर टूटने लगी हैं।
स्वामीनाथ अठारह उन्नीस साल के थे जब एक दिन उन्हें पता चला कि गाँव का एक लड़का उनकी 14-15 वर्ष की बहन को छेड़ता है। जिस राह से वह लड़का स्कूल से पढ़कर लौटता था उसी राह पर एक शाम वे एक अरहर के खेत में बैठकर उसका इंतज़ार करने लगे। जैसे ही वह पास आया लपक कर एक डंडा उसकी साइकिल के अगले पहिए में डाल कर गिरा दिया और कमर से चाकू निकाल कर खप-खप-खप! वहाँ से भागे तो किसी को दिखाई नहीं दिए अभी तक। न ज़िंदा न मुर्दा। तब से कितनी कितनी अफ़वाहें फैलीं। कभी सुनाई पड़ता कि मारे गए लड़के के बाप और भाइयों ने पकड़कर जीते जी नाले में गाड़ दिया। कभी सुनाई पड़ता... जितने मुँह उतनी बातें।
दुपहर में खाना खिलाते हुए मामी बोलीं—किस दावे से बुलावें तुम्हारे मामा को भैने। उन्हें हम लोगों से कोई लगाव नहीं है। यह तो गाँठ बँध जाने का धरम है जो निभाते आए हैं।
—ऐसा क्यों कहती हैं मामी?
—सही कहते हैं। बिना मर्द का परिवार बेसहारा होता है। मुझे सहारे की ज़रूरत थी। पति का सहारा नहीं मिला तो बेटे के सहारे की आस में अँधेरी उजेली रात में दो कोस बीहड़ पार करके उनके पास पहुँचती रही। अपनी पसंद के किसी भी आदमी से बेटा पाने की राह दुनिया ने रूँध न रखी होती तो मैं उतनी दूर दौड़कर क्यों जाती?
थोड़ी देर तक चूल्हे में पड़ी रोटी को सेकते हुए वे चुप रहीं फिर राख झाड़कर रोटी मेरी थाली में डालते हुए बोलीं—उन्हें मुझसे प्रेम होता तो जिस राह से औरत जात होकर मैं आती-जाती रही वह क्या उनके लिए अनजान थी?
—चाहिए तो यही था मामी लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लाजवश ऐसा न कर पाए हों।
—अपने परानी के पास आते किस बात की लाज थी भैने?
मुझे तुंरत कोई जवाब नहीं सूझा। खाना ख़त्म कर चुका था। हाथ धोने के लिए उठ गया। लेकिन मामी की शिकायत का ज़िक्र घर आकर मैंने पत्नी से किया- मामी का कहना है कि मामा उनसे प्रेम नहीं करते।
—बिना प्रेम किए ही तीन-तीन बच्चे हो गए।
—भाई, बच्चे पैदा होना तो यांत्रिक क्रिया है। बिना प्रेम के भी बच्चे पैदा हो सकते हैं। बलात्कार से भी बच्चे पैदा हो जाते हैं। प्रेम या चाहना तो अलग चीज़ हुई। मामी कह रही थीं कि जब औरत होकर रात के अँधेरे में मैं उनके पास जा सकती थी तो वे मर्द होकर क्यों न आते, अगर उन्हें मुझसे प्रेम होता।
—आप नहीं समझेंगे। लेकिन सोचिए, मामा अपने परिवार के मुखिया थे। उनका उस युग में रात के अँधेरे में पत्नी से मिलने ससुराल जाना किसे अच्छा लगता, ख़ासकर उस दशा में जब वे ससुराल में बसने और वहाँ की ज़िम्मेदारी ओढ़ने से मुकर चुके थे। तुलसीदास का क़िस्सा नहीं जानते। ख़ुद उनकी पत्नी ने कितना दुत्कारा था।
—और मामी जो उतनी दूर चलकर आती थीं वो...
—वो उनकी बहादुरी थी। वे अपने पति की ख़ुशी के लिए, अपनी चीज़ को सहेजने के लिए आती थीं। यह मत समझिए कि सिर्फ़ पुत्र की चाह में या शारीरिक सुख के लिए आती थीं।
मामा मामी की प्रणयकथा को चैतू ने दंतकथा बना दिया था।
चैतू मल्लाह कई वर्ष तक उनके अभिसार और मान मनुहार की कहानियाँ सुनाता रहा। महुए के विशाल छतनार पेड़ की छाया में बैठे चरवाहे उसे घेर कर बैठा लेते—बिना क़िस्सा सुनाए नहीं जाने देंगे।
—अच्छा तो सुनो। पता है क्या हुआ आज रात...
जंगल और ऊसर के बीचोंबीच बहता वह नाला बरसात में छोटी मोटी नदी बन जाता। जाड़े में पानी घटता तो फिर नाला बन जाता फिर गर्मी के चार-पाँच महीने सूख कर ‘खोर’ हो जाता। लेकिन आसपास के लोग, उसे नाला नहीं कहते थे। नाला कहने से अपमान या तिरस्कार का भाव आता था। वे इसे सम्मान देने के लिए नदी कहते—पियारी नदी।
बरसात में बैलगाड़ियों का आवागमन रुक जाता। आस-पास के लोग पैदल पार करने के लिए इस पर बाँस का पुल बना लेते। चार-पाँच मोटे लंबे बाँसों को समांतर रखकर बाँधने पर डेढ़-दो फ़ीट चोड़ा रास्ता निकल आता, जिसको नदी में सात-आठ फ़ीट की दूरी पर तीन-चार मोटी थूनियाँ गाड़कर बाँध दिया जाता।
चैतू मल्लाह रात में इन्हीं थूनियों के सहारे अपना मछली पकड़ने का पहरा (झाँपी) लगाता। रात के अँधेरे में, जब पुल से आवागमन बंद हो जाता, मछलियाँ ख़ूब चढ़ती।
...मामी के आवागमन का एक मात्र चश्मदीद गवाह चैतू।
बेटी ने माँ-बाप को रात का भोजन करा दिया। जानवरों को चारा दे दिया। बर्तन धुल लिए लेकिन माँ के पीने के लिए पानी रखना भूल गईं। और जब बताने गईं कि दरवाज़े की कुंडी लगा लो, मैं जा रही हूँ तो बिगड़ गई बुढि़या—कितनी आग लगी है तेरी देह में? मेरा पानी क्या तेरा भतार आके रखेगा? तू ही रोज़-रोज़ दौड़कर जाएगी? वह क्यों नहीं आता? उसकी गरज नहीं है? इसी दीदे से तू उसे क़ब्ज़े में करेगी? बेटी पानी-पानी हो गई।
उस रात मामा की देह में तेल मालिस करने के बाद छाती पर सिर रखकर लेटी मामी ने कहा—कल से नहीं आऊँगी?
—क्यों?
—मैं ही आऊँ हर बार? तुम्हें नहीं आना चहिए?
—क्यों नहीं?
—तो इस बार तुम आओ।
—ठीक है।
—आओगे?
—क्यों नहीं आऊँगा?
—नहीं आओगे। कितनी बार तो वादा किए। कहाँ आए?
—इस बार हर हाल में आऊँगा। जोगिन तरई (तारा) के एक बाँस ऊपर चढ़ते-चढ़ते पहुँच जाऊँगा।
—घाव में नीम की पत्ती पीस कर बाँध लीजिएगा। माचे से उतरते हुए मामी बोलीं—पहले पता होता तो घर से पीसकर लेती आती।
जोगिन तरई एक बाँस ऊपर चढ़ी, फिर डेढ़ बाँस। वे नहीं आए। माख से उनकी आँखों में आँसू आ गए—मैं भी नहीं जाऊँगी।
जोगिन तरई दो बाँस ऊपर चढ़ गई।
उस दिन कुदाल लग गई थी पैर में। मालिस करते समय देह हल्की-हल्की गर्म लग रही थी। कहीं बुख़ार तो नहीं आ गया?
लेटे नहीं रहा गया। उठीं। आगा पीछा करते मन को समझा कर निकल पड़ीं। बाँस का पुल पार करने के बाद भादों की चाँदनी में देखा—सामने से आती धुँधली छाया।
तो इतने दिनों बाद सामने आने की हिम्मत किया मदरहवा के भूत ने। आने दो।
अरे, यह तो वे हैं।
—अब आने की जून हुई आपकी? आधी रात के बाद?
—आँख झपक गई।
—झूठ मत बोलो। जब घर में ही पान सुपारी खाने को मिल जाता है तो...
मामा ने हँसते हुए उन्हें लपक कर बाहों में भर लिया—चलो।
—उधर नहीं, इधर।
—दो तिहाई रास्ता तो चल चुकी। वह सामने रहा माचा।
—उससे क्या? आज तुम्हारी बारी थी। मामी ने झटके से ख़ुद को मुक्त किया और मुड़ चलीं।
चैतू ने बताया था—देर तक पियारी के किनारे दूर तक मामी के पैरों की ‘पयरी’ बजती रही। वे आगे-आगे, मामा पीछे-पीछे।
पकड़ पाए तो मुख, वक्ष और नाभि से लेकर जाँघों के मध्य तक चुंबनों की झड़ी लगा कर देर तक डूबते-उतराते रहे। फिर ‘पियारी’ के किनारे खादर में उगी ऊँची हरी कास की सेज़ ही उनका रंगमहल बन गई।
अचानक भूरे बादलों के पहाड़ ने चाँद को ढक लिया। तेज़ हवा चलने लगी। जंगल हरहराने लगा। मामा ने अलसाई पड़ी मामी को कंधे पर लादा और माचे की ओर लपके। नीचे सिर किए लटकी मामी मामा की पीठ पर मुक्के मारती रहीं।
लेकिन बादलों को ज़्यादा जल्दी थी। मोटी-मोटी बूँदे पड़नी शुरू हुई। फिर झरझरा कर बरसने लगा। माचे तक पहुँचते-पहुँचते दोनों भीग कर गलगल। माचे के चारों तरफ़ फैले मक्के की हरी लंबी पत्तियों पर गिरती बूँदों का संगीत देर तक बजता रहा। मामा ने अपने गीले अँगौछे से मामी के गीले बालों को पोंछा। माचे पर रखा सूखा अँगौछा पहनने के लिए दिया। बाँहों में उठाकर ऊपर माचे पर चढ़ाया। फिर ख़ुद चढ़े।
कहानी सुनाने के बाद चैतू कहता है—काले मेघों से घिरा आसमान। धारोधार बरसता पानी। मक्के की फ़सल से घिरा माँचा और रात का तीसरा पहर। ऐसा ‘संजोग’ हर गृहस्थ के नसीब में कहाँ?
—लगता है तुम ससुरे अगम गियानी हो। बूढ़ा मँगरू चिढ़कर कहता है—कि माचे के नीचे तुम सरऊ छिपकर रात भर बैठे थे?
—तुम क्या जानों। चैतू उसे चिढ़ाता है—चूतड़ में हल्दी लगी नहीं। ‘औरत’ का दर्शन पाए नहीं। तुम क्या जानों।
इस सड़क के निर्माण के सिलसिले में इधर आने का संयोग बना तो ख़ुश हुआ था कि एक दिन, किसी छुट्टी के दिन उसी पुरानी राह से मामा के घर से मामी के घर तक पैदल जाऊँगा। देखूँगा कि अब जंगल का क्या हाल हैं? कौन-कौन से पेड़ बचे रह गए हैं, कौन से कट चुके हैं। क्या उन पेड़ों पर मधुमक्खियाँ अब भी छत्ते लगाती हैं? कपड़ों से मुक्त होकर पानी में कूदने का आनंद देने वाला वह ताल किस हाल में है? क्या उस तालाब में अब भी कुँई खिलती है? मामा-मामी किस हाल में होंगे?
ऐसा नहीं कि मामा-मामी का हाल न मिलता रहा हो। जब भी गाँव जाता था, माँ, मामा के घर का कोई न कोई समाचार बताती थी। एक बार बताया था कि मामा के घर अलगा-बिलगी हो गई है। पंद्रह भतीजों के मध्य कई चूल्हे हो गए हैं। एक बार बताया था कि रामदेव मामा, जो मुझे ‘कौरहा’ कहकर चिढ़ाते थे और पियारे मामा ट्रैक्टर की ट्राली के नीचे दबकर दिवंगत हो गए हैं। एक बार बताया था कि मँझली मामी को, जिन्हें स्वामीनाथ जादूगरनी कहते थे, कई साल पहले टी.बी. हो गई थी। बेटे-बहू ने छूत के डर से उनके रहने के लिए बाहर झोपड़ी बना दिया था। एक दिन झोपड़ी के अंदर मरी पाई गईं थीं।
बड़की मामी के बारे में बताया था कि छोटे की बहू पूरब की है। बहुत तेज़ है। सास-पतोहू में ज़्यादा दिन नहीं पटी। मामी, बेटे-बहू से अलग हो गईं हैं।
यह ख़बर सुनकर मैनें सोचा था कि जैसे सत्तर साल की उम्र में मामा का मोतियाबिंद पका था मामी का भी पका होगा। मामा का ऑपरेशन तो मैंने करा दिया था। मामी का किसने कराया होगा? मामा के जाने के बाद बहुत दिनों तक मेरे मन में यह उम्मीद थी अब ऑपरेशन के लिए मामी का संदेशा भी आएगा। लेकिन नहीं आया।
अब तो यहाँ का काम भी समाप्ति पर है। क्या इतनी दूर आकर भी बिना मामा-मामी से मिले, किसी दिन किसी और दिशा में चला जाऊँगा? दस मिनट में दोनों के घर पहुँच सकता था। लेकिन साल बीतने को आया और यह दस मिनट नहीं निकल सके। लेकिन अब और विलंब नहीं। जो रास्ता मामा के लिए ज़िंदगी भर काले कोस रहा, उसे तय कराऊँगा। दोनों ही लोग नब्बे पार कर रहे हैं। पता नहीं कितने दिन खाते में बचे हैं। एक बार अपने सामने दोनों लोगों का मिलना देखना चाहता हूँ। वैसे जीवन की संध्या में ही सही, अगर मामा-मामी साथ रहना शुरू कर दें तब तो...
अगले दिन रविवार था। मैंने ड्राइवर से कहा—सबेरे आठ बजे तक जीप लेकर आ जाओ।
मामा के घर के लिए निकला तो गुज़रे मुहूर्तों की छवियाँ फिर मन के पर्दे पर उभरने लगीं। नहर की पटरी से मामा के घर की ओर मुड़ा तो देखा जहाँ खलिहान लगता था वहाँ के पेड़ो में से एकाध को छोड़कर अब भी सब मौजूद थे। आम का वह पेड़ अभी खड़ा था जिसके नीचे मामा के हीरा-मोती नाम के दोनों कुत्ते दिन में बैठते थे। इन दोनों की ड्यूटी थी रात में भेड़ों के रेवड़ की रखवाली करना। शाम का खाना मिलने के बाद बिना किसी के बुलाए या बताए दोनों हवा को सूँघकर रेवड़ की दिशा पता करते और वहाँ पहुँचते। मँझले मामा जैसे बकरों और भेड़ों को बद्धी करते थे उसी तरह जब वह पिल्ले ही थे तो उन दोनों को भी बद्धी कर दिए थे। इसलिए कार्तिक महीने में थोड़ा बहुत आकर्षित करने के अलावा कोई मेनका इनका ईमान नहीं डिगा सकती थी। इस समय उनके बैठने की जगह ख़ाली थी। कब के मर गए होंगे। पेडों की जड़ें मिट्टी बह जाने के कारण बाहर निकल आई थीं। वह पुराना घर जिसके ओसारे और कोठरियों से मेरा परिचय था, खंडहर हो चुका था। सिर्फ़ अधगिरी नंगी दीवारें खड़ी थी। अंदर झाड़ियाँ उग आई थीं। इस खंडहर के तीनों तरफ़ आठ दस मिट्टी की दीवार वाले खपड़ैल और चार-पाँच फूस की छाजन और रहठे की टटिया वाले झोपड़े उग आए थे। बीच में दुआर के नाम पर ढाई तीन सौ गज ज़मीन ख़ाली थी।
जीप के रुकते ही बच्चों के झुंड ने घेर लिया। औरतें झाँक-झाँककर देखने लगी। सामने के बिना टाटी वाले मंड़हे में मामा मूँज की चारपाई पर उघारे लेटे थे। कथरी तह करके तकिया की तरह सिरहाने रखी थी, धोती की सदर-बदर नहीं थी कि क्या खुला है क्या ढका है। मैंने पास पहुँचकर हाथ जोड़ा। धोती ठीक करते हुए वह उठने की कोशिश करने लगे। मैंने सहारा देकर उठाते हुए अपना और अपने गाँव का नाम बताया।
—अरे,-अरे! आवा भैने। आज कहाँ सूरज पश्चिम से निकरि परा। एक दम्मै भुला दिए। फिर मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले—पता चला कि यही परग भर की दूरी पर सड़क बनवाने आए हो तो किसी दिन हमारी याद भी आएगी लेकिन…
मैं लज्जित हो गया। मुझे पहचान कर महिलाएँ भी निकल आईं। तीसरी और सातवीं यानी उतराहा मामी। उनकी बहुएँ। बेटियाँ। मैंने दोनों मामियों को पैलगी की। फिर देर तक परिचय होता रहा कि कौन किसकी बेटी है कौन किसका बेटा। बहुओं का मायका। बच्चों के नाम। कोई मर्द नहीं दिख रहा था। काम से गए होंगे।
मामा बहुत दुर्बल हो गए थे। हडि्डयाँ दिख रही थी। बाँह, जाँघ और पेट की चमड़ी चुचुक कर लटक रही थी। चश्में की एक डंडी टूट गई थी। उसकी जगह धागा बाँधकर कान में लपेटे हुए थे। तीसरी मामी ने अपनी पतोहू के हाथों गुड़ और मठ्ठा मँगवाया। मैंने मठ्ठे का गिलास पकड़ाते हुए मामा से पूछा—बड़की मामी कैसी हैं मामा?
—पता नहीं भैने।
—कितने दिन हुए भेंट किए?
पोंपले मुँह से बेबस मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले—यह भी अब कहाँ याद है भैने।
—चलिए आज मामी के घर चलते हैं। मैं आज आप ही दोनों लोगों से मिलने के लिए निकला हूँ।
—अब कौन सा मुँह लेकर उनसे मिलने चलूँ भैने? जब उनको ज़रूरत थी तब तो गया नहीं। अब तो मर कर ही मिलेंगे।
—मरने में तो अभी बहुत दिन हैं मामा। चलिए। खाना-पीना न खाए हों तो खा पी लीजिए।
पता चला कि मामा अब एक ही जून दुपहर में खाते हैं और उनका भोजन पंद्रह भतीजों के बीच बँटा हुआ है। इनमें से दो भतीजों, बल्कि कहिए दो भतीजों की बहुओं ने उन्हें खिलाने से मनाकर दिया है। इसलिए महीने में पड़ने वाली इन दोनों की दो-दो दिन की ओसरी (पारी) को वे चबेना चबा कर बिताते हैं। बाक़ी के छब्बीस दिन तेरह चूल्हों में दो-दो दिन करके खाते हैं। चबेना की हाँड़ी मामा की चारपाई के सिरहाने ही छप्पर से बँधी रस्सी से लटकी थी जिसे तीसरी और उतराहा मामी समय-समय पर चबेने से भरती रहती थीं। पता चला कि मामा का माचे पर रहना सात-आठ साल पहले छूट गया। कौन उतनी दूर खाना-पानी पहुँचाता। टूटा-फुटा माचा अब किस कोने में पड़ा है यह भी किसी को याद नहीं। यही हाल हुक्के का था। पता चला उसकी तंबाकू ख़त्म होने पर महीनों कोई लाता नहीं था। मामा अमल के मारे परेशान हो जाते। हार कर हुक्का पीना ही बंद कर दिया। हुक्का कहाँ है? चिलम कहाँ है? किसी को याद नहीं।
यह भी पता चला कि आज मामा का चबेना वाला दिन है।
पता नहीं कैसे यह बात फैल गई कि बड़के मामा अब ससुराल में बसने जा रहे हैं। सुनकर आस पड़ोस की औरतें इकट्ठी होने लगीं। बड़के मामा का ससुराल जाना पूरे परिवार के लिए डूब मरने जैसा था। ज़िंदगी भर इन लोगों के लिए खटते-खटते बूढ़े हो गए और अब बुढ़ापे में सब मिलकर रोटी नहीं दे पा रहे हैं। यह अफ़वाह भी फैली की बुढ़ऊ ख़ुद ही संदेश भेज कर भैने को गाड़ी लेकर बुलाए हैं, ससुराल छोड़ने के लिए।
मैंने मामा के चेहरे की ओर देखा फिर उनका हाथ पकड़कर मुस्कुराते हुए कहा—चलिए। मन लगे तो रुकिएगा नहीं तो लौट आइएगा। मामी का हालचाल भी तो लेना चाहिए। कोई पैदल थोड़े चलना है।
मेरी बात सुनकर आसपास फैला तनाव कुछ ढीला पड़ा। एक भतीजे की बहू हँसते हुए बोली—अरे जाइए न बाबा। मोटर पर बैठकर ससुराल जाने का मज़ा लीजिए। सब हँसने लगे। मामा के पोपले मुँह से भी मुस्कुराहट फूट निकली।
एक पोती ने दूसरी को आवाज़ देकर बताया—हई देख रे…. दुलरिया। बड़का बाबा मोटर में बैठकर ससुराल जा रहे हैं।
दुविधाग्रस्त मामा ने एक बार सारे हँसते हुए चेहरों की ओर देखा फिर बोले—अच्छा मेरी लाठी उठाइए। मेरा लोटा।
उन्होंने अँगौछा कंधे पर रखा।
—अरे, मेरा कुर्ता कहाँ गया?
पता चला कि कल शाम खाते समय उस पर दाल गिर गई थी। सिरहाने रखकर सोए थे तो कुतिया के दोनों पिल्ले खींचते-खेलते लेकर पिछवाडे़ चले गए। वहाँ मिला। एक लड़की झाड़ते हुए लेकर आए। बताया कि थोड़ा सा फाड़ दिए हैं।
—चलिए अब इसे ससुराल में पतोहू सिलेगी धुलेगी। उसे भी तो सेवा का मौक़ा मिलना चाहिए।
मामा चलने को हुए तो तीसरी मामी ने अपनी तेज़ तर्रार बहू को इशारा किया। वह घूँघट निकालकर आगे आई—बाबा यहाँ क्या दुख है जो बुढ़ाई दाव वहाँ जा रहे हैं?
तीसरी मामी ने तुरंत अपनी बहू की बात काटी—धत्! मिलजुल-कर कुछ दिन मे लौट आएँगे कि...फिर बड़के मामा की ओर मुड़कर बोली—दस-पंद्रह दिन में बेटे को भेजूँगी। चले आइएगा।
मामा की आँखें और स्वर आर्द्र हो गया। कंपित स्वर में बोले—ठीक है। जल्दी ही आऊँगा। यह तो भैने मसखरी पर उतर आए हैं तो चला जा रहा हूँ।
इस बीच मैं उतराहा मामी को देख रहा था। वे अब भी सुंदर थीं। शहरी स्त्रियाँ उम्र बढ़ने के साथ भारी हो जातीं हैं। वे देहात की उम्रदराज स्त्रियों की भाँति हल्की हो गई थीं। ननिहाल आने पर बचपन में यही मामी मुझसे ज़्यादा मज़ाक़ करती थीं। रोक लेतीं। घुटनों के बल बैठ जातीं और मेरा गाल मीजते हुए कहती—हमको भी पढ़ा दो भैने एक दो किताब। कब पढ़ाओगे? दिन में कि रात में? कहाँ पढ़ाओगे? उर्दे में कि अरहरी में? ऐसा करो, एक किताब उर्द (के खेत) में पढ़ा दो, एक अरहरी (के खेत) में।
मामी को पता चल गया कि मैं उन्हें ही देख रहा हूँ। कुछ सकुचायीं। आँचल ठीक करने लगीं।
मैंने कहा—आपकी बहुत याद आती थी मामी।
—तभी तो इतनी जल्दी मिलने आ गए भैने। और बिना हालचाल पूछे चल भी दिए।
मामी ठीक कह रही हैं। इस जीवन में मनुष्य को जहाँ होना चाहिए वहाँ नहीं होता और जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ धक्के खाता रहता है। इस बीच मामा के दो तीन पोते आ गए। एक ने जीप के अंदर मामा की लाठी व्यवस्थित की दूसरे ने उन्हें गोद में उठाकर आगे सीट पर बैठा दिया। भतीजे, भतीजियाँ, बहुएँ उनका पैर छूने लगीं। मैं पिछली सीट पर मामा के पीछे बैठ गया।
जीप चलने के पहले एक लड़का उनकी सूखी कीचड़ सनी पनहिया चिथडे़ से झाड़ता हुआ लाया।
बीसों हाथ बिदा में हिलने लगे।
मामा कभी सड़क के बाएँ देखते कभी दाएँ। चैती की पकी अधपकी पीली फ़सल खेतों मे खड़ी थी। मटर, चना और सरसों कट चुकी थी, उनके खेत ख़ाली थे। केवल गन्ने के खेत हरे भरे थे। एक ज़माने में बीघे भर के विस्तार में बहने वाला नाला सिमट कर एक मोहड़ी वाले पुल के पेट में समा गया था। नई आबादी के नाम पर पुल के दक्षिण, नाले के पश्चिमी घाट पर दस पंद्रह झोपड़िया बसी थीं, बाक़ी हर तरफ़ खेत ही खेत।
एक पतला खड़ंजा गाँव में घुस रहा था। लगभग सारे कच्चे-पक्के घरों पर डी.टी.एच की डिस लगी थी। गाँव के रास्ते बदल गए थे। असंख्य झोपड़ियाँ उग आई थीं। कुत्तों का झुंड गाँव के बाहर से ही भौंकते हुए जीप के पीछे लग गया। खड़ंजे पर कहीं बकरी बँधी थी, कहीं खूँटा गड़ा था। घर के सामने के मड़हे में दो चारपाइयाँ बिछी थीं। बाईं तरफ़ वहीं दालान थी जिसको बनाने के लिए उस बार मामी मिट्टी ढोते हुए मिली थीं।
एक हड्डही सफ़ेद गाय खूटे से बँधी चक्कर लगाते हुए रंभा रही थी। शायद प्यासी थी। उसके सामने भूसे चारे की कोई नाद या झौवा पलरी नहीं थी। मामी के दरवाज़े पर हमेशा बँधे रहने वाले दूधारू जानवरों की जगह अब इस हड्डही गाय ने ले लिया था।
मामा और जीप के दोहरे आकर्षण से मामी के दरवाज़े पर भीड़ लग गई। ससुर को पहचान कर बहू ने मड़हे मे बिछी चारपाई पर चादर डाल दिया। मैंने मामा को उतार कर सहारा देकर चारपाई पर बैठाया पतोहू ने मामा के पैर छुए और अपनी बड़ी बेटी को पैर छूने का इशारा किया। वह शर्मा कर पीछे हट गई।
—अरे बाबा हैं! बहू ने आँखे तरेर कर बेटी को डपटा। तो उसने भी आगे बढ़कर पैर छू लिया।
दालान के आधे बाएँ हिस्से में टाटी बाँध कर भूसा रखा गया था और दाहिने हिस्से में एक चारपाई बिछी थी। उसके पीछे कोने में चूल्हे से धुँआ उठ रहा था। मामी चूल्हे में फूँक मार कर आग जलाने का प्रयास कर रही थीं लेकिन दाँत न होने से फूँक सध नहीं रही थी। एक रोटी तवे पर थी, दूसरी मामी की हथेली पर। थाली ख़ाली थी।
थोड़ी दूर पर कुछ सूखी पतली टहनियाँ पड़ी थी। चारपाई पर पुरानी धोतियों को सिलकर बनाई गई कथरी बिछी थी। मुझे यह तो पता था कि मामी बहू बेटे से अलग रह रही हैं लेकिन यह अनुमान नहीं था कि छोटे ने उन्हें घर के अंदर नहीं बल्कि बाहर दालान के कोने में जगह दी है।
बहू अंदर से चाय बना लाई। इस बीच मामी की रोटियाँ पक गईं। वे थाली में हाथ धोने लगी तो बहू ने बेटी से कहा—जाकर दादी को बता दे कि माधोपुर से बाबा आए हैं।
पता नहीं वे समझ नहीं रही थीं या उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कई बार बताने पर समझीं तो रोटी ढक कर सिर का आँचल ठीक करते डंडा टेकते हुए धीरे-धीरे आईं। कमर झुक गई थी, शरीर जर्जर था, झुर्रियाँ लटक रही थीं। पहनी गई धोती बदरंग और अंशत: पारदर्शी हो गई थी। जैसे एक्सरे प्लेट में हडि्डयाँ झलकती हैं उसी तरह टाँगों का धुँधला अक्स झलक रहा था। लंबी सूखी लटकती छातियाँ पुराने ढीले पड़ गए ब्लाउज़ की निचली सीमा लाँघकर थोड़ा बाहर निकल आई थीं। वे मामा की चारपाई के आगे थोड़ी दूर पर डंडा रखकर ज़मीन पर बैठ गईं। मैंने पैर छूकर अपना नाम गाँव बताया तो देर तक असीसती रहीं फिर मामा को देखने की कोशिश करते हुए पूछा—केस अहा? (कैसे हैं?)
—भले अही! (ठीक हैं)
—मुँड़वा कै पिरबवा बंद भा कि नाही?
(सिर दर्द बंद हुआ कि नही?)
पता चला चार पाँच महीने से मामा का सिर दर्द कर रहा है। मामी को कैसे पता लगा होगा?
—अब ऊ मरेन पै बंद होये।
(अब वह मरने पर ही बंद होगा।)
थोड़ी देर बाद मामा ने पूछा—तू भले अहा?
—जियरा जियत बा। (जी रहे हैं।)
—चला, दूनो जने एक-एक रोटी खाइल्या। मामी ने कहा।
पतोहू ने कहा—इन लोगों का खाना इधर बन रहा है। आप खा लीजिए।
लेकिन मामी बैठी रहीं। मुझसे माँ का, बच्चों का, पत्नी का हाल पूछती रहीं। हम लोग खाना खाने के लिए अंदर गए तो वे भी उठीं।
मामा के आने की ख़बर पाकर अड़ोस पड़ोस के कई लोग आ गए थे। वे मामा को लेकर गाँव घुमाने चले। मामा लाठी टेकते उत्साह के साथ चल पडे़। मैं उनके पीछे-पीछे। एक-एक दरवाज़े पर रूकते। दुआ, बंदगी, राम जोहार करते, हाल-चाल लेते। कौन-कौन मर गए? कौन विस्तर पकड़ लिए हैं?
अंधकार होने लगा। मामा थक गए तो एक दरवाज़े पर तीन चार चारपाइयाँ बिछाई गईं। मर्द चारपाइयों पर और औरतें कुँए की जगत पर बैठीं। अँधेरा घिर जाने के बाद भी कोई दिया या लालटेन नहीं जली। अँधेरे में केवल बातचीत की आवाज़...
मैंने पूछा—दिया बाती नहीं करेंगे क्या? साँझ हो गई।
—दिया बाती का रिवाज ख़त्म हो गया।
—अरे क्यों?
—मिटटी का तेल ही नहीं मिलता। मील भर दूर का कोटेदार है। जब तक पता चले कि बंट रहा है, पहुँचिए, तब तक कह देता है कि ख़त्म हो गया। कभी मौक़े से पहुँच गए तो दिनभर का अकाज करने के बाद लीटर आध लीटर देता है, वह भी दो महीने में एक बार। तो मिट्टी का तेल लोग देशी घी से ज़्यादा सँभालकर ख़र्च करते हैं। खाते समय ज़रा देर के लिए जलाते हैं फिर बुझा देते हैं।
—तो बच्चे पढ़ते कैसे हैं? बिजली आती है?
—बिजली के खंभे तो गड़ गए हैं। एक बार पाँच-छ: दिन के लिए आई भी थी लेकिन तार ही चोर काट ले गए।
—तब?
—तब क्या? पढ़ने वाले हैं ही कौन हैं?
—क्यों? बच्चों को स्कूल नहीं भेजते?
—स्कूल तो तब जाएँ जब कोई पढ़ाने वाला हो। एक ही मास्टर है। उसे अपनी आटा चक्की चलाने से ही फ़ुर्सत नहीं है। महीने में तीन-चार दिन आता है।
ऐसा? तो उसकी शिकायत नहीं किए?
—जब परधान को पाँच सौ रूपया महीना देता है तो शिकायत करके क्या उखाड़ लेंगे?
—अरे, ठीक ही है। दूसरी आवाज़ आई—क्या करेंगे पढ़-लिखकर? नौकरी चाकरी तो कहीं मिलनी नहीं। शहर चले जाते हैं। चौदह-पंद्रह साल की उमर में सौ रुपया रोज़ दिहाड़ी कमाकर ला रहे हैं। घर का ख़र्चा चल रहा है।
थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई तो औरतों को मामी की पतोहू की शिकायत का मौक़ा मिल गया—मर-मर कर अकेले दम पर घर दुआर बनाया बुआ ने। सबको पाला और पतोहू आई तो साल दो साल भी सबर नहीं हुआ। आए दिन लड़ाई, आए दिन टंटा। आख़िर अलग ही होना पड़ा बुआ को।
—क्या करतीं बुआ। उसके बेटे-बेटियाँ जगह-जगह गंदगी करते थे। सफ़ाई करती नहीं थी। मक्खियाँ भिनकती रहती थीं। बुआ सफ़ाई के लिए टोकतीं तो काटने दौड़ती। आए दिन की खिट-खिट। आख़िर क़सम ही धरा दिया—मेरा छुआ खाओ तो अपने भतार का माँस खाओ। तब क्या करतीं बुआ? झख मारकर अलग पकाना खाना शुरू किया।
—असली बात वह नहीं है। असली बात यह कि साथ रहती तो उसे मालिकाना कैसे मिलता।
—और अलग भी किया तो घर में तो हिस्सा देती। दालान में देश निकाला दे दिया जहाँ जाड़ा-गर्मी दोनों मौसमों की मार ज़्यादा पड़ती है।
—कितना तो कहा सबने लेकिन कहाँ मानी। कहती थी कि घर में घुसने दे और बुढ़िया उसका राशन पताई बेच दे, या दरवाज़ा खुला छोड़ दे, चोरी चकारी हो जाए तो कौन ज़िम्मेदार होगा?
—अरे, ऊँच गाँव की लड़की ब्याह कर लाईं तो नहीं जानती थीं कि उस गाँव की लड़कियाँ कितनी लड़ाका होती हैं। वे तो डंके की चोट पर कहती हैं कि सालभर के अंदर एक चूल्हे को दो नहीं कर दिया तो ऊँच गाँव की बेटी नहीं।
—लेकिन छोटे को तो देखना चाहिए था। माँ के गुज़ारे के लिए उसरहवा खेत दे दिया जिसमें चार महीने के खाने भर का भी नहीं होता।
—छोटे को तो उसने भेड़ा बनाकर रख दिया है। वै क्या बोलेंगे?
—बहुत अच्छा हुआ कि आप आ गए। चार जन के साथ बैठकर सब बात साफ़-साफ़ फरियाइये। बुआ को दिखाई नहीं देता। वे रोटी पानी कैसे करेंगी? छोटे तो बेटे को लेकर दिहाड़ी कमाने चले जाते हैं बुआ आटा पिसाने के लिए इस उस लड़के की चिरौरी करती हैं। एक बाल्टी पानी भरने के लिए घंटों पोती को आवाज़ लगाती हैं।
—बूढ़ी को अपनी रोटी सेंकना पहाड़ है। ख़ुद के लिए तो कच्ची पक्की किसी तरह सेंक भी लें। लेकिन आपके लिए कैसे और कब तक सेकेंगी? अब छोटे दोनों परानी कमा पकाकर खिलावें और इंकार करते हैं तो खेतीबारी का बँटवारा करके रिश्ते नाते से किसी की लड़की ले आइए। उसके ब्याह—गौने का ज़िम्मा ले लीजिए। वह ख़ुशी-ख़ुशी पकाकर दोनों लोगों को खिलाएगी।
लगता है औरतों ने यह सब पहले से सोच रखा था। मामा चुपचाप सुन रहे थे। थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई फिर एक स्त्री स्वर ने कहा—अच्छा यह सब कल के लिए छोड़िए। बुआ तो एक ही टाइम खाती हैं। आप लोगों के लिए खाना तैयार है।। आइए दो-दो रोटी आज मेरी रसोई में ही खा लीजिए।
—बहू ने तो बनाया होगा वहाँ? मैंने कहा।
—बहू ने एक जून मेहमानी में खिला दिया अब उससे उम्मीद मत करिए। वह अपने बेटे-बेटियों को लेकर सो गई होगी।
—मैं तो अब वापस जाकर ही खाऊँगा। मामा को खिलाइए।
मामा ने बताया की वे भी एक ही जून दुपहर में खाते हैं।
उठान हो गया। लौटकर देखा, बहू के घर का दरवाज़ा सचमुच बंद हो गया था। ओसारे में एक ढिबरी जल रही थी। उसकी टिमटिमाती लौ अँधेरे से लड़ रही थी। मामी की चारपाई पर साफ़ कथरी बिछाकर मामा के सोने का इंतज़ाम किया गया था। थोड़ी दूर ज़मीन पर मामी ने अपने सोने के लिए कथरी बिछाई थी। उस पर मामी के साथ पड़ोस की दो औरतें बैठी थीं। उनमें से जो प्रौढ़ा थीं वे पड़ोसी रमेसर की दुलहिन थीं। उन्हें मैं पहचानता था। दूसरी जो युवा थी और घूँघट में थी वह उनकी पतोहू होगी।
मैंने मामा को सहारा देकर चारपाई पर बैठा दिया। ओढ़ने के लिए सिराहने एक कमरी रखी थी, मामी के बिस्तर पर एक सूती चादर रखी थी। शायद मामी के पास यही एक कमरी है जो उन्होंने मामा को ओढ़ने के लिए दे दि है। फागुन की भोर में हल्की ठंड लगेगी।
—लेटिए! मैंने मामा से कहा और सहारा देकर लिटा दिया।
थोड़ी देर बाद मैंने मामा से कहा—मामा, मैं चलना चाहता हूँ। सबेरे ऑफ़िस जाना होगा।
मामा कुछ बोले नहीं। आँख बंद करके लेटे रहे।
मैंने मामी की ओर देखा। रमेसर की दुलहिन बोली—इस कुबेला में क्यों जाएँगे? सबेरे चले जाइएगा।
—नहीं। गाड़ी है, निकल जाऊँगा। मैं उठकर मामी का पैर छूने लगा। मामी कुछ बुदबुदाईं।
मामा ने अपना एक हाथ ऊपर उठाकर बैठाने का इशारा किया और बोले—ऐसा है भैने, यहाँ का हालचाल, राज़ी ख़ुशी मिल गया। अब मैं भी चलूँगा।
—अरे, आप इतनी जल्दी कैसे चले जाएँगे ननदोई? रमेसर की दुलहिन ने आवाज़ में मिठास भरकर ठनगन किया—बिना नेग चार लिए-दिए चले जाएँगे?
—चलो, नेग में तुम्हीं को लेकर चलते हैं। मामा ने भी अपनी आवाज़ में मिठास भरा और चारपाई के नीचे हाथ बढ़ाकर अपनी लाठी खोजने लगे।
—चुप रहिए। हमीं फ़ालतू हैं लबार आदमी के साथ जाने के लिए? जिसको दिया गया था उसको तो सँभाल नहीं पाए, फिर घूँघट वाली स्त्री के कान में कुछ कहा। घूँघट वाली उठकर अँधेरे में कहीं चली गई।
मैनें लाठी उठाकर मामा के हाथ में पकड़ाई। मामा उठे तो मामी और रमेसर की दुलहिन भी उठकर खड़ी हो गईं। मामा ने एक क्षण मामी की ओर देखा फिर बोले—चलत अही! (चल रहे हैं।)
मामी झुकी कमर को लाठी के सहारे टेके खड़ी थीं। उनके ओंठ थरथराए लेकिन आवाज़ नहीं निकली।
आगे-आगे मामा पीछे-पीछे हम तीनों लोग।
जीप के पर्दे पर हम सबकी परछांइयाँ हिल-डुल रही थीं। मामा के बैठने के लिए जीप का गेट खोल ही रहा था कि रमेसर की दुलहिन ने युवती के हाथ से लेकर एक लोटा रंग मामा के सिर और कुर्ते पर डाल दिया फिर हँसते हुए बोली—फागुन में ससुराल आए हैं तो बिना होली खेले कैसे चले जाएँगे?
मामा के मटमैले कुर्ते पर रंगीन धारियाँ बन गईं। सफ़ेद बाल गुलाबी हो गए। मामा के मुख पर ख़ुशी की छाया तैरी और उन्होंने पद में सलहज लगने वाली रमेसर की दुलहिन को एक मीठी गाली देकर कृतार्थ किया।
जीप चल पड़ी। मैनें पीछे मुड़कर देखा—ढिबरी की काँपती रोशनी में तीनों मूर्तियाँ खड़ी हमारी ओर देख रहीं थीं।
सड़क पर आकर सोचने लगा कि मैं मामा को लेकर यहाँ क्यों आया? इस यात्रा से किसको क्या हासिल हुआ? यह मेरी नादानी नहीं तो और क्या है?
नाले के पुल की चढ़ाई पर जीप की गति धीमी हुई और पुल पर आते-आते रूक गई। मैंने ड्राइवर की ओर देखा। वह नीचे उतरकर जीप के पीछे से टिन का डिब्बा निकालते हुए बोला—रेडिएटर लीक कर रहा था। पानी चू गया। मैं नीचे नाले से लेकर आता हूँ।
मैं भी जीप से नीचे उतर आया। मामा ने पूछा—क्या हुआ? मैंने बताया—थोड़ा रूकना पड़ेगा। उन्होंने लघुशंका की इच्छा व्यक्त की। मैंने उन्हें भी नीचे उतार लिया।
पूरब से लगभग तीन चौथाई चाँद निकल आया था। मद्धिम चाँदनी फैली हुई थी। नाले के पश्चिम की झोपड़ियों से मंद-मंद बहती पछुआ पर उड़कर ढोलक की थाप और गाने की आवाज़ आ रही थी। मामा ने निवृत्त होते हुए कान लगाकर सुना और उठकर पास आए तो पूछा—होली पास आ गई क्या भैने? यह तो ‘फगुआ’ की धुन है।
मामा का सिर उस धुन पर धीरे-धीरे डोलने लगा।
—हाँ मामा। चार दिन बाद होलिका जलेगी। फिर बोला—आप भी तो बहुत अच्छा फगुआ गाते थे मामा। एकाध कड़ी सुनाइए।
—अब हम क्या सुनाएँगे भैने? अपनी ही याद नहीं रह गई तो फगुआ क्या याद रहेगा?
—याद कर लीजिए। आज के बाद फिर पता नहीं कब मौक़ा मिले आप से सुनने का?
मैंने सोचा मामा को उनके प्रिय फगुआ की याद दिलाऊँ—गोरी तोहरी नज़रिया मा भाला...
मामा कुछ देर शून्य में देखते रहे। खंखार कर गला साफ़ किया फिर काँपते स्वर में कहा अच्छा एक डेढ़ेताल सुनों...
सब दिन बसंत जग थिर न रहै
आवत पुनि जात चला... रे...
पपिहरा प्या… रे…
(ऐ पपीहे, हमेशा नहीं रहता बसंत। आता है और चला जाता है।)
धन धरती बन बाग़ हबेली।
चंचल नयन नारि अलबेली।।
भवसागर के जल धुलि जइहैं।
तोरे मनवा के रंग दिल वा...रे….
पपिहरा प्या...रे...
गाने के बाद मामा थोड़ी देर चाँद को देखते रहे फिर बोले—छिनरी ने पूरा भिगो दिया। ठंड लग रही है।
ड्राइवर ने आकर इंजन स्टार्ट किया और रेडिएटर में पानी डालते हुए बोला—बैठिए।
- रचनाकार : शिवमूर्ति
- प्रकाशन : तद्भव पत्रिका
- संस्करण : 2011
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